Showing posts with label कभी कभी की मुलाक़ात. Show all posts
Showing posts with label कभी कभी की मुलाक़ात. Show all posts

Friday, August 15, 2008

पांच रुपये का चमकता सिक्‍का तब भी हमारी जेब में था

(ज्ञानेंद्रपति से क्षमायाचना सहित)

नौ बरस पहले भोपाल आया था। बारिश के दिन नहीं थे। दिन भर धूप चढ़ी रहती थी। चौराहों के पास दुकानों में पीले पोहे में धंसी हुई धनिया की छोटी-छोटी पत्तियां तब भी हमारी तरफ झांकती थीं। मुझे ज्ञानेंद्रपति ने सुबह सुबह बुला लिया था। इससे पहले हिंदी के इस शानदार कवि से मेरी एकमात्र मुलाकात बनारस जन संस्‍कृति मंच के राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन के दौरान 94 या 95 में हुई थी। मेरी कविताएं उन दिनों संभवा में छपी थीं, जिसके संपादक बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी ध्रुवनारायण गुप्‍त थे। दिन में हमारा परिचय ज्ञानेंद्रपति से हुआ, तो मैंने काफी आत्‍मविश्‍वास के साथ उन्‍हें बताया था कि मैं कवि हूं और मेरी कविताएं अमुक जगह छपी हैं। रात में कवि सम्‍मेलन था, जिसमें अष्टभुजा शुक्‍ल ने भी कविताएं पढ़ी थीं और ज्ञानेंद्र जी ने संभवा की कविताओं के जिक्र के साथ कविता पढ़ने के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया था। मैंने एक कविता पढ़ी थी, मुझे आज भी याद है...

गे सजनी पोरुकों ने देलियउ साड़ी तोरा दिबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

सभ घर सभ दरबज्‍जा गेलहुं
सजनी नंगटे मुंह छिछिएलहुं
तहियो बीतल पछिला दिन सभ सुनू अकाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

की होइ छई ई कालाजार
बाबू छोड़ि‍ देलनि संसार
आ हुन कर श्राद्ध केलहुं मां कें सोनक कनबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

किछुए खेत हमर बांचल छल
ओकरो एक सांझ लए बेचल
आ सभटा सपना बहल दियादक घर कें नाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

(प्रिय, माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्‍हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। सबके दरवाजे गया। सब जगह नंगा होना पड़ा। फिर भी दुख में ही दिन बीते। पता नहीं ये कालाजार क्‍या होता है कि पिता जी स्‍वर्गवासी हो गये। उनका श्राद्ध मां की सोने की कनबाली बेच कर करना पड़ा। थोड़े खेत बचे थे, उसे भी एक शाम की भूख के लिए बेच देना पड़ा। सारे सपने रिश्‍तेदारों के घर से निकलने वाली नाली में बह गये। प्रिय माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्‍हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी।)
ये कविता उन दिनों दिल्‍ली से छपने वाले समकालीन जनमत के एक अंक में छपी। उन्‍हीं दिनों के परिचय का हवाला भोपाल में मिलने पर मैंने दिया, तो ज्ञानेंद्रपति पहचान गये। भोपाल सीएसई की फेलोशिप के चक्‍कर में आया था और आग्‍नेय जी के कहने पर धर्मनिरपेक्षता पर आयोजित वृहद संवाद में रुक गया था। उन्‍होंने होटल में ठहरने का इंतजाम कर दिया था और आने-जाने का एसी किराया भी आवंटित किया था, जिसका एक बड़ा हिस्‍सा मैंने सेकंड क्‍लास स्‍लीपर में सफर करके बचा लिया था।

ज्ञानेंद्रपति भोपाल स्‍टेशन के पास ही किसी होटल में रुके थे। सुबह उनके पास पहुंचा, तो करीब आठ बज रहे थे। वे बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमदोनों निकले और लगभग पूरे दिन भोपाल के चक्‍कर काटते रहे। पैदल। रात हो गयी। जब घर लौटे तो पांव वैसे ही फूले हुए लग रहे थे, जैसे कांवर यात्रा से घर लौटे श्रद्धालुओं के पैर फूले हुए होते हैं। पार्क, मस्जिदों (जिनमें एक ताजुल मस्जिद भी थी), झीलों से गुजरते हुए भोपाल से गले तक भर गये और दूसरी सुबह ज्ञानेंद्रपति के पास जाने की हिम्‍मत नहीं हुई। वे आज भी मेरा इंतजार कर रहे हैं, लेकिन मैं उन्‍हें उतनी फुर्सत से आज तक नहीं मिला हूं।

एक वाकया इसी बीच का है। उसी शाम हमसे एक भिखारी टकराया। हाथ मेरी जेब में चला गया। ज्ञानेंद्रपति ने मेरा हाथ पकड़‍ लिया। भिखारी को डांट कर भगाया और फिर मुझे बुरी तरह डांटा। कहा कि भीख देना कितना बड़ा अपराध है! उस शाम जेब के भीतर मेरी उंगलियों में फंसा पांच का सिक्‍का जेब में ही फिसल गया था।

लेकिन आज इसी भोपाल में मैंने एक बच्‍ची को पांच का सिक्‍का थमाया। भास्‍कर के कॉर्पोरेट एडिटोरियल के स्‍थानीय संपादक मुकेश भूषण के साथ जब मैं एक रेस्‍टोरेंट से दोपहर का भोजन करके निकला, तो आठ-नौ साल की एक बच्‍ची मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। मुझे लगा कि पद्मिनी है।

पद्मिनी यूनियन कार्बाइड की विनाशलीला में नष्‍ट हो गयी उड़‍िया बस्‍ती की वो बच्‍ची थी, जो अपने पिता के साथ भोपाल आयी थी और एक शाम घर के प्‍यारे तोते को पका कर घर के लोगों ने जब कई दिनों की अपनी भूख मिटायी, उसके अगले दिन से पद्मिनी बस्‍ती के दोस्‍त भाइयों के साथ रेलों में झाड़ू लगा कर पैसे जुटाने लगी। एक बार बनारस स्‍टेशन पर वो अकेली रह गयी, तो जिस्‍म के दलालों ने उसे वेश्‍या मंडी में पहुंचाना चाहा। लेकिन बहादुर पद्मिनी उन्‍हें चकमा देने में सफल हो गयी। पद्मिनी इन दिनों मेरी रूह में बसी हुई है, क्‍योंकि डोमिनीक लापिएर और जेवियर मोरो की किताब भोपाल बारह बज कर पांच मिनट मेरे साथ हमेशा रह रही है।

मैं इस बात में यकीन करता हूं कि किसी वंचित पर इस तरह दया दिखाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। इसके बावजूद मैं इन्‍हें अब यूं ही सामान्‍य नजरों से नहीं देख सकूंगा। मेरे पांच रुपये इनकी किस्‍मत की तारीख नहीं लिखेंगे - लेकिन चंद मिनटों के लिए ही सही, किसी की आंखों में चमक और रोशनी और उम्‍मीद तो उतार ही सकते हैं।

इसलिए मैंने तय किया है कि अब मैं ज्ञानेंद्रपति की बात नहीं मानूंगा।

Read More

Saturday, June 14, 2008

मीरा से मुलाक़ात

बेड लाउंज... एंड बार। लकड़ी का मजबूत फाटक पहाड़ खिसकाने की तरह खुला। रोशनी की आंधी ने आंखों में अंधेरे के धूल बिखेर दिये। हड़बड़ा कर मैंने फाटक छोड़ दिया। वह अपनी जगह आकर लग गया। मेरी एक हथेली पर डर था, दूसरी पर संकोच। दीवार के पार रोशनी का समंदर था। उसमें जाना ही था। डुबकी लगानी ही थी। दूसरी बार मैंने फाटक को मजबूती से हाथ लगाया। रोशनी के फाहे चेहरे पर आने दिये। अब मैं अनगिनत फुसफुसाहटों और एक लरजती हुई गूंजती आवाज के बीच गुमसुम आ टिका था।

बार किसी पुराने शहर के अंधेरे स्टूडियो की तरह खाली और रहस्यमय था। बीच से लकड़ी की एक सीढ़ी ऊपर जाती थी। ऊपर की दुनिया बस एक हाथ के फासले पर थी, आंखों के ठीक सामने।

वह ‘मीरा’ थी... रोशनी जहां से फूट रही थी, रोशनी जहां पर झर रही थी। मीरा बीच सीढ़ी पर बैठी GEO टीवी को इंटरव्यू दे रही थी। कह रही थी - ‘दो मुल्कों की मोहब्बत के लिए मैं और मेरी इज्ज़त भी कुर्बान होती है, तो ये सर और ये मेरा जिस्म हाजिर है’ - फिर सरहद पार की बातें और हिंदुस्तान की मिट्‌टी का किस्सा। यह मेरे लिए रोशनी की दुनिया थी और अंधेरे का सबब। यहां मैं आंखें फाड़ कर अपनी खामोशी को और गहरा करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा था। यक़ीनन जो दुनिया आपकी नहीं है, उस दुनिया में आपकी भाषा समझी भी नहीं जाएगी।

अचानक मैंने सुना, मीरा चिल्ला रही हैं - ‘एक गैर मुल्क मुझे बेपनाह इज्ज़त दे रहा है, और मेरा अपना ही मुल्क मेरे कपड़े फाड़ रहा है - आपको शर्म आनी चाहिए - आपने मुझको लेकर कंट्रोवर्सी क्रिएट की, फिर भी मैं आपको इंटरव्यू देने के लिए तैयार हुई - कम-अज-कम मेरे मुल्क में मेरी पूरी बात पहुंचाएं।’
(मालूम हो कि पाकिस्तानी न्यूज चैनल GEO ने ही मीरा के हिंदुस्तान में चुंबन दृश्‍य देनेवाली ख़बर को फ्लैश किया था, जिसके बाद पाकिस्तान में हंगामा और प्रदर्शन हुआ था)
बहरहाल, GEO का संवाददाता सिमटा-सिकुड़ा ‘ज़रूर मीरा, ज़रूर’ ही कह पाया था कि मीरा यह ऐलान करती हुई वहां से निकल गयी कि मुझे बाथरूम की ज़ोरदार तलब हो रही है।

वह बार की चौड़ी गली से जाती हुई किसी नदी की तरह जा रही थी। पीले एहसासवाली उजली साड़ी जमीन से लिपट रही थी। वह उन्हें हाथों में समेटने की कोशिश करती हुई जा रही थी।

वह आयी, तब तक दूसरा सेट सीढ़ी के ऊपरवाली दुनिया में तैयार था। बीच रास्ते में मैंने टोका, ‘मीरा... मैं... अविनाश... आपने वक़्त दिया था...’

‘जी हां, याद आया, मैं अभी आयी...’

वह गयी और फिर कभी लौट कर नहीं आयी। मैंने सुना, ऊपर से उनकी आवाज़ आ रही थी, मेकअप... लिपिस्टिक...

‘जी हां, अब पूछिए सवाल...’

मगर सवाल के लिए जिस चैनल से अनुरोध किया जा रहा था, उसकी खूबसूरत-सी संवाददाता ने सवाल शुरू करना चाहा ही था कि मीरा ने कहा कि यह मुझे ठीक जगह नहीं लग रही है... कितना मजा आएगा, अगर हम बार की चौड़ी गली में ऊंची वाली कुर्सी पर बैठ कर बातें करें। संवाददाता ने ‘ओके’ कहा और कुछ लड़के कैमरे की उठा-पटक में मशगूल हो गये।

अचानक भट्‌ट साहब तशरीफ लाये। वह सीढ़ियों से टिक कर ऊपर मुखातिब हुए। मीरा को देखने की कोशिश करते हुए आवाज़ लगायी, ‘मीरा जी सलाम वालेकुम।’ शायद मीरा ने उनकी आवाज़ सुनी नहीं। भट्‌ट साहब ने दुबारे कहा, ‘सलाम वालेकुम मीरा जी!’

इस बार मीरा ने लगभग चौंकते हुए जवाब दिया, ‘भट्‌ट साब! कैसे हैं आप? प्लीज आप ऊपर आइए, मेरे पास बैठिए... इंटरव्यू में मैं नर्वस हो रही हूं...’

भट्‌ट साहब सीढ़ियों पर अपने क़दमों की तेज़ आहट के साथ ऊपर गये। मीरा उनसे लिपट गयीं। भट्‌ट साहब पीले एहसासवाली मीरा की श्‍वेत-धवल साड़ी की तारीफों के पुल बांधने लगे, ‘क्या बात है, आज तो कहर ढा रही हैं आप!’

मीरा ने कहा, ‘भट्‌ट साब! साढ़े तीन लाख की साड़ी है... पूरी कढ़ाई हाथों की है।’

भट्‌ट साहब जैसे चौंके, ‘अरे! ग़रीब हिंदुस्तान-पाकिस्तान जैसे मुल्क में साड़ी साढ़े तीन लाख की! मीरा जी, आपने तो कमाल ही कर दिया! अब तक तो आप मुझे नायिका ही लग रही थीं, अब तो पूरी की पूरी महंगी भी लग रही हैं! वाह, क्या बात है!’

मीरा ने कहा, ‘भट्‌ट साब! अच्छी लगती है न, इसलिए!’

भट्‌ट साहब नीचे आये और फोन पर लगातार मुलायमियत से भरी हुई चीख़ में व्यस्त हो गये। उन्हें फुर्सत हुई, तो मैंने आगे जाकर हाथ बढ़ाया, ‘भट्‌ट साब, मैं...’

उन्होंने गर्मजोशी से अपनी बांहों में मुझे लिया, ‘अरे, कबसे हैं आप?’

‘मुझे तकरीबन डेढ़ घंटे हो गये भट्‌ट साब, पर मीरा जी को फुर्सत ही नहीं मिल रही है।’

भट्‌ट साहब ने मीरा को पुकारा। मीरा सीढ़ी पर चुप क़दमों से उतर रही थीं। भट्‌ट साहब ने प्यार से झिड़की देते हुए मीरा से कहा, ‘मीरा जी, आपने इन्हें डेढ़ घंटे से बिठा रखा है और आप टीवी कैमरा के सामने बक-बक बक-बक किये जा रही हैं!’

मीरा ने कहा, ‘मैं क्या करूं भट्‌ट साब! जैसा आप कहिए मैं करती हूं!’ यह कह कर मीरा बार की चौड़ी गली में तैयार नये सेट की रोशनी में फैल गयीं।

भट्‌ट साहब मेरी ओर मुड़े, ‘अब आपको मीरा जी से नया समय लेना पड़ेगा। देखा आपने, वह कितनी व्यस्त हैं। अब वह स्टार हो गयी हैं। देखा, कितनी महंगी साड़ी पहन रखी है। इस मुल्क में बड़ी दिक्कत है। वैसे तो यह दूसरे मुल्कों की दिक्कत भी हो सकती है कि जब तक बताओ नहीं कि यह इतने दाम की चीज़ है, उसकी कीमत का पता ही नहीं चलता। नहीं! कीमती चीज़ का एहसास कराने के लिए उसकी कीमत की डीटेल्स बतानी ज़रूरी हो जाती है।’

मुझे लगा भट्‌ट साब मुझसे बातें कर रहे हैं। मैंने पूछा, ‘भट्‌ट साब, अब सारांश जैसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं?’

भट्‌ट साहब झुंझलाये, ‘कोई नहीं देखेगा। कोई नहीं देखता। ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ कितने लोग देखने गये? आपने देखी?’

‘हां’

‘अलग हट कर है न!’ भट्‌ट साहब ने कहा, ‘न्न! सारांश नहीं चलेगी अब, कभी नहीं!’ और वह फिर किसी फोन पर मशगूल हो गये। शायद उधर से कोई बहुत करीब का था। कह रहे थे, ‘मादर... फोन ने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी है। सुबह से पचास बार लोगों को बता चुका हूं... बहन के... शोएब अख्तर और गैंगस्टर के बारे में... मादर... फिर भी पूछे जा रहे हैं, पूछे जा रहे हैं...’

मैंने हाथ हिला कर विदा लेने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आंखें बहुत छोटी कर लीं। मैं डर गया। मैं डरना नहीं चाहता था, इसलिए बिना जवाब की आशा के मैं लकड़ी के उसी पहाड़ जैसे फाटक से बाहर निकल आया।

बाहर धूप थी, धूल थी, बस थी, पसीना था... और पसीना बहाती हुई ज़‍िंदगी थी।

OO

मैंने रात को घर आकर मीरा को एसएमएस किया। मीराबाई की पंक्ति को रोमन में टाइप करके : कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मास; दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस! मीरा का जवाब तुरत आया। बल्कि वह जवाब नहीं था, सवाल था : tell me your name... मैंने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। पर, मुझे रात में अच्छी नींद आयी।

तब का एड्रेस : 1104, ए विंग, धीरज रेसीडेंसी, गोरेगांव बस डिपो, ओशीवाड़ा, गोरेगांव (वेस्ट), मुंबई

Read More

Tuesday, May 13, 2008

भगवती के साथ एक दोपहर

होटल इंटरकांटीनेंटल। बाराखंभा रोड। नयी दिल्‍ली। ठीक एक दिन पहले इसी जगह भारतीय क्रिकेट टीम मौजूद थी। ऑस्‍ट्रेलिया से जीत का सेहरा बांध कर लौटी टीम ने यहीं कल शाम डिनर किया, जहां आज हम और भगवती साथ-साथ लंच कर रहे हैं। दो छोर पर मौजूद दो दुनिया एक जैसी चमकती फर्श पर खड़ी है। दिल्‍ली की पहली कतार के महंगे होटलों में से एक इं‍टरकांटिनेंटल अमीरी के शिखर पर तैरने वाली क्रिकेट टीम और राजस्‍थान के अलवर ज़‍िले में कभी मैला ढोने वाली भगवती और उस जैसी दर्जनों महिलाओं में कोई भेद नहीं कर रहा है, इससे मैं थोड़ा परेशान हो गया।

क्‍या ये उतना ही सच है, जितना दिख रहा है?
आज़ाद भारत में खुशहाल साम्‍यवाद की ये तस्‍वीर वैसी ही है, जैसी दिख रही है?
क्‍या भगवती और सचिन तेंदुलकर इस मुल्‍क के बराबर के नागरिक हैं?

मैं थोड़ा हैरान था और मेरी हैरानी से बेफिक्र भगवती ने कहा कि वो यहां पहले भी आ चुकी है। यानी जो दृश्‍य मेरे लिए अब भी असामान्‍य है, उसके लिए सामान्‍य हो चुका है।

भगवती का मायका दिल्‍ली है। बापूधाम में, जो धौलाकुआं से आगे पड़ता है। भगवती कहती है, मौर्या होटल - ताज होटल के पीछे मायके वालों की बस्‍ती थी। वा‍ल्‍मीकि समाज की बस्‍ती। ये अब भी है, लेकिन अब मकानों-दुकानों में रौनक आ गयी है और पुरानी बस्‍ती लगती ही नहीं। पांच बहनों और एक भाई के बोझ को जल्‍दी-जल्‍दी उतारते हुए मां-बाप ने जहां-तहां सबकी शादी कर दी। भगवती की किस्‍मत ज़्यादा ख़राब निकली। अलवर में उसके ससुराल की औरतें मैला ढोती थीं। नयी-नवेली बहू ने ठीक से घूंघट भी नहीं उतारा था कि इस बदबूदार परंपरा के फटे हुए कपड़े पहनने के लिए ज़ोर‍ दिया जाने लगा। भगवती को उबकाई आयी। खूब रोयी भगवती। भाग आयी दिल्‍ली। अपने मायके।

पिता थे कि नियति के लिखे पर भरोसा करते थे, लेकिन भाई को बहन की पी‍ड़ा से ज़्यादा वास्‍ता था। उसने कहा कि अब अलवर मत जाना। भगवती रही लगभग साल भर - लेकिन समाज के उंगली उठाने से पहले ही भाई ने दुनियादारी समझी और भगवती से कहा कि बहन, अब जो किस्‍मत में मिला है, उसे तो लेना ही पड़ेगा। भगवती लौट आयी अलवर।

भगवती की कहानी को उसकी ज़ुबानी हम सुन रहे थे और छोटा-सा रिकॉर्डर ख़ामोशी से सब कुछ लिख रहा था। और भी लोग थे, लेकिन सबसे अनजान अपनी कहानी सुनाती हुई भगवती के चेहरे का भाव अच्‍छे-बुरे, खुशबू-बदबू वाले दिनों के हिसाब से बदल रहा था।

पति को लगता था कि मैला ढोना ठीक बात नहीं है, लेकिन सास-जेठानी का ज़ोर ज़्यादा था। वे कहते कि बच्‍चे होंगे और जब तक छोटे रहेंगे, तब तक तो ठीक - लेकिन जब बड़े होंगे तो एक आदमी की कमाई से गुजारा चलेगा नहीं। मैला ढोना अभी से शुरू करोगी, तो बाद में आसानी होगी। भगवती ने मिन्‍नत की, लेकिन सास को लगा मैला ढोने में क्‍या है - भगवती को न मना करना चाहिए, न मिन्‍नत। भगवती ने मन मार कर मैला ढोना शुरू किया। महीनों घर लौट कर उल्‍टी आती थी, बाद में आदत बन गयी। दुबली काया वैसी ही रही, क्‍योंकि इस जीवन से मन जुड़ नहीं पाया। पेट भर खाने की दिक्‍कत रही और मैल के छींटों से देह में बसती हुई बीमारी ससुराल में सबके लिए आम थी। भगवती ऐसी जगह ब्‍याहने के लिए मां-बाप को कोसती रही और सिर पर मैला ढोती रही।

उसी गंदगी में बच्‍चे हुए और बड़े होने लगे। भगवती को पता ही नहीं चला और उम्र गुज़रती रही। हमने उनकी उम्र पूछी, तो चुप हो गयीं। कभी किसी ने पूछा ही नहीं था। मेरा ख़याल था‍ कि पचपन-साठ होगी। चेहरे से झांकती हुई झुर्रियों से तो ऐसा ही लगता था। मैंने एक बार फिर पूछा, तो उन्‍होंने कहा कि पता नहीं। होगा चालीस। थोड़ा अधिक भी हो सकता है। यानी ख़याल और हकीक़त में 15-20 साल का फर्क था। मुझे उम्‍मीद थी कि भगवती का ब्‍याह सत्तर के दशक में हुआ होगा, लेकिन उन्‍होंने कहा कि उनकी शादी के आसपास ही इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था। संजय गांधी को भाषण देते हुए जब उन्‍होंने सुना था, तब वो बच्‍ची थी।

बदनसीब भारत की उमर ऐसे ही ढली हुई नज़र आती है।

भगवती के तीन बच्‍चे हैं। एक बेटी, दो बेटा। बेटी की शादी दिल्‍ली कैंट में कर दी। दिल्‍ली में सिर पर मैला ढोने का रिवाज़ नहीं है। बेटी दूसरों के घरों में सफाई का काम करती है। मैला नहीं ढोती है। सुखी है। भगवती को संतोष है। लेकिन बेटे की शादी हुई, तो बहू ने छोड़ दिया। अदालत में तलाक के लिए अर्जी़ दे दी। बहू मैला ढोने वालों की बस्‍ती में नहीं रहना चाहती थी। वो दिल्‍ली वाली थी। तब की नहीं, जब की भगवती है। वो उस दिल्‍ली की लड़की थी, जहां आधुनिक संस्‍कृति अब बड़े घर से निकल कर सड़कों और निम्‍न मध्‍यवर्गीय बस्तियों तक में पहुंच चुकी है।

एक दिन किसी ने आकर कहा कि कोई पाठक जी आये हैं। कहते हैं, मैला ढोना पाप है। भगवती इस पाप से छुटकारा चाहती थी और पाठक जी ने भगवती को मुक्ति दिलायी। अब भगवती कहती है कि भगवान ने भेजा था उन्‍हें। ज़‍िंदगी की राह आसान कर देने वालों के लिए भगवान जैसा जुमला भारतीय ज़ुबानों में ख़ूब चलता है और भगवती भी ऐसी ज़ुबान में बोलने वाली एक भारतीय नागरिक थी - जिसके लिए कोई ऐसा काम इस देश में नहीं था, जो मैला ढोने के विकल्‍प के तौर पर उसके सामने होता।

भगवती विंदेश्‍वर पाठक की बात कर रही थी, जिन्‍होंने देश में सुलभ आंदोलन खड़ा किया और अब मैला ढोने वाली महिलाओं को नरक से निकालने की कोशिश में लगे थे।

मैंने ग़ौर किया कि जब विंदेश्‍वर पाठक के जीवन से जुड़े एक प्रसंग की नाट्य-प्रस्‍तुति होटल इंटरकांटीनेंटल के उस हॉल में चल रही थी, तो भगवती का चेहरा उदास था। एक सांड ने एक बच्‍चे पर हमला बोल दिया। बच्‍चे की मां मैला ढोती थी, इसलिए वो अछूत था। किसी ने उस बच्‍चे को नहीं बचाया। उसे कराहते हुए लोगों ने देखा, लेकिन किसी ने उसे अस्‍पताल नहीं पहुंचाया। वो मासूम एक निरीह मौत मारा गया। बिहार के बेतिया ज़‍िले का वो हादसा विंदेश्‍वर पाठक के बचपन का सबसे मार्मिक हिस्‍सा था।

भगवती ने कहा कि हमारे बच्‍चों के साथ अब ऐसा नहीं होगा। वे अब जहां कहीं भी जाती हैं, उन्‍हें उसी गिलास में पानी पीने के लिए लोग देते हैं, जिसमें वो खुद पीते हैं। भगवती अब सुलभ आंदोलन की एक कार्यकर्ता हैं। वो पापड़ बनाती हैं, वो बड़ी बनाती हैं। भगवती के हाथों की बनी ये चीज़ बाज़ार में बिकती है। भगवती को पैसे मिलते हैं। घर में टीवी है, फ्रीज़ है। थोड़े दिनों से फ़्रीज़ ख़राब हो गया है, जो ठीक हो जाएगा। अब ज़‍िंदगी से मलाल नहीं है भगवती को। मैला ढोने का काम बहुत पीछे छूट गया है।

लेकिन भगवती की जेठानी, ननद, देवरानी अब भी मैला ढोती है। भगवती के पास आती हैं। कहती हैं, हमें भी इस नरक से निकालो। मोहल्‍ले की दूसरी औरतें भी आती हैं। सुलभ में काम दिलाने को कहती हैं। भगवती कहती हैं, धीरज धरो। सुलभ सबका है। सबको काम मिलेगा।

ये भारतीय आशावाद है, भगवती जिसकी कायल है। नियति ने अच्‍छे घर से निकाल कर कठिन समय में ला खड़ा किया। वो दिन भी कट गये और अब खुशहाली है। बड़ा बेटा किसी के बाग़ की रखवाली करता है। अदालत में केस निपट जाएगा, तो दूसरी शादी भी हो जाएगी। छोटे बेटे को कुछ दिनों बाद कामकाज के लिए दिल्‍ली भेज देगी।

सुलभ ने जो संबल दिया है, उससे ज़‍िंदगी अब राजी-खुशी कटेगी।

होटल इंटरकांटीनेंटल का एयर कंडिशनर तेज़ था। मेरे पांव कांप रहे थे। हाथों में दाल-भात और तली हुई मछली से भरी प्‍लेट हिल रही थी। लेकिन भगवती नीले आसमानी रंग की साड़ी में खूब खिल रही थी। उसकी प्‍लेट में मेरी प्‍लेट से ज़्यादा मछली थी... और वो हिल भी नहीं रही थी!

Read More

Tuesday, November 27, 2007

चेंबूर, विद्या बालन का घर और सुबह की गुफ्तगू

इधर मेरा मोबाइल ग़ुम हो गया, तो सारे नंबर भी चले गये। उसमें विद्या बालन का नंबर भी था। उनका नंबर मैंने कहीं अलग से लिखा भी नहीं था। एक दिन अपने ऑफिस की टेल डायरी से मुझे विद्या बालन का नंबर मिला। पर इस नंबर को लेकर संशय था कि पता नहीं ये उनका सीधा नंबर है या वाया मीडिया वाला नंबर। मैंने एक एसएमएस किया, जिसका जवाब मिला नहीं। परसों अचानक इस नंबर से जवाब मिला - “हाय अविनाश, बुखार था इसलिए रिप्‍लाइ नहीं किया। सब ख़ैरियत? आप कैसे हैं?” और एक बार फिर विद्या से टूटी हुई बातचीत का सिलसिला शुरू हो पाया। मैं उन दिनों सुरेंद्र राजन जी के साथ रहता था। विद्या से मिलने की बात किसी बरिस्‍ता में तय हो रही थी। लेकिन एक शाम विद्या का एसएमएस आया कि सुबह घर पर आ जाइए, इत्‍मीनान से बात हो पाएगी। परिणीता की रिलीज़ के बाद उनका एक-एक मिनट क़ीमती था, इन्‍हीं में से मेरे लिए उन्‍हें वक्‍त निकालना था। एक ऐसी बातचीत के लिए, जिसका प्रस्‍तोता न कोई टीवी था, न कोई अख़बार, न ही कोई बड़ी फिल्‍मी पत्रिका। सुबह-सुबह हम पुराने जूते रास्‍ते में बूट पालिश से चमका कर चेम्‍बूर पहुंचे, विद्या के घर। एक मध्‍यवर्गीय बैठकखाने में सुबह की अलसायी चादरों से ढके गद्दे पर बैठे कुछ मिनट ही हुए कि एकदम से ताज़ा-ताज़ा विद्या सामने खड़ी हो गयीं। फिर हमने एक कोने में बैठ कर खूब बात की। विद्या ने अपनी मां से मुलाक़ात करवायी और घर में काम करने वाले लोगों से भी। वहां से लौटे, तो ये तय था कि फिर शायद ही विद्या हमें वक्‍त दे पाएंगी, क्योंकि परिणीता के बाद बॉलीवुड में उनके छा जाने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। लेकिन शाम को उनका एसएमएस आया कि सुबह की बातचीत अच्‍छी रही। वो बातचीत अब तक कहीं शाया नहीं हो पायी। अचानक पुरानी सीडीज़ चेक करते हुए मिल गयी, तो लगा कि इसे साझा करना चाहिए। बातचीत वैसी की वैसी रखी जा रही है, जैसी हुई। कोई एडिटिंग नहीं। उम्‍मीद है, विद्या को भी इस बातचीत की याद परिणीता के दिनों में ले जाएगी।


हालांकि ये सवाल आपको पूछना चाहिए, पर मैं पूछ रहा हूं। परिणीता आपको कैसी फिल्म लगी?
काम करते वक्त बहुत मज़ा आया। दादा (प्रदीप सरकार) पर मेरा विश्‍वास बहुत ही स्ट्रांग है। तो मेरे खयाल से मुझे पता था कि अच्छी फिल्म बनेगी, और अच्छी फिल्म बनी है। मैंने प्रीमियर में पहली बार देखी परिणीता। बहुत अच्छी लगी, और मुझे लगा कि शायद मैंने काम किया है, तो मैं ऑब्जेक्‍टेवली नहीं देख पाऊंगी। आइ मीन... इस फिल्म को मुझे जहां रुलाना चाहिए, नहीं रुलाएगी। कुछ-कुछ जगह पर ऐसा हुआ भी, पर कुल मिला कर बहुत अच्छी फिल्म लगी।
किसी नवजात अभिनेत्री के लिए पहली ही बार में परिणीता की भूमिका किस तरह की चुनौती है?
दरअसल परिणीता जो है, लॉलिता का कैरेक्टर जो है, बहुत ही लेयर्ड है। बहुत सारे... जिसको कहते हैं हाव-भाव, वो है... दादा जैसे डायरेक्टर इस तरह की भूमिका के लिए आपसे बहुत कुछ चाहते हैं। सिर्फ वो नहीं, जो स्क्रिप्ट में हो। तो हमने तैयारी भी ऐसे की थी। मेरे दिमाग में ये बात नहीं थी कि क्या मै कर पाऊंगी, नहीं कर पाऊंगी, मैं पहली बार कर रही हूं, ऐसा कुछ नहीं था। मैं केवल मेहनत कर रही थी ताकि जो रोल मुझे दिया गया हो, मैं उसे सच्चाई के साथ निभा पाऊं।
किस-किस तरह की दिक्कतें आयीं परिणीता को अपने भीतर एडॉप्ट करने में? आप परिणीता से पहली बार कैसे परिचित हुईं? नॉवेल पढ़के या...
नहीं, पहले दादा ने स्टोरी सुनायी थी मुझे परिणीता की, क्योंकि वो लिख रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि तुम्हें नॉवेल पढ़ना चाहिए और जो इस नॉवेल पर पहले की फिल्में हैं, वो भी देखनी चाहिए तुम्हें। तो मैंने फिल्म देखी। पढ़ा, पर हिंदी का बहुत ही खराब ट्रांसलेशन पढ़ा। मैं होप कर रही हूं कि कोई उसे अच्छी तरह से अभी ट्रांसलेट करे (हंसते हुए)... क्योंकि इस ट्रांसलेशन को पढ़ने में काफी दिक्कत हुई। यही थी तैयारी, बाकी तो तैयारी... जिस हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी गयी है, उसको पढ़के तैयारी की मैंने। मगर सब कुछ धीरे-धीरे हुआ। एक ही दिन में मैं लॉलिता नहीं बन पायी। बहुत बार स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद... दादा के साथ, और दूसरे कैरेक्टर्स के साथ स्क्रिप्ट डिस्कस करने के बाद... और शूट के वक्त... आइ थिंक, दैट प्रॉसेस स्टार्टेड ऑल द मॉन... स्लोली एंड स्ट्रेडली स्टार्टेड थिंकिंग इन टू द कैरेक्टर...
आपने बिमल रॉय की परिणीता कब देखी? यानी प्रदीप सरकार की परिणीता शूट होने के कितने दिन पहले?
दो-तीन महीने पहले...
पहले कभी परिणीता के बारे में सुन रखा था!
हां-हां, सुना तो था कि मीना जी ने इस रोल को मॉडेलाइज किया था... और मौसमी जी ने भी ये रोल किया है, बंगाली में... तो सुना तो बहुत था उसके बारे में, पर देखा नहीं था। जब डिसाइड हुआ कि मैं करनेवाली हूं फिल्म, तब देखा मैंने।
बिमल रॉय की परिणीता क्लासिक है, क्योंकि सिनेमा के चिंतक और व्याख्याकार और क्रिटिक बताते हैं कि शरत बाबू के नॉवेल की पूरी संवेदना बिमल रॉय ने स्क्रीन पर उतारी थी। प्रदीप सरकार की परिणीता और बिमल रॉय की परिणीता में किस तरह का फर्क है?
बहुत फर्क है, क्योंकि दो डायरेक्टर्स के इंटरप्रीटेशन में बहुत फर्क होता है। हमने क्लासिक बनाने की कोशिश नहीं की, एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की है... और... हर डायरेक्टर का जो है वो अलग इंटरप्रेटेशन होता है। और जाहिर है दादा का आग्रह दूसरा था। काफी उन्होंने लिबर्टीज लिये हैं स्टोरी के साथ। पर... दैट इज पार्ट ऑफ हिज विजुअलाइजेशन... लोगों को ये समझना चाहिए कि हर डायरेक्टर का एक अलग नज़रिया होता है। एक ही किताब आप अपनी तरह से पढ़ेंगे, मुझे अपनी तरह से भाएगा। तो जिस तरह से आप उसे स्क्रीन पर दर्शाएंगे... या दिखाएंगे, वह पूरी तरह से अलग होगा, जिस तरह से मैं उसे दिखाऊंगी। तो ये सब्जेक्टिव है बहुत... और बिमल रॉय जी बहुत ही बड़े डायरेक्टर थे। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बनायी हैं, पर हमारी कोशिश अलग थी। हम ये नहीं चाहते थे कि बिमल रॉय की फिल्म को ही हम नये चेहरों में उतार दें। यह महज इत्तफाक है कि परिणीता एक ऐसी कहानी थी, जिस पर बिमल रॉय ने भी फिल्म बनायी थी... बाकी हमलोगों ने तुलनात्मक अध्ययन के नज़रिये से भी फिल्म नहीं बनायी।
परिणीता की शूटिंग के वक्त आपको मीना कुमारी की याद आती थी?
कभी-कभी मैं जिस तरह से वाइस माड्यूलेट करती हूं, दादा कहते हैं कि चलो कभी-कभी लगता है कि तुम मीना कुमारी की री-इनकार्नेशन हो... मज़ाक़ में... (हंसती हैं)... मिस्टर चोपड़ा जी (विधु विनोद चोपड़ा) के ऑफिस में मीना जी की बहुत खूबसूरत एक तसवीर है... (फिर थोड़ा रुक कर हिचकिचाते हुए विद्या ने कहा कि पर यह हमारे-आपके बीच की बात है, मगर चूंकि यह बात रिकार्ड हुई है, इसलिए यहां दी जा रही है)... अगर कभी मिस्टर चोपड़ा ने मुझसे पूछा कि तुम्हें एक वो चीज क्या चाहिए, जो मेरे पास है, तो मैं उनसे कहूंगी कि वो फोटो... बहुत ही खूबसूरत फोटो है... उसमें एक दर्द है, एक स्लाइट्स स्माइल भी है, एक सेंस्वसनेस है... सब कुछ है उस तसवीर में... तो मैं चाहूंगी कि वो मुझे दें।
अभी तक वो मीना कुमारी आपको मिली नहीं है...
नहीं, अभी तक मैंने पूछा भी नहीं है, मैंने उनको बताया तक नहीं है। क्योंकि काफी एक्टरों की तसवीरें उनकी दीवार पे लगी हुई है... बहुत क्लासिक फोटोज़। अगर उनमें से ये मुझे मिल जाए, तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगी... मीना जी के बारे में ऑफकोर्स डिस्कशन होती थी... आइ हैव सीन साहिब बीबी और गुलाम... मैंने कभी सोचा नहीं था... मेरी इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं सोचूं कि मेरी तुलना उनसे हो। वो सबसे ऊंची संवेदना की अभिनेत्री थीं, मेरी तो अभी शुरुआत ही है।
मीना कुमारी की खासियत यह थी विद्या कि वह एक शायरा भी थीं। शाइरी करती भी थीं और शाइरी जीती भी थीं। उनके अभिनय में एक शाइरी थी... वह एक आम आदमी की संवेदना के स्तर पर अपने अभिनय को संवारती थीं। इस लिहाज से आप अपने जीवन और अपने अभिनय को कैसे देखती हैं?
देखिए मैं सुसॉलजी की स्टूडेंट रही हूं, तो मुझमें एक हद तक सामाजिक आग्रह तो है, सेंसेविटी है, अवेयरनेस है... पहले तो यही सारी चीजें होनी चाहिए... लेकिन मैं (संकोच से) लिख नहीं सकती।
लिखने की इच्छा है विद्या?
इच्छा भी नहीं है, क्योंकि मुझमें वो कौशल है भी नहीं। सिर्फ इसलिए कि लोगों को मेरी ऐसी ख्वाहिश के बारे में सुनना अच्छा लगे, मैं नहीं कहूंगी कि मैं लिखना चाहती हूं... मुझे लगता है कि मैं लिख नहीं सकती। पर, आजकल ऐसे लोग भी लिख रहे हैं कि पढ़ कर बहुत दुख होता है। कुछ दिन पहले मेरा एक इंटरव्यू छपा था, जो मैंने दिया ही नहीं था। किसी ने ऐसे ही छाप दिया था। और लैंग्वेज उसमें ऐसी थी कि मैं सेकेंड क्लास में भी वैसी इंगलिश नहीं लिखती थी। इट्स नॉट अबाउट... बड़े लफ्जों से अच्छी राइटिंग नहीं होती। एक लैंग्वेज का वो फील होता है न, वो भी आज की राइटिंग में नहीं आता... तो इट्स वेरी डिस्अपॉइंटिंग... ऐसे में मुझे लगता है कि अगर मैं लिखने लगूं तो सेम थिंग हो जाएगा, तो मैं कोशिश भी नहीं करना चाहती।
कभी-कभी ऐसा भी तो होता है कि हम अपने अभिनय में कविताई संवेदना उतारते हैं...
जैसा कि आपने मीना जी के बारे में कहा, तो मैं पोइट्री ही नहीं, स्टोरीज़ व नॉवेल्ज़ भी पढ़ती हूं। क्लासिक लिटरेचर बहुत कम पढ़ा है मैंने, पर पढ़ने का शौक है... और एक्सपीरिएंसेज बटोरने का मेरा शौक ही नहीं बल्कि मेरे जीवन का हिस्सा है, ऐसी ही हूं मैं। तो मुझे लगता है कि किसी भी एक्टर को हर तरह के अनुभव में अपने आपको इनवॉल्व करना बहुत ज़रूरी है। यू हैव टू हैवेन ओपन माइंड ऑर नॉट ओनली इन पोएट्री... आइ जेनरली ट्राइ टू कीप माइ सेल्फ ओपन टू ऑल ऑफ एक्सपीरिएंसेज... सो दैट... कहीं न कहीं जाके वो मुझे... नॉट ओनली एज एन एक्टर... जब मैं एक्टिंग करती भी नहीं थी... मेरा हमेशा से यही नज़रिया रहा है। आइ थिंक इट हेल्प्स यू डेवलप इन टू अ बेटर परसन...
अपनी ज़‍िंदगी में पहली बार आपने अभिनय के बारे में कब सोचा?
मैं सेवेंथ स्टैंडर्ड में थी, जब मैंने एक-दो-तीन देखा माधुरी दीक्षित का... और मुझे लगा कि काश मैं ऐसे नाच पाती... (हंसती हैं)...! उनमें ऐसी चीज़ थी, जो सबको अपनी तरफ रिझाती थी। और ज़ाहिर है, मैं भी उनकी बहुत बड़ी फैन हो गयी थी। मेरे में कहीं न कहीं हमेशा एक्ट्रेस होने की चाहत थी, और धीरे-धीरे मेरी चाहत बढ़ी... एक-दो-तीन से मामला शुरू हुआ और बाद में जैसे-जैसे मैं और फिल्में देखती रही, मेरी चाह बढ़ती गयी। और शायद माधुरी दीक्षित का ही असर था कि एक दो तीन देखने के बाद से मैंने किसी और प्रोफेशन के बारे में सोचा भी नहीं।
एक फिल्म आयी थी मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं... क्या आप माधुरी दीक्षित बनना चाहती हैं?
जब छोटी थी, तो हां, माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी... इन द सेवेन स्टैंडर्ड... बट आइ... स्टार्टेड ग्रोइंग एंड रीयलाइजिंग कि बहुत सारी एक्ट्रेसेज़ ऐसी हैं, जिनके परफारमेंस देख कर मुझे वैसी चाहत होती थी... जब छोटी थी... जब बड़ी होती गयी, तो लगता गया कि मुझे खुद में एक एनटेटिव बनना है। जब मैं छोटी थी तो मज़ेदार बात ये है कि तब मुझे पता नहीं था कि तानपुरा जो होता है, वह सिर्फ... अकंपनिंग... सुर के लिए होता है। मैं मम्मी से कहती थी कि मैं तानपुरा टीचर बन जाऊंगी... (हंसते हुए)... हालांकि तानपुरा टीचर जैसी कोई चीज होती नहीं है।
आपकी जिंदगी में परिणीता के पहले और बाद का फर्क क्या है?
फर्क तो कोई मुझे ज्यादा नहीं लगता। एक्सेप्ट द फैक्ट कि आप यहां बैठे हैं और मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं। फोन कॉल्स बढ़ गये हैं। मैं दस की रात एम्सटर्डम (आइफा अवार्ड फंक्‍शन) से आयी। आज चौदह तारीख की सुबह है। तब से लेकर अब तक तकरीबन एक सौ फोन कॉल्स आये हैं। मुझे अच्छा लग रहा है। रिव्यूज़ बहुत अच्छे रहे हैं। इन सब बातों से इनकरेजमेंट बहुत मिलती है... इन द फिल्म हैज बिन डीक्लेयर्ड अ हिट... तो ज़ाहिर है मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। फर्क यह है कि मुझे ब्रीदिंग टाइम नहीं मिल रहा... क्योंकि इतने सारे इंटरव्यूज़ हो रहे हैं। क्योंकि परिणीता की रीलीज तक मैं प्रेस से नहीं मिल रही थी, तो अभी मुझे लगता है कि मेरी एक रेस्पांसिबिलिटी है... और मेरे प्रोड्यूसर ने भी कहा है कि अगर लोग तुममें दिलचस्पी दिखा रहे हैं, तो तुम्हें उनसे बात ज़रूर करनी चाहिए। तो अब मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं... और कुछ नहीं... और कोई फर्क मुझे नज़र नहीं आता।
मैं लोगों के एटीट्यूड की भी बात कर रहा हूं विद्या। एक नोन फेस और एक अननोन फेस को दुनिया अलग-अलग देखती है...
अभी तक तो मौका ही नहीं मिला है यह सब महसूस करने का। एम्सटर्डम से आने के बाद बहुत ही बिज़ी रही हूं। लेकिन मेरे एक्सटेंडेड फैमिली से जो है, बहुत अच्छे-अच्छे रेस्पांसेज मिले हैं। उन लोगों ने कभी ये मुझे महसूस नहीं होने दिया कि मैं कुछ अलग कर रही हूं... बाकी नाइन टू फाइव प्रोफेशन में हैं... मैं मे बी नाइन टू सिक्स में हूं... क्योंकि शिफ्ट इतने टाइम का होता है... बस इतना ही फर्क है।
आपकी ज़‍िंदगी का सफर कहां से शुरू होता है?
मुंबई में पली-बढ़ी हूं। पैदा हुई हूं यहां। इस घर के ठीक सामनेवाले घर में। सामनेवाला घर भी हमारा ही है। उस घर में पैदा हुई, इस घर में पली-बढ़ी। टू मच फॉर अ मुंबईकर... स्कूलिंग मेरी चेंबूर सेनैंटिनी स्कूल में हुई। कॉलेज सेंजेवियर्स गयी थी मैं और बहुत पहले काम करना शुरू कर दिया था.. मोर एज अ... शौक... आइ डीडंट नो कि किसी दिन ये मेरा प्रोफेशन बन सकता है। लेकिन कॉलेज में थी और पोस्टर लगा था कि कालेज स्टूडेंट्स अप्लाइ करें। कालेज पर आधारित एक सीरियल बन रहा है। मैंने लोकल फोटो स्टूडियो से कुछ तसवीरें खिंचवायी और बायोडाटा के साथ भेज दिया। बायोडाटा को पढ़ के उन लोगों ने टेस्ट किया मुझे। मैं सेलेक्ट हो गयी। हमने शूटिंग भी की। बाद में सीरियल बंद पड़ गया। बीआइ टीवी के लिए वह बन रहा था।

Read More

Wednesday, July 18, 2007

चंद्रशेखर, जिन्‍हें मैं जानता हूं...

मुझे नहीं मालूम, मैं चंद्रशेखर को कितना जानता हूं। पर मुझे इतना मालूम है कि एक शख्‍स जितना आपके सामने ज़ाहिर होता है, उससे अलग वो जैसा भी हो, आपके लिए उसका कोई अस्तित्‍व नहीं है।

सन 2002 में जब चंद्रशेखर 75 साल के हुए, उनका लिखा-बोला-कहा सब किताबों की शक्‍ल में छपना तय हुआ। संपादक मंडल में हमारे नाम की मुनादी हरिवंश जी ने कर दी थी और चंद्रशेखर से हमारी मुलाक़ात सिताब-दियारा में पहले ही करवा दी थी। दिसंबर 2001 के आख़ि‍री हफ्ते में हम और हमारी पत्‍नी इसी काम के लिए दिल्‍ली आये।

आईटीओ के पीछे फैले नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर की पार्टी का दफ्तर था, जहां अब कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती थी। वजह जगज़ाहिर है कि तब तक चंद्रशेखर इस मुल्‍क में कोई राजनीतिक ताक़त या केंद्र नहीं रह गये थे। सिवाय इसके कि संसद में उनके विरोधी तेवरों की विश्‍वसनीयता अब भी थी।

नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर से यह दूसरी मुलाक़ात थी। पत्‍नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। उन्‍होंने जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा उन्‍होंने निबाही। हमने बाहर आकर सबसे पहले मुट्ठी खोली। देखा पांच सौ के कुछ नोट हैं। वहीं हमने ये भी तय किया कि इससे कुछ कपड़े ख़रीदेंगे। दिल्‍ली में पहनने के लिए कुछ ख़ास नहीं है।

शाम में हम भोंडसी आश्रम के लिए ओमप्रकाश जी के साथ चले। वे चंद्रशेखर की पार्टी के राष्‍ट्रीय महासचिव थे और इसलिए थे, क्‍योंकि चंद्रशेखर के शुरुआती दिनों के राजनीतिक हमसफर थे। काफी शाम हो गयी थी, लेकिन आश्रम की चौहद्दी समझ में आ गयी। सुबह जल्‍दी उठ गये। पूरे आश्रम का चक्‍कर लगाते लगाते अच्‍छी खासी धूप निकल आयी। पता चला, चंद्रशेखर नाश्‍ते पर हम दोनों का इंतज़ार कर रहे हैं।

नाश्‍ते के दरम्‍यान ही एक जादूगर आया। शायद जादूगर शंकर। उसने कुछ जादू दिखाये। मसलन अचानक हाथ में हरे हरे नोट उगा लिये और हवा के किसी छोर से मिठाइयों का डब्‍बा उड़ा लिया। वहां सब मिल कर इस तमाशे पर हंस रहे थे। अचानक जादूगर ने चंद्रशेखर जी से थोड़ी अलग से गुफ्तगू की गुज़ारिश की। दोनों उठ कर एक किनारे गये और कुछ ही मिनटों बाद लौट कर आ गये। जादूगर के जाने के बाद चंद्रशेखर ने कहा- पद्मश्री की सिफारिश के लिए आया था। ये भी कि इस जादूगर से उनकी पहली मुलाकात ट्रेन के बरसों पुराने किसी सफर में हुई थी।

संयोग से हुई मुलाकात को बरसों बाद एक राजनीतिक सिफारिश में बदलते हुए देखना हमारे लिए अनुभव था। चंद्रशेखर जी के लिए एक सामान्‍य सी बात। उन्‍होंने थाली में रखे संदेश का टुकड़ा उठाया। हमसे भी कहा- खाइए, स्‍वादिष्‍ट है!

ऐसी कुछ और मुलाक़ातें हैं, लेकिन सवाल ये है कि अंतरंग चर्चाओं का आपका संसार आपके अलावा और किनके लिए मानी रखता है ? भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर का कद जब संयोगों के हवाले हो चुका हो कि जब भी तीसरे मोर्चे की चर्चा होती हो और प्रधानमंत्री कौन हो- तब चंदशेखर का नाम उछल-उछल कर आता रहा है। इसकी वजह यही है कि सत्ता की राजनीति के लिए जितनी गरिमा और जितनी चालबाज़‍ियां एक शख्‍सीयत में चाहिए होती है, वो चंद्रशेखर में थी।

हर पार्टी में उनके दोस्‍त थे। ऐसा कहते हैं। ये भी कहते हैं कि इसी दोस्‍ती की वजह से वे लगातार बलिया के सांसद रहे। यानी दूसरी पार्टियां उनके ख़‍िलाफ कमज़ोर उम्‍मीदवारों को वहां से उतारती रहीं ताकि चंद्रशेखर का रास्‍ता साफ रहे। वे संसद में हिंदुत्‍ववादी राजनीति के ख़‍िलाफ बोलते रहते थे और अपनी पत्रिका यंग इंडियन में भी कुछ ऐसा ही लिखते रहते थे। लेकिन निजी रूप से ऐसी पार्टियों के नेताओं से खुलकर दोस्तियां निभाते थे। यानी एक ओर जहां वे अपनी राजनीतिक समझ के लिए सीमारेखाएं तय करते थे, वहीं राजनीतिक संबंध के लिए कोई सीमारेखा नहीं थी। इससे ये भी साफ होता है कि समझदारी की उनकी मुखर अभिव्‍यक्ति भी उनको ये भरोसा नहीं दे पाती थी कि लोग उनकी शर्तों पर उनके साथ रहेंगे।

आख़‍िरी दिनों में वे राजनीतिक रूप से अकेले थे। हालांकि लोग उनके पास आते-जाते रहते थे। ये आना-जाना पुरानी रवायतों का सिलसिला था, और इसके सबसे बड़े हिमायती चंद्रशेखर थे। यह हिमायत तब सबसे अधिक दिखती थी, जब दूसरी पार्टियों में शामिल उनके दोस्‍त घपलों-घोटालों जैसी मुश्किलों में पड़ते थे। जॉर्ज फर्नांडीस जब तहलका कांड में फंसे, तो सबसे पहले चंद्रशेखर ने जाकर ढाढ़स बंधाया था। जब प्रधानमंत्री थे, तब किसी जलसे में धनबाद के कोल माफिया सूरजदेव सिंह के घर गये थे।

नामवर सिंह ऐसी राजनीतिक मित्रताओं को थोड़ा धीरज धर के समझने की गुज़ारिश करते हैं। चंद्रशेखर की मशहूर जेल डायरी की प्रस्‍तावना (आधुनिक मित्रलाभ) में नामवर सिंह लिखते हैं-
अभी कुछ समय पहले जॉक देरिदा की मित्रता की राजनीति (पॉलिटिक्‍स ऑफ फ्रेंडशिप – 1997) नामक पुस्‍तक मेरे हाथ लगी और पढ़ने पर लगा कि मित्रता को एक सामंती मूल्‍य मान कर खार‍िज़ करना जल्‍दबाज़ी होगी।
लेकिन मेरा सिर्फ एक सवाल है कि अगर आप मुल्‍क के नियंता की कुर्सी पर बैठे हैं, तो आपको जनहित में कई तरह की निजताओं को कुर्बान करना होता है। परिवार, जाति और निजी मित्रता के दायरे में आने वाले नागरिकों को व्‍यक्तिगत लाभ पहुंचने पर आम नागरिक सवाल तो उठाएगा ही। ऐसे ही सवाल चंद्रशेखर को जीवन भर परेशान करते रहे। इसके बावजूद उन्‍होंने इन सबसे कभी ऊपर उठने की कोशिश नहीं की।

पुस्‍तक संपादन के दरम्‍यान तस्‍वीरों के चयन के वक्‍त उनके बेटे-बहू मुस्‍तैद थे। साउथ एवेन्‍यू वाले सरकारी मकान पर भाइयों का कब्‍ज़ा था। हम जहां टिके थे, वो प्रीत विहार के सामने न्‍यू राजधानी एनक्‍लेव का एक बड़ा सा अपार्टमेंट था। वहां अपोलो की सहायता से चंद्रशेखर के भतीजे क्‍लीनिक चला रहे थे। वह सब घर की संपत्ति थी और है। अभी हम देखते हैं कि कई कद्दावर राजनेता जब चुनाव के लिए परचा भरते वक्‍त अपनी जायदाद का एलान करते हैं, तो अपने नाम की पासबुक में गिनने लायक पैसा निकलता है- लेकिन रिश्‍तेदारों के पास पर्याप्‍त मात्रा में संपत्ति निकलती है। साफ है कि राजनीतिक सत्ता के लाभ से ये संपत्ति बनती है।

चंद्रशेखर इसके अपवाद नहीं थे। आम इंसान थे। विद्वान थे। राजनीतिक समझ के मामले में अपने समकालीनों से ज्‍यादा तीक्ष्‍ण थे, लेकिन इसका इस्‍तेमाल कभी उन्‍होंने देश की राजनीति को दिशा देने के लिए नहीं किया। वे कर सकते थे। करते, तो शायद उनका कद मुल्‍क के मानस में एक ख़ास जगह पाता।

किताबों के लिए एक बैठक हुई थी। साउथ एवेन्‍यू के उनके मकान में। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्‍हा राव और पूर्व राष्‍ट्रपति आर वेंकट रमण आये थे। इनके अलावा पत्रकार प्रभाष जोशी, रामबहादुर राय, सुरेश शर्मा और हरिवंश थे। नामवर सिंह भी आये थे। और भी बहुतेरे चंद्रशेखर के प्रिय, राजनीति और कारोबार की अपनी अपनी दुनिया में महत्‍वपूर्ण जगहों पर थे। योजना क्‍या बननी थी, सबने चंद्रशेखर के महत्‍व को रेखांकित किया और किताबों की शृंखला कैसे चंद्रशेखर की महानता को साबित कर सके, इस पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर दिया। चंद्रशेखर इस पूरी बैठक में खामोश ही रहे। एकाध वाक्‍य बोला होगा, जो मेरी स्‍मृतियों में अब सिर्फ चंद फुसफुसाहटों के रूप में ही बचे हैं।

चंद्रशेखर की दुनिया में उनसे असहमत लोगों के लिए जगह नहीं थी। यही एक वजह थी, जिसकी वजह से वे अकेले थे। आख़‍िरी समय में भी उनका अकेलापन उनके साथ था। जिस दिन अंत्‍येष्टि थी, हमारे संवाददाता रेलवे स्‍टेशन पर सुबह-सुबह मौजूद थे। बलिया और बनारस से आने वाली गाड़‍ियों से लद कर उनकी अंत्‍येष्टि में शामिल होने के लिए लोगों के आने की सूचना थी। न्‍यूज़ बुलेटिन के रनडाउन में उस दृश्‍य का इंतज़ार हो रहा था। गाड़‍ियां आयीं, लेकिन आम सवारियों से अलग कोई भीड़ नहीं थी। हमें इंतज़ार छोड़ कर आगे की ख़बर पर जाना पड़ा...

...और इस तरह चंद्रशेखर की ख़त्‍म हो चुकी कहानी पर अफ़सोस की एक सफ़ेद चादर चढ़ा देनी पड़ी।

Read More