Friday, August 29, 2008

चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

मुशायरे कभी सुना करते थे। साइकिल पर चढ़ कर मोराबादी से हरमू कॉलोनी तक जाने का जुनून अब तक ज़ेहन में है। ये रांची की बात है। बाद में शहीद चौक के पास जिला स्‍कूल में भी एक कवि सम्‍मेलन हुआ था - जिसमें उन दिनों शहर में अच्‍छी खासी चर्चा पाने वाले एक हास्‍य कवि ने पत्‍नी चालीसा का पाठ किया था। एक बार बेगूसराय में केडी झा और प्रदीप बिहारी के सौजन्‍य से हमने भी अखिल भारतीय कवि सम्‍मेलन में शिरकत की थी, जिसमें ज्‍यादातर आस-पड़ोस के कवि थे। अखिल भारतीयता के नाम पर यश मालवीय आये थे, जिन्‍होंने मेरी गुजारिश पर सुनाया था - कहो सदाशिव कैसे हो। ज्‍यादातर कवि सम्‍मेलन बस ऐसे ही हुआ करते थे। कोई दरभंगा का दुष्‍यंत आ जाता था, तो कोई समस्‍तीपुर के साहिर आ जाते थे। असल मुशायरे में जाना एनडीटीवी की नौकरी के पहले साल में हुआ। कुमार संजॉय सिंह ले गये थे, जो एनडीटीवी इंडिया पर अर्ज किया है के प्रस्‍तोता थे। वसीम बरेलवी और खातिर गजनवी को वहां सुना। खातिर गजनवी की मौत हाल ही में हुई। उन्‍होंने सुनाया था, गो जरा सी बात पर बरसों के याराने गये। लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गये। उस मुशायरे का जिक्र एक आर्टिकल में मैंने किया था, जो हंस में छपा। मैंने लिख दिया था कि चवन्‍नी छाप शायरों की सोहबत में रहने वाले संजॉय सिंह मुझे इस शानदार मुशायरे में ले गये थे। चवन्‍नी छाप वाली बात पर संजॉय जी से जो झगड़ा हुआ, वो आज तक जारी है।

गालिब पर एक समारोह था, बल्‍लीमारान में - तब एक मुशायरा हुआ। वो पहला मुशायरा था, जिसमें शुरू से आखिर तक बैठकर हमारी रात गुज़री। मेरा दोस्‍त और मै‍थिली-हिंदी में कविताएं-आलोचना लिखने वाला पंकज पराशर साथ था और जमशेदपुर की मेरी परिचित रश्मि भी थी, जिन्‍हें मैं अपने साथ ले गया था। या ये भी हुआ होगा कि वे मुझे अपने साथ ले गये होंगे - याद नहीं। मुनव्‍वर राना, गोपालदास नीरज, बाल कवि बैरागी, निदा फाजली सब थे। लेकिन जिस एक शख्सियत की वजह से मैं यहां मुशायरों के जिक्र में उलझा हुआ हूं, वे थे अहमद फराज़। अभी अभी अपने चाहने वालों से हमेशा के लिए विदा हो चुके फराज़ साहब की गजल हमने टूटे हुए दिल के दिनों में खूब गाये हैं - रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ। आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ। अहमद फराज साहब ने बल्‍लीमारान में बहुत सारी गजलें सुनायीं। लेकिन एक गजल की याद हमेशा ताजा रहती है। वो मैं आप सबके लिए यहां पब्लिश कर रहा हूं।

सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्‍त है उस को खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्‍मे नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़रके देखते हैं

सुना है उस को भी है शेरो शायरी से शगफ
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते है

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं

सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारे बामे फलक से उतरके देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आंखें
सुना है उसको हिरन दश्‍त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियह चश्‍मगी क़यामत है
सो उसको सुर्माफ़रोश आंख भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्‍ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं... बन संवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्‍मे तसव्‍वुर से दश्‍ते इमकां में
पलंग ज़ावे उस की कमर के देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुले मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ा‍फ़‍िला दिल का
सो रह-रवाने तमन्‍ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्‍तां से मुत्तसिल है बहिश्‍त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं

कहानियां ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर करके देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

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Saturday, August 23, 2008

देवता मेरे सपने चुराते हैं और महंथों को बेच आते हैं!

तारानंद वियोगी मैथिली के बड़े कवि हैं। उनकी कविताओं का हिंदी में एक चयन अगले माह नयी किताब प्रकाशन से छपने वाला है। चयन और अनुवाद मेरा है। संकलन की भूमिका यहां प्रस्‍तुत है। साथ ही दो कविताएं भी। नोश फरमाएं।

तारानंद वियोगी की कविताएं मेरे लिए महज पाठ-सामग्री कभी नहीं रहीं, उन तमाम शब्‍दों की तरह जो अनगिनत लेखकों ने इजाद किये और जिन शब्‍दों ने हमारे लिए दुनिया को जानने-समझने वाले दरवाजे की सांकल उतारी। तारानंद की कविताओं ने मेरी निजी दुनिया का निर्माण किया है, जिसमें चलने-बोलने-सोचने और लिखने का तरीका शामिल है। मेरी पैदाइश के ठीक से अठारह बरस भी नहीं हुए थे, जब तारानंद से मेरा परिचय हुआ। मैं उस वक्‍त अभिव्‍यक्ति के खेत में उगा हुआ नवान्‍न था और वे हमारी भाषा को कहन की नयी गली में ले जाने वाले समर्थ साहित्यिक युवा। इस गली में परंपरा की झोपड़पट्टियां नहीं थीं, आधुनिकता के बनते हुए मकान थे। उस वक्‍त उनके पास विधाओं की कोई ऐसी सड़क नहीं थी, जिस पर वे दौड़ नहीं रहे थे। उनके अलावा मेरे पास उस वक्‍त बाबा नागार्जुन थे, जो सांसों की आखिरी तकलीफ से गुजर रहे थे और कभी कभार मेरे कागज पर थरथराती उंगलियों में कलम फंसाकर प्रसाद की तरह कुछ वर्ण खींच देते थे। सा‍हित्‍य की मेरी पाठशाला में वह पहली कक्षा थी, तो तारानंद वियोगी मेरे महाविद्यालय। मेरी अपनी आवारगी ने विश्‍वविद्यालय में दाखिल नहीं होने दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।

तारानंद वियोगी महिषी के रहने वाले हैं। ये गांव बिहार के सहरसा जिले में पड़ता है। इसी गांव में शंकराचार्य से शास्‍त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र हुए और राजकमल चौधरी भी, जिनके हिंदी उपन्‍यासों और जिनकी मैथिली कहानियों ने आने वाली पीढ़‍ियों को एक नयी लीक, नया साहस दिया। महिषी में ही सिद्ध शक्तिपीठ तारास्‍थान है, जिसकी वजह से शहरी रहवासियों की भीड़ आये दिन जुटती रहती है। तारानंद की अपनी शख्सियत में महिषी के इन तीनों तत्‍वों का निचोड़ मौजूद है। एक सिरे से आप उनकी कविताएं पढ़‍िए, मंडन मिश्र का तर्क कौशल, राजकमल चौधरी का आधुनिक-बोध और तारास्‍थान की आस्‍था का त्रिकोण आपको हर जगह मिलेगा।

मिलनसार तारानंद एकांतिक भी हैं, जो उनकी अध्‍ययनशीलता को बनाये रखता है। वे संस्‍कृत के विद्यार्थी रहे हैं और अंग्रेजी की शतकाधिक पुस्‍तकें उन्‍होंने पढ़ी हैं। वे बचपन में अल्‍पकालिक चरवाहा भी रहे - बकरी चराते थे। वे उन समकालीन कवियों की तरह नहीं हैं, जिनके पांवों में हमेशा चप्‍पलें रहीं और जो संवेदना के कारोबार को एक शानदार सेल्‍समैन की तरह आगे बढ़ाना जानते हैं। उनका प्रिय श्‍लोक है - ईशावास्‍य मिदं सर्वम्। ईश्‍वर सभी जगह है। वो ईश्‍वर जो आपकी चालाकियों को उंगलियों पर गिन रहा है। वो ईश्‍वर जो आपके शार्टकट का हिसाब सहेज कर रख रहा है। इसलिए चाहे वो जीवन जीने का मोर्चा हो या कविता रचने का, ईमानदारी और पवित्रता तारानंद के लिए पहली शर्त है।

इस संग्रह में उनकी जितनी भी कविताएं हैं, उन्‍हें जोड़ेंगे तो आपको उनका जीवनवृत्त मिलेगा। एक ऐसा जीवनवृत्त जिसमें जितनी मात्रा में संताप है, तो उम्‍मीद के आसार भी लगभग उतनी ही मात्रा में है। उनकी कविताएं सिर्फ दृश्‍य नहीं हैं - दर्शन हैं, जो जीने की नयी राह देते हैं। तारानंद वियोगी कविताएं मनुष्‍यता के विविध आयामों की चर्चा करती चलती है। खेमों-जातियों में बंटे समाज की नयी व्‍याख्‍या करती चलती है। सरकारी दफ़्तरों में फैले भ्रष्‍टाचार की तल्‍ख रिपोर्ट करती चलती है। ये तीन तथ्‍य मैं उनकी महज तीन कविताओं को सामने रख कर जाहिर कर रहा हूं - बुद्ध का दुख, ब्राह्मणों का गांव और गांधी जी। वरना जितनी कविताएं, उतने अर्थ। हर कविता इतिहास और समाजशास्‍त्र की पगडंडी पर अनोखी संवेदना के क़दमों से चलती हुई। इन कविताओं का अनुवाद मेरे लिए संभव नहीं था। ठीक उसी तरह जैसे किसी भी लोकभाषा के साहित्‍य का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं, अगर उस साहित्‍य की चेतना भाषाई मौलिकता में नहायी हुई हो। यानी ये कविताएं अपनी मूल भाषाई लय में जो कह रही हैं - सिर्फ उसके सारों का ये संकलन है।

मेरे लिए तो यह उस काम की तरह है, जो अभी खत्‍म नहीं हुआ है और जो कायदे से शुरू भी नहीं हुआ है।

ईशावास्यमिदंसर्वम्

समूचे ब्रह्मांड में फैले हैं देवता
तीनों लोकों में चौदह भुवनों में दसों दिशाओं में
जल में थल में अनिल अनल में
ओह! कोई जगह खाली नहीं बची
जहां आदमी सिर्फ अपने साथ हो सके

तरस गया हूं तड़प रहा हूं एकांत के लिए
लेकिन ये देवता! जीना हराम कर दिया है इन्होंने!

पानी पीता हूं
तो बैक्टीरिया वायरस की तरह
जाने कितने देवता मेरे आमाशय में पहुंच जाते हैं
कैसे खाऊं अन्न?
वृक्ष के फल भी शुद्ध नहीं हैं न मुरगी के अंडे
जाने किस धूर्त्त ने इस मिलावट की शुरुआत की
कि पांच हजार वर्षों से
मेरा स्वास्थ्य चौपट चल रहा है!

चीलर की तरह ये
अंडे बच्चे देते जा रहे हैं
बढ़ती जा रही है मिलावट
हराम होता जाता है आदमी का जीवन

पत्नी से प्रेमालाप तक नहीं कर सकता चुपचाप
जाने कितने देवता
टकटकी लगाकर
घूरते रहते हैं

अपना वीर्य तक नहीं बचा विशुद्ध
कि हम वो बच्चे पैदा कर सकें
जो सिर्फ हमारे हों

दुख समझो मेरा दुख
देवता मेरे सपने चुराते हैं
और महंथों को बेच आते हैं!

त्वया समं यास्यति

बड़े तेजस्वी थे वह राजा
मगर एक दिन चले गये।

बड़े खूंखार थे
थे बड़े मायावी
एक और राजा

बड़े मेधावी थे
जाने कैसे सूंघ लेते थे ख़तरा
और पैदा होने से पहले मार डालते थे
मगर एक दिन
खुद भी मार डाले गये।

एक और आये
वह भगवान थे
एक और आये
वह शैतान थे।

समंदर को चूस लेने वाले आये
सूरज को ढंक देने वाले आये
कुछ घोड़ों पर कुछ बैलों पर
कुछ गोलों पर कुछ थैलों पर
कुछ खाली आये कुछ भरे हुए
कुछ ज़िन्दा कुछ मरे हुए
मगर सब गये
सबके सब चले गये।

चमको बमको राजा
अकड़ो पकड़ो
जो चले गए वह तुम नहीं थे

और चलाओ गोलियां
और स्वादो मछलियां
चप्पा-चप्पा जमीन नपवा लो
टके-टके पर लिख लो अपना नाम

खाओ गाओ राजा
पीओ जीओ
मस्ती करो राजा मस्ती
दुश्मन के हिस्से जाए पस्ती

भरभराओ राजा
मगर चरमराओ मत

यह बेबस धरती
किसी के साथ गयी तो नहीं
पर तुम्हारे साथ जाएगी
पक्का जाएगी

तुम्हारे साथ नहीं
तो क्या ज़हन्नुम में जाएगी?

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Tuesday, August 19, 2008

अब मैं यहीं ठीक हूं

एक गांव था जो कभी वही एक जगह थी जहां हम पहुंचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे ज़‍िंदगी के आख़‍िरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्‍शा भी था जहां खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्‍मृतियां हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट खट खट एक लय में गुंथी हुई ध्‍वनि
अक्‍सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट खट अभी भी सीढ़‍ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है

वही एक जगह थी, जहां जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीखते हुए आम के बगीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बगीचा ख़त्‍म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आती
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये

थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गांव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्‍तेदारियों का जंगल खड़ा किया
साचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्‍त है ये दुश्‍मन ये ऐसा है जिससे कोई रिश्‍ता नहीं
सोचते हुए ही हमने भुला दिये गांव के सारे के सारे चेहरे

एक दिन गूगल टॉक पर ललित मनोहर दास का आमंत्रण देख कर चौंके
ऐसे नाम तो हमारे गांव में हुआ करते थे
जैसे हमारे पिता का नाम लक्ष्‍मीकांत दास और उनके चचेरे भाई का नाम उदयकांत दास है
स्‍वीकार के बाद का पहला संदेश एक आत्‍मीय संबोधन था

मुन्‍ना चा

हैरानी इस बात की है कि इस संबोधन का मुझ पर कोई असर नहीं था
इस बात की जानकारी और ज़‍िक्र के बावजूद कि संबोधन का स्रोत दरअसल गांव ही है
वो एक लड़का जो मेरी ही तरह गांव से निकल कर अब भी गांव लौटने की बात सोच रहा है

लेकिन अब मैं सोच रहा हूं एक दूसरे घर के बारे में
जो बुंदेलखंड या पहाड़ के किसी खाली कस्‍बे में मुझे मिल जाता
मंगल पर पानी की तस्‍वीरों के बाद
एक वेबसाइट पर मामूली रकम पर
अंतरिक्ष में ज़मीन खरीदने की इच्‍छा भी जाग रही है

अपनों के बगैर की गयी यात्रा में बहुत दूर तक साथ रहीं स्‍मृतियां
जिसमें चेहरे थे और थे कुछ संबोधन
सब छूट गया सब मिट गया अब सिर्फ़ मैं हूं
मेरी उंगलियां कंप्‍यूटर पर चलती हैं आंखें स्‍क्रीन पर जमती हैं
कोई दे जाता है चाय की एक प्‍याली बगल में

मै कृतज्ञ हूं अपने वर्तमान का
पुरानी तस्‍वीरों से भरा अलबम पिछली बार शहर बदलते हुए कहीं खो गया!

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Friday, August 15, 2008

पांच रुपये का चमकता सिक्‍का तब भी हमारी जेब में था

(ज्ञानेंद्रपति से क्षमायाचना सहित)

नौ बरस पहले भोपाल आया था। बारिश के दिन नहीं थे। दिन भर धूप चढ़ी रहती थी। चौराहों के पास दुकानों में पीले पोहे में धंसी हुई धनिया की छोटी-छोटी पत्तियां तब भी हमारी तरफ झांकती थीं। मुझे ज्ञानेंद्रपति ने सुबह सुबह बुला लिया था। इससे पहले हिंदी के इस शानदार कवि से मेरी एकमात्र मुलाकात बनारस जन संस्‍कृति मंच के राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन के दौरान 94 या 95 में हुई थी। मेरी कविताएं उन दिनों संभवा में छपी थीं, जिसके संपादक बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी ध्रुवनारायण गुप्‍त थे। दिन में हमारा परिचय ज्ञानेंद्रपति से हुआ, तो मैंने काफी आत्‍मविश्‍वास के साथ उन्‍हें बताया था कि मैं कवि हूं और मेरी कविताएं अमुक जगह छपी हैं। रात में कवि सम्‍मेलन था, जिसमें अष्टभुजा शुक्‍ल ने भी कविताएं पढ़ी थीं और ज्ञानेंद्र जी ने संभवा की कविताओं के जिक्र के साथ कविता पढ़ने के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया था। मैंने एक कविता पढ़ी थी, मुझे आज भी याद है...

गे सजनी पोरुकों ने देलियउ साड़ी तोरा दिबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

सभ घर सभ दरबज्‍जा गेलहुं
सजनी नंगटे मुंह छिछिएलहुं
तहियो बीतल पछिला दिन सभ सुनू अकाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

की होइ छई ई कालाजार
बाबू छोड़ि‍ देलनि संसार
आ हुन कर श्राद्ध केलहुं मां कें सोनक कनबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

किछुए खेत हमर बांचल छल
ओकरो एक सांझ लए बेचल
आ सभटा सपना बहल दियादक घर कें नाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना

(प्रिय, माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्‍हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। सबके दरवाजे गया। सब जगह नंगा होना पड़ा। फिर भी दुख में ही दिन बीते। पता नहीं ये कालाजार क्‍या होता है कि पिता जी स्‍वर्गवासी हो गये। उनका श्राद्ध मां की सोने की कनबाली बेच कर करना पड़ा। थोड़े खेत बचे थे, उसे भी एक शाम की भूख के लिए बेच देना पड़ा। सारे सपने रिश्‍तेदारों के घर से निकलने वाली नाली में बह गये। प्रिय माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्‍हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी।)
ये कविता उन दिनों दिल्‍ली से छपने वाले समकालीन जनमत के एक अंक में छपी। उन्‍हीं दिनों के परिचय का हवाला भोपाल में मिलने पर मैंने दिया, तो ज्ञानेंद्रपति पहचान गये। भोपाल सीएसई की फेलोशिप के चक्‍कर में आया था और आग्‍नेय जी के कहने पर धर्मनिरपेक्षता पर आयोजित वृहद संवाद में रुक गया था। उन्‍होंने होटल में ठहरने का इंतजाम कर दिया था और आने-जाने का एसी किराया भी आवंटित किया था, जिसका एक बड़ा हिस्‍सा मैंने सेकंड क्‍लास स्‍लीपर में सफर करके बचा लिया था।

ज्ञानेंद्रपति भोपाल स्‍टेशन के पास ही किसी होटल में रुके थे। सुबह उनके पास पहुंचा, तो करीब आठ बज रहे थे। वे बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमदोनों निकले और लगभग पूरे दिन भोपाल के चक्‍कर काटते रहे। पैदल। रात हो गयी। जब घर लौटे तो पांव वैसे ही फूले हुए लग रहे थे, जैसे कांवर यात्रा से घर लौटे श्रद्धालुओं के पैर फूले हुए होते हैं। पार्क, मस्जिदों (जिनमें एक ताजुल मस्जिद भी थी), झीलों से गुजरते हुए भोपाल से गले तक भर गये और दूसरी सुबह ज्ञानेंद्रपति के पास जाने की हिम्‍मत नहीं हुई। वे आज भी मेरा इंतजार कर रहे हैं, लेकिन मैं उन्‍हें उतनी फुर्सत से आज तक नहीं मिला हूं।

एक वाकया इसी बीच का है। उसी शाम हमसे एक भिखारी टकराया। हाथ मेरी जेब में चला गया। ज्ञानेंद्रपति ने मेरा हाथ पकड़‍ लिया। भिखारी को डांट कर भगाया और फिर मुझे बुरी तरह डांटा। कहा कि भीख देना कितना बड़ा अपराध है! उस शाम जेब के भीतर मेरी उंगलियों में फंसा पांच का सिक्‍का जेब में ही फिसल गया था।

लेकिन आज इसी भोपाल में मैंने एक बच्‍ची को पांच का सिक्‍का थमाया। भास्‍कर के कॉर्पोरेट एडिटोरियल के स्‍थानीय संपादक मुकेश भूषण के साथ जब मैं एक रेस्‍टोरेंट से दोपहर का भोजन करके निकला, तो आठ-नौ साल की एक बच्‍ची मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। मुझे लगा कि पद्मिनी है।

पद्मिनी यूनियन कार्बाइड की विनाशलीला में नष्‍ट हो गयी उड़‍िया बस्‍ती की वो बच्‍ची थी, जो अपने पिता के साथ भोपाल आयी थी और एक शाम घर के प्‍यारे तोते को पका कर घर के लोगों ने जब कई दिनों की अपनी भूख मिटायी, उसके अगले दिन से पद्मिनी बस्‍ती के दोस्‍त भाइयों के साथ रेलों में झाड़ू लगा कर पैसे जुटाने लगी। एक बार बनारस स्‍टेशन पर वो अकेली रह गयी, तो जिस्‍म के दलालों ने उसे वेश्‍या मंडी में पहुंचाना चाहा। लेकिन बहादुर पद्मिनी उन्‍हें चकमा देने में सफल हो गयी। पद्मिनी इन दिनों मेरी रूह में बसी हुई है, क्‍योंकि डोमिनीक लापिएर और जेवियर मोरो की किताब भोपाल बारह बज कर पांच मिनट मेरे साथ हमेशा रह रही है।

मैं इस बात में यकीन करता हूं कि किसी वंचित पर इस तरह दया दिखाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। इसके बावजूद मैं इन्‍हें अब यूं ही सामान्‍य नजरों से नहीं देख सकूंगा। मेरे पांच रुपये इनकी किस्‍मत की तारीख नहीं लिखेंगे - लेकिन चंद मिनटों के लिए ही सही, किसी की आंखों में चमक और रोशनी और उम्‍मीद तो उतार ही सकते हैं।

इसलिए मैंने तय किया है कि अब मैं ज्ञानेंद्रपति की बात नहीं मानूंगा।

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