Sunday, May 22, 2016

बुलाकी साव की आठवीं कविता

जिस साल पूनम सिनेमा में '1942 ए लव स्‍टोरी' लगी थी, उसी साल बुलाकी साव वहां साइकिल स्‍टैंड पर पार्ट टाइम जॉब करने लगा था। इस तरह का कोई भी काम वह तीन महीने से ज्‍यादा नहीं कर पाता था, लेकिन शुरू इतनी प्रतिबद्धता से करता था जैसे वह उसी काम के लिए बना हो। तो पहली बार मैं अपने मित्र संजीव स्‍नेही के साथ वह फिल्‍म देखने गया था। ऐसा जादू चढ़ा कि दूसरे दिन भी अकेले नून शो चला गया। तीसरे दिन अपनी प्रेमिका से मैंने बहुत मिन्‍न्‍त की कि वह मेरे साथ '1942 ए लव स्‍टोरी' देखने चले। प्रेमिकाओं के दिल पत्‍थर जैसे लगते हैं, लेकिन होते मोम जैसे हैं। वह मुस्‍करा उठी और हम मैटिनी शो देख आये। खुमारी उतर नहीं रही थी। चौथे दिन जब मेरे पांव पूनम सिनेमा की तरफ बढ़े, तो टिकट खिड़की के पास बुलाकी साव सामने से खड़ा हो गया। बोला, 'मुन्‍ना अब और नहीं'। मुझे उसके साथ चौंकने की आदत थी, तो मैं चौंका। बुलाकी साव ने बताया, 'तीन दिन से तुमको देख रहे हैं। पहले दिन संजीब्‍बा के साथ देखे। परसों तुमको अकेले देखे और कल भी कंचनिया के साथ देख लिये थे। आज सोच लिये थे कि तुमको ज्‍यादा बहकने नहीं देंगे।' गुस्‍सा तो मुझे बहुत आया, लेकिन एक चांस लेते हुए बुलाकी से कहा, 'छलके तेरी आंखों से शराब और ज्‍यादा, खिलते रहे होंठों के गुलाब और ज्‍यादा... आज भर देख लेने दो न बुलाकी!' निहौरा करने की मेरी अदा का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने छुट्टी ले ली और मेरा हाथ पकड़ कर राज दरभंगा के गेट तक ले आया। लस्‍सी वाले से दो लस्‍सी मांगी। एक लस्‍सी मेरी तरफ बढ़ाते हुए बुलाकी साव ने पूछा कि ऐसा क्‍या है इस फिल्‍म में, जो तुम तीन दिन से आ-जा रहे हो। लस्‍सी पीते हुए मैंने उसे घूरती आंखों से देखा और मूंछ के नीचे उग आयी उजली लकीर को जीभ से साफ करते हुए कहा, 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख्‍़वाब, जैसे उजली किरन, जैसे बन में हिरन, जैसे चांदनी रात, जैसे नरमी की बात... जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया!' बुलाकी साव मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कहा, 'बिंब देखो! मुझे यह पूरा गीत कंठस्‍थ हो गया है।' बुलाकी ने कहा कि अच्‍छा है, बहुत अच्‍छा है लेकिन फिर मेरे उत्‍साह पर पानी फेरते हुए उसने कहा कि यह पूरा गीत नक़ल है। 1945 में 'मन की जीत' फिल्‍म के लिए जोश मलीहाबादी ने इस तर्ज को पहली बार सोचा और लिखा था। मैंने कहा, सवाल ही नहीं है। बुलाकी ने सुनाया, 'मोरे जोबना का देखो उभार, पापी जोबना का देखो उभार... जैसे नद्दी की मौज, जैसे तुर्कों की फौज, जैसे सुलगे से बम, जैसे बालक उधम... जैसे कोयल पुकार... मोरे जोबना का देखो उभार!' मैंने कहा, क्‍या बात करते हो - यह तो सेम टू सेम है। पर बुलाकी का दिल बड़ा था। उसने कहा कि अदब में ऐसी रवायत होनी चाहिए कि एक ही ज़मीन पर लोग अपनी अपनी बातें कह सकें। फिर शरमाते हुए उसने कहा कि मैंने भी ऐसी एक कविता सोची है, सुनोगे? मैंने लस्‍सी का खाली गिलास बेंच पर रखते हुए कहा, सुनाओ। और बुलाकी साव ने जो कविता सुनायी, वह आज मैं आप सबकी नज़र कर रहा हूं।

चांदी जैसी़ सोने जैसी

पानी भरे भगोने जैसी

पूजा घर के कोने जैसी

भरी खीर के दोने जैसी

तुम हो

तुम हो

पके धान की बाली जैसी

सुर में बजती ताली जैसी

अस्‍ताचल की लाली जैसी

हां बिल्‍कुल घरवाली जैसी

तुम हो

तुम हो

मीठे मीठे जामन जैसी

कीचड़ में भी पावन जैसी

गरम जेठ में सावन जैसी

हंसी, फूल, मनभावन जैसी

तुम हो

तुम हो

लतरी हुई लताएं जैसी

छायी हुई छटाएं जैसी

सन सन सनन हवाएं जैसी

घन घन घनन घटाएं जैसी

तुम हो

तुम हो

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