होटल इंटरकांटीनेंटल। बाराखंभा रोड। नयी दिल्ली। ठीक एक दिन पहले इसी जगह भारतीय क्रिकेट टीम मौजूद थी। ऑस्ट्रेलिया से जीत का सेहरा बांध कर लौटी टीम ने यहीं कल शाम डिनर किया, जहां आज हम और भगवती साथ-साथ लंच कर रहे हैं। दो छोर पर मौजूद दो दुनिया एक जैसी चमकती फर्श पर खड़ी है। दिल्ली की पहली कतार के महंगे होटलों में से एक इंटरकांटिनेंटल अमीरी के शिखर पर तैरने वाली क्रिकेट टीम और राजस्थान के अलवर ज़िले में कभी मैला ढोने वाली भगवती और उस जैसी दर्जनों महिलाओं में कोई भेद नहीं कर रहा है, इससे मैं थोड़ा परेशान हो गया।
क्या ये उतना ही सच है, जितना दिख रहा है?
आज़ाद भारत में खुशहाल साम्यवाद की ये तस्वीर वैसी ही है, जैसी दिख रही है?
क्या भगवती और सचिन तेंदुलकर इस मुल्क के बराबर के नागरिक हैं?
मैं थोड़ा हैरान था और मेरी हैरानी से बेफिक्र भगवती ने कहा कि वो यहां पहले भी आ चुकी है। यानी जो दृश्य मेरे लिए अब भी असामान्य है, उसके लिए सामान्य हो चुका है।
भगवती का मायका दिल्ली है। बापूधाम में, जो धौलाकुआं से आगे पड़ता है। भगवती कहती है, मौर्या होटल - ताज होटल के पीछे मायके वालों की बस्ती थी। वाल्मीकि समाज की बस्ती। ये अब भी है, लेकिन अब मकानों-दुकानों में रौनक आ गयी है और पुरानी बस्ती लगती ही नहीं। पांच बहनों और एक भाई के बोझ को जल्दी-जल्दी उतारते हुए मां-बाप ने जहां-तहां सबकी शादी कर दी। भगवती की किस्मत ज़्यादा ख़राब निकली। अलवर में उसके ससुराल की औरतें मैला ढोती थीं। नयी-नवेली बहू ने ठीक से घूंघट भी नहीं उतारा था कि इस बदबूदार परंपरा के फटे हुए कपड़े पहनने के लिए ज़ोर दिया जाने लगा। भगवती को उबकाई आयी। खूब रोयी भगवती। भाग आयी दिल्ली। अपने मायके।
पिता थे कि नियति के लिखे पर भरोसा करते थे, लेकिन भाई को बहन की पीड़ा से ज़्यादा वास्ता था। उसने कहा कि अब अलवर मत जाना। भगवती रही लगभग साल भर - लेकिन समाज के उंगली उठाने से पहले ही भाई ने दुनियादारी समझी और भगवती से कहा कि बहन, अब जो किस्मत में मिला है, उसे तो लेना ही पड़ेगा। भगवती लौट आयी अलवर।
भगवती की कहानी को उसकी ज़ुबानी हम सुन रहे थे और छोटा-सा रिकॉर्डर ख़ामोशी से सब कुछ लिख रहा था। और भी लोग थे, लेकिन सबसे अनजान अपनी कहानी सुनाती हुई भगवती के चेहरे का भाव अच्छे-बुरे, खुशबू-बदबू वाले दिनों के हिसाब से बदल रहा था।
पति को लगता था कि मैला ढोना ठीक बात नहीं है, लेकिन सास-जेठानी का ज़ोर ज़्यादा था। वे कहते कि बच्चे होंगे और जब तक छोटे रहेंगे, तब तक तो ठीक - लेकिन जब बड़े होंगे तो एक आदमी की कमाई से गुजारा चलेगा नहीं। मैला ढोना अभी से शुरू करोगी, तो बाद में आसानी होगी। भगवती ने मिन्नत की, लेकिन सास को लगा मैला ढोने में क्या है - भगवती को न मना करना चाहिए, न मिन्नत। भगवती ने मन मार कर मैला ढोना शुरू किया। महीनों घर लौट कर उल्टी आती थी, बाद में आदत बन गयी। दुबली काया वैसी ही रही, क्योंकि इस जीवन से मन जुड़ नहीं पाया। पेट भर खाने की दिक्कत रही और मैल के छींटों से देह में बसती हुई बीमारी ससुराल में सबके लिए आम थी। भगवती ऐसी जगह ब्याहने के लिए मां-बाप को कोसती रही और सिर पर मैला ढोती रही।
उसी गंदगी में बच्चे हुए और बड़े होने लगे। भगवती को पता ही नहीं चला और उम्र गुज़रती रही। हमने उनकी उम्र पूछी, तो चुप हो गयीं। कभी किसी ने पूछा ही नहीं था। मेरा ख़याल था कि पचपन-साठ होगी। चेहरे से झांकती हुई झुर्रियों से तो ऐसा ही लगता था। मैंने एक बार फिर पूछा, तो उन्होंने कहा कि पता नहीं। होगा चालीस। थोड़ा अधिक भी हो सकता है। यानी ख़याल और हकीक़त में 15-20 साल का फर्क था। मुझे उम्मीद थी कि भगवती का ब्याह सत्तर के दशक में हुआ होगा, लेकिन उन्होंने कहा कि उनकी शादी के आसपास ही इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था। संजय गांधी को भाषण देते हुए जब उन्होंने सुना था, तब वो बच्ची थी।
बदनसीब भारत की उमर ऐसे ही ढली हुई नज़र आती है।
भगवती के तीन बच्चे हैं। एक बेटी, दो बेटा। बेटी की शादी दिल्ली कैंट में कर दी। दिल्ली में सिर पर मैला ढोने का रिवाज़ नहीं है। बेटी दूसरों के घरों में सफाई का काम करती है। मैला नहीं ढोती है। सुखी है। भगवती को संतोष है। लेकिन बेटे की शादी हुई, तो बहू ने छोड़ दिया। अदालत में तलाक के लिए अर्जी़ दे दी। बहू मैला ढोने वालों की बस्ती में नहीं रहना चाहती थी। वो दिल्ली वाली थी। तब की नहीं, जब की भगवती है। वो उस दिल्ली की लड़की थी, जहां आधुनिक संस्कृति अब बड़े घर से निकल कर सड़कों और निम्न मध्यवर्गीय बस्तियों तक में पहुंच चुकी है।
एक दिन किसी ने आकर कहा कि कोई पाठक जी आये हैं। कहते हैं, मैला ढोना पाप है। भगवती इस पाप से छुटकारा चाहती थी और पाठक जी ने भगवती को मुक्ति दिलायी। अब भगवती कहती है कि भगवान ने भेजा था उन्हें। ज़िंदगी की राह आसान कर देने वालों के लिए भगवान जैसा जुमला भारतीय ज़ुबानों में ख़ूब चलता है और भगवती भी ऐसी ज़ुबान में बोलने वाली एक भारतीय नागरिक थी - जिसके लिए कोई ऐसा काम इस देश में नहीं था, जो मैला ढोने के विकल्प के तौर पर उसके सामने होता।
भगवती विंदेश्वर पाठक की बात कर रही थी, जिन्होंने देश में सुलभ आंदोलन खड़ा किया और अब मैला ढोने वाली महिलाओं को नरक से निकालने की कोशिश में लगे थे।
मैंने ग़ौर किया कि जब विंदेश्वर पाठक के जीवन से जुड़े एक प्रसंग की नाट्य-प्रस्तुति होटल इंटरकांटीनेंटल के उस हॉल में चल रही थी, तो भगवती का चेहरा उदास था। एक सांड ने एक बच्चे पर हमला बोल दिया। बच्चे की मां मैला ढोती थी, इसलिए वो अछूत था। किसी ने उस बच्चे को नहीं बचाया। उसे कराहते हुए लोगों ने देखा, लेकिन किसी ने उसे अस्पताल नहीं पहुंचाया। वो मासूम एक निरीह मौत मारा गया। बिहार के बेतिया ज़िले का वो हादसा विंदेश्वर पाठक के बचपन का सबसे मार्मिक हिस्सा था।
भगवती ने कहा कि हमारे बच्चों के साथ अब ऐसा नहीं होगा। वे अब जहां कहीं भी जाती हैं, उन्हें उसी गिलास में पानी पीने के लिए लोग देते हैं, जिसमें वो खुद पीते हैं। भगवती अब सुलभ आंदोलन की एक कार्यकर्ता हैं। वो पापड़ बनाती हैं, वो बड़ी बनाती हैं। भगवती के हाथों की बनी ये चीज़ बाज़ार में बिकती है। भगवती को पैसे मिलते हैं। घर में टीवी है, फ्रीज़ है। थोड़े दिनों से फ़्रीज़ ख़राब हो गया है, जो ठीक हो जाएगा। अब ज़िंदगी से मलाल नहीं है भगवती को। मैला ढोने का काम बहुत पीछे छूट गया है।
लेकिन भगवती की जेठानी, ननद, देवरानी अब भी मैला ढोती है। भगवती के पास आती हैं। कहती हैं, हमें भी इस नरक से निकालो। मोहल्ले की दूसरी औरतें भी आती हैं। सुलभ में काम दिलाने को कहती हैं। भगवती कहती हैं, धीरज धरो। सुलभ सबका है। सबको काम मिलेगा।
ये भारतीय आशावाद है, भगवती जिसकी कायल है। नियति ने अच्छे घर से निकाल कर कठिन समय में ला खड़ा किया। वो दिन भी कट गये और अब खुशहाली है। बड़ा बेटा किसी के बाग़ की रखवाली करता है। अदालत में केस निपट जाएगा, तो दूसरी शादी भी हो जाएगी। छोटे बेटे को कुछ दिनों बाद कामकाज के लिए दिल्ली भेज देगी।
सुलभ ने जो संबल दिया है, उससे ज़िंदगी अब राजी-खुशी कटेगी।
होटल इंटरकांटीनेंटल का एयर कंडिशनर तेज़ था। मेरे पांव कांप रहे थे। हाथों में दाल-भात और तली हुई मछली से भरी प्लेट हिल रही थी। लेकिन भगवती नीले आसमानी रंग की साड़ी में खूब खिल रही थी। उसकी प्लेट में मेरी प्लेट से ज़्यादा मछली थी... और वो हिल भी नहीं रही थी!
Tuesday, May 13, 2008
भगवती के साथ एक दोपहर
Posted by Avinash Das at 3:08 PM 8 comments
Labels: कभी कभी की मुलाक़ात, यहां वहां जहां तहां
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