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Friday, January 30, 2009

हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं!

वहां जहां जीवित लोग काम करते हैं
मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं
उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियां
और वे उसे उठा कर पास पास हो लेते हैं
एक दूसरे की ओर चेहरा करके
देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गये चेहरे आज आखिरी बार देख रहे हों

सब जानते हैं पूरा वाक्य लिखना और अधूरे वाक्य के बाद उनका दिमाग सुन्न पड़ जाता है
एक लंबे अभ्यास की छाया में मशीनी रूप से पूरे होते हैं वाक्य
और जिनमें अनुपस्थित रहता है एक सचेत नागरिक और निष्पक्ष पत्रकार
ये अनुपस्थिति तो यूं भी रहती आयी है
लेकिन हालात बताने के लिए
तमाम विरोधाभास के बावजूद इसका ज़िक्र अभी ज्यादा जरूरी है

बचत के लिए कम की गयी रोशनी और बांटे गये अंधेरे में
आशंका की आड़ी तिरछी रेखाएं स्पष्ट आकृति में ढल रही हैं
सबके पास इसका हिसाब नहीं है कि दो महीने बाद मकान का किराया कैसे दिया जाएगा
राशन दुकानदार से क्या कहा जाएगा
और जिनके बच्चे हैं वे उनकी ज़िद को ढाढ़स के किस रूपक से कमज़ोर करेंगे

हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
और उन्हें काम से निकाला नहीं गया है!

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Monday, September 8, 2008

तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?

अभी दिल्‍ली में हैं। बोरिया-बिस्‍तर समेटने में लगे हैं। पिछले 12 सालों में पटना के अलावा दिल्‍ली दूसरा ठौर रहा, जहां लगातार तीन साल कट गये। सामान सहेजते हुए मुक्‍ता कई सारे काग़ज़ हाथ में थमाती रहती है। पुराने काग़ज़ों का पुलिंदा आपकी कई यात्राओं तक साथ रहता है - जब त‍क उन काग़ज़ों का मर्म आपका पीछा करता रहता है। हर बार सामान समेटते हुए आप ऐसे काग़ज़ों में से खुद चुनते हैं कि अगले मोड़ तक इनमें कौन अब साथ रहेगा, और कौन-से काग़ज़ अब टुकड़ों में बदल देना है। किन यादों की अब आपको ज़रूरत नहीं। इन्‍हीं में से मज़्कूर आलम की एक कविता मिली। मज़्कूर मेरे साथ देवघर में काम करते थे। प्रभात ख़बर का देवघर संस्‍करण पत्रकारिता का उनका शुरुआती सफ़र रहा। इसके बाद वे नवबिहार, हिंदुस्‍तान दैनिक, आईनेक्‍स्‍ट से जुड़ते रहे और अलग होते रहे। फिलहाल लंबे समय से द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्‍करण में हैं। उनकी ये कविता मैं भोपाल नहीं ले जा रहा। सादा काग़ज़ पर पूरी कविता टाइप्‍ड है - श्रीलिपि फॉन्‍ट में। हाथ से ऊपर लिखा है, बड़े भाई अविनाश को। काग़ज़ के पीछे भी हाथ की लिखाई है, माफ करेंगे, तुमसे अपनापन का बोध होता है न, लेकिन कह नहीं सकता; इसलिए लिख रहा हूं। कविता का शीर्षक है - कामरेड! तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़...

पुते हुए चेहरों में
बिस्‍तर की सलवटों को
कैमरा से खींचते या दिखाते,
गर्मागर्म ख़बरों को परोसते
व्‍यूवर्स बटोरते
मेरा भारत महान, वंदे मातरम् का नारा लगाते
तुम भी तो डायना की जान के ग्राहक तो नहीं बन जाओगे?
तुम्‍हारी रातें गर्म और उमस भरी तो नहीं हो जाएंगी
जो करवटों में बीतेंगी?
गेट्स व अंबानी की मटकती चालों पर
फिदा तो नहीं हो जाओगे?
सभ्‍यता व संस्‍कृति की संचार क्रांति पर सवार तो नहीं हो जाओगे?
भूख, अकाल और विस्‍थापितों पर
क्‍या तब भी पैन होती रहेंगी तुम्‍हारी निगाहें?
बाढ़ के शब्‍दचित्रों को ढाल सकोगे रूपक में?
कहीं तुम भी बाज़ीगर तो नहीं बन जाओगे
आंखों के इशारे से सत्ता पलटने वाले मर्डोक की तरह?
कहीं ऐसा न हो
व्‍यवस्‍था परिवर्तन को लात मारकर भेज दो परिधि पर
और छोड़ दो उसे अंतरिक्ष में ज़मीन का चक्‍कर लगाने के लिए
कि वह ख़्वाब ज़‍िंदा भी रहे
और उस पर गुरुत्‍वाकर्षण बल भी न लगे
पर सुविधा परिवर्तन होता रहे,
बाज़ार के खनकते व खनखनाते कोलाहल में
जहां बिकने को बहुत कुछ है
और बहुत भारी है ख़रीदारों की जेब
वहां बिकने वाली ख़बरों के बीच
बचा सकोगे अपने आप को?

कामरेड
तुम सुन रहे हो न मेरी आवाज़?
तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?
ये कविता मज़्कूर ने जब बस्‍ते में रखी होगी, तब मुझे शायद पता नहीं होगा। वो भावुक लड़का है और मैं उसका लिखा नहीं पढ़ता। खास कर व्‍यक्तिगत रूप से लिखी उसकी पातियां। क्‍योंकि संवेदना के किसी पचड़े में पड़ कर मैं खुद को दुखी नहीं करना चाहता। अब सुखी रहना चाहता हूं। लेकिन सफ़र की तैयारी में मिलने वाले पुराने काग़ज़ पुराना दुख दोहरा देते हैं। मज़्कूर ये कविता मैंने आज पहली बार पढ़ी।

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Tuesday, August 19, 2008

अब मैं यहीं ठीक हूं

एक गांव था जो कभी वही एक जगह थी जहां हम पहुंचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे ज़‍िंदगी के आख़‍िरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्‍शा भी था जहां खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्‍मृतियां हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट खट खट एक लय में गुंथी हुई ध्‍वनि
अक्‍सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट खट अभी भी सीढ़‍ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है

वही एक जगह थी, जहां जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीखते हुए आम के बगीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बगीचा ख़त्‍म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आती
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये

थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गांव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्‍तेदारियों का जंगल खड़ा किया
साचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्‍त है ये दुश्‍मन ये ऐसा है जिससे कोई रिश्‍ता नहीं
सोचते हुए ही हमने भुला दिये गांव के सारे के सारे चेहरे

एक दिन गूगल टॉक पर ललित मनोहर दास का आमंत्रण देख कर चौंके
ऐसे नाम तो हमारे गांव में हुआ करते थे
जैसे हमारे पिता का नाम लक्ष्‍मीकांत दास और उनके चचेरे भाई का नाम उदयकांत दास है
स्‍वीकार के बाद का पहला संदेश एक आत्‍मीय संबोधन था

मुन्‍ना चा

हैरानी इस बात की है कि इस संबोधन का मुझ पर कोई असर नहीं था
इस बात की जानकारी और ज़‍िक्र के बावजूद कि संबोधन का स्रोत दरअसल गांव ही है
वो एक लड़का जो मेरी ही तरह गांव से निकल कर अब भी गांव लौटने की बात सोच रहा है

लेकिन अब मैं सोच रहा हूं एक दूसरे घर के बारे में
जो बुंदेलखंड या पहाड़ के किसी खाली कस्‍बे में मुझे मिल जाता
मंगल पर पानी की तस्‍वीरों के बाद
एक वेबसाइट पर मामूली रकम पर
अंतरिक्ष में ज़मीन खरीदने की इच्‍छा भी जाग रही है

अपनों के बगैर की गयी यात्रा में बहुत दूर तक साथ रहीं स्‍मृतियां
जिसमें चेहरे थे और थे कुछ संबोधन
सब छूट गया सब मिट गया अब सिर्फ़ मैं हूं
मेरी उंगलियां कंप्‍यूटर पर चलती हैं आंखें स्‍क्रीन पर जमती हैं
कोई दे जाता है चाय की एक प्‍याली बगल में

मै कृतज्ञ हूं अपने वर्तमान का
पुरानी तस्‍वीरों से भरा अलबम पिछली बार शहर बदलते हुए कहीं खो गया!

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Saturday, March 29, 2008

सिनेमा हॉल के बाहर का सिनेमा आंखों में ज्‍यादा बसता है

(अधूरा गद्य जिसमें कहीं कहीं अधूरी कविताई)

कुछ वक्त कुछ बेवक्त मगर अक्‍सर तीन बजे
या उससे थोड़ा पहले, जब धूप का ताप अधिक महसूस होता है
हमारी कालोनी के अंत में या शुरू में बने सिनेमा हाल से
(जो तब बना था, जब हॉल में बैठ कर कैम्‍पा कोला पीने वाले
सबसे अमीर होते थे)
निकलती हुई पसीने में भीगी भीड़ पर हमारा रिक्‍शावाला
घंटी बजाता रह जाता है
वरना अमूमन सुबह-शाम ऑफिस आने-जाने के वक्त में
आश्रम और आईटीओ-लक्ष्‍मीनगर पुल पर जो जाम लगते हैं...
ठीक वैसा ही जाम तो नहीं लगता
लेकिन इच्‍छा होती है - सिनेमा हाल से निकल कर लोग
सभ्‍यता से सड़क की बायीं तरफ एक कतार में क्‍यों नहीं चलते!

किसी का रिक्‍शा किसी की रेहड़
किसी की चुप्‍पी किसी के तेवर
कहीं नहीं दिखते हैं जेवर
तांबई चमक से तने हुए ललाट से कंधे पर टपकती
है पसीने की बूंद जिसमें मिली है एक कहानी, कुछ
मार-धाड़, बेपनाह रोशनी, तिलस्‍मी अंधेरा,
हांफते हुए चेहरे
सिनेमा हाल से निकल कर असीम शांति
मन में घुमड़ते हुए उल्‍लास से ज्‍यादा जल्‍दी में हम हैं
लेकिन मुख्‍य मार्ग की ट्रैफिक पुलिस यहां हमारा साथ देने कभी
नहीं आएगी वो यहां के लिए नहीं होती

हमारे मन में लगे जाम को हटाने के लिए नहीं होती है ट्रैफिक पुलिस

ये गरीब लोग हैं, जो अभी पुराने सिनेमा हॉल में बासी
फिल्‍में देख कर उनसे ज्‍यादा आनंद पाते हैं जो नई सदी के
सिनेमा हालों में आज की बनी फिल्‍म आज ही देख कर
गंभीर सावधानी के साथ निराश समीक्षक की तरह निकलते हैं

धोबी ने पतलून प्रेस की पहनी नयी कमीज
सौ रुपये में देख सिनेमा पटक रहे हैं खीझ
ये आदम की नयी नस्‍ल हैं इनकी यही तमीज
कहीं कहीं से क्रीज उखड़ गयी है अंधेरे में जानवर की तरह लड़की
को चूमते-चाटते दरअसल और लंबी चलनी थी फिल्‍म मगर
समय के संक्षिप्‍त इतिहास में अवसर का दरवाजा
फिलहाल बंद होने के बाद बुझे-बुझे मॉल से निकलते हुए
ये यूं ही लगते हैं निस्‍तेज, अनाकर्षक

घर पहुंच कर याद आता है रास्‍ता गुलाबी पॉलिस्‍टर सलवार-कमीज पर
उसी रंग की ओढ़नी जिसका कोर लहराता है पीछे-पीछे और उंगलियों से
छू लेने को जी चाहता है जब तक चेहरा सामने नहीं आता
तब तक हमारे मन में एक पूरी प्रेम कहानी बनती है और यूं ही बिगड़
जाती है वो कालोनी से सटे सीलन भरे कमरों वाले मोहल्‍ले की सबसे पतली
गली में चली जाती है

अगले हफ्ते किसी दिन नून शो से निकलते हुए ऐसे ही दिख जाएगी

होता यह है कि जो कहानी अंधेरा मारधाड़ सांसों की धौंकनी सिनेमा हॉल के अंदर
चलती है जहां करोड़ों का सिनेमा बनता है रुपयों में देखा जाता है और गणित का
हिसाब अरबों के ठिकाने लगता है

होता यह है
कि उस सिनेमा हाल के बाहर का सिनेमा
आंखों में ज्‍यादा बसता है

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Friday, December 28, 2007

बेटी है ठुमरी उम्‍मीदों की टेक

श्रावणी के लिए

छोटी सी चादर रजाई सा भार
फाहे सी बेटी हवा पर सवार
मां की, बुआ की हथेली कहार

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

चावल के चलते सुहागन है सूप
जाड़े की संगत में दुपहर की धूप
सरसों की मालिश में खिला खिला रूप

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

छोटे-से घर में है बालकनी एक
बेटी है ठुमरी उम्‍मीदों की टेक
चादर को देती है पांवों से फेंक

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

उजाले का दिन अंधेरे की रात
उनींदे में हंस हंस के करती है बात
फूल सी फुहारे सी नन्‍हीं सौगात

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

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Saturday, October 6, 2007

पानी

अब पीया नहीं जाता पानी
मन बेमन रह जाता है
प्‍यास बाक़ी
आत्‍मा अतृप्‍त

सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज
सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी
दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था

गर्मी में घर लौटना अच्‍छा लगता था
बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना
दो घूंट गले में डाल कर फिर बिस्‍तर पर लेटना
किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना

हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी
आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत

मौसम बदल रहा है
ठंडा पानी पीया नहीं जाता
कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं
ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्‍यास धक्‍का देकर कहीं भाग जाती है

कैसे लोग होते हैं वे
जिनकी प्‍यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!
सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहां से मंगवाता है!
क्‍या दिल्‍ली में मिलता है पानी!
यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही कांपते होंगे

सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी

थक कर प्‍यास से बेकल घर पहुंच कर भी
पानी भरा हुआ गिलास मेरी ह‍थेलियों के बीच फंसा है
बहुत ठंडा है बहुत गर्म

हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं
नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं
बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुंह चुराना चाहते हैं

सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ पचास पैसे में
एक के सिक्‍के में दो गिलास

पर इसमें मिट्टी की बास आती है
गले में खुश्‍की जम जाती है
मुझे रुलाई आती है
मुझे ज़ोर की प्‍यास सताती है!

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Saturday, September 29, 2007

हिंदी मेरी भाषा

हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है

सब्‍जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं

यहाँ तक कि गोश्‍त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता

हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर

दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है

पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं

मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं

दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें

मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है

‘वैष्‍णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’


हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे

कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!

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Thursday, July 12, 2007

युवा कवि सम्‍मान समारोह

वे कुछ लोग जो इस बात से गदगद थे
कि उनकी भाषा में अब चि‍ड़ि‍यों का चहचहाना बंद हो गया है
और नयी राजनीतिक बयार
और बाज़ार का विध्‍वंस दिखने लगा है
वे कुछ लोग जो गिनती में पांच थे मंच पर बैठे थे

एक युवा कवि पुरस्‍कृत हो रहा था
ये वो दौर था जब पुरस्‍कृत होने के लिए
अधेड़ और उम्रदराज़ होने की ज़रूरत नहीं होती थी
शब्‍द को साधने के शुरुआती दिनों में ही
साधकों की जमात में जगह मिल जाती थी

दर्शक दीर्घा में भी थे पचास-साठ
अपनी भाषा की नयी आहट सुनते हुए उनमें से कइयों को
इस बात का एहसास था
कि वे सब एक ऐतिहासिक घड़ी के साक्षी हैं

ऐसी घड़‍ियां आमतौर पर दिल्‍ली में ही आती-जाती हैं
हमारे दरभंगा में तो तब भी ये नहीं आयी
जब बाबा नागार्जुन
पंडासराय के सीलन भरे दो कमरोंवाले किराये के घर में
साल में दो-तीन बार आकर महीनों-महीनों ठहरते थे

ऐतिहासिक सभा में सब बोले
सबने कहा- हिंदी की जय
कइयों की आंखें भींगी कुछ के हाथों ने उंगलियां चटकायीं
सबसे आख़‍िर में अध्‍यक्ष की बारी आयी

कम किताबें ज़्यादा शोहरत वाले अध्‍यक्ष को
काफी तारीफ़ों के साथ बुलाया गया

परसाई कहते थे-
ज़‍िंदगी में दो मौक़ों पर आदमी सबसे अधिक कातर होता है
पहली बार प्रणय निवेदन करते वक्‍त
और दूसरी बार अगर आदमी शरीफ़ हुआ
तो अपनी तारीफ सुनते वक्‍़त


यह एक उद्धरण था, जिसे सुना कर
शराफ़त दिखाते हुए अध्‍यक्ष ने अपनी तारीफ़ किनारे रखने की कोशिश की
और युवा कविता पर न छोटा न बड़ा लेकिन असरदार बयान दिया

बाहर उमस से भरी दिल्‍ली को बारिश भिंगो रही थी
मंडी हाउस में इंतज़ार की चाय ठंडी हो रही थी
मुल्‍क इधर से उधर हो रहा था
हम गदगद हो रहे थे

गो कि गदगद वे लोग ही नहीं हो र‍हे थे
जो अपनी भाषा के नये-तीखे वाक़ये को मंच से बयान कर रहे थे

बीसवीं सदी के पहले दशक के सातवें साल में
जो इतिहास इस सम्‍मान समारोह में बन रहा था
सुना है कि कुछ ऐसा ही इतिहास पिछले साल भी बना था
और उसके पिछले साल भी
और पिछले के पिछले साल भी
इस तरह भाषा में अनोखे और अनोखे भाष्‍य का ये ऐतिहासिक सिलसिला
पिछली सदी के सन अस्‍सी के दशक से जारी है
जब पहली बार किसी युवा कवि को पुरस्‍कृत किया गया था

घर पहुंच कर इतिहास के इस कर्ज़ को
हमने पड़ोस में जाकर उतारना चाहा

- क्‍या आप अरुण कमल को जानते हैं?
- आप भी कमाल करते हैं भाई
आप तो जानते ही हैं
पार्टी-पॉलटिक्‍स से हमको मतलब नईं
सिन्‍हा साहब से पूछिए
उन्‍हें ज़रूर पता होगा
कोई काम होगा, वे थोड़ा ले-देकर ज्‍यादा करवा देंगे


कोई सिन्‍हा साहब किसी अरुण कमल को नहीं जानते!
कोई खन्‍ना साहब किसी हिंदी को नहीं जानते!

ये जानते हैं इन दिनों इस मुल्‍क में एक दर्जन हड़तालें चल रही हैं
राष्‍ट्रपति चुनाव होने वाला है
यूपी में मायावती सरकार अच्‍छा काम कर रही है
और दो हज़ार दस तक दिल्‍ली की सभी रूटों में
मेट्रो रेल दौड़ने लगेगी

सम्‍मान समारोह धन्‍यवाद ज्ञापन के साथ ख़त्‍म हुआ
और हमारी भाषा का जादू भी सभागार की सीढ़‍ियों से
ससरते हुए दीन दयाल उपाध्‍याय मार्ग की सड़क पर जमे
बरसाती पानी में घुल गया

वहीं किनारे खड़े होकर एक युवा कवि
इस हॉल को हसरत से देख रहा था!

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