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Tuesday, November 27, 2007

चेंबूर, विद्या बालन का घर और सुबह की गुफ्तगू

इधर मेरा मोबाइल ग़ुम हो गया, तो सारे नंबर भी चले गये। उसमें विद्या बालन का नंबर भी था। उनका नंबर मैंने कहीं अलग से लिखा भी नहीं था। एक दिन अपने ऑफिस की टेल डायरी से मुझे विद्या बालन का नंबर मिला। पर इस नंबर को लेकर संशय था कि पता नहीं ये उनका सीधा नंबर है या वाया मीडिया वाला नंबर। मैंने एक एसएमएस किया, जिसका जवाब मिला नहीं। परसों अचानक इस नंबर से जवाब मिला - “हाय अविनाश, बुखार था इसलिए रिप्‍लाइ नहीं किया। सब ख़ैरियत? आप कैसे हैं?” और एक बार फिर विद्या से टूटी हुई बातचीत का सिलसिला शुरू हो पाया। मैं उन दिनों सुरेंद्र राजन जी के साथ रहता था। विद्या से मिलने की बात किसी बरिस्‍ता में तय हो रही थी। लेकिन एक शाम विद्या का एसएमएस आया कि सुबह घर पर आ जाइए, इत्‍मीनान से बात हो पाएगी। परिणीता की रिलीज़ के बाद उनका एक-एक मिनट क़ीमती था, इन्‍हीं में से मेरे लिए उन्‍हें वक्‍त निकालना था। एक ऐसी बातचीत के लिए, जिसका प्रस्‍तोता न कोई टीवी था, न कोई अख़बार, न ही कोई बड़ी फिल्‍मी पत्रिका। सुबह-सुबह हम पुराने जूते रास्‍ते में बूट पालिश से चमका कर चेम्‍बूर पहुंचे, विद्या के घर। एक मध्‍यवर्गीय बैठकखाने में सुबह की अलसायी चादरों से ढके गद्दे पर बैठे कुछ मिनट ही हुए कि एकदम से ताज़ा-ताज़ा विद्या सामने खड़ी हो गयीं। फिर हमने एक कोने में बैठ कर खूब बात की। विद्या ने अपनी मां से मुलाक़ात करवायी और घर में काम करने वाले लोगों से भी। वहां से लौटे, तो ये तय था कि फिर शायद ही विद्या हमें वक्‍त दे पाएंगी, क्योंकि परिणीता के बाद बॉलीवुड में उनके छा जाने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। लेकिन शाम को उनका एसएमएस आया कि सुबह की बातचीत अच्‍छी रही। वो बातचीत अब तक कहीं शाया नहीं हो पायी। अचानक पुरानी सीडीज़ चेक करते हुए मिल गयी, तो लगा कि इसे साझा करना चाहिए। बातचीत वैसी की वैसी रखी जा रही है, जैसी हुई। कोई एडिटिंग नहीं। उम्‍मीद है, विद्या को भी इस बातचीत की याद परिणीता के दिनों में ले जाएगी।


हालांकि ये सवाल आपको पूछना चाहिए, पर मैं पूछ रहा हूं। परिणीता आपको कैसी फिल्म लगी?
काम करते वक्त बहुत मज़ा आया। दादा (प्रदीप सरकार) पर मेरा विश्‍वास बहुत ही स्ट्रांग है। तो मेरे खयाल से मुझे पता था कि अच्छी फिल्म बनेगी, और अच्छी फिल्म बनी है। मैंने प्रीमियर में पहली बार देखी परिणीता। बहुत अच्छी लगी, और मुझे लगा कि शायद मैंने काम किया है, तो मैं ऑब्जेक्‍टेवली नहीं देख पाऊंगी। आइ मीन... इस फिल्म को मुझे जहां रुलाना चाहिए, नहीं रुलाएगी। कुछ-कुछ जगह पर ऐसा हुआ भी, पर कुल मिला कर बहुत अच्छी फिल्म लगी।
किसी नवजात अभिनेत्री के लिए पहली ही बार में परिणीता की भूमिका किस तरह की चुनौती है?
दरअसल परिणीता जो है, लॉलिता का कैरेक्टर जो है, बहुत ही लेयर्ड है। बहुत सारे... जिसको कहते हैं हाव-भाव, वो है... दादा जैसे डायरेक्टर इस तरह की भूमिका के लिए आपसे बहुत कुछ चाहते हैं। सिर्फ वो नहीं, जो स्क्रिप्ट में हो। तो हमने तैयारी भी ऐसे की थी। मेरे दिमाग में ये बात नहीं थी कि क्या मै कर पाऊंगी, नहीं कर पाऊंगी, मैं पहली बार कर रही हूं, ऐसा कुछ नहीं था। मैं केवल मेहनत कर रही थी ताकि जो रोल मुझे दिया गया हो, मैं उसे सच्चाई के साथ निभा पाऊं।
किस-किस तरह की दिक्कतें आयीं परिणीता को अपने भीतर एडॉप्ट करने में? आप परिणीता से पहली बार कैसे परिचित हुईं? नॉवेल पढ़के या...
नहीं, पहले दादा ने स्टोरी सुनायी थी मुझे परिणीता की, क्योंकि वो लिख रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि तुम्हें नॉवेल पढ़ना चाहिए और जो इस नॉवेल पर पहले की फिल्में हैं, वो भी देखनी चाहिए तुम्हें। तो मैंने फिल्म देखी। पढ़ा, पर हिंदी का बहुत ही खराब ट्रांसलेशन पढ़ा। मैं होप कर रही हूं कि कोई उसे अच्छी तरह से अभी ट्रांसलेट करे (हंसते हुए)... क्योंकि इस ट्रांसलेशन को पढ़ने में काफी दिक्कत हुई। यही थी तैयारी, बाकी तो तैयारी... जिस हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी गयी है, उसको पढ़के तैयारी की मैंने। मगर सब कुछ धीरे-धीरे हुआ। एक ही दिन में मैं लॉलिता नहीं बन पायी। बहुत बार स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद... दादा के साथ, और दूसरे कैरेक्टर्स के साथ स्क्रिप्ट डिस्कस करने के बाद... और शूट के वक्त... आइ थिंक, दैट प्रॉसेस स्टार्टेड ऑल द मॉन... स्लोली एंड स्ट्रेडली स्टार्टेड थिंकिंग इन टू द कैरेक्टर...
आपने बिमल रॉय की परिणीता कब देखी? यानी प्रदीप सरकार की परिणीता शूट होने के कितने दिन पहले?
दो-तीन महीने पहले...
पहले कभी परिणीता के बारे में सुन रखा था!
हां-हां, सुना तो था कि मीना जी ने इस रोल को मॉडेलाइज किया था... और मौसमी जी ने भी ये रोल किया है, बंगाली में... तो सुना तो बहुत था उसके बारे में, पर देखा नहीं था। जब डिसाइड हुआ कि मैं करनेवाली हूं फिल्म, तब देखा मैंने।
बिमल रॉय की परिणीता क्लासिक है, क्योंकि सिनेमा के चिंतक और व्याख्याकार और क्रिटिक बताते हैं कि शरत बाबू के नॉवेल की पूरी संवेदना बिमल रॉय ने स्क्रीन पर उतारी थी। प्रदीप सरकार की परिणीता और बिमल रॉय की परिणीता में किस तरह का फर्क है?
बहुत फर्क है, क्योंकि दो डायरेक्टर्स के इंटरप्रीटेशन में बहुत फर्क होता है। हमने क्लासिक बनाने की कोशिश नहीं की, एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की है... और... हर डायरेक्टर का जो है वो अलग इंटरप्रेटेशन होता है। और जाहिर है दादा का आग्रह दूसरा था। काफी उन्होंने लिबर्टीज लिये हैं स्टोरी के साथ। पर... दैट इज पार्ट ऑफ हिज विजुअलाइजेशन... लोगों को ये समझना चाहिए कि हर डायरेक्टर का एक अलग नज़रिया होता है। एक ही किताब आप अपनी तरह से पढ़ेंगे, मुझे अपनी तरह से भाएगा। तो जिस तरह से आप उसे स्क्रीन पर दर्शाएंगे... या दिखाएंगे, वह पूरी तरह से अलग होगा, जिस तरह से मैं उसे दिखाऊंगी। तो ये सब्जेक्टिव है बहुत... और बिमल रॉय जी बहुत ही बड़े डायरेक्टर थे। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बनायी हैं, पर हमारी कोशिश अलग थी। हम ये नहीं चाहते थे कि बिमल रॉय की फिल्म को ही हम नये चेहरों में उतार दें। यह महज इत्तफाक है कि परिणीता एक ऐसी कहानी थी, जिस पर बिमल रॉय ने भी फिल्म बनायी थी... बाकी हमलोगों ने तुलनात्मक अध्ययन के नज़रिये से भी फिल्म नहीं बनायी।
परिणीता की शूटिंग के वक्त आपको मीना कुमारी की याद आती थी?
कभी-कभी मैं जिस तरह से वाइस माड्यूलेट करती हूं, दादा कहते हैं कि चलो कभी-कभी लगता है कि तुम मीना कुमारी की री-इनकार्नेशन हो... मज़ाक़ में... (हंसती हैं)... मिस्टर चोपड़ा जी (विधु विनोद चोपड़ा) के ऑफिस में मीना जी की बहुत खूबसूरत एक तसवीर है... (फिर थोड़ा रुक कर हिचकिचाते हुए विद्या ने कहा कि पर यह हमारे-आपके बीच की बात है, मगर चूंकि यह बात रिकार्ड हुई है, इसलिए यहां दी जा रही है)... अगर कभी मिस्टर चोपड़ा ने मुझसे पूछा कि तुम्हें एक वो चीज क्या चाहिए, जो मेरे पास है, तो मैं उनसे कहूंगी कि वो फोटो... बहुत ही खूबसूरत फोटो है... उसमें एक दर्द है, एक स्लाइट्स स्माइल भी है, एक सेंस्वसनेस है... सब कुछ है उस तसवीर में... तो मैं चाहूंगी कि वो मुझे दें।
अभी तक वो मीना कुमारी आपको मिली नहीं है...
नहीं, अभी तक मैंने पूछा भी नहीं है, मैंने उनको बताया तक नहीं है। क्योंकि काफी एक्टरों की तसवीरें उनकी दीवार पे लगी हुई है... बहुत क्लासिक फोटोज़। अगर उनमें से ये मुझे मिल जाए, तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगी... मीना जी के बारे में ऑफकोर्स डिस्कशन होती थी... आइ हैव सीन साहिब बीबी और गुलाम... मैंने कभी सोचा नहीं था... मेरी इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं सोचूं कि मेरी तुलना उनसे हो। वो सबसे ऊंची संवेदना की अभिनेत्री थीं, मेरी तो अभी शुरुआत ही है।
मीना कुमारी की खासियत यह थी विद्या कि वह एक शायरा भी थीं। शाइरी करती भी थीं और शाइरी जीती भी थीं। उनके अभिनय में एक शाइरी थी... वह एक आम आदमी की संवेदना के स्तर पर अपने अभिनय को संवारती थीं। इस लिहाज से आप अपने जीवन और अपने अभिनय को कैसे देखती हैं?
देखिए मैं सुसॉलजी की स्टूडेंट रही हूं, तो मुझमें एक हद तक सामाजिक आग्रह तो है, सेंसेविटी है, अवेयरनेस है... पहले तो यही सारी चीजें होनी चाहिए... लेकिन मैं (संकोच से) लिख नहीं सकती।
लिखने की इच्छा है विद्या?
इच्छा भी नहीं है, क्योंकि मुझमें वो कौशल है भी नहीं। सिर्फ इसलिए कि लोगों को मेरी ऐसी ख्वाहिश के बारे में सुनना अच्छा लगे, मैं नहीं कहूंगी कि मैं लिखना चाहती हूं... मुझे लगता है कि मैं लिख नहीं सकती। पर, आजकल ऐसे लोग भी लिख रहे हैं कि पढ़ कर बहुत दुख होता है। कुछ दिन पहले मेरा एक इंटरव्यू छपा था, जो मैंने दिया ही नहीं था। किसी ने ऐसे ही छाप दिया था। और लैंग्वेज उसमें ऐसी थी कि मैं सेकेंड क्लास में भी वैसी इंगलिश नहीं लिखती थी। इट्स नॉट अबाउट... बड़े लफ्जों से अच्छी राइटिंग नहीं होती। एक लैंग्वेज का वो फील होता है न, वो भी आज की राइटिंग में नहीं आता... तो इट्स वेरी डिस्अपॉइंटिंग... ऐसे में मुझे लगता है कि अगर मैं लिखने लगूं तो सेम थिंग हो जाएगा, तो मैं कोशिश भी नहीं करना चाहती।
कभी-कभी ऐसा भी तो होता है कि हम अपने अभिनय में कविताई संवेदना उतारते हैं...
जैसा कि आपने मीना जी के बारे में कहा, तो मैं पोइट्री ही नहीं, स्टोरीज़ व नॉवेल्ज़ भी पढ़ती हूं। क्लासिक लिटरेचर बहुत कम पढ़ा है मैंने, पर पढ़ने का शौक है... और एक्सपीरिएंसेज बटोरने का मेरा शौक ही नहीं बल्कि मेरे जीवन का हिस्सा है, ऐसी ही हूं मैं। तो मुझे लगता है कि किसी भी एक्टर को हर तरह के अनुभव में अपने आपको इनवॉल्व करना बहुत ज़रूरी है। यू हैव टू हैवेन ओपन माइंड ऑर नॉट ओनली इन पोएट्री... आइ जेनरली ट्राइ टू कीप माइ सेल्फ ओपन टू ऑल ऑफ एक्सपीरिएंसेज... सो दैट... कहीं न कहीं जाके वो मुझे... नॉट ओनली एज एन एक्टर... जब मैं एक्टिंग करती भी नहीं थी... मेरा हमेशा से यही नज़रिया रहा है। आइ थिंक इट हेल्प्स यू डेवलप इन टू अ बेटर परसन...
अपनी ज़‍िंदगी में पहली बार आपने अभिनय के बारे में कब सोचा?
मैं सेवेंथ स्टैंडर्ड में थी, जब मैंने एक-दो-तीन देखा माधुरी दीक्षित का... और मुझे लगा कि काश मैं ऐसे नाच पाती... (हंसती हैं)...! उनमें ऐसी चीज़ थी, जो सबको अपनी तरफ रिझाती थी। और ज़ाहिर है, मैं भी उनकी बहुत बड़ी फैन हो गयी थी। मेरे में कहीं न कहीं हमेशा एक्ट्रेस होने की चाहत थी, और धीरे-धीरे मेरी चाहत बढ़ी... एक-दो-तीन से मामला शुरू हुआ और बाद में जैसे-जैसे मैं और फिल्में देखती रही, मेरी चाह बढ़ती गयी। और शायद माधुरी दीक्षित का ही असर था कि एक दो तीन देखने के बाद से मैंने किसी और प्रोफेशन के बारे में सोचा भी नहीं।
एक फिल्म आयी थी मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं... क्या आप माधुरी दीक्षित बनना चाहती हैं?
जब छोटी थी, तो हां, माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी... इन द सेवेन स्टैंडर्ड... बट आइ... स्टार्टेड ग्रोइंग एंड रीयलाइजिंग कि बहुत सारी एक्ट्रेसेज़ ऐसी हैं, जिनके परफारमेंस देख कर मुझे वैसी चाहत होती थी... जब छोटी थी... जब बड़ी होती गयी, तो लगता गया कि मुझे खुद में एक एनटेटिव बनना है। जब मैं छोटी थी तो मज़ेदार बात ये है कि तब मुझे पता नहीं था कि तानपुरा जो होता है, वह सिर्फ... अकंपनिंग... सुर के लिए होता है। मैं मम्मी से कहती थी कि मैं तानपुरा टीचर बन जाऊंगी... (हंसते हुए)... हालांकि तानपुरा टीचर जैसी कोई चीज होती नहीं है।
आपकी जिंदगी में परिणीता के पहले और बाद का फर्क क्या है?
फर्क तो कोई मुझे ज्यादा नहीं लगता। एक्सेप्ट द फैक्ट कि आप यहां बैठे हैं और मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं। फोन कॉल्स बढ़ गये हैं। मैं दस की रात एम्सटर्डम (आइफा अवार्ड फंक्‍शन) से आयी। आज चौदह तारीख की सुबह है। तब से लेकर अब तक तकरीबन एक सौ फोन कॉल्स आये हैं। मुझे अच्छा लग रहा है। रिव्यूज़ बहुत अच्छे रहे हैं। इन सब बातों से इनकरेजमेंट बहुत मिलती है... इन द फिल्म हैज बिन डीक्लेयर्ड अ हिट... तो ज़ाहिर है मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। फर्क यह है कि मुझे ब्रीदिंग टाइम नहीं मिल रहा... क्योंकि इतने सारे इंटरव्यूज़ हो रहे हैं। क्योंकि परिणीता की रीलीज तक मैं प्रेस से नहीं मिल रही थी, तो अभी मुझे लगता है कि मेरी एक रेस्पांसिबिलिटी है... और मेरे प्रोड्यूसर ने भी कहा है कि अगर लोग तुममें दिलचस्पी दिखा रहे हैं, तो तुम्हें उनसे बात ज़रूर करनी चाहिए। तो अब मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं... और कुछ नहीं... और कोई फर्क मुझे नज़र नहीं आता।
मैं लोगों के एटीट्यूड की भी बात कर रहा हूं विद्या। एक नोन फेस और एक अननोन फेस को दुनिया अलग-अलग देखती है...
अभी तक तो मौका ही नहीं मिला है यह सब महसूस करने का। एम्सटर्डम से आने के बाद बहुत ही बिज़ी रही हूं। लेकिन मेरे एक्सटेंडेड फैमिली से जो है, बहुत अच्छे-अच्छे रेस्पांसेज मिले हैं। उन लोगों ने कभी ये मुझे महसूस नहीं होने दिया कि मैं कुछ अलग कर रही हूं... बाकी नाइन टू फाइव प्रोफेशन में हैं... मैं मे बी नाइन टू सिक्स में हूं... क्योंकि शिफ्ट इतने टाइम का होता है... बस इतना ही फर्क है।
आपकी ज़‍िंदगी का सफर कहां से शुरू होता है?
मुंबई में पली-बढ़ी हूं। पैदा हुई हूं यहां। इस घर के ठीक सामनेवाले घर में। सामनेवाला घर भी हमारा ही है। उस घर में पैदा हुई, इस घर में पली-बढ़ी। टू मच फॉर अ मुंबईकर... स्कूलिंग मेरी चेंबूर सेनैंटिनी स्कूल में हुई। कॉलेज सेंजेवियर्स गयी थी मैं और बहुत पहले काम करना शुरू कर दिया था.. मोर एज अ... शौक... आइ डीडंट नो कि किसी दिन ये मेरा प्रोफेशन बन सकता है। लेकिन कॉलेज में थी और पोस्टर लगा था कि कालेज स्टूडेंट्स अप्लाइ करें। कालेज पर आधारित एक सीरियल बन रहा है। मैंने लोकल फोटो स्टूडियो से कुछ तसवीरें खिंचवायी और बायोडाटा के साथ भेज दिया। बायोडाटा को पढ़ के उन लोगों ने टेस्ट किया मुझे। मैं सेलेक्ट हो गयी। हमने शूटिंग भी की। बाद में सीरियल बंद पड़ गया। बीआइ टीवी के लिए वह बन रहा था।

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Tuesday, November 13, 2007

बागडोगरा में सुबह

दरभंगा महाराज के महलों-क़‍िलों के बीच बड़े भाई तारानंद वियोगी के साथ झमकते हुए चलते थे। सारंग जी और स्‍नेही जी भी साथ रहते थे। उनके पास उल्‍लास और यात्रा के दर्जनों क़‍िस्‍से थे। मुंगेर से लेकर बागडोगरा तक। उनकी एक मैथिली कविता है, जिसका क़रीब दशक भर पहले मैंने हिंदी में अनुवाद किया था। बागडोगरा में ब्रह्ममुहूर्त। यानी बागडोगरा में सुबह। नंदीग्राम में सीपीएम की गुंडागर्दी का शिकार होते आम नागरिक, आंदोलनकारी इतिहास चक्र के उस ग्रामवृत्त की कहानी दोहरा रहे हैं, जिसे नक्‍सलबाड़ी कहते हैं। बागडोगरा नक्‍सलबाड़ी के पास है। मैथिली के नावेलिस्ट-कहानीकार, हमउम्र प्रदीप बिहारी के साथ सफ़र में वियोगी जी ने बागडोगरा में सुबह की चाय पी। कविता उन्‍हीं दिनों की है।
तुम्‍हारी बनायी चाय अतिशय तीखी लगती है
ऐ बच्‍चा, होरीपोदो राय!
टूटा नहीं अब तक नशा। झम्‍प अब भी बाक़ी है।
लगता है
या तो वातावरण में ही कुछ ज़्यादा नमी है
या हमीं में कुछ पात्रता की कमी है।

और तुम भी तो लल्‍लू के लल्‍लू रहे प्रदीप!
जाने कितनी बार आये-गये इस इलाक़े में,
लेकिन अनचीन्‍हा ही रहा मौसम का मिज़ाज।
अंधेरे से जो बनते हैं बिंब घनेरो भाई!
वे सब क्‍या सिर्फ मृत्‍यु के प्रतीक हुआ करते हैं?

अमलतास के नवीन सुपुष्‍ट किसलयों पर झूला झूलने लगे हैं बतास।
नीम के गाछ पर चुनमुनियों का बसेरा अकुलाने लगा है।
उस फुदकी चिड़ैया को देखो - किस तरह अचरज किये जा रही है!
दौड़ यहां, भाग वहां

मुझे तो लगता है एकबारगी
आह्लाद से जान न निकल जाए इस पगली की।

हां, कौआ नहीं बोला अब तक -
यही कहोगे न?
कौआ करे घोषणा - तभी मानूं भोर
इसी कुबोध से जनमता है
क्रांति में चिल्‍होर।

देखो-देखो प्रदीप!
पौ फटने का संकेत दे रहा है क्षितिज सीमांत।
अब लाइन होटल की इस खाट से उठो प्रदीप
सुबह होने को आयी, देखो
चलो अब हम चलें
नक्‍सलबाड़ी कुछ ही दूर है यहां से!
बिहार में रहते हुए बंगाल से दोस्‍ती नहीं हुई। यह संयोग ही था। लेकिन बंगालियों से दोस्‍ती रही। बंगाली नाटक से थिएटर का सफ़र शुरू हुआ- बोल्‍लभपुरेर रूपकोथा। फिलहाल एक रवींद्र संगीत आपके लिए, जो मुझे बहुत-बहुत-बहुत प्रिय है... मेघ बोले छे जाबो जाबो...
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Sunday, May 13, 2007

महिलाएं डबल मज़दूर होती हैं

सन 96 में हमने साथ-साथ काम किया... और शायद उसी साल जुदा भी हो गये। प्रभात ख़बर में उस वक्‍त हम सीख रहे थे और लालबहादुर ओझा हमें सिखा रहे थे। उन्‍होंने बनारस से अख़बारनवीसी का कोर्स किया था। बाद में एकलव्‍य चले गये और वहां कायदे से सालो साल काम किया। इस दौरान एकाध बार मुलाकात हुई। पुस्‍तक मेलों में, इधर-उधर। एक बार भोपाल में भी।

वे 1996 में भी अच्‍छे आदमी थे। आज भी हैं। बीच के दौर में भी रहे होंगे। संयम, स्‍वभाव और दोस्‍तों से संगति में एक अच्‍छा आदमी होना मुश्किल है। अभी पहली बार हिंदी के चक्‍कर में उनसे लंबी बातचीत हुई। एक पूरी शाम उनके घर रहा। भोजपुरी सिनेमा पर उनके कामों और जीवन के उद्देश्‍यों के बारे में लंबी बातचीत हुई।

बीच-बीच में उनकी सौम्‍य सुशील बंगाली पत्‍नी डेढ़ साल के बच्‍चे के साथ घर के किसी कोने पाये में नज़र आती रहीं। छोटे बच्‍चे के साथ माएं ऐसे ही झिज्झिर कोना खेलती नज़र आती हैं। बीच में एक बार लालबहादुर जी ने लीफ वाली चाय बना कर पिलायी।

सुकन्‍या और लालबहादुर जी के विवाह की सूचना पटना आइसा के कुछ साथियों ने दी थी। वे लोग जब दिल्‍ली आये, तो विवाहोपरांत भोज खाने के लिए लालबहादुर जी के यहां हो भी आये। हमारी ऐसी घनिष्‍टता थी नहीं, कि हम भी उस भोज में शामिल होने की दावेदारी करते।

सुकन्‍या जेएनयू में अर्थशास्‍त्र पढ़ती रही हैं। पीएचडी भी किया है। अभी एनसीईआरटी के लिए किताब लिखने वालों की मंडली में शामिल हैं। बंगाली और अंग्रेज़ी धड़ल्‍ले से बोलती हैं। हिंदी बोलने में खासी तकलीफ होती मुझे दिखी। रात में उन्‍होंने प्‍यार से खाना खिलाया। भात, दाल और करैले की भाजी के साथ आलू-गोभी की सब्‍ज़ी। स्‍वाद में सर्वोत्तम। लेकिन उन्‍होंने कह ही दिया कि हम आपके लिए कुछ ज्‍यादा नहीं कर सके। हम उनको क्‍या बताएं कि हम इतने में ही खुश हो जाते हैं कि कोई हमको भरपेट खाना खिला देता है।

तो रात ग्‍यारह बजे विदाई की बेला भी आयी। दफ्तर की गाड़ी दरवाज़े पर खड़ी हो चुकी थी। सुकन्‍या ने पूछा कि रात की ड्यूटी 12 बजे से छह बजे तक चलती है क्‍या। हमने कहा नहीं, हम तो मज़दूर आदमी ठहरे। आठ-नौ घंटे की ड्यूटी पड़ जाती है। सुबह निकलते-निकलते आठ-नौ बज जाएंगे। सुकन्‍या का जवाब था- तब महिलाएं डबल मज़दूर होती हैं। घर में भी, बाहर में भी।

इस जवाब के लिए मैं तैयार नहीं था। लेकिन ऐसी हालत में खिलखिलाने की बेशर्म अदा के सिवा और मेरे पास कुछ नहीं था।

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