शहर था शहर नहीं था : 2
शहर में कुछ ऐसी जगहें भी थीं, जहां घास फैली रहती थी। लेकिन वहां ऐसे लोग बैठते थे, जिनके पास एक अदद गमछा होता था। कंधे पर रखा हुआ या पसीने से भीगने के बाद घास पर पसर कर सूखता हुआ। ये वे घासें थीं, जिन पर कोई जोड़ी बैठने नहीं जाती थी। पूरे शहर में कोई सड़क लड़के-लड़की को हमक़दम नहीं दिखाती थी। यानी कुछ वक्त गुज़ारने के बाद इस यक़ीन के साथ शहर में और वक्त गुज़रता है कि यहां प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है। फिर भी प्रेम के किस्से थे कि कहीं न कहीं से आ ही जाते थे। इन किस्सों के साथ एक डर भी हम तक पहुंचता था।
छठ की सुबह वह किस्सा अभंडा पोखर से उड़ा। किसी को टुकड़े टुकड़े काट दिया गया है। उसकी उम्र 20-22 साल थी। किसी लड़की की ओढ़नी से खेल रहा था। चार लोगों ने पकड़ा। बर्फ की सिल्ली पर लिटाया। चमकते हंसिया से बोटी-बोटी काटा। और किस्से की तरह यहां-वहां उड़ा दिया। बस इतना ही।
छठ दीवाली के बाद होती है। दीवाली के जो पटाखे बासी हो जाते हैं, छठ में छोड़े जाते हैं। नदियों के किनारे पूरी सभ्यता जमा होती है। डोम को छोड़ कर। जाति की ये जमात सभ्यता से बाहर बसती है। हमारे गांव के किनारे इनके घर होते थे। जहां से ये निकलते थे और वापस चले जाते थे। हमें इनके घर दूर से देखने इजाज़त थी। सुबह-सुबह छठ की टोकरी लेकर हम घर से नदी तक डुगरते-डुगरते चलते थे, तो दरवाज़े पर बैठे हुए इन डोमों के सिर आग पर पकाये आलू की तरह सिकुड़े-सिकुड़े नज़र आते थे। हमारे चेहरे पर भी ऐसी ही सिकुड़न उग आयी, जब वो किस्सा हमारे पास पहुंचा। बहनों ने कसम दी, लड़कियों को कभी मत छेड़ना। लड़कियां उकसाये तो भी नहीं।
उसी दिन शाम तक एक और किस्सा हम तक पहुंचा। हमारे ही टोली का एक लड़का जिस्म से ताज़ा गिरते खून के साथ घूमता हुआ पाया गया। लोगों ने कहा लाइट हाउस सिनेमा के स्पेशल बॉक्स में किसी लड़की की पीठ सहलाने पर मार पड़ी। उसे मैं जानता था। पढ़ने में तेज़ था। लेकिन इस हादसे ने उसे आवारा बना दिया।
बाद में प्रेम करते हुए जब हम रेल की पटरियों पर दूर तक साथ-साथ चलते थे, तो इन किस्सों का खौफ भी हमारे साथ चलता था। दूर खाली मैदान में कोई नहीं दिखता था तो हम सट जाते थे। हाथों को छूते हुए, सहलाते हुए। लेकिन थोड़ी दूर बाद तार के ऊंचे खड़े पेड़ से फिसलते हुए पासी पर नज़र पड़ते ही हम आमने-सामने की पटरियों पर सीधे चलने का रियाज़ करते दिखने की कोशिश करते थे।
जब हमने पूरी तरह प्रेम किया, तभी पता चला कि हमारे शहर में हम प्रेम भी कर सकते हैं। हमें नहीं पता कि हमारी बहनों ने ऐसा किया या नहीं या उन्हें ऐसा लगा या नहीं। उनकी लंबी उदासी से ऐसा कुछ कभी ज़ाहिर नहीं हुआ। जब हम रिपोर्टर बने तो हमने आस-पड़ोस की सभी बहनों को टटोलने का जतन किया, लेकिन सब बेकार रहा। फैक्ट की फूटी कौड़ी हमारे हाथ नहीं लग सकी।
तिलस्म की सबसे रोचक कहानियां ज़रूर छोटे शहरों में लिखी गयी होंगी, क्योंकि गहरे भेद और खामोश चेहरों के बीच का तिलस्म इन्हीं शहरों में पाया जाता है। या फिर इतने बड़े शहर में जहां ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के बीच इतना फासला हो कि हमारी ज़िन्दगी में वो कभी ख़त्म नहीं हो सकते। मैं जब तक अपने छोटे से शहर में रहा- आधा चुप सा रहा, आधा प्रेम में बड़बड़ाते हुए। जैसे आज हमारी पत्नी कहती है- तुम्हारी नींद में अधूरे वाक्यों का पूरा उपन्यास टाइप होता रहता है। तुम ठंडे पानी से हाथ-पांव धोकर सोया करो।
मैं सुबह उठता हूं। मुस्कुराता हूं। और अपने पुराने शहर को याद करता हूं।
Sunday, May 27, 2007
चुप चेहरों के शहर में डरावने किस्से
Posted by Avinash Das at 11:15 PM
Labels: उपन्यास की तर्ज पर
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3 comments:
चुप चेहरों के शहर मे डरावने किस्से के पूरे होनें का इंतजार प्रेम पर ब हुत कुछ लिखा गया है ...........पर शायद कुछ भी नहीं लिखा गया.....जिसे पढ़ कर ऐसा लगे कि जिदंगी की पुरानी तस्वीरों को,जो अब बदरंग हो चुकी है ,कोई साफ कर रहा हो| शाम के धुधलके मे बैठ कर फिर कोई बतिया रहा हो ,स हमें जिस्म आंनद विभोर दिल के साथ......बहरहाल उम्मीद है
dakhalkiduniya.blogspot.com
बहुत कामयाब और साहसी आदमी निकले आप। उस शहर में भी प्रेम कर डाला। शहर के डरावने क़िस्से के बीच पात्र का एहसास कहीं दबा रह गया। थोड़ा गहरा उतरिए। ना शहर के साथ इंसाफ़ हो पाया ना ही एहसास के साथ।
बहरहाल अगली पोस्ट का इंतज़ार जारी है।
-ओम
http://kharikhoti.wordpress.com
ये शहर बडा अजीब हैं. ये शहर दिल के करीब है.ये शहर हमे सपना लगा, ये शहर हमे अपना लगा.बधाई हो.
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