हम किसी भी इलाक़ाई भाषा से किस तरह के साहित्य की अपेक्षा रखते हैं? इलाक़े की संवेदना, सामाजिक वैविध्य और देश की मुख्यधारा में इलाक़े का योगदान। क्या मैथिली कविता इन कसौटियों पर उतरती है? अगर मैं एक प्रवासी मैथिल हूं, तो क्या मुझे मेरे इलाक़े की कविता अपनी मिट्टी के महत्व से साक्षात्कार कराती है? मिथिला, जो बदल रहा है, गांवों में जिस तरह जीवन मूल्य बदल रहे हैं, उसकी आहट कविता दे रही है या फिर पुराने मुहावरों के खोल में घुसी हुई कविता सिर्फ स्मृतियों की चित्रकारी बनी हुई है? प्रकाशनों की कठिन डगर और साहित्य संपर्क की संकरी गलियों में टहलने के चलते मिथिला का काव्य संस्कार पूरी तरह हमारे सामने नहीं है, इसलिए मैं मैथिली कविता पर बोलने, बात करने के लिए सही अथॉरिटी नहीं हूं। लेकिन छोटे भूगोल वाली भाषाओं की सीमा और सहूलियत ये होती है कि इसमें हम बिना विशेषज्ञता के भी अपने अनुभव शेयर करते हैं। इसी सहूलियत का लाभ उठाते हुए मैथिली कविता पर थोड़ी बात करने का साहस कर रहा हूं।Read More
मेरे सामने नारायणजी की एक कविता है। मंदिर। कविता में मंदिर एक प्रतीक है, जिसकी धुरी पर बदले हुए गांव की कथा कही जा रही है। ताश खेलना हो तो मंदिर पर चलो, जुआ-चिलम करना है तो मंदिर पर चलो। पुराने सामाजिक मूल्य के हिसाब से जो अनैतिक है, उसका अड्डा पुराने समाज की सबसे पवित्र जगह बन रहा है। अंत में एक सवाल है कि ऐसा ही मंदिर अयोध्या में बनाने की भी कोशिश हो रही है। छोटी-सी कविता में नये मिथिला में बनते हुए सामाजिक मुहावरे भी हैं और एक ताक़तवर राजनीतिक टिप्पणी भी। ये कविता नयी सदी के पांचवें या छठे साल में लिखी गयी और अंतिका के अप्रैल 05 - मार्च 06 कें संयुक्तांक में छपी।
अब पचास साल पहले यात्री नागार्जुन की कविता देखिए। उमा भाइ छोड़लनि फुफकार। इस कविता में यात्री जी एक ऐसे अहम्मन्य आदमी की कथा कहते हैं, जो अपने विपक्षी का गला रेतने वाले को हज़ार रुपये इनाम देगा। इनाम ही नहीं हत्या के मुक़दमे की पैरवी के लिए दो हज़ार और देगा। वो आदमी बताता है कि उसका बेटा रेल में अफसर है और बेटी का ससुर रावण का अवतार है। इस पूरी घटना का गवाह बनने के लिए वो पूरे समाज को आमंत्रित भी करेगा। यानी समाज में उमा भाई जैसे लोगों के लिए जगह है और सम्मान भी। यात्री नागार्जुन की ये कविता मिथिला दर्शन के मई 1954 के अंक में छपी।
इन दोनों संदर्भ कविताओं के समय में पचास साल का फर्क है और ये दोनों ही कविताएं अपने समाज पर तीखा व्यंग्य है। जाति और गोत्र की पवित्रता-श्रेष्ठता गाने वाली काव्य-पीढ़ियों के बीच मैथिली कविता की ये धारा अभी भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है - क्योंकि आलोचना की समग्रता में इस धारा का मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है।
मैथिली कविता में सौंदर्य के कुछ ख़ास ज़मीनी बिंब मिलते हैं, जो मुग्ध करते हैं। ये बिंब अभिजात संस्कार का अतिक्रमण करते हैं, मैथिली कविता को नया रास्ता दिखाते हैं। एक बानगी कुलानंद मिश्र की यही कविता है - ओ धान रोपैत हाथ सं सीउथ परक खढ़ कें हटौने रहय। थोड़े गिल्ल माटि ओकरा कपार पर टिकुलि जकां सटि गेल रहै। हम सोचने रही। एहने रमनगर मुद्रा मे हमरो आंगनवालीक फोटो बेजाय तं नहिये लगतनि। (धान रोपते हुए उसने अपनी मांग से एक खर (-पतवार) हटाया। थोड़ी गीली मिट्टी उसके माथे पर टिकुली की तरह चिपक गयी। हम सोचने लगे। ऐसे ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में मेरी बीवी की तस्वीर भी बुरी नहीं लगेगी।)
ये कविताएं ऐसी हैं, जिसका रुप-बिंब, जिसके मुहावरे दूसरे भूगोल वाले पाठकों को भी समझने में आसानी होगी। लेकिन असल लोकभाषा का सबसे मौलिक रचाव भी मैथिली कविता में इस वक्त सक्रिय है, जिसको समझने के लिए मैथिल होना ज़रूरी है। हरेकृष्ण झा ऐसे ही प्रगतिशील मैथिली कवि हैं, जिनकी काव्य भाषा अनुवाद के लिहाज़ से सर्वाधिक जटिल है। लाल धामा, रसनचौकी, रागभास, कलमबाग, अकादारुन आदि-आदि जैसे शब्द अब मैथिली कविता के बाड़ से बाहर हो रहे हैं। लेकिन हरेकृष्ण झा ऐसे हज़ार-हज़ार शब्दों के माध्यम से नये मिथिला का कथा-काव्य रच रहे हैं। हरेकृष्ण झा लंबे समय तक जनांदोलनों में सक्रिय रहे हैं। ऐसी पृष्ठभूमि से आये लेखकों के बारे में आमतौर पर ये समझ होती है कि वे पुराने लोकमुहावरों और शब्दों से इसलिए परहेज करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भाषाई अभिव्यक्ति के ये औजार सामंती बुनावट वाले हैं। मैथिली की बहुत सारी प्रगतिशील कविताओं में इस्तेमाल की गयी भाषाओं से भी ये धारणा बनी, जिसमें ऐसे नारे-मुहावरे आये, जो सामाजिक ताने-बाने में फिट नहीं बैठते थे। लेकिन हरेकृष्ण झा का शब्द संसार मिथिला की मिट्टी और हरित वन क्षेत्रों की कहानियों से भरा हुआ है, जिसमें आधुनिक जीवन मूल्य की क्रांतिकारी अनुगूंजें लोकगीत की तरह मौजूद हैं। पिछले चार दशक से हरेकृष्ण कविताएं लिख रहे हैं और अब जाकर उनका एक संकलन छप सका है।
ठीक उसी तरह विद्यानंद झा की कविताएं भी स्मृतियों के ऐसे आख्यान में हमें ले जाती हैं, जहां से मिथिला की रीति-नीति को समझने में आसानी होती है। उनकी कविताएं दार्शनिक अंदाज़ में एक मैथिल प्रवासी की दैनंदिन अनुभूतियों की ऐतिहासिक व्याख्या करती है। उनकी एक शृंखलाबद्ध कविता है, मृत्यु से पहले। कविता कहती है कि सामाजिक रूप से दिखती हुई निष्ठा दरअसल कितनी विसंगतियों का लेखा-जोखा होती है। कविता कहती है कि मरने से पहले आदमी की मानवीय कुंठाएं कैसे सहज रूप से प्रदर्शित होने लगती हैं। आखिरी वक्त के दारूण विवरण भी कविता को ख़ास बनाते हैं। जैसे एक बहुत ही सामान्य-सी दिखने वाली पंक्ति है, जो पूरी कविता में एक लय की तरह बंधी हुई है, आप देखें - उठैत सुरुजक संग / उठैत अछि बुरहीक राग / शांत होइत अछि / सांझ भेला पर / थाकि गेला पर। (उठते हुए सूरज के संग / उठता है बूढ़ी का राग / शांत होता है शाम होने पर / थक जाने पर) विद्यानंद झा के पास ऐसी कविताओं की लंबी फेहरिस्त है।
ये तमाम कवि अस्सी और दो हजार के बीच सक्रिय रहे हैं। लेकिन जो नवान्न हैं और नब्बे के बाद जिन्होंने अपने अस्तित्व से संघर्ष करती हुई मैथिली को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना, उनकी कविताएं भी मैथिली को एक नया विस्तार देती हैं। इनमें से ज्यादातर कवि शहरी संवेदनाओं के साथ बड़े हुए, लेकिन जड़ों की तलाश की छटपटाहट इन्हें बार-बार ग्रामीण संवेदनाओं के सामने बौना सिद्ध करती रही। ये समस्याएं उन महिला रचनाकारों के लिए ज्यादा रही, जिनके लिए सामाजिक जकड़बंदी के चलते इन दोनों संवेदनाओं का ख़ास मतलब नहीं है। गांवों में उनके हिस्से पर्दा और दीवार है और शहर की आधुनिकता का दरवाज़ा भी उनके लिए ज़्यादा नहीं खुला है। मुक्ता की एक कविता प्रैक्टिकल इस बेचैनी को शब्द देती है - मेडिकल तैयारी लेल / बहरेबाक हमर रस्ता भेल बन्न / पिता कहलनि, नहि अछि बुत्ता / मर्यादा आ कुल-प्रतिष्ठा लग नत प्रतिभा / गामक माटि-पानि मे चासनी बनि घुलि रहल अछि / आ हम भविष्य तकैत क' रहल छी होम साइंसक प्रैक्टिकल... (मेडिकल की तैयारी लेल / बाहर जाने का रास्ता हुआ बंद / पिता ने कहा, नहीं है औकात / मर्यादा और कुल प्रतिष्ठा के आगे नत प्रतिभा / गांव की मिट्टी-पानी में चाशनी बन घुल रही है / और हम भविष्य को देखते हुए कर रहे हैं होम साइंस का प्रैक्टिकल)
अब ऐसे कवि ज्यादा हैं, जो मिथिला में नहीं रहते। रोजी-रोटी और दूसरी कई वजहों से वे परदेस में रहते हैं। मैथिली में लिखना उनके लिए परायों की भीड़ में मौलिक होने की छटपटाहट भी होती है, इसलिए वे लिखते हैं। उनमें हम एक भाषा का अपना प्रवाह न भी देखें, तो संवेदना और स्मृतियों का प्रवाह ज़रूर मिलेगा। कृष्णमोहन झा, सारंग कुमार, संजय कुंदन, कुमार मनीष अरविंद, धीरेंद्र प्रेमर्षि, रमण कुमार सिंह, नूतन चंद्र, कामिनी, विनय भूषण, अजित कुमार आजाद, पंकज पराशर अपनी भाषा में सक्रिय ऐसे ही प्रवासी कवि हैं। प्रगतिशील काव्यधारा में पलास के वन और नागफनी जैसे गैरमैथिल शब्द-बिंबों के प्रयोग वाली अनेकानेक कविताओं को छोड़ दें, तो ज़्यादातर कविताएं मिथिला को समझ रही हैं और अभिव्यक्त कर रही हैं।
लेकिन जिस एक कवि से मैं सबसे ज्यादा प्रभावित रहा हूं, वे हैं तारानंद वियोगी। वे दलित परिवार से आते हैं और उनकी कविता उन्नत सामाजिक चेतना से भरी-भरी होती है। अंतिका में ही उनकी कविता बाभनक गांव छपी, जो मिथिला के सामाजिक सत्ता-संघर्ष का इतिहास-वर्तमान इस तरह बताती है, जैसे कोई आदमी चीख़ रहा है, रो रहा है और सबसे दारुण दुख को अपनी अंतरात्मा से गा रहा है।
मैथिली कविता ऐसी ही असंख्य लय की तलाश में भारतीय भाषा साहित्य में एक ख़ास जगह बना रही है।
Friday, January 11, 2008
अपनी भाषा की कविता के बारे में
Posted by Avinash Das at 9:02 AM 3 comments
Labels: विचार ही जगह है
Thursday, January 3, 2008
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी!
नौजवानी में एक अजीब सी गुन-धुन होती है। आप आवारा हैं और मां-बाप का आप पर बस नहीं, तो आप या तो कुछ नहीं बनना चाहते या सब कुछ बन जाना चाहते हैं। जैसे एक वक्त था, जब मुझे लगता था कि मैं भारतीय सिनेमा का एक ज़रूरी हिस्सा बनूं। ठीक-ठीक ऐसा ही ख़याल नहीं होगा। ख़याल ये होगा कि या तो बड़ा अभिनेता बनूं या बड़ा निर्देशक। मुकेश की मोटी जिल्दवाली किताबें देख कर नाक से गाने वाले दिनों में ये भी ख़याल रहा होगा कि गायक ही बन जाऊं। जो चीज़ें हमें बांधती थीं, वो सब हम होना चाहते हैं।Read More
भारतीय समाज की फूटती हुई कोंपलों के ये ख़याल बताते हैं कि सिनेमा का उस पर कितना गहरा असर है। ये असर रंगों-रोशनियों का है, जो आमतौर पर हमारे समाज से अब भी ग़ायब हैं। गांवों में अगर बिजली गयी है, तो अब भी बहुत कम रहती है। देश के बड़े शहरों के अलावा जो बचे हुए शहर और कस्बे हैं, वहां तो पूरे-पूरे दिन और पूरी-पूरी रात बिजली होती ही नहीं।
वो दिन थे, जब चंदा जुटाया जाता था। हर घर से पांच-पांच रुपये की रक़म बंधती थी। साठ रुपये हो जाते थे, तो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और तीन सिनेमा के कैसेट आते थे। सत्तर रुपये में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी रंगीन हो जाती थी। बैटरी ज़रूरी था। फिर जगमगाते बलखाते सीन के बीच बिना पलक झपके रतजगा होता था। ये रतजगा हममें से कइयों के बचपन का हिस्सा रहा होगा और अब हमारी स्मृतियों की सबसे बारीक, मुलायम परत पर वो रतजगा मौजूद है।
बचपन की फिल्मों के नाम नहीं होते। वे सिर्फ जादू होते हैं। हर नया सिनेमा तब एक वाक़या होता था। उन वाक़यों से हमारी मुठभेड़ हमें पैसे चुराने का साहस देती थी। हम पैसे चुरा कर फिल्में देखते थे और मार खाते थे और फिर फिल्में देखते थे। सिनेमा देखने जैसे नैतिक असमंजस ने कभी हमारे मनोबल को नहीं गिराया। इसके बावजूद नहीं, जब आठवीं की तिमाही परीक्षा में सात विषयों के अंक लाल घेरे में रंग कर सामने रख दिये गये।
उन दिनों, जब हमारी मासूम आंखें परदे को पूरा-पूरा देख भी नहीं पाती होंगी, बाबूजी पांच बहनों और तीन बेटियों के अपने परिवार को गंगाधाम दिखाने ले गये थे। दरभंगा के सोसाइटी सिनेमा हॉल में तब लोकभाषाओं की फिल्में लगती थीं। क्या देख पाये, क्या नहीं, अब याद नहीं। इतना ही याद है कि गांव में उसके बाद जहां कही चार लोगों के बीच मैं फंसता और वे मुझे गाना सुनाने को कहते, तो मैं सुनाता था- मोर भंगिया के मनाय दs हो भोले नाथ, मोर भंगिया के मनाय दs। इसके बाद थोड़ी मूढ़ी (फरही) देकर सब मुझे भगा देते थे।
गांव में नये पहुना का मान तब तक नहीं होता था, जब तक वे ससुराल के नौनिहालों के साथ बैठकर सिनेमा हॉल में कैम्पाकोला की पार्टी नहीं देते थे। ऐसी टोलियों में जाकर हमने मासूम देखी, सदा सुहागन देखी। नाम याद रखने लायक होश में आने से पहले देखी हुई फिल्मों के नाम ज़ेहन में नहीं हैं। चंद रोशनियों की खुदबुदाहट है, जो अब भी कभी-कभी अवचेतन में चमक उठती है।
हमारी बहनों का हीरो जीतेंद्र था। लिहाजा हम भी जीतेंद्र को अपना हीरो मानते थे। जबकि वे जीतेंद्र के ढलते हुए दिन थे। अमिताभ बच्चन कांग्रेस की राजनीति में उलझे हुए थे। डिस्को डांसर के बाद मिथुन चक्रवर्ती शबाब पर थे और गोविंदा का जलवा अब आने ही वाला था। आप सोचिए, भारतीय सिनेमा के इन चंचल चितेरों ने हमारी किशोर दुनिया को किस कदर बेचैन कर दिया होगा। हम नाचना चाहते थे। चीखना-चिल्लाना चाहते थे। लेकिन घर की धीर-गंभीर दीवारें आंखें तरेर कर देखती थीं। हम सहम कर कोर्स की किताबें ढूंढ़ने लग जाते थे।
लेकिन फिर भी अगला सिनेमा देखने के लिए सेंध मारने की तैयारी में जुट जाते थे।
Posted by Avinash Das at 4:42 AM 11 comments
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
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