Tuesday, August 21, 2007

ये दरअसल हमारे मुल्‍क की वीरानी है



जिस वीरानी में कुर्तुल आपा ने पूरी ज़‍िंदगी गुज़ारी, वही वीरानी अस्‍पताल में उनके साथ अब भी मौजूद थी, जब उनकी सांस थम गयी थी। शव उनके वार्ड से निकाल कर उस कमरे में रख दिया गया था, जहां दरअसल शव ही रखे जाते हैं। रिसेप्‍शनिस्‍ट के पास कोई ज़्यादा जानकारी नहीं थी। टीवी वाला कहने पर अस्‍पताल के प्रशासनिक रूम का रास्‍ता ज़रूर बता दिया। वहां से पता चला, सुबह तीन बजे ही इंतक़ाल हुआ। साथ के लोग शव छोड़ कर घर चले गये हैं।

दफ्तर में काम के बोझ से थोड़ा हल्‍का होने के लिए हम स्‍मोकिंग ज़ोन में खड़े थे कि रवीश कुमार ने फोन किया- कुर्तुल एन हैदर नहीं रहीं। हम दौड़ते हुए न्‍यूज़ रूम पहुंचे। ब्रेकिंग न्‍यूज़ की पट्टी टीवी स्‍क्रीन पर चल रही थी। खेल बुलेटिन के बीच में रवीश के हल्‍ला करने पर हमने चार लाइन की इनफॉर्मेशन एंकर के लिए लिखी- उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्तुल एन हैदर का आज सुबह नोएडा के कैलाश अस्‍पताल में निधन हो गया है। उनकी मशहूर किताब आग का दरिया की अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार भी मिल चुका है। आज शाम साढ़े चार बजे उन्‍हें जामिया के क़ब्रिस्‍तान में सुपुर्दे ख़ाक किया जाएगा।

... और वीटी लाइब्रेरी से टेप लेकर सीढ़‍ियों पर लगभग दौड़ते हुए स्‍टोर की तरफ भागे। ओबी वैन पहले ही रवाना हो चुकी थी। जिस अफरातफरी के आलम में ये क़यास लगाते हुए पहुंचे कि अस्‍पताल में भारी भीड़ होगी, वहां वे तमाम लोग मौजूद थे, जिन्‍हें शायद नहीं पता होगा कि यहीं एक इतिहास शव कक्ष में खामोश लेटा हुआ है। जानने वालों को शायद आपा के इंतक़ाल की ख़बर नहीं थी या हम इस समझ से भागना चाहते थे कि हमारे मुल्‍क में कुर्तुल जैसी शख्‍सीयत के नहीं रहने के कोई मायने नहीं हैं।

हम भी कहां जानते हैं कुर्तुल एन हैदर को! दफ्तर से अस्‍पताल तक, जितनी देर गाड़ी ने वक्‍त तय किया, इधर उधर फोन मारते रहे। लगभग आधा दर्जन दोस्‍तों से कुर्तुल के नहीं होने का मतलब टटोलते रहे।
(मुंबई में प्रमोद सिंह ने कहा था- आग का दरिया कहीं से लहा लो। लहा नहीं पाये। नये नये एनडीटीवी में आये तो एक दिन विनोद दुआ के हाथ में दिख गया। हमने कहा- दे दीजिए, पढ़कर लौटा देंगे। उन्‍होंने कहा- किस पब्लिकेशन का चाहिए? ये एक टीवी पत्रकार का सवाल था। हम लाजवाब थे। उन्‍होंने समझाया कि दो पब्लिकेशन से ये किताब शाया हुई है। किताबघर वाला अनुवाद ज़्यादा अच्‍छा है, लेकिन वे उन दिनों उसे पढ़ रहे थे। पढ़कर देने का वादा अब भी वादा ही है, जिसे शायद वे भूल चुके होंगे।)
अस्‍पताल से ही घर का पता मिला। सेक्‍टर 21 ई 55, हम वहां गये। वहां भी अस्‍पताल जैसी वीरानी ही तैर रही थी। बाहर कुछ किताबें रखी थीं, जिसके पन्ने टीवी के कुछ कैमरामैन पलट रहे थे। अंदर आम-फहम से दिखने वाले तीन-चार पड़ोसी जैसे लोग हाथों में उर्दू की पतली सी कोई पाक किताब लेकर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदा रहे थे। अगरबत्ती की गंध घर से बाहर बरामदे में आकर पसर चुकी थी।

आपा की किताबों से कुछ बेहद ही ख़ूबसूरत तस्‍वीरें हमारे कैमरामैन ने उतारी। उन दिनों की तस्‍वीरें, जब कुर्तुल जवान थीं और जब अपनी जवानी को उन्‍होंने वीरानी का हमक़दम बनाने का फ़ैसला लिया होगा। प्रमोद सही कहते हैं कि जबकि एक हिंदुस्‍तानी औरत के लिए इस तरह का जीवन मुश्किल है- अपने वक़्त में अविवाहित, अकेली रहीं। उनकी तीस बरस पुरानी दोस्‍त शुग़रा मेहदी, जो हमें वहीं मिल गयी, कैमरे के सामने की गुफ्तगू में हमें बताया कि वे इस मस'ले पर कुछ भी पूछो ख़फ़ा हो जाती थीं। कहती थीं, पूरी दुनिया संग-साथ शादी-ब्‍याह में रची-बसी है, एक मैं ही अकेली हूं तो क़हर क्‍यों बरपा होता है।

अकेले रहना दरअसल अपने साथ होना होता है। अपने साथ होकर आप तबीयत से दुनिया के रहस्‍य सुलझा सकते हैं। उन्‍होंने सुलझाया। आग का दरिया का नीलांबर रामायण-महाभारत के वक्‍त से लेकर आधुनिक वक्‍त तक से संवाद करता है। महफिलों वाला आदमी तो कायदे से अपने वक्‍त से भी संवाद नहीं कर पाता।

ख़ैर दोपहर बाद से लोगबाग आने शुरू हुए। डेड बॉडी भी आयी। टेलीविज़न की ढेरों गाड़‍ियों से निकल कर पत्रकार ई 55 के आगे चहलक़दमी करने लगे। लेकिन तब तक कुर्तुल के नहीं होने की ख़बर का कोई मतलब नहीं रह गया था। देश में दूसरे बड़े डेवलपमेंट टेलीविज़न से पूरा-पूरा वक्‍त की मांग कर रहे थे।

नाइट शिफ्ट के बाद की जगी दुपहरी में आंख का गर्दा परेशान करने लगा। सुपुर्दे-खाक से पहले हमने घर का रुख कर लिया।

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Sunday, August 12, 2007

हंसी के ख़‍िलाफ एक गद्य

वे प्रणय के क्षण हों चाहे न हों, गर्दन पर होंठ जाते ही उनकी हंसी फूट पड़ती है। आप एहसास की पतली चादर को उनकी गर्दन पर लपेटना चाहेंगे और हंस हंस कर वो उसके धागे उधेड़ देगी। खामोश पानी में कंकड़ पड़ने से वृत्त जिस तरह छोटे से बड़ा होता जाता है, ये हंसी भी पहले गुनगुनाहट में और आख़‍िरकार ख‍िलखिला खिलखिला कर निकल पड़ती है। ऐसी हंसी जो प्रणय के आपके काम को अधूरा कर देती है।

हंसी कई बार आपकी पटरी पर चल रही ज़‍िंदगी से क़दमताल करके आपको पीछे छोड़ देती है और मुड़-मुड़ कर देखते हुए आपका मज़ाक़ उड़ाती है। बरसों पहले लंबे समय तक रांची मेडिकल अस्‍पताल में भर्ती रहने के बाद हमारे नानाजी का इंतकाल हो गया। सुबह-सुबह डॉक्‍टरों ने इत्तला की थी। अस्‍पताल में सबने अपने को ज़ब्‍त करके रखा हुआ था, क्‍योंकि सबको मालूम था कि नाना जी नहीं बचेंगे। मैंने अपनी मां के अलावा उस मौक़े पर रोते हुए किसी को नहीं देखा था।

उस वक्‍त हम नवीं कक्षा में थे। अस्‍पताल से घर लौट रहे थे। पैदल ही। महज़ डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी, घर और अस्‍पताल के बीच। या शायद उतनी भी नहीं होगी। हमें तो उन दिनों चलना आता था और खूब चल कर हम खुश होते थे। घर में मामाओं की ग़ैररचनात्‍मक निगहबानियों के बीच घर से बाहर किसी भी डगर पर चलना हमें अच्‍छा लगता था।

घर के पास पहुंचे, तो पड़ोस में रहने वाले एक बुज़ुर्ग शख्‍स ने नाना जी का हाल पूछा। मेरा पूरा चेहरा हंसने लगा और पूरी तरह उस हंसी को दबाने की कोशिश करते हुए बताया- नानाजी गुज़र गये। मैं दुखी था, लेकिन मैं हंस रहा था। क्‍यों हंस रहा था, नहीं मालूम। लेकिन जैसे ही उन पड़ोसी का घर गुज़रा, मैं खुद से ही शर्मसार हो गया।

वो वाक़या अब भी याद आता है, तो शर्म की एक हिलोर से मन दुखी हो जाता है।

दरभंगा में उन दिनों सुबह से शाम-रात तक घर से ग़ायब रहने के दिन थे। शामें अक्‍सर नाटकों के रिहर्सल में बीतती। इप्‍टा के लिए जगदीश चंद्र माथुर के एक नाटक कोणार्क का रिहर्सल हमने बहुत दिनों तक किया। उसका मंचन कभी हो नहीं पाया। और उसकी वजह सिर्फ मैं था। आधे नाटक के बीच नाटक के दो अहम पात्रों का सघन संवाद चलता है। विशु और किशोर कारीगर। विशु शहर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनकी हार्डवेयर की दुकान थी और किशोर कारीगर मैं बना था। संवाद के लंबे-तीखे सिलसिले में एक वक्‍त ऐसा आता है, जब दोनों की आंखें मिलती है। और जैसे ही विशु अपनी गहरी नज़रें किशोर कारीगर की मासूम आंखों में गड़ाता, मेरी हंसी निकल जाती।

फिर भी मुझे महीनों तक मौक़ा दिया गया। और महीनों उस एक सीन के रिहर्सल के दौरान मैं हंस पड़ता था। एक वक्‍त तो ऐसा भी आया कि वो सीन आने से पहले निर्देशक ब्रेक करके बोलते कि अबकी हंसा तो थप्‍पड़ लगेगा। लेकिन तब क्‍या होता कि इधर विशु और कारीगर की आंखें मिली, उधर निर्देशक खुद भी हंसने लगते। विशु भी हंसते। वे सब हंसते, जो रिहर्सल देखते। एक संजीदा दृश्‍य का हश्र हास्‍यास्‍पद हो गया था। आख़‍िरकार वो नाटक हमने कभी नहीं किया। और, ये बात अब तक समझ में नहीं आती है कि उस हंसी के स्रोत क्‍या थे।

कभी कभी रास्‍ते चलते हंसने की इच्‍छा होती है और हम हंसते हैं और इधर-उधर देखते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा है। उस साल पटना के हमारे पांच दोस्‍तों का एनएसडी में दाखिला हुआ था। संयोग से मैं दिल्‍ली में था और अक्‍सर शाम को मंडी हाउस चला जाता था। एक दिन अंधेरा उतरने पर जब मैं लौट रहा था, तो दूर से देखा कि क्रांति आ रही हैं। अपने आप से कुछ बातें करते, निकल पड़ने को बेताब हंसी को दबाने की कोशिश करते। उस वक्‍त वो आलोकधन्‍वा की बीवी थीं और क़ानूनी तौर पर तो आज भी हैं। अब उनका नाम असीमा भट्ट है। तो जैसे ही एनएसडी के दरवाज़े पर हमारी आंखें मिलीं, वो असहज हो गयीं। संक्षेप में हाल-चाल लेने के बाद वो ऐसे भागी कि बाद की कई मुलाक़ातों में असहज होती रहीं।

हंसना आपके हिस्‍से का हक़ है। आप अकेले भी हंसते हैं और सबके साथ भी। हितैषी कहते हैं, हंसो हंसो खूब हंसो। स्‍वस्‍थ प्रसन्‍न रहोगे। कवि कहते हैं, हंसना एक निश्‍छल हंसी, ताकि मानवता निस्‍संकोच राज कर सके। मैं दुविधा में हूं। मैं जब भी हंसता हूं या हंसते हुए किसी को देख लेता हूं- मुझे शर्मसार होना पड़ता है।

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Saturday, August 11, 2007

हम क्‍या लिखे जा रहे हैं...

प्रमोद सिंह की लिखावट में एक खास की किस्‍म की सजावट और तरावट नज़र आती है। वे रोज़ लिखते हैं और खूब लिखते हैं। रोज़ लिखते हुए लगातार अच्‍छा लिखना एक मुश्किल काम है। आपके पास विषयों की इतनी बहुतायतता के स्रोत कहां होते हैं? वही आस-पड़ोस, छुट्टियों में दो-चार मित्रों के घर की दौड़, टीवी-सिनेमा-अख़बार के अलावा अगर आपके अतीत का सफ़र गहन पेचीदगियों से भरा हो, तो संभव है आपके पास कहने को इतनी बातें हों कि लगे इस जनम में संभव नहीं। लेकिन लिखने की मेज़ पर पूरी तरतीब से लगातार लिखना आपको वैसा ही अभिव्‍यक्‍त करे, जैसे आप हैं- ये ज़रूरी नहीं।

कई बार प्रमोद जी के लिखे हुए का तात्‍पर्य समझ में नहीं आता। वो भाषा की कारीगरी ज़्यादा नज़र आता है। चित्रकला, सिनेमा और कुश्‍ती में कारीगरी जितना काम आती है, लेखन में कुछ ऐसी बूंदा-बांदी करती है, जो सड़क और पार्क के बीचोबीच मौजूद सतरंगी फुहारें भले लगे, बारिश की शीतलता वहां नहीं होती। लेकिन प्रमोद फिर भी उसे भाषा का रियाज़ कहते हुए लिखते चलते हैं और सिर्फ ब्‍लॉगिंग के उनके सात म‍हीनों का हिसाब करें तो अपनी संपूर्ण रचनावली का पहला हिस्‍सा तो उन्‍होंने तैयार कर ही लिया है।

गयी सदी के दार्शनिक-लेखक ज्‍यां पाल सार्त्र के लिखने की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही थी। उनके शहर के रेस्‍त्रां और बार में, जहां वे लगभग रोज़ जाते थे, उनके लिए एक कोना हमेशा रिज़र्व होता था, जिस पर बैठ कर वे लिखा करते थे। रोज़ कुछ हज़ार शब्‍दों का लिखा जाना वे एक लेखक के लिए ज़रूरी मानते थे। उनके समकालीन भी उनके लिखे के एक बड़े हिस्‍से को बोझिल और अबूझ मानते थे।

इसलिए कई बार तात्‍पर्य समझ में नहीं आने के बावजूद किसी लेखन का एक तात्‍पर्य होता है। भाषा के रियाज़ के तर्क से अलग ठोस और कन्विंसिंग तर्क। इसलिए ले‍खक की आज़ादी है कि वह अपने हिसाब से हज़ारों पन्‍ने काला करे, लेकिन कालातीत संदर्भों में जितने पन्‍ने नागरिक अपनी आलमारी में रखना चाहेंगे, वही लेखक की पूरी रचनात्‍मक सक्रियता का सार होगा।

किसी भी भाषा की समूची विरासत से पठनीयता का प्रतिशत निकालें, तो अपठनीय और अपठित पन्‍ने उन पर भारी पड़ेंगे। इसका साफ मतलब है कि सार्वजनिक साहित्‍य से अधिक तादाद अभ्‍यास के लेखन की होती है- और ये तादाद जितनी अधिक होती है, सार्वजनिक चिंता-अभिव्‍यक्ति-लेखन-साहित्‍य उतना ही तीखा-पैना-अर्थपूर्ण होता है।

अभय‍ तिवारी प्रमोद सिंह के इलाहाबादी मित्र हैं, और प्रमोद सिंह कहते हैं कि अभय अपने जीवन और लेखन में निश्‍छल है, ईमानदार हैं। अभय जी के लिखे हुए पर प्रमोद जी के निष्‍कर्ष से मुझे और कई सारे लोगों को असहमति हो सकती है, लेकिन ये सच है कि अभय कभी-कभी लिखते हैं, कई बार लगातार लिखते हैं, और कई बार लंबी सांसें, लंबा वक्‍त लेते हैं। लेकिन उनके लेखन में कोई सजावट नज़र नहीं आती है। वे अपनी बात तल्‍खी से कहते हैं, जो उन्‍हें कहना होता है- सीधे सीधे बेलाग। इसलिए उनका फुल स्‍टॉप कॉमा कहां पड़ रहा है, इससे उन्‍हें मतलब नहीं है। शब्‍दों की एकरूपता से भी उन्‍हें कोई लेना देना नहीं है। मतलब है तो बस जब जो बात कहनी है, वह कहा जाए। चाहे तैश में, चाहे अतिशय विनम्रता में, चाहे व्‍य‍ंग्‍य की टेढ़ी-तिरछी अदा में।

मैं बहुत लिखना और बहुत कुछ लिखना चाहते हुए भी लिखने से दूर भागता रहता हूं। शायद इसलिए क्‍योंकि मैं जैसा लिखना चाहता हूं, वैसा मुझे लिखना आता नहीं और जब लिखना चाहता हूं, तब दस बहाने करके ज़‍िंदगी के झमेले मेज़ पर बैठने ही नहीं देते। अब यही मान लिया है कि शायद कभी लिख नहीं पाऊंगा क्‍योंकि अब तक का अपना लिखा मुझे नैसर्गिक कम और बनावटी ज़्यादा लगता है। हमारे सहकर्मी और लेखक प्रियदर्शन कहते हैं कि आप जैसा स्‍वाभाविक रूप से लिख सकते हैं, वैसा ही लिखते हैं और इरादा करके आप मुक्तिबोध की तरह या किसी और लेखक की तरह नहीं लिख सकते। यानी आपके भीतर बेचैनियों का अनंत रूप-रंग होगा, लेकिन वो आपकी शख्‍सीयत के हिसाब से ही बाहर आएगा।

मेरी सनक ये समझने में है कि हम सब जैसा लिख रहे हैं, क्‍या वो हमारी स्‍वाभाविकता का हिस्‍सा है, या हम अपने को ज़बर्दस्‍ती उंड़ेल रहे हैं? ये भी कि क्‍या हम सब वही लिख रहे हैं, जो हमें लिखना चाहिए, या वक्‍त की मांग और पूर्ति के हिसाब-किताब में हमने अपने लेखन की स्‍वाभाविकता को विराम दिया हुआ है? अगर ये दोनों बातें नहीं हैं, तो कतिपय वाह-वाहियों के अलावा हमारे लिखे से कोई स्‍तब्‍ध क्‍यों नहीं है? किसी का जीना हराम क्‍यों नहीं हुआ है? कोई सवालों के थप्‍पड़ लेकर क्‍यों नहीं आता कि आप चैन से जीने देंगे या नहीं? मुल्‍क मरता है तो मर जाने दीजिए, हमें महीने की पगार तो मिल जाती है?

इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में हमारी मदद कीजिए।

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