रोमांच और दहशत से भरी एक घटना ने बरसों मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। आज समझ में आता है कि वह कोई घटना नहीं, एक कहानी भर थी, जो हमारे बचपन में पैदा हुई थी। कई सारी कहानियां एक उम्र तक सच जैसी लगती हैं। गांव में तब एक भी घर में सेप्टिक लैट्रिन नहीं था। लगभग घरों में तीन तरफ से टाट का घेरा और सामने से घरेलू कपड़े के पर्दे वाला दुर्गंधित शौचालय होता था। अंदर गहरा गड्ढा खोदा जाता था, जिसमें पाखाना भरा होता था। उसमें चमकदार कीड़े रेंगते रहते थे। अब शायद देखते ही उल्टी आ जाए, लेकिन बचपन में उन कीड़ों को देखना आम बात थी। तो ज़्यादातर लोग बागमती नदी के किनारे दिशा-मैदान के लिए जाते थे। औरतें उजाला होने से पहले जाती थीं। मुंह-अंधेरे। एक बार दो बजे रात में ढेर सारी आवाज़ सुन कर मेरी नींद खुली। उस वक्त मेरी उम्र पांच साल के अासपास थी। यानी '80-'81 का साल रहा होगा। मैंने देखा कि मेरी पांच में से सबसे छोटी बुआ आंगन में बेहोश पड़ी है। घर की बाकी औरतें और मर्द उसके आसपास जमा हैं। मैं जाकर मां की गोद में छुप गया। वह मड़बा की सीढ़ियों पर बैठ कर बीड़ी पी रही थी। मुझे नींद आ गयी। सुबह सब कुछ सामान्य था। सब अपने अपने काम में लगे थे, जैसे रात में कुछ हुआ ही न हो। कुछ सालों के बाद बुलाकी साव से जब मैंने उस रात की बात बतायी, तो उसने कहा कि उसे पता है उस रात क्या हुआ था। और तभी मुझे उस घटना उर्फ कहानी का पता चला।
चांदनी रात थी और आधी रात को भोर हुआ समझ कर बुआ नदी की तरफ निकल पड़ी। जैसे ही बांध पर पहुंची, सामने आम के बगीचे में उसने देखा कि गांव के उन लोगों का भोज चल रहा है, जो मर चुके थे। वहीं शमशान है, जहां हमारे पूर्वजों का सारा (क़ब्र) है। सिर्फ 1999 में मरी मेरी मां को हमने अपने आम के बगीचे में जलाया था, जो बांध के इस पार है। तो बुआ ने देखा कि दर्जनों लोग हंसी ठट्ठा करते हुए पंगत में बैठे हैं। उनके सामने केले के पत्ते रखे हैं और उन पर तरह तरह की मिठाइयां रखी हुई हैं। तमाम मिठाइयों में महुआ की मह-मह करती हुई खुशबू आ रही है। बुआ डर से काठ हो गयी। वह सखुए के एक पेड़ के पीछे छिपी हुई थी। तभी किसी ने कहा कि मानुस की गंध आ रही है। बुआ ने सुना और पूरी ताकत लगा कर दौड़ी। रास्ते में कई बार गिरी और उठ कर फिर दौड़ी। आंगन तक पहुंचते पहुंचते उसके कपड़े फट गये और कई जगह पर छिल जाने से खून भी बहने लगा। आंगन में आते ही चीख़ कर बेहोश हो गयी।
बुलाकी साव ने बताया कि सुबह मेरे जागने से पहले लोग वहां गये थे, जहां बुआ ने बताया था कि उसने क्या क्या देखा। लेकिन सुबह वहां रात्रिभोज की कोई निशानी नहीं थी। सिर्फ मल और मूत्र की दुर्गंध फैली थी। हां, उस दुर्गंध में महुआ की खुशबू अब भी मिली थी। आम के उस बगीचे में महुआ का एक पेड़ भी था। यह सब सुनते हुए मेरे चेहरे पर डर की झुर्रियां उग आयी, लेकिन बुलाकी ने मेेरे गाल अपने हाथ में लिये और मेरे माथे को चूम लिया। झुर्रियां कुछ सिकुड़ ज़रूरी गयीं, पर पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई। तब बुलाकी साव ने मुझे एक कविता सुनायी, जिससे मेरा चेहरा सपाट, सीधा और मुलायम हो पाया। इतने बरसों बाद भी कहानी की चादर में लिपटी इस पूरी घटना को भूल नहीं पाया हूं। न ही बुलाकी साव की ये कविता भूल पाया, जिसने डर के गहरे गड्ढे से मुझे सुरक्षित निकाल लिया था। कविता में छंद का अभाव था, लेकिन राग में कोई कमी नहीं थी।
तुम हो
और कोई नहीं है
बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं
दुख के राग दो दिन की बारिश ही थी
दिल में थी चुभन दिल की साजिश ही थी
वह जो आकर गया आग भड़का गया
कुछ नहीं कुछ नहीं भ्रम की माचिस ही थी
आस थोड़ी सी भी हमने खोयी नहीं है
तुम हो
और कोई नहीं है
बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं
हम चले हैं पहुंच जाएंगे एक दिन
तुम जहां हो तुम्हें पाएंगे एक दिन
तुमको देखेंगे और खूब रोएंगे हम
गीत खुशियों के बस गाएंगे एक दिन
हसरतें आज तक हमने धोयी नहीं हैंं
तुम हो
और कोई नहीं है
बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं
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