Sunday, May 22, 2016

बुलाकी साव की पांचवीं कविता

मैथिली के राइटर रामदेव झा से मिल कर जब मैथिली के दूसरे राइटर रामानंद रेणु से मिलने जा रहा था, तो बीच में रायसाहेब पोखर के पास एक पेड़ के नीचे रुक गया। दूसरी तरफ कुछ लड़के बंसी फंसाये हुए थे। उन्‍हें एक आदमी निहार रहा था। ऐसा लगा कि वह बुलाकी साव है। मैंने आवाज़ लगायी। पोखरे के ठहरे पानी पर तैरती हुई मेरी आवाज़ दूसरी तरफ़ पहुंची। उसके चौंकने से पता चला कि वह बुलाकी साव ही है। दौड़ कर उसके पास पहुंचा। हालांकि मैं उसे लेखक नहीं मानता था, क्‍योंकि उसका लिखा हुआ कभी सामने नहीं आया। पर उससे मिलने में लेखक से मिलने की संतुष्टि मिलती थी। उसने पूछा, इधर किधर? मैंने बताया कि दरअसल यह जानना चाहता हूं कि हमारी मैथिली में बग़ावत के गीत कब लिखे जाएंगे। सो आज सिर्फ मैथिली के साहित्‍यकारों से मिल रहा हूं। बुलाकी साव हंसा और ज़ोर से हंसा। कहने लगा कि बगावत के गीत किसी योजना के तहत नहीं पैदा होते, जिसमें ख़रीदे हुए क्रांतिकारी शब्‍द पकाये जाएं। विद्यापति ने जो भी जितना भी लिखा, वह सब बगावत के गीत हैं। बोलना ही बग़ावत है। उसने फ़ैज़ की नज़्म सुनायी, "बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बां अब तक तेरी है..." लेकिन इस नज़्म के अधिकांश शब्‍द मुझे समझ ही नहीं आये। मुझे उर्दू नहीं आती थी। फिर बुलाकी साव ने उसका जो तर्जुमा (अनुवाद) सुनाया, वह आज आप सबके सामने रख रहा हूं। उम्‍मीद है, वह एक अलग और स्‍वतंत्र कविता जैसी लगेगी।

जीभ के दाने खुरच

कुछ बोल

बोल सब बातें

दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में

फुसफुसा कर बोलते थे कौन सुनता था

कौन चेहरे में छुपी चुप्‍पी समझता था

कौन आंखों की ज़बां पढ़ कर पिघलता था

इसलिए अब बोल

क्‍योंकि बोलना हथियार है साथी

और बोलना ही वार है साथी

जीभ के दाने खुरच

कुछ बोल

बोल सब बातें

दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में!

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