शहर था शहर नहीं था : 3
एक दोस्त भी था। जैसा कि दोस्तों के नाम अपने शहर में होते थे- चिंटू, पिंटू, सोनू, मोनू- उसका नाम चिंटू था। पिता ठेकेदार थे। मोटे थे और अक्सर हम उन्हें चुप ही देखते थे। मां की एक तस्वीर उसके घर में लगी रहती थी, जिसकी आंखों पर 'गूगल्स' चढ़ा था। ये तब बड़ी बात थी। कोई लड़का 'गूगल्स' पहने तो उसका आवारा होना मान लिया जाता था। कोई लड़की 'गूगल्स' पहनेगी, ऐसी कल्पना तो हम कर भी नहीं सकते थे। लेकिन चिंटू की मां ने अपने कुंवारे दिनों में आंख पर खूब 'गूगल्स' चढ़ाये। ये चित्र उन्हीं में से किसी एक दिन का था। हालांकि इस चित्र से उनका चरित्र चित्रण नहीं किया जा सकता। आखिर वो दोस्त की मां थी। दोस्त की एक बहन भी थी, जिनकी उम्र बढ़ रही थी। चेहरे पर दाने निकल रहे थे... और अक्सर वो घर की अंधेरी सीढ़ियों से धूपदार वीरान छत पर जाती और आती दिखती थीं। सहेलियों का उसका संसार उतना ही था, जितना टोले में वे हमारी बहनों के साथ दिखती थीं। कभी नये बने मंदिर तक। शाम के वक्त। जब लड़कों का झुंड मंदिर के आजू-बाजू मंडराता था। बाद में उनकी दुनिया एक कमरे में सिमट गयीं और हमारी बहनें बताती हैं- हमारे उस टोले से घर बदलने तक वो कभी नहीं निकलीं। एक दिन पता चला, उन्होंने खुदकुशी कर ली।
चिंटू के एक भाई था। नाम मैं अब भूल रहा है। लेकिन चूंकि कहानी काल्पनिक है, इसलिए नाम तो एक रख ही सकते हैं। जैसा कि छोटे भाइयों के नाम होते हैं- छोटू, गोलू, बाबू, चुन्नू आदि- तो यही मानिए कि उसका नाम भोलू था। उम्र उसकी बारह-चौदह की होगी, लेकिन संगत केवल सहेलियों की थी। हम थोड़ा साइंस भी पढ़ लेते थे, सो हमें लगता कि जीन में कुछ प्रॉब्लम के चलते उसके साथ ऐसा है। चिंटू के पिता के एक दोस्त थे और थोड़ी उखड़ी-उखड़ी ठेकेदारी के चलते किराये के घर में रहते थे और घर बार-बार बदलते थे- उनकी चार बेटियां थीं। सबकी सब सुंदर। इनकी मां भी सुंदर थीं। सुना ये था कि इनके पिता की ये तीसरी बीवी थीं। पहली उस अनाम गांव में रहती थीं, जिस गांव का नाम न इन लड़कियों ने कभी सुना- न उनकी कहानी बताने वाली बहनों ने हमें बताया। इतना ही पता चला- खिन्न मना उस स्त्री ने मार खाने और अनिश्चित-आवारा भविष्य से डर कर अपने पति के साथ शहर जाने के ज़िद कभी नहीं की। दूसरी बीवी, सकरी- जो कि हमारे शहर और मधुबनी ज़िले के बीच का जंक्शन है, के एक जर्जर सरकारी अस्पताल में नर्स थी। उसके कोई बच्चा नहीं हुआ और आपादमस्तक सफेदी किसी स्थायी वैधव्य की तरह वो साथ रखती थीं। हालांकि इन दोनों को कभी देखा नहीं गया, हमेशा इनके बारे में सुना ही गया। तीसरी बीवी की इन चार बड़ी होती बच्चियों में भोलू कुछ तरह घुला-मिला रहता कि कई नज़रों को मुश्किल होने लगती।
चिंटू का परिवार हमारे छोटे से शहर के एक भद्र टोले का ऐसा परिवार था, जिसकी बुनावट टेढ़ी-मेढ़ी थी। आमतौर पर ऐसा नहीं होता है। एक घर होता है, एक आदमी होता है जो कमाता है, एक स्त्री दोपहर में छत पर अंचार सुखाती है, आंगन में कपड़े धोती है और सुबह ठीक साढ़े नौ बजे चावल का अदहन पसाती है। इन दोनों के कुछ बच्चे होते हैं, जो पढ़ते-लिखते हैं, खेलते हैं, मारपीट करते हैं। ऐसे कई घर थे, जिनमें चिंटू का घर कहानियों की तरह मौजूद था। लेकिन चूंकि मेरा वह अच्छा दोस्त था, इसलिए हम साथ-साथ ज्यादा रहते थे। मैंने पहली बार चिंटू को पान मसाला चबाते, थूकते देखा। सिगरेट पी-पीकर हमारे बीच सबसे पहले उसी के होंठ धूसर हुए। हम अक्सर ये धृतकर्म उसकी छत पर करते थे, जहां उसकी बहन बार-बार आती थी। और जहां एक कमरा था, जिसमें एक पुराना ग्रामोफोन रखा रहता था और बिखरे हुए ख़ूब सारे रिकॉर्डर। गोल-गोल। खूब बड़े। काले और थोड़े रंगीन काग़ज़ में लिपटे हुए। पुराने फिल्मी गीत और कुछ तो फिल्मी डायलॉग के रिकॉर्डर भी। जब उसके पिता काम पर निकलते थे, तो मां भी इत्मीनान से उस कमरे में आ बैठती थीं। कमरे की दीवार पर एक सीसा लगा रहता था। रिकॉर्डर लगा कर उस सीसे के सामने पड़े पलंग पर पसर जाती थी। अपनी फैलती हुई देह के बावजूद उन्हें अब भी सीसे की तरफ देखना अच्छा लगता था।
कुल मिला कर रहस्य से भरे किरदारों वाले इस घर की गुत्थी मेरे सामने कभी नहीं खुल पायी। ठीक अपने शहर की उन घटनाओं की तरह, जिनका ज़िक्र मैंने इससे पहले किया है। लेकिन मैं सचमुच चाहता हूं कि मेरे सामने सब कुछ एक सीधी कहानी की तरह खड़ी हो जाए। लेकिन क्या आपको पता है कि वनवास की शुरुआत में अहिल्या उद्धार का किस्सा न होता, तो भी राम कहानी रावण वध तक पहुंच सकती थी। ज़िन्दगी होती ही ऐसी है- जिसमें टेढ़े-मेढ़े नक्शे इतने हैं- कि सही राह तकते-तकते वो ख़त्म हो जाती है। हम ऐसे भी लिख सकते हैं कि ज़िन्दगी शुरू हुई और इस तरह ख़त्म हो गयी। लेकिन ऐसे लिखने से हमारे जैसे कई शहरों का किस्सा कभी नहीं लिखा जाएगा।
Tuesday, May 29, 2007
वो एक अलग ही घर था
Posted by Avinash Das at 3:51 AM
Labels: उपन्यास की तर्ज पर
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2 comments:
हा. हा. बारीक़ नज़र है आपकी। जो लिखा सिर्फ याददाश्त के सहारे नहीं हो सकता। क्योंकि याददाश्त को ऑबजर्वेशन का सहारा चाहिए। मतलब साफ़ है अपनी आसपास की घटनाओं को आसानी से नहीं लेते आप। लिखते रहिए
-ओम
तो ब्लॉग्लैंड की सबसे तेज़ी से बढ़ती बीमारी के वायरस ने आपको भी पकड़ लिया. ख़ैर , मज़ा आ रहा है , सबकी पोल खुल रही है धीमे धीमे ..
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