(ज्ञानेंद्रपति से क्षमायाचना सहित)
नौ बरस पहले भोपाल आया था। बारिश के दिन नहीं थे। दिन भर धूप चढ़ी रहती थी। चौराहों के पास दुकानों में पीले पोहे में धंसी हुई धनिया की छोटी-छोटी पत्तियां तब भी हमारी तरफ झांकती थीं। मुझे ज्ञानेंद्रपति ने सुबह सुबह बुला लिया था। इससे पहले हिंदी के इस शानदार कवि से मेरी एकमात्र मुलाकात बनारस जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान 94 या 95 में हुई थी। मेरी कविताएं उन दिनों संभवा में छपी थीं, जिसके संपादक बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी ध्रुवनारायण गुप्त थे। दिन में हमारा परिचय ज्ञानेंद्रपति से हुआ, तो मैंने काफी आत्मविश्वास के साथ उन्हें बताया था कि मैं कवि हूं और मेरी कविताएं अमुक जगह छपी हैं। रात में कवि सम्मेलन था, जिसमें अष्टभुजा शुक्ल ने भी कविताएं पढ़ी थीं और ज्ञानेंद्र जी ने संभवा की कविताओं के जिक्र के साथ कविता पढ़ने के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया था। मैंने एक कविता पढ़ी थी, मुझे आज भी याद है...
गे सजनी पोरुकों ने देलियउ साड़ी तोरा दिबाली मेये कविता उन दिनों दिल्ली से छपने वाले समकालीन जनमत के एक अंक में छपी। उन्हीं दिनों के परिचय का हवाला भोपाल में मिलने पर मैंने दिया, तो ज्ञानेंद्रपति पहचान गये। भोपाल सीएसई की फेलोशिप के चक्कर में आया था और आग्नेय जी के कहने पर धर्मनिरपेक्षता पर आयोजित वृहद संवाद में रुक गया था। उन्होंने होटल में ठहरने का इंतजाम कर दिया था और आने-जाने का एसी किराया भी आवंटित किया था, जिसका एक बड़ा हिस्सा मैंने सेकंड क्लास स्लीपर में सफर करके बचा लिया था।
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
सभ घर सभ दरबज्जा गेलहुं
सजनी नंगटे मुंह छिछिएलहुं
तहियो बीतल पछिला दिन सभ सुनू अकाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
की होइ छई ई कालाजार
बाबू छोड़ि देलनि संसार
आ हुन कर श्राद्ध केलहुं मां कें सोनक कनबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
किछुए खेत हमर बांचल छल
ओकरो एक सांझ लए बेचल
आ सभटा सपना बहल दियादक घर कें नाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
(प्रिय, माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। सबके दरवाजे गया। सब जगह नंगा होना पड़ा। फिर भी दुख में ही दिन बीते। पता नहीं ये कालाजार क्या होता है कि पिता जी स्वर्गवासी हो गये। उनका श्राद्ध मां की सोने की कनबाली बेच कर करना पड़ा। थोड़े खेत बचे थे, उसे भी एक शाम की भूख के लिए बेच देना पड़ा। सारे सपने रिश्तेदारों के घर से निकलने वाली नाली में बह गये। प्रिय माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी।)
ज्ञानेंद्रपति भोपाल स्टेशन के पास ही किसी होटल में रुके थे। सुबह उनके पास पहुंचा, तो करीब आठ बज रहे थे। वे बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमदोनों निकले और लगभग पूरे दिन भोपाल के चक्कर काटते रहे। पैदल। रात हो गयी। जब घर लौटे तो पांव वैसे ही फूले हुए लग रहे थे, जैसे कांवर यात्रा से घर लौटे श्रद्धालुओं के पैर फूले हुए होते हैं। पार्क, मस्जिदों (जिनमें एक ताजुल मस्जिद भी थी), झीलों से गुजरते हुए भोपाल से गले तक भर गये और दूसरी सुबह ज्ञानेंद्रपति के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। वे आज भी मेरा इंतजार कर रहे हैं, लेकिन मैं उन्हें उतनी फुर्सत से आज तक नहीं मिला हूं।
एक वाकया इसी बीच का है। उसी शाम हमसे एक भिखारी टकराया। हाथ मेरी जेब में चला गया। ज्ञानेंद्रपति ने मेरा हाथ पकड़ लिया। भिखारी को डांट कर भगाया और फिर मुझे बुरी तरह डांटा। कहा कि भीख देना कितना बड़ा अपराध है! उस शाम जेब के भीतर मेरी उंगलियों में फंसा पांच का सिक्का जेब में ही फिसल गया था।
लेकिन आज इसी भोपाल में मैंने एक बच्ची को पांच का सिक्का थमाया। भास्कर के कॉर्पोरेट एडिटोरियल के स्थानीय संपादक मुकेश भूषण के साथ जब मैं एक रेस्टोरेंट से दोपहर का भोजन करके निकला, तो आठ-नौ साल की एक बच्ची मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। मुझे लगा कि पद्मिनी है।
पद्मिनी यूनियन कार्बाइड की विनाशलीला में नष्ट हो गयी उड़िया बस्ती की वो बच्ची थी, जो अपने पिता के साथ भोपाल आयी थी और एक शाम घर के प्यारे तोते को पका कर घर के लोगों ने जब कई दिनों की अपनी भूख मिटायी, उसके अगले दिन से पद्मिनी बस्ती के दोस्त भाइयों के साथ रेलों में झाड़ू लगा कर पैसे जुटाने लगी। एक बार बनारस स्टेशन पर वो अकेली रह गयी, तो जिस्म के दलालों ने उसे वेश्या मंडी में पहुंचाना चाहा। लेकिन बहादुर पद्मिनी उन्हें चकमा देने में सफल हो गयी। पद्मिनी इन दिनों मेरी रूह में बसी हुई है, क्योंकि डोमिनीक लापिएर और जेवियर मोरो की किताब भोपाल बारह बज कर पांच मिनट मेरे साथ हमेशा रह रही है।
मैं इस बात में यकीन करता हूं कि किसी वंचित पर इस तरह दया दिखाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। इसके बावजूद मैं इन्हें अब यूं ही सामान्य नजरों से नहीं देख सकूंगा। मेरे पांच रुपये इनकी किस्मत की तारीख नहीं लिखेंगे - लेकिन चंद मिनटों के लिए ही सही, किसी की आंखों में चमक और रोशनी और उम्मीद तो उतार ही सकते हैं।
इसलिए मैंने तय किया है कि अब मैं ज्ञानेंद्रपति की बात नहीं मानूंगा। Read More