शहर था शहर नहीं था : 3
एक दोस्त भी था। जैसा कि दोस्तों के नाम अपने शहर में होते थे- चिंटू, पिंटू, सोनू, मोनू- उसका नाम चिंटू था। पिता ठेकेदार थे। मोटे थे और अक्सर हम उन्हें चुप ही देखते थे। मां की एक तस्वीर उसके घर में लगी रहती थी, जिसकी आंखों पर 'गूगल्स' चढ़ा था। ये तब बड़ी बात थी। कोई लड़का 'गूगल्स' पहने तो उसका आवारा होना मान लिया जाता था। कोई लड़की 'गूगल्स' पहनेगी, ऐसी कल्पना तो हम कर भी नहीं सकते थे। लेकिन चिंटू की मां ने अपने कुंवारे दिनों में आंख पर खूब 'गूगल्स' चढ़ाये। ये चित्र उन्हीं में से किसी एक दिन का था। हालांकि इस चित्र से उनका चरित्र चित्रण नहीं किया जा सकता। आखिर वो दोस्त की मां थी। दोस्त की एक बहन भी थी, जिनकी उम्र बढ़ रही थी। चेहरे पर दाने निकल रहे थे... और अक्सर वो घर की अंधेरी सीढ़ियों से धूपदार वीरान छत पर जाती और आती दिखती थीं। सहेलियों का उसका संसार उतना ही था, जितना टोले में वे हमारी बहनों के साथ दिखती थीं। कभी नये बने मंदिर तक। शाम के वक्त। जब लड़कों का झुंड मंदिर के आजू-बाजू मंडराता था। बाद में उनकी दुनिया एक कमरे में सिमट गयीं और हमारी बहनें बताती हैं- हमारे उस टोले से घर बदलने तक वो कभी नहीं निकलीं। एक दिन पता चला, उन्होंने खुदकुशी कर ली।
चिंटू के एक भाई था। नाम मैं अब भूल रहा है। लेकिन चूंकि कहानी काल्पनिक है, इसलिए नाम तो एक रख ही सकते हैं। जैसा कि छोटे भाइयों के नाम होते हैं- छोटू, गोलू, बाबू, चुन्नू आदि- तो यही मानिए कि उसका नाम भोलू था। उम्र उसकी बारह-चौदह की होगी, लेकिन संगत केवल सहेलियों की थी। हम थोड़ा साइंस भी पढ़ लेते थे, सो हमें लगता कि जीन में कुछ प्रॉब्लम के चलते उसके साथ ऐसा है। चिंटू के पिता के एक दोस्त थे और थोड़ी उखड़ी-उखड़ी ठेकेदारी के चलते किराये के घर में रहते थे और घर बार-बार बदलते थे- उनकी चार बेटियां थीं। सबकी सब सुंदर। इनकी मां भी सुंदर थीं। सुना ये था कि इनके पिता की ये तीसरी बीवी थीं। पहली उस अनाम गांव में रहती थीं, जिस गांव का नाम न इन लड़कियों ने कभी सुना- न उनकी कहानी बताने वाली बहनों ने हमें बताया। इतना ही पता चला- खिन्न मना उस स्त्री ने मार खाने और अनिश्चित-आवारा भविष्य से डर कर अपने पति के साथ शहर जाने के ज़िद कभी नहीं की। दूसरी बीवी, सकरी- जो कि हमारे शहर और मधुबनी ज़िले के बीच का जंक्शन है, के एक जर्जर सरकारी अस्पताल में नर्स थी। उसके कोई बच्चा नहीं हुआ और आपादमस्तक सफेदी किसी स्थायी वैधव्य की तरह वो साथ रखती थीं। हालांकि इन दोनों को कभी देखा नहीं गया, हमेशा इनके बारे में सुना ही गया। तीसरी बीवी की इन चार बड़ी होती बच्चियों में भोलू कुछ तरह घुला-मिला रहता कि कई नज़रों को मुश्किल होने लगती।
चिंटू का परिवार हमारे छोटे से शहर के एक भद्र टोले का ऐसा परिवार था, जिसकी बुनावट टेढ़ी-मेढ़ी थी। आमतौर पर ऐसा नहीं होता है। एक घर होता है, एक आदमी होता है जो कमाता है, एक स्त्री दोपहर में छत पर अंचार सुखाती है, आंगन में कपड़े धोती है और सुबह ठीक साढ़े नौ बजे चावल का अदहन पसाती है। इन दोनों के कुछ बच्चे होते हैं, जो पढ़ते-लिखते हैं, खेलते हैं, मारपीट करते हैं। ऐसे कई घर थे, जिनमें चिंटू का घर कहानियों की तरह मौजूद था। लेकिन चूंकि मेरा वह अच्छा दोस्त था, इसलिए हम साथ-साथ ज्यादा रहते थे। मैंने पहली बार चिंटू को पान मसाला चबाते, थूकते देखा। सिगरेट पी-पीकर हमारे बीच सबसे पहले उसी के होंठ धूसर हुए। हम अक्सर ये धृतकर्म उसकी छत पर करते थे, जहां उसकी बहन बार-बार आती थी। और जहां एक कमरा था, जिसमें एक पुराना ग्रामोफोन रखा रहता था और बिखरे हुए ख़ूब सारे रिकॉर्डर। गोल-गोल। खूब बड़े। काले और थोड़े रंगीन काग़ज़ में लिपटे हुए। पुराने फिल्मी गीत और कुछ तो फिल्मी डायलॉग के रिकॉर्डर भी। जब उसके पिता काम पर निकलते थे, तो मां भी इत्मीनान से उस कमरे में आ बैठती थीं। कमरे की दीवार पर एक सीसा लगा रहता था। रिकॉर्डर लगा कर उस सीसे के सामने पड़े पलंग पर पसर जाती थी। अपनी फैलती हुई देह के बावजूद उन्हें अब भी सीसे की तरफ देखना अच्छा लगता था।
कुल मिला कर रहस्य से भरे किरदारों वाले इस घर की गुत्थी मेरे सामने कभी नहीं खुल पायी। ठीक अपने शहर की उन घटनाओं की तरह, जिनका ज़िक्र मैंने इससे पहले किया है। लेकिन मैं सचमुच चाहता हूं कि मेरे सामने सब कुछ एक सीधी कहानी की तरह खड़ी हो जाए। लेकिन क्या आपको पता है कि वनवास की शुरुआत में अहिल्या उद्धार का किस्सा न होता, तो भी राम कहानी रावण वध तक पहुंच सकती थी। ज़िन्दगी होती ही ऐसी है- जिसमें टेढ़े-मेढ़े नक्शे इतने हैं- कि सही राह तकते-तकते वो ख़त्म हो जाती है। हम ऐसे भी लिख सकते हैं कि ज़िन्दगी शुरू हुई और इस तरह ख़त्म हो गयी। लेकिन ऐसे लिखने से हमारे जैसे कई शहरों का किस्सा कभी नहीं लिखा जाएगा।
Tuesday, May 29, 2007
वो एक अलग ही घर था
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Sunday, May 27, 2007
चुप चेहरों के शहर में डरावने किस्से
शहर था शहर नहीं था : 2
शहर में कुछ ऐसी जगहें भी थीं, जहां घास फैली रहती थी। लेकिन वहां ऐसे लोग बैठते थे, जिनके पास एक अदद गमछा होता था। कंधे पर रखा हुआ या पसीने से भीगने के बाद घास पर पसर कर सूखता हुआ। ये वे घासें थीं, जिन पर कोई जोड़ी बैठने नहीं जाती थी। पूरे शहर में कोई सड़क लड़के-लड़की को हमक़दम नहीं दिखाती थी। यानी कुछ वक्त गुज़ारने के बाद इस यक़ीन के साथ शहर में और वक्त गुज़रता है कि यहां प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है। फिर भी प्रेम के किस्से थे कि कहीं न कहीं से आ ही जाते थे। इन किस्सों के साथ एक डर भी हम तक पहुंचता था।
छठ की सुबह वह किस्सा अभंडा पोखर से उड़ा। किसी को टुकड़े टुकड़े काट दिया गया है। उसकी उम्र 20-22 साल थी। किसी लड़की की ओढ़नी से खेल रहा था। चार लोगों ने पकड़ा। बर्फ की सिल्ली पर लिटाया। चमकते हंसिया से बोटी-बोटी काटा। और किस्से की तरह यहां-वहां उड़ा दिया। बस इतना ही।
छठ दीवाली के बाद होती है। दीवाली के जो पटाखे बासी हो जाते हैं, छठ में छोड़े जाते हैं। नदियों के किनारे पूरी सभ्यता जमा होती है। डोम को छोड़ कर। जाति की ये जमात सभ्यता से बाहर बसती है। हमारे गांव के किनारे इनके घर होते थे। जहां से ये निकलते थे और वापस चले जाते थे। हमें इनके घर दूर से देखने इजाज़त थी। सुबह-सुबह छठ की टोकरी लेकर हम घर से नदी तक डुगरते-डुगरते चलते थे, तो दरवाज़े पर बैठे हुए इन डोमों के सिर आग पर पकाये आलू की तरह सिकुड़े-सिकुड़े नज़र आते थे। हमारे चेहरे पर भी ऐसी ही सिकुड़न उग आयी, जब वो किस्सा हमारे पास पहुंचा। बहनों ने कसम दी, लड़कियों को कभी मत छेड़ना। लड़कियां उकसाये तो भी नहीं।
उसी दिन शाम तक एक और किस्सा हम तक पहुंचा। हमारे ही टोली का एक लड़का जिस्म से ताज़ा गिरते खून के साथ घूमता हुआ पाया गया। लोगों ने कहा लाइट हाउस सिनेमा के स्पेशल बॉक्स में किसी लड़की की पीठ सहलाने पर मार पड़ी। उसे मैं जानता था। पढ़ने में तेज़ था। लेकिन इस हादसे ने उसे आवारा बना दिया।
बाद में प्रेम करते हुए जब हम रेल की पटरियों पर दूर तक साथ-साथ चलते थे, तो इन किस्सों का खौफ भी हमारे साथ चलता था। दूर खाली मैदान में कोई नहीं दिखता था तो हम सट जाते थे। हाथों को छूते हुए, सहलाते हुए। लेकिन थोड़ी दूर बाद तार के ऊंचे खड़े पेड़ से फिसलते हुए पासी पर नज़र पड़ते ही हम आमने-सामने की पटरियों पर सीधे चलने का रियाज़ करते दिखने की कोशिश करते थे।
जब हमने पूरी तरह प्रेम किया, तभी पता चला कि हमारे शहर में हम प्रेम भी कर सकते हैं। हमें नहीं पता कि हमारी बहनों ने ऐसा किया या नहीं या उन्हें ऐसा लगा या नहीं। उनकी लंबी उदासी से ऐसा कुछ कभी ज़ाहिर नहीं हुआ। जब हम रिपोर्टर बने तो हमने आस-पड़ोस की सभी बहनों को टटोलने का जतन किया, लेकिन सब बेकार रहा। फैक्ट की फूटी कौड़ी हमारे हाथ नहीं लग सकी।
तिलस्म की सबसे रोचक कहानियां ज़रूर छोटे शहरों में लिखी गयी होंगी, क्योंकि गहरे भेद और खामोश चेहरों के बीच का तिलस्म इन्हीं शहरों में पाया जाता है। या फिर इतने बड़े शहर में जहां ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के बीच इतना फासला हो कि हमारी ज़िन्दगी में वो कभी ख़त्म नहीं हो सकते। मैं जब तक अपने छोटे से शहर में रहा- आधा चुप सा रहा, आधा प्रेम में बड़बड़ाते हुए। जैसे आज हमारी पत्नी कहती है- तुम्हारी नींद में अधूरे वाक्यों का पूरा उपन्यास टाइप होता रहता है। तुम ठंडे पानी से हाथ-पांव धोकर सोया करो।
मैं सुबह उठता हूं। मुस्कुराता हूं। और अपने पुराने शहर को याद करता हूं।
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शहर था शहर नहीं था
हर टोले में एक पोखरे वाला शहर था। उनमें एक तरफ भैंसें अपनी पीठ को काले टापू की तरह उगाये खामोश बैठी रहती थीं। दूसरी तरफ हल्की काई वाले चबूतरे पर कपड़े पीटती स्त्रियों के दृश्य के बावजूद दोपहर वीरान होती थी। इसी वीरानी में बीड़ी का धुआं छोड़ते चंद चेहरे कुछ तलाशते रहते थे। शायद प्यार। रहस्य से भरे रिश्तों की खुशबू। कंकड़ वाली सड़क पर सोने का एक सिक्का। या शायद कुछ भी नहीं। ये उन लोगों की दुनिया थी, जो जवान और अधेड़ थे। बचपन उन शहरों में रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागता था। बरसाती नालियों में बंसी गिरा कर मछलियों की लालसा के पीछे भागता था। उस बचपन में कॉमिक्स का भी दखल था। पतली सी रंगीन किताबें हाथ से हाथ होते हुए ग़ायब हो जाती थीं। फिर भी किस्से कम नहीं होते थे। उन किस्सों की तादाद किसी को याद नहीं। लेकिन शायद वे सैकड़ा पार नहीं कर पाये होंगे, और बचपन ख़त्म हो गया होगा।
(बहुत सारी चीज़ें इसी तरह ख़त्म हो जाती हैं। स्मृतियां भी। कोई ये कहे कि पुराने एक एक पल का हिसाब उसके पास है, तो यक़ीन मत करना। इतिहासकार कड़ी मेहनत के बाद अतीत की कड़ियां जोड़ता है, फिर भी उसकी तरफ संदेह के सैकड़ों तीर तने रहते हैं। दुनिया की महान स्वीकारोक्तियां भी किसी शख्स का पूरा सच नहीं बयान कर सकी हैं। सच और झूठ के सांप-सीढ़ी वाले खेल की तरह चलने वाली ज़िन्दगी से चुन कर अगर मैं आपको कुछ कहानियां सुनाऊं, तो आप अपनी कसौटियों पर तौल कर ही यक़ीन करना। पात्र और उससे जुड़े हादसे अक्सर रुलाने के लिए रचे जाते हैं। और जो रचा जाता है, वो वास्तविक नहीं होता। इसलिए अपने आंसू बचाकर उन वास्तविक ज़िन्दगियों के लिए रखना, जिनके लिए रोकर हम अपनी करुणा को एक अर्थ दे सकते हैं।)
एक स्कूल था, महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह अकादमी। चमकती हुई समानांतर खड़ी दो इमारतें और जहां इनके आख़िरी कमरे बने थे, वहां बीच में लाल रंग का एक भवन था। यहीं ख़ाली वक्त में शिक्षक बैठते थे। फीस यहीं जमा होती थी। प्रिंसिपल इसी भवन से निकल कर कैंपस में आता था। नोटिस इसी भवन के बरामदे की दीवार पर जालियों वाले फ्रेम में टंगते थे। सुबह, आकाश में कतार बना कर फिसलते पंछियों की तरह, धीरे-धीरे बच्चे स्कूल में घुसते थे। दोपहर बाद और शाम के दरवाज़े पर खड़ी धूप के वक्त उफनती नदी की तरह बाहर निकलते थे। कुछ गणेशी भूंजा वाले के यहां मक्खियों की तरह भिनभिनाते हुए 25-25 पैसे आगे बढ़ाते थे, कुछ आलू कट के मसालेदार स्वाद पाने के लिए बूढ़े होते बनारसी की तरफ दस-दस पैसे निकालते हुए बढ़ते। सामने से एक साम्राज्य की तरह खड़ा स्कूल अंधेरा गहराते तक ढहने लगता था।
चूंकि हमारा घर उसी टोले में था, हम अक्सर अपना अंधेरा स्कूल की टूटी चाहरदीवारी से फांदकर लाल रंग के भवन के पीछे बटोरते थे। वहां कुछ पुराने कमरे थे, जिसकी ईंटें हमेशा उखड़ती रहती थीं। उन कमरों में कुछ पीली देह, एक लालटेन और मच्छड़दानी स्थायी रूप से रहती थी। ये वे लड़के थे, जिन्हें हॉस्टल मिला हुआ था। खाना ये खुद बनाते थे, स्टोव जला कर। इनका घर गांवों में था- और माता-पिता की अदम्य इच्छाओं और कुछ अपनी हसरतों ने इन्हें इस छोटे से शहर में ऐसी ज़िन्दगियां जीने के लिए मजबूर किया था। सरकारी स्कूल में पैसा नाममात्र लगता था, इसलिए तमाम मुसीबतों का होना भी इनके लिए अदृश्य भाव की तरह था। ये ऐसे जीते थे, जैसे ज़िन्दगी अभी-अभी इनके हाथ से फिसल कर जाने वाली है।
फिर भी ज़िन्दगियां जाती थीं। हॉस्टल में एक साल के भीतर तीन लड़कों ने खुदकुशी की। या उन्हें मारा गया- इलाक़े में ऐसी भी चर्चा होती थी। जब जब ये वारदात हुई, स्कूल बंद कर दिया गया और पुलिस का पहरा उन टूटी चाहरदीवारियों पर लगा दिया गया, जिससे हम उधर झांक भी नहीं पाएं। दूसरों की तरह हमने भी उन वारदातों का किस्सा भर सुना। ऐसे किस्सों के कई कई पाठ एक ही समय में रच लिये जाते हैं। उन तमाम पाठों के बीच अब तक हमारी जिज्ञासाएं शांत नहीं हुईं कि आख़िर हुआ क्या होगा। हमने एक उम्र तक कोशिश भी नहीं हकीक़त जानने की। वे मौतें भुला दी गयीं। एक छोटे शहर की ज़िन्दगी में भी, पुलिस की फाइलों में भी और इंसाफ़ के शोर-शराबों में भी।
हम कोशिश करेंगे कि आपको ठीक-ठीक बता पाएं कि उस छोटे शहर में वक्त कैसे बीतता था, लोग कैसे जीते थे, साइकिल कैसे चलती थे, चौराहे कितने वीरान होते थे और ठीक-ठीक कितना इत्मीनान होता थे और इस सुकून में मुल्क के हादसे कैसे शेयर किये जाते थे। लेकिन इसके लिए हमारे साथ थोड़ा-थोड़ा वक्त बीच-बीच में आपको बिताना होगा।
Read More(शीर्षक राजकमल चौधरी के उपन्यास से साभार)
Posted by Avinash Das at 3:03 AM 4 comments
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Monday, May 14, 2007
आंचलिक आंदोलनों की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति
हम लाल बहादुर ओझा के साथ खाने की टेबिल पर थे। बात उन आंदोलनों की हो रही थी, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में ज़ोर-शोर से चलते रहे हैं। मेरी उनकी चिंता ये थी कि इन आंदोलनों की कोई राष्ट्रीय अभिव्यक्ति नहीं है। यानी इन आंदोलनों का कोई राष्ट्रीय प्रभाव नहीं है। जैसे मेधा का नर्मदा आंदोलन और गुजरात में सांप्रदायिकता विरोधी अभियान को देश के हर शहर ने आवाज़ दी। राष्ट्रीय प्रभाव का ये मतलब कतई नहीं होता कि आंदोलन सफल ही हो। गुजरात में मोदी विरोध के बावजूद मोदी मुख्यमंत्री बने और नर्मदा को राष्ट्रीय समर्थन मिलने के बावजूद सरदार सरोवर बन रहा है।
मुद्दे हर सूबे के अलग-अलग हैं, होते है। लेकिन वे दूसरे हिस्सों को भी आंदोलित करते हैं, अगर उसकी सही-सही समझ और ज़रूरत उन हिस्सों में पहुंचती है। राष्ट्रीय प्रभाव यही है। लेकिन बिहार में चल रहे भाकपा माले के किसान-मजदूर आंदोलन को देश सहानुभूति से नहीं देख पा रहा। या फिर आंध्र और छत्तीसगढ़ में चल रहे माओवादी आंदोलन देश को नहीं जोड़ पा रहे। वजह क्या है? गुजरात और नर्मदा की तरह ये बहुप्रशंसित क्यों नहीं हो पा रहे?
लाल बहादुर ओझा से हमारी बात इतने पर ही छूट गयी। लेकिन मुझे लगा कि इस पर सोचना चाहिए, शेयर करना चाहिए। हमारे समाज की छवि पर आज मीडिया और बाज़ार का कब्जा है। बाज़ार की आज जैसी परिकल्पना हमारे समाज में पहले नहीं थी। जाहिर है, इस बाज़ार का विकल्प हमारे आंदोलनों के पास नहीं है। जो विकल्प हैं, वे पुराने तरीकों के हैं और उससे शहरी मध्यवर्ग का सहमत हो पाना संभव नहीं। वैसे हमारे आंदोलन शहरी मध्यवर्ग के लिए हैं भी नहीं।
जेपी का संपूर्ण क्रांति अभियान शहरी मध्यवर्ग के बीच चला। सत्ता बदली लेकिन चूंकि सामाजिक साफ-सफाई नीचे से नहीं चली, इसलिए कूड़ा रह गया। ज्यादा गंध देने लगा तो इस नयी सत्ता को ही लोगों ने खारिज़ कर दिया। उसके बाद पूरे डेढ़ दशक तक कांग्रेस के हाथ में मुल्क रहा और बाद में जब समाजवादियों ने जोड़-तोड़ से सरकार बनायी भी, तो जेपी के अभियान की सुगंध यहां नहीं थी। आज तक मिल-बांट कर कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादियों की सरकारें देश को खा रही हैं।
मायावती का आना भी इसी बंदरबांट के बीच से हुआ। आज बहुत सारे बुद्धिजीवी इस बात से खुश हैं कि सोशल इंजीनियरिंग का नया शास्त्र मायावती ने पेश किया। उसका आना देश में दलित दशा के लिए अच्छा है। लेकिन मेरी चिंता ये है कि मायावती की परिघटना देश में चल रहे उन तमाम आंदोलनों के लिए धक्का है, जो अंतिम आदमी के मुद्दे पकड़ कर चल रहे हैं। सत्ता की बयार बीच-बीच में ऐसे ही देश को धुंध में ले जाती रही रहेगी और वाजिब आंदोलन उस धुंध में धुलते रहेंगे।
क्या करना होगा, यही सवाल है। अरुंधति के नर्मदा से जुड़ने पर सरदार सरोवर के विरोधियों का तर्क और दावा मज़बूत हुआ। राजदीप और बरखा ने गुजरात की क़ातिल मोदी सरकार का सच नंगा कर दिया। लेकिन देश के दूसरे आंदोलनों को अरुंधति, राजदीप और बरखा नहीं मिल पा रहे। इन आंदोलनों को कॉर्पोरेट के बीच सामाजिक प्रतिबद्धता का आग्रह रखने वाली छवियों को जोड़ने के प्रति सचेत होकर काम करना पड़ेगा।
अगर ऐसा करने में कठिनाई है, तो ज़िला स्तर पर अख़बार निकालने होंगे। कार्यकर्ताओं के काम में संपादक के नाम पत्र लिखने का दायित्व ज़रूरी तौर पर जोड़ना होगा। ज्यादा से ज्यादा संपादक नहीं छापेगा, लेकिन सहजता से उन सूचनाओं को निजी स्तर पर स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा। यही स्वीकार एक दिन उन्हें बड़े होते आंदोलन को भी स्वीकारने के लिए बाध्य करेगा।
एक आदोलन की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति भी ऐसे ही संभव मुझे लगती है।
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Sunday, May 13, 2007
महिलाएं डबल मज़दूर होती हैं
सन 96 में हमने साथ-साथ काम किया... और शायद उसी साल जुदा भी हो गये। प्रभात ख़बर में उस वक्त हम सीख रहे थे और लालबहादुर ओझा हमें सिखा रहे थे। उन्होंने बनारस से अख़बारनवीसी का कोर्स किया था। बाद में एकलव्य चले गये और वहां कायदे से सालो साल काम किया। इस दौरान एकाध बार मुलाकात हुई। पुस्तक मेलों में, इधर-उधर। एक बार भोपाल में भी।
वे 1996 में भी अच्छे आदमी थे। आज भी हैं। बीच के दौर में भी रहे होंगे। संयम, स्वभाव और दोस्तों से संगति में एक अच्छा आदमी होना मुश्किल है। अभी पहली बार हिंदी के चक्कर में उनसे लंबी बातचीत हुई। एक पूरी शाम उनके घर रहा। भोजपुरी सिनेमा पर उनके कामों और जीवन के उद्देश्यों के बारे में लंबी बातचीत हुई।
बीच-बीच में उनकी सौम्य सुशील बंगाली पत्नी डेढ़ साल के बच्चे के साथ घर के किसी कोने पाये में नज़र आती रहीं। छोटे बच्चे के साथ माएं ऐसे ही झिज्झिर कोना खेलती नज़र आती हैं। बीच में एक बार लालबहादुर जी ने लीफ वाली चाय बना कर पिलायी।
सुकन्या और लालबहादुर जी के विवाह की सूचना पटना आइसा के कुछ साथियों ने दी थी। वे लोग जब दिल्ली आये, तो विवाहोपरांत भोज खाने के लिए लालबहादुर जी के यहां हो भी आये। हमारी ऐसी घनिष्टता थी नहीं, कि हम भी उस भोज में शामिल होने की दावेदारी करते।
सुकन्या जेएनयू में अर्थशास्त्र पढ़ती रही हैं। पीएचडी भी किया है। अभी एनसीईआरटी के लिए किताब लिखने वालों की मंडली में शामिल हैं। बंगाली और अंग्रेज़ी धड़ल्ले से बोलती हैं। हिंदी बोलने में खासी तकलीफ होती मुझे दिखी। रात में उन्होंने प्यार से खाना खिलाया। भात, दाल और करैले की भाजी के साथ आलू-गोभी की सब्ज़ी। स्वाद में सर्वोत्तम। लेकिन उन्होंने कह ही दिया कि हम आपके लिए कुछ ज्यादा नहीं कर सके। हम उनको क्या बताएं कि हम इतने में ही खुश हो जाते हैं कि कोई हमको भरपेट खाना खिला देता है।
तो रात ग्यारह बजे विदाई की बेला भी आयी। दफ्तर की गाड़ी दरवाज़े पर खड़ी हो चुकी थी। सुकन्या ने पूछा कि रात की ड्यूटी 12 बजे से छह बजे तक चलती है क्या। हमने कहा नहीं, हम तो मज़दूर आदमी ठहरे। आठ-नौ घंटे की ड्यूटी पड़ जाती है। सुबह निकलते-निकलते आठ-नौ बज जाएंगे। सुकन्या का जवाब था- तब महिलाएं डबल मज़दूर होती हैं। घर में भी, बाहर में भी।
इस जवाब के लिए मैं तैयार नहीं था। लेकिन ऐसी हालत में खिलखिलाने की बेशर्म अदा के सिवा और मेरे पास कुछ नहीं था।
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Thursday, May 3, 2007
हिंदी समाज के भविष्य का दुख
हमारे एक दोस्त को देखकर मैं सन्नाटे में आ जाता हूं। वो हमेशा दिप-दिप आत्मविश्वास से दमकते रहते हैं। कोई बात कहते हैं तो लहज़ा ये होता है कि यही एक बात है, जो कही जा सकती है, वरना सब बेकार की बातें करते हैं। हमारे आसपास ऐसे आत्मविश्वास वाले लोग बहुतायत में पाये जाते हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कोई अरुंधति राय कहां-क्या लिख रही है, या स्त्रियों को प्रसव के दर्द से थोड़ी राहत देने वाली वाटर बेबी कैसे पैदा होती है। वे फूलों और बल्वों से सजे मंडप में वर-वधू को अक्षत छींटते हैं, तो लगता है जैसे कठिन छंद वाली कविता लिख दी हो। कहने का मतलब... ये जो आत्मविश्वास उन्हें सुखी रखता है, वो हिंदी समाज के भविष्य का दुख है।
इस दुख को बढ़ाने में मैं भी एक कड़ी हूं। मैं जो एक संशय में हमेशा रहता हूं। ये संशय है अपने घोर अधूरेपन का। शब्दों से एक शांत किस्म के अपरिचय का। अपनी उस कद-काठी का, जो दस लोगों के बीच और कमज़ोर नज़र आती है। इतना खाली होकर कोई किसी भाषा में सोच तो सकता है, लेकिन उसे काग़ज़ पर चढ़ा पाना अक्सर आसान नहीं होता। पसीने छूटते हैं। सोचना अधूरे वाक्यों में होता है और कहना पूरे वाक्यों में। हिंदी की दिक्कत ये है कि जो पूरा वाक्य सिरजना जानते हैं, वे सोचना नहीं जानते। और जो सोचना जानते हैं, उन्हें अधूरे वाक्यों की काबिलियत की वजह से चुप रह जाना पड़ता है।
पूरा वाक्य लिखने लायक अभ्यास और उत्साह भी हिंदी समाज के पास नहीं है। होता, तो प्रतिरोध और लोकतंत्र की व्यापक ललक होती। कहानियों-कविताओं में लालित्य दिखता है, कला दिखती है। कभी बेलौसपन दिखता भी है, तो वहां सोच-विचार का अनुशासन ग़ायब रहता है। हमारी बेचैनी भी उस वक्त हवा हो जाती है, जब लगातार सोचने के बाद कुछ लिखने बैठते हैं और कोई दोस्त आता है तो कहकहे में लग जाते हैं। प्राथमिकताओं से वंचित हमारा निजी समय भी हिंदी समाज के भविष्य का दुख है।
आइए, हिंदी के उज्ज्वल भविष्य के लिए हम उस दोस्त को विनम्रतापूर्वक घर से जाने के लिए कह दें, जो बेवक्त आ गया है। वो जैसे ही किवाड़ से बाहर हो, हम ज़ोर से आवाज़ करने की हद तक किवाड़ बंद कर दें, ताकि विदाई के वक्त का दुख उस शोर से चनक कर टूट जाए। विचारों की वो फेहरिस्त बिना किसी भावुक व्यतिक्रम के बढ़ती रहेगी।
क्या मैं यह सोचते हुए असंवेदनशील हो रहा हूं? और क्या महान रचने के लिए संवेदनशील होना ज़रूरी है?
अगर आपकी हैसियत राह दिखाने की हो, तो कृपा कर दिखाएं।
Posted by Avinash Das at 6:22 AM 0 comments
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