Monday, May 16, 2016

बुलाकी साव की चौथी कविता: अंधेरा

मेरी प्रिय कविता। दरभंगा में मैं नाटक किया करता था। साल में हम तीन चार नाटक कर लेते थे और कुल मिला कर छह महीने तो रिहर्सल चलते ही थे। बुलाकी साव कहता था कि यह सब फरेब है। ज़ि‍ंदगी ही जब नाटक है, फिर अलग से नाटक करने की क्‍या ज़रूरत? वह कभी मेरा नाटक नहीं देखता था। अक्‍सर आधी रात से बहुत पहले जब मैं शहर में नाटक या रिहर्सल से गांव की ओर लौटता था, तो वह हजमा चौराहे के पास दिख जाता था। ज़्यादातर मैं उसे अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाता था। पर एक दिन उसने मुझे पकड़ लिया। वहीं पास में एक ताड़ी घर था। तब तक मैं सिर्फ चखना खाता था। ताड़ीघर में सिर्फ एक ढिबरी जल रही थी। कोई नहीं था। वह ज़मीन पर बैठ गया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे भी बैठा लिया। एक औरत आयी। एक बोतल ताड़ी, दो छोटे गिलास और एक प्‍लेट में भुने हुए पीले मटर रख गयी। बुलाकी साव ने प्‍लेट मेरी तरफ बढ़ा दिया। खुद ताड़ी पीने लगा। थोड़ा मटर खाकर जब मैं उठने को हुआ, उसने कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया। तब तक उसकी आधी बोतल खाली हो चुकी थी। उसने मेरी आंखों में आंखें डाली और रोने लगा। रोते हुए उसने अपनी ताज़ा कविता सुनिया। कविता में एक लय थी, जो मेरे ज़ेहन में आज तक बसी हुई है। आज भी, आधी रात से बहुत पहले, जब मैं घर लौट रहा होता हूं - मुझे बुलाकी साव की वह कविता बहुत याद आती है।

बिजलियां हैं

रोशनी है ढेर सारी

लाल पीली हरी नीली

और इन रंगीनियों में

साफ दिखता है अंधेरा

आंख की परतों के भीतर

गिलहरी सी दौड़ती है

भागती और हांफती दिखती है दुनिया

ठहर कर जो देखना चाहें किसी को

अजनबी आहट में खो जाता है वह भी

और फिर से

वही अंधेरा

हमारे पास

सिरहाने से लग कर बैठ जाता है

कौन हैं हम

आदमी जैसा ही

और एक आदमी हैं

चीखना होगा हमें

हर आदमी का चीखना होगा ज़रूरी

ढेर सारी चीख़ से एक पौ फटेगी

मां हंसेगी

और एक बच्‍चा हंसेगा

पेड़ की सब टहनियों पर

ढेर सारे शोख़ पंछी हंस पड़ेंगे

और फिर होगा सबेरा

एक दिन तो हारना होगा अंधेरा!

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