Monday, June 4, 2007

एक थे रमानंद बाबू

शहर था शहर नहीं था : 4

रमानंद बाबू हमारे ही शहर के थे। कड़क मिज़ाज टीचर। विद्वान थे। अंग्रेज़ी ऐसे बोलते थे- जैसे टेलीविज़न और रेडियो पर समाचार वाचक। कुल मिलाकर एक ऐसी शख्‍सीयत, जो आमतौर पर अब नहीं पायी जाती है। उनसे पहले एक झींगुर कुंवर थे, जिनका नाम उनके होने से ज्‍यादा मानी रखता था। अब भी लोग कहते हैं- झींगुर बाबू के वक्‍त में महाराजा लक्ष्‍मेश्‍वर सिंह एकेडमी का फाटक दस बज कर तीस मिनट पर बंद हो जाता था। फिर मजाल था कि कोई लड़का या टीचयर स्‍कूल में घुस पाये! ये सख्‍ती उनके आख़‍िरी दिनों तक बनी रही। तब भी, जब वे लकवे का शिकार होकर दो कहारों के सहारे पालकी में स्‍कूल आते थे। तभी पता चला कि वज़न शख्‍सीयत से भले तय होता हो, लेकिन एक वक्‍त के बाद वज़न शख्‍सीयत से कहीं ज़्यादा नाम का हो जाता है।

झींगुर कुंवर नास्तिक आदमी थे, लेकिन रमानंद बाबू तो पूरे आस्तिक थे। पूरे माथे पर चंदन का टीका सोते-जागते पुता रहता था। शहर की सड़कों पर या स्‍कूल के कैंपस में, तेल से चमकते केस, सर के बीच मोटी सी चुटिया में बंधे रहते थे। वे मंत्रपाठ करते थे, मगर पसीजते ज़रा भी नहीं थे। किसी लड़के की कमीज़ का ऊपरी बटन खुला दिख जाता, तो हाथ में हमेशा रहने वाली मोटी बेंत इस तरह बरसानी शुरू करते, जैसे हमारे ही शहर का रामदीन तांगावाला सवारी लेकर चलते हुए अपने घोड़े पर चाबुक चलाता था। बाबूजी अब भी कहते हैं, वैसा मास्‍टर हो, तो लड़के की ज़‍िन्‍दगी सुधर जाती। अब तो हिंदी सिनेमा के असर वाले लड़के ज़्यादा हैं। सिगरेट भी ऐन सामने पीते हैं कि धुआं मुट्ठी में आ जाता है। इधर ही एक तमाकू वाला नन्‍हा हाथ, किशोर के स्‍कूल में किसी मास्‍टर ने पकड़ लिया- फिर तो मास्‍टर के न बाल बचे, न कपड़ा। रमानंद बाबू के ज़माने में लड़का ज़‍िन्‍दगी भर के लिए रोता। ऐसे कई लड़के आज अधेड़ होकर लहेरियासराय कचहरी में काग़ज़ इधर-उधर करते हैं।

किशोर हमारे एक दूर के रिश्‍तेदार का बेटा है। मैडोना कॉन्‍वेंट में पढ़ता है। उसके दादा हमारे फुफा लगते थे। खूब बुढ़ापे में मरे। जब तक जीये, पूरे घर को अनुशासन में बांध कर रखा। किशोर जब सात साल का था, एक दिन उसने घर आये मेहमान को एक पूरे गाने पर डांस करके दिखाया। यह बात मर्यादा के उलट थी। खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ था। नाचना-गाना छोटे आवारा लोगों का काम है। तब तो कुछ नहीं हुआ। लेकिन जब घर खाली हुआ, फुफाजी ने अपने बेटे यानी किशोर के पिता से कह कर उसे एक घंटे तक उल्‍टा लटकवा दिया।

आज फुफाजी नहीं हैं। किशोर दसवीं में पढ़ता है। चौराहे पर सिगरेट के साथ थम्‍सअप पीता है। मैटनी शो अकेले देखता है। कभी-कभार ऑर्केस्‍टा में डांस करता है।

लेकिन किशोर रमानंद बाबू को नहीं जानता है- झींगुर कुंवर को वो क्‍या जानेगा?

इस तरह हमारे शहर में बहुत सारे लोग रमानंद बाबू को नहीं जानते। शहर, जिसमें हज़ारों लोग बसते हैं, वहां लाखों गुज़र चुके लोगों का कोई इतिहास नहीं होता। मुझे मालूम नहीं, मेरे परदादा का नाम क्‍या था। मेरी ज़‍िन्‍दगी में उनके नाम के लिए कोई जगह नहीं है। बहन की शादी के किसी अनुष्‍ठान में पंजीकार ने मुझसे मेरे परदादा का नाम पूछा था। मैंने बाबूजी से पूछ कर बताया- फिर ऐसे भूल गया- जैसे बचपन की किताबों के कई पाठ।

और इस तरह हमारे शहर में कोई रमानंद बाबू थे भी, तो उनका कोई किस्‍सा लोग सच मान कर सुनें, यह ज़रूरी नहीं है। इस तरह हमारे शहर में कोई रमानंद बाबू थे भी, तो आप ये मत मानिए कि कोई रमानंद बाबू थे ही।

लेकिन थे, और उनमें मेरी दिलचस्‍पी इसलिए भी है, क्‍योंकि आदमी और मास्‍ट की वैसी नस्‍ल मैंने फिर कभी नहीं देखी। इसलिए इस बार शहर गया, तो उनके घर के आसपास दसियों बार मंडराया। पक्‍के का दोमंज़‍िला घर। ऊंची चाहरदीवारी। दोपहर के वक्‍त बरामदे में सूप का चावल ऊपर नीचे उठाती गिरातीं दो-चार औरतें। शाम में सफेद कुर्ता लादे एक भीमकाय आदमी चार-पांच लोगों के साथ देश-समाज की राजनीति बतियाता हुआ। रमानंद बाबू का एकमात्र दामाद, उनकी एकमात्र बेटी का पति।

रमानंद बाबू अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी कहानी भी अब हमारे शहर की दुनिया में नहीं है। शहर, जहां अब भी बिजली पूरे पूरे दिन तक कटती है। लेकिन मेरी अपनी दुनिया में- कहानियों के लिए पूरी जगह होने के चलते- यहां रमानंद बाबू की कहानी में अब भी पूरी दिलचस्‍पी बची हुई है।

6 comments:

Sanjeet Tripathi said...

अंदाज़े बयां मस्त है भाई।

Admin said...

क्या बात है........... मजा आ गया!

ghughutibasuti said...

छोटी जगहों में ऐसे मास्टर जी अक्सर देखने को मिलते थे । आपका लिखने का तरीका अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती

Priyankar said...

हम सबके गांव-कस्बे में एक-दो रमानंद बाबू रहे हैं .पर अब वे गुज़रे जमाने की बातें हैं .

यह समय द्रोणाचार्य बाबू और ट्यूशनाचार्य बाबू के होने का है . वे आपको हर गली और नुक्कड़ पर मिल जाएंगे . रमानंद बाबू मिलने असम्भव हैं .

हमने समाज में रमानंद बाबू के होने की तमाम स्थितियों को समाप्त कर दिया है . उनके होने की सभी संभावनाओं को नष्ट कर दिया है . अब वह स्पेस ही नहीं है जिसमें रमानंद बाबू जैसे लोगों का होना संभव होता है . हवा-पानी सब बदल गया है .

Unknown said...

बहुत ख़ूब। कई मास्टर साहब की याद ताज़ा कर दी आपने। कई कड़े मिज़ाज वाले और कई दूसरे मिज़ाज वाले भी।
-ओम

sanjay patel said...

ऐसे ही कई माड़साब पूरी एक पीढी़ के शिल्पकार रहे हैं.मध्यम वर्ग के जो नाम आज जिस भी क्षेत्र में सुयश पा रहे हैं उसका श्रेय रमानंद बाबूओं को ही दिया जान चाहिये . हमारी बुरी सोच देखिये कि हम मानने लगे हैं कि आदमी जब कुछ नहीं बन पाता तो मास्टर बन जाता है.ये निहायत ग़लत सोच है.हम-सब में से ऐसे कई परिवार मिल जाएंगे जहां परिवार का मुखिया घर के लिये दो जून रोटी के लिये सुबह पहले घर से निकल जाता था.नई पीढी़ को संवारने का ख्वा़ब संजोती थी मां कि हमारा लल्ला भी कुछ बन जाए..उस जनपदीय सपने को पूरा किया हर क़्स्बे , हर गांव के रमानंद बाबू ने. आज मै खु़द अपने में घर में देख रहा हूं और (और आंसुओं घूंट पीने को भी मजबूर हूं)कि मेरे बाद की पीढी़ जंक फ़ूड , साफ़्ट ड्रिंक्स,डी.जे,और बेतरतीब रहन सहन की आदी होती जा रही है, उनके जीने,खाने,सोने,उठने और बोल-व्यवहार का अंदाज़ सबसे जुदा है और हम सब देखते भालते खा़मोश रहने को मजबूर हैं . कारण हमारे पास ऐसा कोई रमानंद बाबू नहीं है जिसका डर हम बच्चे को दिखा सकें तथाकथित पब्लिक स्कूलों को चोचले में हम एक बीमार पीढी़ तैयार कर रहे है...ग्लोबलाज़ेशन की अंधी दौड़ और पंद्र्ह लाख, बीस लाख पैकेजेज़ के आकर्षणों के बीच बडा़ होता हुआ कौन सा सुनहरा भविष्य रच रहा है खु़दा ही जाने. आपने मुझ जैसे न जाने कितने ही रमानंद बाबू के चेलों की सुखद पड़ताल कर ली अपनी बात के ज़रिये.