Sunday, May 22, 2016

बुलाकी साव की दसवीं कविता

रोमांच और दहशत से भरी एक घटना ने बरसों मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। आज समझ में आता है कि वह कोई घटना नहीं, एक कहानी भर थी, जो हमारे बचपन में पैदा हुई थी। कई सारी कहानियां एक उम्र तक सच जैसी लगती हैं। गांव में तब एक भी घर में सेप्टिक लैट्रिन नहीं था। लगभग घरों में तीन तरफ से टाट का घेरा और सामने से घरेलू कपड़े के पर्दे वाला दुर्गंधित शौचालय होता था। अंदर गहरा गड्ढा खोदा जाता था, जिसमें पाखाना भरा होता था। उसमें चमकदार कीड़े रेंगते रहते थे। अब शायद देखते ही उल्‍टी आ जाए, लेकिन बचपन में उन कीड़ों को देखना आम बात थी। तो ज़्यादातर लोग बागमती नदी के किनारे दिशा-मैदान के लिए जाते थे। औरतें उजाला होने से पहले जाती थीं। मुंह-अंधेरे। एक बार दो बजे रात में ढेर सारी आवाज़ सुन कर मेरी नींद खुली। उस वक्‍त मेरी उम्र पांच साल के अासपास थी। यानी '80-'81 का साल रहा होगा। मैंने देखा कि मेरी पांच में से सबसे छोटी बुआ आंगन में बेहोश पड़ी है। घर की बाकी औरतें और मर्द उसके आसपास जमा हैं। मैं जाकर मां की गोद में छुप गया। वह मड़बा की सीढ़ि‍यों पर बैठ कर बीड़ी पी रही थी। मुझे नींद आ गयी। सुबह सब कुछ सामान्‍य था। सब अपने अपने काम में लगे थे, जैसे रात में कुछ हुआ ही न हो। कुछ सालों के बाद बुलाकी साव से जब मैंने उस रात की बात बतायी, तो उसने कहा कि उसे पता है उस रात क्‍या हुआ था। और तभी मुझे उस घटना उर्फ कहानी का पता चला।

चांदनी रात थी और आधी रात को भोर हुआ समझ कर बुआ नदी की तरफ निकल पड़ी। जैसे ही बांध पर पहुंची, सामने आम के बगीचे में उसने देखा कि गांव के उन लोगों का भोज चल रहा है, जो मर चुके थे। वहीं शमशान है, जहां हमारे पूर्वजों का सारा (क़ब्र) है। सिर्फ 1999 में मरी मेरी मां को हमने अपने आम के बगीचे में जलाया था, जो बांध के इस पार है। तो बुआ ने देखा कि दर्जनों लोग हंसी ठट्ठा करते हुए पंगत में बैठे हैं। उनके सामने केले के पत्ते रखे हैं और उन पर तरह तरह की मिठाइयां रखी हुई हैं। तमाम मिठाइयों में महुआ की मह-मह करती हुई खुशबू आ रही है। बुआ डर से काठ हो गयी। वह सखुए के एक पेड़ के पीछे छिपी हुई थी। तभी किसी ने कहा कि मानुस की गंध आ रही है। बुआ ने सुना और पूरी ताकत लगा कर दौड़ी। रास्‍ते में कई बार गिरी और उठ कर फिर दौड़ी। आंगन तक पहुंचते पहुंचते उसके कपड़े फट गये और कई जगह पर छिल जाने से खून भी बहने लगा। आंगन में आते ही चीख़ कर बेहोश हो गयी।

बुलाकी साव ने बताया कि सुबह मेरे जागने से पहले लोग वहां गये थे, जहां बुआ ने बताया था कि उसने क्‍या क्‍या देखा। लेकिन सुबह वहां रात्रिभोज की कोई निशानी नहीं थी। सिर्फ मल और मूत्र की दुर्गंध फैली थी। हां, उस दुर्गंध में महुआ की खुशबू अब भी मिली थी। आम के उस बगीचे में महुआ का एक पेड़ भी था। यह सब सुनते हुए मेरे चेहरे पर डर की झुर्रियां उग आयी, लेकिन बुलाकी ने मेेरे गाल अपने हाथ में लिये और मेरे माथे को चूम लिया। झुर्रियां कुछ सिकुड़ ज़रूरी गयीं, पर पूरी तरह ख़त्‍म नहीं हुई। तब बुलाकी साव ने मुझे एक कविता सुनायी, जिससे मेरा चेहरा सपाट, सीधा और मुलायम हो पाया। इतने बरसों बाद भी कहानी की चादर में लिपटी इस पूरी घटना को भूल नहीं पाया हूं। न ही बुलाकी साव की ये कविता भूल पाया, जिसने डर के गहरे गड्ढे से मुझे सुरक्षित निकाल लिया था। कविता में छंद का अभाव था, लेकिन राग में कोई कमी नहीं थी।

तुम हो

और कोई नहीं है

बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं

दुख के राग दो दिन की बारिश ही थी

दिल में थी चुभन दिल की साजिश ही थी

वह जो आकर गया आग भड़का गया

कुछ नहीं कुछ नहीं भ्रम की माचिस ही थी

आस थोड़ी सी भी हमने खोयी नहीं है

तुम हो

और कोई नहीं है

बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं

हम चले हैं पहुंच जाएंगे एक दिन

तुम जहां हो तुम्‍हें पाएंगे एक दिन

तुमको देखेंगे और खूब रोएंगे हम

गीत खुशियों के बस गाएंगे एक दिन

हसरतें आज तक हमने धोयी नहीं हैंं

तुम हो

और कोई नहीं है

बरसों से आंखें ये सोयी नहीं हैंं

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बुलाकी साव की नौवीं कविता

खाजासराय (लहेरियासराय, दरभंगा) में एक मिडिल स्‍कूल है, जहां मेरी बहन पढ़ती थी। मेरे गांव से उस स्‍कूल की दूरी लगभग दो किलोमीटर है। गांव से बहन अपनी सहेलियों के साथ स्‍कूल जाती थी। बरसात का महीना था। बागमती अपने उफान पर थी। बहन स्‍कूल के लिए निकली, तो मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। उस वक्‍त तक मैं स्‍कूल नहीं जाता था। गांव में ही कुइरा गुरुजी से पहाड़ा सीखता था। मैंने ज़ि‍द पकड़ ली कि बहन के साथ मुझे भी स्‍कूल जाना है। मेरा रोना देख कर बहन पसीज गयी और मुझे अपने साथ ले गयी। बीच में लवटोलिया (नवटोलिया) के पास एक नाला बहता था, जो आम तौर पर सूखा ही रहता। लेकिन बरसात थी तो नाले में पानी था। उसे टपना पड़ता था। बहन ने मुझे गोद में लिया और सहेलियों के साथ पानी में उतर गयी। मिट्टी गीली थी और पांव फिसल रहे थे। बहन की सहेलियां तो टप गयीं, लेकिन बहन एक जगह गिर गयी। उसकी सलवार और कमीज़ पानी और मिट्टी से भीग गयी। उसने मुझे बचा तो लिया, पर मैं भीतर से पूरी तरह डर गया था। उन दिनों बुलाकी साव की झोंपड़ी वहीं नाले के उस पार थी। झोंपड़ी के बाहर एक चापाकल लगा था। बहन ने वहीं अपने कपड़े साफ किये। स्‍कूल जाने का मेरा सारा उत्‍साह मर गया और मैं फिर ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। मुझे स्‍कूल नहीं जाना था। बुलाकी साव ने ही मुझे हमारे आंगन तक पहुंचाने का जिम्‍मा लिया। बहन और उनकी सहेलियां स्‍कूल चली गयीं। बुलाकी साव ने मुझे कंधे पर बिठाया, नाला पार किया और हमारे आंगन की ओर चल पड़ा। पूरे रास्‍ते मैं उसके कंधे पर बैठा रहा। हल्‍की हल्‍की बारिश हो रही थी और वह रस्‍ता भर एक कविता गुनगुना रहा था। चूंकि वह बच्‍चों के लिए कविता नहीं सोच पाता था, उसने लोकधुन की राह पकड़ी। मुझे उस कविता की गुनगुनाहट अब भी याद है।

बोलो एक दो तीन

मेरा सैयां नमकीन

चले चार कोस रोज धरे हीरो का पोज

जैसे एस्‍नो-पाउडर वैसे चम चम चम ओज

धनुकटोली का पंच खाये बाभन का भोज

छिपा ननदों के बीच उसे खोज खोज खोज

हाय हाय रंंगीन

मेरा सैयां नमकीन

मज़ेदार मारवाड़ी का नौकर झक्‍कास

पीये कैंपाकोला लगे उसको जो प्‍यास

भारी बज्‍जर गिरे करे मेम संग रास

धोखेबाज बीए पास चालबाज बीए पास

बड़ा बतिया महीन

मेरा सैयां नमकीन

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बुलाकी साव की आठवीं कविता

जिस साल पूनम सिनेमा में '1942 ए लव स्‍टोरी' लगी थी, उसी साल बुलाकी साव वहां साइकिल स्‍टैंड पर पार्ट टाइम जॉब करने लगा था। इस तरह का कोई भी काम वह तीन महीने से ज्‍यादा नहीं कर पाता था, लेकिन शुरू इतनी प्रतिबद्धता से करता था जैसे वह उसी काम के लिए बना हो। तो पहली बार मैं अपने मित्र संजीव स्‍नेही के साथ वह फिल्‍म देखने गया था। ऐसा जादू चढ़ा कि दूसरे दिन भी अकेले नून शो चला गया। तीसरे दिन अपनी प्रेमिका से मैंने बहुत मिन्‍न्‍त की कि वह मेरे साथ '1942 ए लव स्‍टोरी' देखने चले। प्रेमिकाओं के दिल पत्‍थर जैसे लगते हैं, लेकिन होते मोम जैसे हैं। वह मुस्‍करा उठी और हम मैटिनी शो देख आये। खुमारी उतर नहीं रही थी। चौथे दिन जब मेरे पांव पूनम सिनेमा की तरफ बढ़े, तो टिकट खिड़की के पास बुलाकी साव सामने से खड़ा हो गया। बोला, 'मुन्‍ना अब और नहीं'। मुझे उसके साथ चौंकने की आदत थी, तो मैं चौंका। बुलाकी साव ने बताया, 'तीन दिन से तुमको देख रहे हैं। पहले दिन संजीब्‍बा के साथ देखे। परसों तुमको अकेले देखे और कल भी कंचनिया के साथ देख लिये थे। आज सोच लिये थे कि तुमको ज्‍यादा बहकने नहीं देंगे।' गुस्‍सा तो मुझे बहुत आया, लेकिन एक चांस लेते हुए बुलाकी से कहा, 'छलके तेरी आंखों से शराब और ज्‍यादा, खिलते रहे होंठों के गुलाब और ज्‍यादा... आज भर देख लेने दो न बुलाकी!' निहौरा करने की मेरी अदा का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने छुट्टी ले ली और मेरा हाथ पकड़ कर राज दरभंगा के गेट तक ले आया। लस्‍सी वाले से दो लस्‍सी मांगी। एक लस्‍सी मेरी तरफ बढ़ाते हुए बुलाकी साव ने पूछा कि ऐसा क्‍या है इस फिल्‍म में, जो तुम तीन दिन से आ-जा रहे हो। लस्‍सी पीते हुए मैंने उसे घूरती आंखों से देखा और मूंछ के नीचे उग आयी उजली लकीर को जीभ से साफ करते हुए कहा, 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख्‍़वाब, जैसे उजली किरन, जैसे बन में हिरन, जैसे चांदनी रात, जैसे नरमी की बात... जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया!' बुलाकी साव मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कहा, 'बिंब देखो! मुझे यह पूरा गीत कंठस्‍थ हो गया है।' बुलाकी ने कहा कि अच्‍छा है, बहुत अच्‍छा है लेकिन फिर मेरे उत्‍साह पर पानी फेरते हुए उसने कहा कि यह पूरा गीत नक़ल है। 1945 में 'मन की जीत' फिल्‍म के लिए जोश मलीहाबादी ने इस तर्ज को पहली बार सोचा और लिखा था। मैंने कहा, सवाल ही नहीं है। बुलाकी ने सुनाया, 'मोरे जोबना का देखो उभार, पापी जोबना का देखो उभार... जैसे नद्दी की मौज, जैसे तुर्कों की फौज, जैसे सुलगे से बम, जैसे बालक उधम... जैसे कोयल पुकार... मोरे जोबना का देखो उभार!' मैंने कहा, क्‍या बात करते हो - यह तो सेम टू सेम है। पर बुलाकी का दिल बड़ा था। उसने कहा कि अदब में ऐसी रवायत होनी चाहिए कि एक ही ज़मीन पर लोग अपनी अपनी बातें कह सकें। फिर शरमाते हुए उसने कहा कि मैंने भी ऐसी एक कविता सोची है, सुनोगे? मैंने लस्‍सी का खाली गिलास बेंच पर रखते हुए कहा, सुनाओ। और बुलाकी साव ने जो कविता सुनायी, वह आज मैं आप सबकी नज़र कर रहा हूं।

चांदी जैसी़ सोने जैसी

पानी भरे भगोने जैसी

पूजा घर के कोने जैसी

भरी खीर के दोने जैसी

तुम हो

तुम हो

पके धान की बाली जैसी

सुर में बजती ताली जैसी

अस्‍ताचल की लाली जैसी

हां बिल्‍कुल घरवाली जैसी

तुम हो

तुम हो

मीठे मीठे जामन जैसी

कीचड़ में भी पावन जैसी

गरम जेठ में सावन जैसी

हंसी, फूल, मनभावन जैसी

तुम हो

तुम हो

लतरी हुई लताएं जैसी

छायी हुई छटाएं जैसी

सन सन सनन हवाएं जैसी

घन घन घनन घटाएं जैसी

तुम हो

तुम हो

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बुलाकी साव की सातवीं कविता

बुलाकी साव से मेरी दोस्‍ती का दिलचस्‍प किस्‍सा है। पड़ोस के आठ गांवों (अठगामा) में उस जैसा अरिपन बनाने वाला कोई नहीं था। हालांकि यह औरतों के हिस्‍से में आने वाली विशेष चित्रकला है - लेकिन बुलाकी साव ने इसी कला में विशेषज्ञता हासिल की थी। वह अक्‍सर मुझसे कहता था कि मैं दरअसल स्‍त्री हूं। ईश्‍वर की किसी ग़लती से पुरुष जाति में पैदा हो गया। बहरहाल, मेरे आंगन में जब भी कोई शुभ काम होता था, बुलाकी साव को बुलाया जाता था। वह पिठार (पिसे हुए चावल का बारीक घोल) से घर के हर दरवाज़े पर फूल, पत्ती, चिड़ि‍या, मछलियों का ख़ूबसूरत संसार रच देता था। उस वक्‍त मेरी उम्र दस बारह साल की रही होगी। जब बुलाकी साव अपनी कलाकारी में मगन रहता था, मैं उसके पीछे बैठ जाता। मिट्टी पर पिठार की रेखाएं उकेरते हुए वह एक गीत गुनगुनाता था। शब्‍द मेरी पकड़ में नहीं आते थे, लेकिन धुन दिल पर धम धम की तरह बजती थी। अच्‍छा लगता था। थोड़ा बड़े होने और शब्‍दों से दोस्‍ती हो जाने के बाद अक्‍सर मैं उससे वह गीत सुनता था। वह एक फिल्‍मी गीत था और उसके बोल थे - "दिल मेरा एक आस का पंछी, उड़ता है ऊंचे गगन पर; पहुंचेगा एक दिन कभी तो, चांद की उजली ज़मीं पर।" बुलाकी साव चांद की उजली ज़मीन पर पहुंचा या नहीं - नहीं मालूम, पर मैंने अपनी आंखों से देखा कि उसने किसी भी आंगन के कोने-अंतरे में अरिपन बनाना छोड़ दिया। इस काम के बदलेे उसे हर घर से तीन सेर अनाज मिलता था। महंगाई जब बढ़ी, तो उसने तीन सेर की जगह पांच सेर अनाज की मांग की। मेरे एक चाचा ने उसे बुरी तरह लताड़ा और दो तीन थप्‍पड़ भी लगाये। वह दिन और मेरे दरभंगा छोड़ने का आख़ि‍री दिन, मैंने कभी बुलाकी साव को अरिपन बनाते नहीं देखा। उसके पास उदास कविताएं भी थीं।

नदी के पार

वह संसार

जिसमें रास्‍ते हैं फूल-परियों तक पहुंचने के

दिखाई दे रहे हैं पर नहीं है नाव कोई भी

उजाले मर रहे हैं शाम की चट्टान से लड़ कर

परिंदो! काम से लौटो

चलो अब गांव कोई भी

बकरियां

गाय

पारा

बैल

सब खूंटे के आशिक़ हैं

उन्‍हें मालूम है जन्‍नत से दोज़ख़

और फिर दोज़ख़ से जन्‍नत का पता लेकिन

उन्‍हें तो बीच में बस टूंगते रहना है जंगल-झाड़ के सूखे-हरे पत्ते

हमें मालूम है हम तैर सकते हैं

मगर पानी पे परियों ने लगा रखा है कांटों का बड़ा बाड़ा

ये परियां कौन हैं?

सुख के सितारे झिलमिलाते से!

हमें ग़म का लबादा ओढ़ कर जीना है मरना है

कि हम तो आदमी हैं

इश्‍क हमको मार देता है!!!

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बुलाकी साव की छठी कविता

जब मैं अठारह साल का हुआ, उसके बाद के चुनाव में नरसिम्‍हा राव प्रधानमंत्री बने थे। पर मैंने उन्‍हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया था। मेरे घर पर तो लोक लहर पत्रिका आती थी। हमारे जिले से विजयकांत ठाकुर सीपीएम के उम्‍मीदवार थे। मैं बहुत उत्‍साह से वोट डालने गया था, लेकिन मेरा वोट पहले ही पड़ चुका था। बिना निशान वाला खाली अंगूठा लेकर बेहद उदास मैं अपने गांव से बाहर पोलो मैदान की तरफ निकल आया। वहीं किशोरी भैया की साइकिल पंचर की दुकान थी, जहां बुलाकी साव अपने गांव के सझुआर टोले के किसी लड़के की साइकिल का पंचर ठीक कराने आया था। पास से गुज़रा तो उसने झकझोरा, "क्‍या मुन्‍ना, तुम्‍हारा भी पंचर निकल गया न!" उसकी बात पर इतना गुस्‍सा आया कि बता नहीं सकता। लेकिन बुलाकी साव ने कहा, "मेरा भी पंचर निकल गया। हम भी भोट नहीं डाल पाये।" उसने अपना खाली अंगूठा दिखाया, तब जाकर तसल्‍ली हुई। उसने बताया कि जिस साल वह पैदा हुआ, उसी साल प्रजातांत्रिक सोशलिस्‍ट पार्टी बनी थी। लेकिन जब वह बड़ा हुआ, तो वह पार्टी थी ही नहीं। एक बार मैथिली के विराट कवि सुरेंद्र झा सुमन से मिला। सुमन जी जनसंघ के संस्‍थापकों में से थे और इसी पार्टी से चुनाव भी लड़ चुके थे। तो जब भारतीय जनता पार्टी की स्‍थापना हुई, तो वह इस पार्टी का अवैतनिक कार्यकर्ता हो गया। एक रात पार्टी दफ्तर में रुका। उसी रात जिला अध्‍यक्ष ने उसकी पैंट उतारने की कोशिश की। वह रातोरात वहां से भागा और तमाम पार्टियां, उनके झंडे और उनका वोटबैंक लांघते हुए बागमती नदी में कूद गया। कई डुबकियां लगाने के बाद पवित्र होकर निकला। फिर हर चुनाव में नेताओं के खिलाफ कविताएं लिखने लगा। यह कविता उसी दिन बुलाकी साव ने मुझे सुनायी थी।

कादो-कीचड़ भचर भचर बातों का नेता

भूत भस्‍म भैरव भभूत लातों का नेता

ऊंचे से ज्‍यादा ऊंची जातों का नेता

बही संभालो, है उधार-खातों का नेता

ले लो

इस चुनाव में

ले लो

आर्य मिले अन-आर्य मुगल अंग्रेज मिले

सोच समझ में जो भी सबसे तेज मिले

ऊबड़ खाबड़ या फूलों की सेज मिले

बर्तन बासन चौकी कुर्सी मेज मिले

ले लो

इस चुनाव में

ले लो

लोकतंत्र का मेला ठेला टके सेर है

उम्‍मीदों-वादों का केला टके सेर है

गुरु जलेबी चमचम चेला टके सेर है

आम आदमी आज अकेला टके सेर है

ले लो

इस चुनाव में

ले लो

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बुलाकी साव की पांचवीं कविता

मैथिली के राइटर रामदेव झा से मिल कर जब मैथिली के दूसरे राइटर रामानंद रेणु से मिलने जा रहा था, तो बीच में रायसाहेब पोखर के पास एक पेड़ के नीचे रुक गया। दूसरी तरफ कुछ लड़के बंसी फंसाये हुए थे। उन्‍हें एक आदमी निहार रहा था। ऐसा लगा कि वह बुलाकी साव है। मैंने आवाज़ लगायी। पोखरे के ठहरे पानी पर तैरती हुई मेरी आवाज़ दूसरी तरफ़ पहुंची। उसके चौंकने से पता चला कि वह बुलाकी साव ही है। दौड़ कर उसके पास पहुंचा। हालांकि मैं उसे लेखक नहीं मानता था, क्‍योंकि उसका लिखा हुआ कभी सामने नहीं आया। पर उससे मिलने में लेखक से मिलने की संतुष्टि मिलती थी। उसने पूछा, इधर किधर? मैंने बताया कि दरअसल यह जानना चाहता हूं कि हमारी मैथिली में बग़ावत के गीत कब लिखे जाएंगे। सो आज सिर्फ मैथिली के साहित्‍यकारों से मिल रहा हूं। बुलाकी साव हंसा और ज़ोर से हंसा। कहने लगा कि बगावत के गीत किसी योजना के तहत नहीं पैदा होते, जिसमें ख़रीदे हुए क्रांतिकारी शब्‍द पकाये जाएं। विद्यापति ने जो भी जितना भी लिखा, वह सब बगावत के गीत हैं। बोलना ही बग़ावत है। उसने फ़ैज़ की नज़्म सुनायी, "बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बां अब तक तेरी है..." लेकिन इस नज़्म के अधिकांश शब्‍द मुझे समझ ही नहीं आये। मुझे उर्दू नहीं आती थी। फिर बुलाकी साव ने उसका जो तर्जुमा (अनुवाद) सुनाया, वह आज आप सबके सामने रख रहा हूं। उम्‍मीद है, वह एक अलग और स्‍वतंत्र कविता जैसी लगेगी।

जीभ के दाने खुरच

कुछ बोल

बोल सब बातें

दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में

फुसफुसा कर बोलते थे कौन सुनता था

कौन चेहरे में छुपी चुप्‍पी समझता था

कौन आंखों की ज़बां पढ़ कर पिघलता था

इसलिए अब बोल

क्‍योंकि बोलना हथियार है साथी

और बोलना ही वार है साथी

जीभ के दाने खुरच

कुछ बोल

बोल सब बातें

दफ़न हैं जो कई सालों से सीने में!

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Monday, May 16, 2016

बुलाकी साव की चौथी कविता: अंधेरा

मेरी प्रिय कविता। दरभंगा में मैं नाटक किया करता था। साल में हम तीन चार नाटक कर लेते थे और कुल मिला कर छह महीने तो रिहर्सल चलते ही थे। बुलाकी साव कहता था कि यह सब फरेब है। ज़ि‍ंदगी ही जब नाटक है, फिर अलग से नाटक करने की क्‍या ज़रूरत? वह कभी मेरा नाटक नहीं देखता था। अक्‍सर आधी रात से बहुत पहले जब मैं शहर में नाटक या रिहर्सल से गांव की ओर लौटता था, तो वह हजमा चौराहे के पास दिख जाता था। ज़्यादातर मैं उसे अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाता था। पर एक दिन उसने मुझे पकड़ लिया। वहीं पास में एक ताड़ी घर था। तब तक मैं सिर्फ चखना खाता था। ताड़ीघर में सिर्फ एक ढिबरी जल रही थी। कोई नहीं था। वह ज़मीन पर बैठ गया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे भी बैठा लिया। एक औरत आयी। एक बोतल ताड़ी, दो छोटे गिलास और एक प्‍लेट में भुने हुए पीले मटर रख गयी। बुलाकी साव ने प्‍लेट मेरी तरफ बढ़ा दिया। खुद ताड़ी पीने लगा। थोड़ा मटर खाकर जब मैं उठने को हुआ, उसने कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया। तब तक उसकी आधी बोतल खाली हो चुकी थी। उसने मेरी आंखों में आंखें डाली और रोने लगा। रोते हुए उसने अपनी ताज़ा कविता सुनिया। कविता में एक लय थी, जो मेरे ज़ेहन में आज तक बसी हुई है। आज भी, आधी रात से बहुत पहले, जब मैं घर लौट रहा होता हूं - मुझे बुलाकी साव की वह कविता बहुत याद आती है।

बिजलियां हैं

रोशनी है ढेर सारी

लाल पीली हरी नीली

और इन रंगीनियों में

साफ दिखता है अंधेरा

आंख की परतों के भीतर

गिलहरी सी दौड़ती है

भागती और हांफती दिखती है दुनिया

ठहर कर जो देखना चाहें किसी को

अजनबी आहट में खो जाता है वह भी

और फिर से

वही अंधेरा

हमारे पास

सिरहाने से लग कर बैठ जाता है

कौन हैं हम

आदमी जैसा ही

और एक आदमी हैं

चीखना होगा हमें

हर आदमी का चीखना होगा ज़रूरी

ढेर सारी चीख़ से एक पौ फटेगी

मां हंसेगी

और एक बच्‍चा हंसेगा

पेड़ की सब टहनियों पर

ढेर सारे शोख़ पंछी हंस पड़ेंगे

और फिर होगा सबेरा

एक दिन तो हारना होगा अंधेरा!

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बुलाकी साव की तीसरी कविता: ये लेनिन वो माओ

दरभंगा में एमएल एकेडमी था, जहां थोड़ी स्‍कूली पढ़ाई मैंने की थी। उसके गेट पर गणेशी अपना ठेला लगाता था और भूंजा बेचता था। सारे बच्‍चों को उसने भूंजा खाने का चस्‍का लगा दिया था। वैसा भूंजा इस ब्रह्मांड में शायद ही कोई बनाता होगा। चार आने में एक ठोंगा। बाद में बड़े होकर भी हम गणेशी का भूंजा खाने जाते थे। तब भी एक रुपये में एक ठोंगा। ऐसे ही, एक दोपहर हम थलवारा-हायाघाट के बीच हुई भीषण रेल दुर्घटना के मरीज़ों का हालचाल लेकर डीएमसीएच से लौट रहे थे, तो गणेशी के पास रुक कर भूंजा बनवाने लगे। तभी पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा। वह बुलाकी साव था। मैंने दो ठोंगा भूंजा बनवाया और खाते हुए बंगाली टोला की तरफ निकल आये। वीणापाणि क्‍लब के बाहर नन्‍हें से मैदान में बैठ गये। अचानक बुलाकी साव ने भूंजा का बड़ा सा फक्‍का मुंह में ठूंसा और उठ कर नाचने लगा। ज़ोर ज़ोर से भूंजा चबाते हुए गाने लगा। वह गीत अब भी याद है। जो याद रह जाए और जिसे कभी न भूल पाओ, वही श्रेष्‍ठ और प्रिय कविता हो सकती है। इस तरह बुलाकी साव की यह कविता भी मेरी बहुत प्रिय कविता है।

जाओ

फिर आओ

फिर जाओ

फिर आओ

किराने के खाते में चीनी लिखवाओ

नमक मोटा मोटा उधारी मंगवाओ

पुराना है गीत मगर दाल रोटी गाओ

किसी को भी देखो, किसी को भी चाहो

किसी एक लड़की से फिर धोखा खाओ

किसी को भी पकड़ो दुलत्ती लगाओ

था हिंदी में गाना, तो इंग्लिश में वाओ

कहां से चला था कहां तक गया वो

ये लेनिन

वो माओ

ये तोजो

वो ताओ

ज़रा से पसीने में मुक्ति कमाओ

जाओ

फिर आओ

फिर जाओ

फिर आओ

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Sunday, May 15, 2016

बुलाकी साव की दूसरी कविता

मेरी प्रिय कविता। एक दिन बुलाकी साव देर रात गये आया। मैं दालान पर सोया था। गांव में चारों तरफ सन्‍नाटा था। चांदनी रात थी, तो मैं देख पाया कि बुलाकी साव पसीना पसीना है। वह अपने गांव से नंगे पांव दौड़ते हुए आया था। छह दिसंबर 1992 के बाद की कोई रात थी। हम दोनों आधी रात को बागमती नदी के किनारे गये, जहां आम के हजारों पेड़ थे। कहते हैं कि रात को वहां भूत-प्रेत नाचते हैं। मैं डर रहा था, लेकिन बुलाकी साव निर्भय था। उसने कहा कि भूत-प्रेत शहर में उत्‍पात मचा रहे हैं। तुम मेरी नयी कविता सुनो। और वह पागलों की तरह नाचते हुए गाने लगा। मुझे आज भी नृत्‍य की उसकी लय और कविता का उसका छंद अच्‍छी तरह याद है। सुनिए ज़रा...

लोटा था

सोंटा था

बाबा थे धोती थी कुर्ता था चकचक

यादों का मोरपंख दिल में कुछ धक धक

बांस की कलम थी और स्‍याही था नीला

कविता थी कुनबा था मन गीला गीला

शहर में सबेरा है सूरज को खोजो

नीरज भी नहीं दिखा नीरज को खोजो

सात बरस पहले गया था कमाने

पहले बरस उसने भेजे चार आने

डाक घर बंद है और बंद है दुकानें

दंगाई सड़कों पर सत्ता को पाने

तीन बलात्‍कार हुए, आठ गयीं जानें

हम खुद को मानें या दुनिया को मानें

कवि था बुलाकी और बाबा थे साव जी

कविता में क्‍यों खाते रहते हो भाव जी

गलियों में दंगे थे, नाक में पोंटा था

रामधनी की बेटी का लंबा झोंटा था

लोटा था

सोंटा था

कवि था बुलाकी

और बाबा थे साव जी

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Saturday, May 14, 2016

बुलाकी साव की कविता

मेरी प्रिय कविता। फेसबुक पर किसी ने मुझे टैग किया था, मैंने रिमूव कर दिया। आज सुबह उठते ही वो कवि याद आया, जिसके पास कभी कोई डायरी मैंने नहीं देखी थी। मेरे गांव से पांच कोस दूर उसकी कुटिया थी और वह हमेशा नंगे पांव मुझसे मिलने आता था। एक नयी कविता सुनाऊं - हर मुलाकात में पहला वाक्‍य यही होता था। हर बार मैं उसकी नयी कविता सुनता था। अपनी पुरानी कविताएं उसे याद नहीं रहती थीं। वह अपनी हर नयी कविता के साथ पुरानी कविताएं भूलता चला जाता था। बुलाकी साव नाम का वह कवि अब कहां है, मुझे नहीं पता। आज से बीस साल पहले वह उम्र में मुझसे बीस साल बड़ा था। बुलाकी साव की ही एक कविता मेरी सबसे प्रिय कविता है। सुनिए...

कहकहा

अहा

उसने क्‍या क्‍या न सहा हाय हाय

हवा चली सांय सांय

गोली थी ठांय ठांय! निर्ममता!!

मां थी और बेटी थी ममता

सड़कों मोहल्‍लों में कहीं नहीं समता

किस्‍सा क्‍या थमता, सब लूट गये

इज्‍जत के रंग कहीं छूट गये

लाल लाल क्रांति के तहखाने कूट गये

ज़हरीली फसल देख लहलहा

कहकहा

अहा

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Thursday, May 12, 2016

Buddha in A Traffic Jam

13 मई 2016 यानी आज रीलीज़ हुई फिल्‍म Buddha in A Traffic Jam पर मेरी यानी अविनाश दास की टेक

हमारे प्रिय अग्रज पवन कुमार वर्मा ने एक किताब लिखी थी, द ग्रेट इंडियन मिडल क्‍लास। मध्‍य वर्ग की अजीब दास्‍तान दरअसल यही है कि वह अराजनीतिक होने में विश्‍वास करता है। जबकि सच यही है कि जब आप राजनीति के खिलाफ़ खड़े होते हैं, तब भी आप एक तरह की राजनीति कर रहे होते हैं। मुझे तक़लीफ़ नहीं होती, जब विवेक अग्निहोत्री अपनी फिल्‍म बुद्धा इन अ ट्रैफिक जैम में नक्‍सलवाद की राजनीति का विरोध करते हुए अपनी मनपसंद राजनीति की वकालत करते। लेकिन वह राजनीति के बरक्‍स व्‍यापार की बात करते हैं और बड़ी चालाकी से उसमें भ्रष्‍टाचार से मुक्ति का जुमला जोड़ देते हैं। सभ्‍यताओं के संघर्ष में जिस पूंजीवाद की भूमिका उकसावे वाली होती है, उस पूंजीवाद के साथ खड़े होना एक विचारधारा है और विवेक उस विचारधारा के प्रतिनिधि फिल्‍मकार लगते हैं। इस तरह, भारत का एक सहिष्‍णु नागरिक होने के नाते "बुद्धा इन अ ट्रैफिक जैम" से असहमति के बाद भी मैं विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्‍म का स्‍वागत करता हूं और मित्रों से यह फिल्‍म देखने की अपील करता हूं।

संघर्ष में शामिल होना न होना एक अलग स्थिति है, लेकिन मैं खुद को मुक्ति के हर संघर्ष का समर्थक मानता हूं। इसमें उत्‍पादक और ग्राहक के बीच खड़े बिचौलिये से मुक्ति भी शामिल है और विवेक का मानना है कि नक्‍सलवाद का पूरा संघर्ष इसी बिचौलिये की रक्षा का संघर्ष है। सॉरी विवेक, किसी भी राजनीति को इतना सरलीकृत करके देखने की आपकी समझ पर मैं आपसे थोड़ा हंस लेने की इजाज़त चाहता हूं।

मेकिंग शानदार और संगीत उम्‍दा है। लेकिन संगीत पर भी कुछ बात। फिल्‍म में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्में हैं। गुरिल्‍ला सिनेमा, नुक्‍कड़ नाटक सत्ता-व्‍यवस्‍था के विरोध में अभिव्‍यक्ति का औज़ार बन कर पैदा हुआ - लेकिन सत्ता ने इस औज़ार को कोऑप्‍ट कर लिया। इनका पूरी तरह से एनजीओकरण हो गया। इस उदाहरण से और "बुद्धा इन अ ट्रैफिक जैम" में इस्‍तेमाल हुए फ़ैज़ के गीतों से समझें तो अब पूंजीवाद की नज़र मुक्तिकामी रचनाधर्मिता पर भी है। अब वह मुक्ति और संघर्ष के गीतों का अर्थ बदल देने की तैयारी में है। मुझे अफ़सोस है कि फ़ैज़ के गीत उस फिल्‍म के किरदार गा रहे हैं, जो फिल्‍म राजनीति की जगह बाज़ार के साथ खड़ी है।

मेरा मन भरा हुआ है, पर नाराज़ नहीं हूं। मुझमें पर्याप्‍त सहिष्‍णुता है। धन्‍यवाद।

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