Monday, June 4, 2007

जब हम पहली बार शहर आये

शहर था शहर नहीं था : 5

हम सब अस्‍सी के शुरुआती दशक में अपने गांव से शहर आये थे। वैसे गांव शहर से दूर नहीं है। कलक्‍टेरिएट से पांव-पैदल गांव पहुंचने में घंटा भर भी नहीं लगता है। पहले, बीच में एक बड़ा बरगद था- जिस पर धूपदार दिनों में लोग सुस्‍ताया करते थे। उन दिनों बीच में जंगल होने की वजह से दो दुनिया लगती थी, लेकिन आज तो मकानों की सघन कतार गांव तक खड़ी है। शहर और गांव में फर्क ही नहीं लगता। बाबूजी शहर आये, क्‍योंकि वे बच्‍चों को एक तहज़ीब देना चाहते थे। गांव में ये संभव नहीं था। नवयुवकों का ताड़ीखाने में बैठने का सिलसिला बढ़ गया था। गुंडागर्दी भी बढ़ रही थी। हमारे गांव में आकर बस गये फुफा के एक लड़के को बड़े बरगद के पास कुछ लोगों ने पकड़ लिया और चाकू से चौदह बार गोदा और मरा हुआ समझ कर झाड़ी में फेंक दिया। सुबह जब हल्‍ला हुआ, तो हमें समझ में आया कि कुछ कांड हो गया है। लेकिन अपने फुफेरे भाई को हमने तभी देखा, जब वे अस्‍पताल से लौटे। आंगन-आंगन घूम कर सीना और पीठ दिखाते थे। जहां-जहां चाकू लगा था। बात क्‍या हुई थी दरअसल, ये बताते हुए हकलाने लगते थे- लेकिन बच गये, यह कहते हुए उनके चेहरे पर मायूसी नहीं, बल्कि बहादुरी चमक उठती थी। बाबूजी ने यही सब देख-देख कर शहर का रुख किया।

और भी कारण थे। बहने शहर के एक माध्‍यमिक विद्यालय में पढ़ती थी। रोज़ पैदल जाती थीं। बड़े बरगद से थोड़ा आगे एक छोटी सी कम गहरी नहर पार करके रास्‍ता थोड़ा पड़ता था। जब आंगन में दस‍बजिया फूल खिल उठता था, तो गांव से दर्जनों लड़के लड़कियां स्‍कूल की तरफ भागते थे। बड़े बरगद से आगे नहर पार करके जाते थे। लेकिन बरसात के दिनों में खासी तक़लीफ होती थी। अक्‍सर बहनें मुझे गोद में लेकर स्‍कूल जाती थीं। घर में ये कह कर कि आज मुन्‍ना मेरे साथ रहेगा। स्‍कूल में ज्‍यादातर पढ़ानेवालियां थीं और इस एक काम के अलावा नयी लड़कियों से कढ़ाई-बिनाई सीखने में उनकी दिलचस्‍पी अधिक थी। इसलिए बहनें हमें ले जातीं, तो वे भी हमें पुचकारती थीं। कभी-कभी तो हवामिठाई भी ख़रीद कर देती थीं। ऐसे ही एक दिन बरसात हो रही थी। टिपिर-टिपिर। वो भी रास्‍ते में शुरु हुई, जब बहनें स्‍कूल और गांव के बीच में थीं। मैं बीच वाली बहन की गोद में था। वो मुझे लेकर नहर में उतरी। उसके बायें पैर के नीचे की मिट्टी पांव पड़ते ही भसक गयी। ठेहुना मुड़ गया और गर्दन तक पानी में जा पहुंची। लेकिन मैं हाथ से नहीं छूटा। दूसरे तमाम लड़के-लड़कियां अवाक थे। मेरी बहन रोते हुए मुझे दोनों हाथों से ऊपर उठाये हुए थी। किसी तरह टो-टा कर किनारे तक पहुंची। कीचड़ और पानी में कपड़े लिथड़े हुए थे। घर लौट आये। बहन मेरी लगातार रो रही थी। रात दस बजे बाबूजी गांव लौटे, तब तक। एक वो वजह भी थी, हमारे शहर में आने की।

लेकिन बात ये थी कि बाबूजी संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय की लाइब्रेरी में बैठ कर पुरानी पांडुलिपियों को सफेद काग़ज़ पर नीली स्‍याही से उतारने का काम करते थे। उनकी लिखावट मोतियों जैसी होती थी। कुलपति उसी लिखावट में छापेखाने भेजना चाहते थे और बाबूजी को साठ रुपये महीने की तनख्‍वाह मिल रही थी। कुछ ट्यूशन भी कर लेते थे। फिर भी कुल डेढ़ सौ रुपये से ज्‍यादा की कमाई नहीं हो पाती थी। गांव में बाबूजी के भाइयों और बहनों को मिला कर परिवार बड़ा हो जाता था और ये पैसे कब ख़त्‍म हो जाते थे, पता भी नहीं चलता था। महीने के आखिरी दस दिन जैसे-तैसे कटते थे। इधर-उधर से मांग कर, जिन्‍हें नहीं लौटाते-लौटाते बड़ा कर्ज़ बाबूजी को डराने लगा था। इसीलिए भी हम शहर आ गये थे।

वैसे भी बाबूजी शहर को चाहते थे। आप वहां रहना ज्‍यादा पसंद करते हैं, जहां लोगों की दिलचस्‍पी आपमें हो और आपकी दिलचस्‍पी उन लोगों में। वे ज्‍यादातर अमीर घरों के बच्‍चों को पढ़ाते थे। उन्‍हें विद्वान समझा जाता था। वे विद्वान थे भी, क्‍योंकि जब भी हमने उन्‍हें अपने शहर की सड़कों पर देखा- लोग उन्‍हें प्रणाम करते थे। कोई हेठी नहीं दिखाता था। ज़्यादातर रिज़र्व रहते थे। पर्व-त्‍योहारों में एक अजीब किस्‍म की तटस्‍थता के साथ वे घर में बंद रहते थे। उनके दोस्‍तों का संसार भी बड़ा नहीं था। जो दो-तीन लोग थे, वे बड़े कायदे से बात करने वाले थे। सरकारी नौकरियों में थे और बाबूजी से जब भी मिलने आते थे, शरीफ की तरह पेश आते थे। लगता नहीं था कि वे दोस्‍त हैं। हमारे वक्‍त में तो दोस्‍तों की बातचीत उलाहने और गाली-गलौज से शुरू होती है। यही सब देख कर लगता था कि शहरी आचरण और सभ्‍यता बाबूजी में भरी हुई होने की वजह से वे शहर आये।

बाबूजी रमानंद बाबू को जानते थे। किसी की दुआ का सीधा जवाब न देने वाले रमानंद बाबू को राह चलते जब भी बाबूजी प्रणाम करते थे, वे न केवल मन से उसे स्‍वीकार करते थे, बाबूजी और उनके बच्‍चों यानी कि हमारा हालचाल भी पूछते थे। रमानंद बाबू के व्‍यक्तित्‍व के खिंचाव में पूरी तरह जकड़े हुए बाबूजी अक्‍सर हमें बताते थे- दोनों एक ही स्‍कूल में पढ़े। रमानंद बाबू उनसे तीन कक्षा वरिष्‍ठ थे। गज़ब के मेधावी थे। उनके सामने शिक्षकों की मेधा कहीं नहीं ठहरती थी। उन दिनों की बात और अब रमानंद बाबू का क़द- दोनों में ज्‍यादा फर्क नहीं है। तब भी रमानंद बाबू इज़्ज़त से देखे-सुने, बोले-बताये जाते थे और आज भी।

ये आकर्षण आखिरी तक बना रहा। बाबूजी और रमानंद बाबू, दोनों ही आज नहीं हैं। बाबूजी होते, तो शायद मैं रमानंद बाबू की ज़‍िन्‍दगी के विवरण इतना खुल कर नहीं जुटा पाता। यक़ीनन वे बुरा मान जाते।

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एक थे रमानंद बाबू

शहर था शहर नहीं था : 4

रमानंद बाबू हमारे ही शहर के थे। कड़क मिज़ाज टीचर। विद्वान थे। अंग्रेज़ी ऐसे बोलते थे- जैसे टेलीविज़न और रेडियो पर समाचार वाचक। कुल मिलाकर एक ऐसी शख्‍सीयत, जो आमतौर पर अब नहीं पायी जाती है। उनसे पहले एक झींगुर कुंवर थे, जिनका नाम उनके होने से ज्‍यादा मानी रखता था। अब भी लोग कहते हैं- झींगुर बाबू के वक्‍त में महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह एकेडमी का फाटक दस बज कर तीस मिनट पर बंद हो जाता था। फिर मजाल था कि कोई लड़का या टीचयर स्‍कूल में घुस पाये! ये सख्‍ती उनके आख़‍िरी दिनों तक बनी रही। तब भी, जब वे लकवे का शिकार होकर दो कहारों के सहारे पालकी में स्‍कूल आते थे। तभी पता चला कि वज़न शख्‍सीयत से भले तय होता हो, लेकिन एक वक्‍त के बाद वज़न शख्‍सीयत से कहीं ज़्यादा नाम का हो जाता है।

झींगुर कुंवर नास्तिक आदमी थे, लेकिन रमानंद बाबू तो पूरे आस्तिक थे। पूरे माथे पर चंदन का टीका सोते-जागते पुता रहता था। शहर की सड़कों पर या स्‍कूल के कैंपस में, तेल से चमकते केस, सर के बीच मोटी सी चुटिया में बंधे रहते थे। वे मंत्रपाठ करते थे, मगर पसीजते ज़रा भी नहीं थे। किसी लड़के की कमीज़ का ऊपरी बटन खुला दिख जाता, तो हाथ में हमेशा रहने वाली मोटी बेंत इस तरह बरसानी शुरू करते, जैसे हमारे ही शहर का रामदीन तांगावाला सवारी लेकर चलते हुए अपने घोड़े पर चाबुक चलाता था। बाबूजी अब भी कहते हैं, वैसा मास्‍टर हो, तो लड़के की ज़‍िन्‍दगी सुधर जाती। अब तो हिंदी सिनेमा के असर वाले लड़के ज़्यादा हैं। सिगरेट भी ऐन सामने पीते हैं कि धुआं मुट्ठी में आ जाता है। इधर ही एक तमाकू वाला नन्‍हा हाथ, किशोर के स्‍कूल में किसी मास्‍टर ने पकड़ लिया- फिर तो मास्‍टर के न बाल बचे, न कपड़ा। रमानंद बाबू के ज़माने में लड़का ज़‍िन्‍दगी भर के लिए रोता। ऐसे कई लड़के आज अधेड़ होकर लहेरियासराय कचहरी में काग़ज़ इधर-उधर करते हैं।

किशोर हमारे एक दूर के रिश्‍तेदार का बेटा है। मैडोना कॉन्‍वेंट में पढ़ता है। उसके दादा हमारे फुफा लगते थे। खूब बुढ़ापे में मरे। जब तक जीये, पूरे घर को अनुशासन में बांध कर रखा। किशोर जब सात साल का था, एक दिन उसने घर आये मेहमान को एक पूरे गाने पर डांस करके दिखाया। यह बात मर्यादा के उलट थी। खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ था। नाचना-गाना छोटे आवारा लोगों का काम है। तब तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन जब घर खाली हुआ, फुफाजी ने अपने बेटे यानी किशोर के पिता से कह कर उसे एक घंटे तक उल्‍टा लटकवा दिया।

आज फुफाजी नहीं हैं। किशोर दसवीं में पढ़ता है। चौराहे पर सिगरेट के साथ थम्‍सअप पीता है। मैटनी शो अकेले देखता है। कभी-कभार ऑर्केस्‍टा में डांस करता है।

लेकिन किशोर रमानंद बाबू को नहीं जानता है- झींगुर कुंवर को वो क्‍या जानेगा?

इस तरह हमारे शहर में बहुत सारे लोग रमानंद बाबू को नहीं जानते। शहर, जिसमें हज़ारों लोग बसते हैं, वहां लाखों गुज़र चुके लोगों का कोई इतिहास नहीं होता। मुझे मालूम नहीं, मेरे परदादा का नाम क्‍या था। मेरी ज़‍िन्‍दगी में उनके नाम के लिए कोई जगह नहीं है। बहन की शादी के किसी अनुष्‍ठान में पंजीकार ने मुझसे मेरे परदादा का नाम पूछा था। मैंने बाबूजी से पूछ कर बताया- फिर ऐसे भूल गया- जैसे बचपन की किताबों के कई पाठ।

और इस तरह हमारे शहर में कोई रमानंद बाबू थे भी, तो उनका कोई किस्‍सा लोग सच मान कर सुनें, यह ज़रूरी नहीं है। इस तरह हमारे शहर में कोई रमानंद बाबू थे भी, तो आप ये मत मानिए कि कोई रमानंद बाबू थे ही।

लेकिन थे, और उनमें मेरी दिलचस्‍पी इसलिए भी है, क्‍योंकि आदमी और मास्‍ट की वैसी नस्‍ल मैंने फिर कभी नहीं देखी। इसलिए इस बार शहर गया, तो उनके घर के आसपास दसियों बार मंडराया। पक्‍के का दोमंज़‍िला घर। ऊंची चाहरदीवारी। दोपहर के वक्‍त बरामदे में सूप का चावल ऊपर नीचे उठाती गिरातीं दो-चार औरतें। शाम में सफेद कुर्ता लादे एक भीमकाय आदमी चार-पांच लोगों के साथ देश-समाज की राजनीति बतियाता हुआ। रमानंद बाबू का एकमात्र दामाद, उनकी एकमात्र बेटी का पति।

रमानंद बाबू अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी कहानी भी अब हमारे शहर की दुनिया में नहीं है। शहर, जहां अब भी बिजली पूरे पूरे दिन तक कटती है। लेकिन मेरी अपनी दुनिया में- कहानियों के लिए पूरी जगह होने के चलते- यहां रमानंद बाबू की कहानी में अब भी पूरी दिलचस्‍पी बची हुई है।

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