Monday, September 8, 2008

तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?

अभी दिल्‍ली में हैं। बोरिया-बिस्‍तर समेटने में लगे हैं। पिछले 12 सालों में पटना के अलावा दिल्‍ली दूसरा ठौर रहा, जहां लगातार तीन साल कट गये। सामान सहेजते हुए मुक्‍ता कई सारे काग़ज़ हाथ में थमाती रहती है। पुराने काग़ज़ों का पुलिंदा आपकी कई यात्राओं तक साथ रहता है - जब त‍क उन काग़ज़ों का मर्म आपका पीछा करता रहता है। हर बार सामान समेटते हुए आप ऐसे काग़ज़ों में से खुद चुनते हैं कि अगले मोड़ तक इनमें कौन अब साथ रहेगा, और कौन-से काग़ज़ अब टुकड़ों में बदल देना है। किन यादों की अब आपको ज़रूरत नहीं। इन्‍हीं में से मज़्कूर आलम की एक कविता मिली। मज़्कूर मेरे साथ देवघर में काम करते थे। प्रभात ख़बर का देवघर संस्‍करण पत्रकारिता का उनका शुरुआती सफ़र रहा। इसके बाद वे नवबिहार, हिंदुस्‍तान दैनिक, आईनेक्‍स्‍ट से जुड़ते रहे और अलग होते रहे। फिलहाल लंबे समय से द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्‍करण में हैं। उनकी ये कविता मैं भोपाल नहीं ले जा रहा। सादा काग़ज़ पर पूरी कविता टाइप्‍ड है - श्रीलिपि फॉन्‍ट में। हाथ से ऊपर लिखा है, बड़े भाई अविनाश को। काग़ज़ के पीछे भी हाथ की लिखाई है, माफ करेंगे, तुमसे अपनापन का बोध होता है न, लेकिन कह नहीं सकता; इसलिए लिख रहा हूं। कविता का शीर्षक है - कामरेड! तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़...

पुते हुए चेहरों में
बिस्‍तर की सलवटों को
कैमरा से खींचते या दिखाते,
गर्मागर्म ख़बरों को परोसते
व्‍यूवर्स बटोरते
मेरा भारत महान, वंदे मातरम् का नारा लगाते
तुम भी तो डायना की जान के ग्राहक तो नहीं बन जाओगे?
तुम्‍हारी रातें गर्म और उमस भरी तो नहीं हो जाएंगी
जो करवटों में बीतेंगी?
गेट्स व अंबानी की मटकती चालों पर
फिदा तो नहीं हो जाओगे?
सभ्‍यता व संस्‍कृति की संचार क्रांति पर सवार तो नहीं हो जाओगे?
भूख, अकाल और विस्‍थापितों पर
क्‍या तब भी पैन होती रहेंगी तुम्‍हारी निगाहें?
बाढ़ के शब्‍दचित्रों को ढाल सकोगे रूपक में?
कहीं तुम भी बाज़ीगर तो नहीं बन जाओगे
आंखों के इशारे से सत्ता पलटने वाले मर्डोक की तरह?
कहीं ऐसा न हो
व्‍यवस्‍था परिवर्तन को लात मारकर भेज दो परिधि पर
और छोड़ दो उसे अंतरिक्ष में ज़मीन का चक्‍कर लगाने के लिए
कि वह ख़्वाब ज़‍िंदा भी रहे
और उस पर गुरुत्‍वाकर्षण बल भी न लगे
पर सुविधा परिवर्तन होता रहे,
बाज़ार के खनकते व खनखनाते कोलाहल में
जहां बिकने को बहुत कुछ है
और बहुत भारी है ख़रीदारों की जेब
वहां बिकने वाली ख़बरों के बीच
बचा सकोगे अपने आप को?

कामरेड
तुम सुन रहे हो न मेरी आवाज़?
तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?
ये कविता मज़्कूर ने जब बस्‍ते में रखी होगी, तब मुझे शायद पता नहीं होगा। वो भावुक लड़का है और मैं उसका लिखा नहीं पढ़ता। खास कर व्‍यक्तिगत रूप से लिखी उसकी पातियां। क्‍योंकि संवेदना के किसी पचड़े में पड़ कर मैं खुद को दुखी नहीं करना चाहता। अब सुखी रहना चाहता हूं। लेकिन सफ़र की तैयारी में मिलने वाले पुराने काग़ज़ पुराना दुख दोहरा देते हैं। मज़्कूर ये कविता मैंने आज पहली बार पढ़ी।

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