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Sunday, November 30, 2008

नागरिकनामा : न सिहरन, न अपराधबोध!

भोपाल। 26 नवंबर की रात हम घर जल्‍दी आ गये थे। इंग्‍लैंड के साथ पांचवां वन डे मैच था। इंडिया की जीत के साथ ही हमने एनडीटीवी इंडिया लगा कर देखा कि इस पांचवें और तयशुदा जीत पर कैसी ख़बरें आ रही हैं। हम उन नये मुहावरों को जानने के लिए भी मैच ख़त्‍म होने के बाद टीवी चैनलों पर जाते हैं - जो किसी भी मीडिया एथिक्‍स से ऊपर गढ़े जाते हैं। जैसे कि धोनी का धमाल या फिर धोनी की टोली ने किया धराशायी। एनडीटीवी इंडिया पर क्रिकेट था - लेकिन शोर मचाने के लिए मशहूर स्‍टार न्‍यूज और आजतक पर मुंबई में ताबड़तोड़ गोलीबारी के फ्लैश आ रहे थे। मिनटों में बाक़ी के चैनलों ने भी मुंबई का रुख कर लिया। रात गहरा रही थी और मामला संगीन होता जा रहा था। हम वक्‍त पर सोये और सुबह के अखबार ने हमें बताया कि मुंबई में सौ जानें जा चुकी हैं और सुबह के साढ़े तीन बजे तक - जब अखबार का आखिरी पन्‍ना छपने जा रहा था - बेकाबू आतंकवादियों की दहशतगर्दी और एनएसजी कमांडोज़ का ऑपरेशन जारी था। हमने बिना किसी हड़बड़ी के टीवी ऑन किया। हां, अब भी आतंकवादियों पर काबू करने की कोशिशें जारी थीं। लोगों के मारे जाने का सिलसिला भी जारी था। हम सुबह नाश्‍ता नहीं करते (एक कटोरी कॉर्नफ्लेक्स खाने को आप भी नाश्‍ता नहीं ही कहेंगे) - इसलिए नाश्‍ता नहीं करने के रोज़मर्रे के साथ घर से निकले। साथ में लंचबॉक्‍स लेकर।

ऑफिस पहुंचने तक मुंबई में सब कुछ चल रहा था। अब हम एक्‍साइटेड हुए - क्‍योंकि इस एक्‍साइटमेंट की काम को ज़रूरत थी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय में हम कुछ रोज़ से लड़के-लड़कियों के साथ इंट्रैक्‍ट करने के लिए जाते हैं - वही सब बीच-बीच में बताते रहे हैं कि ‘अ वेन्‍सडे’ एक फिल्‍म आयी थी - आप देखते - कमाल की फिल्‍म थी। आम आदमी का गुस्‍सा, आतंकवाद, मीडिया के इस्‍तेमाल पर वैसी फिल्‍म अब तक नहीं बनी - वगैरा-वगैरा। हमारे न्‍यूज एडिटर महेश लिलोरिया ने जब कहा कि हम मुंबई में चल रहे मौजूदा घपले को रील लाइफ के ड्रामा से जोड़ते हैं, तो हमारे एक्‍साइटमेंट को एक आधार मिला। हम इस संतोष के साथ घर लौटे कि आज का अखबार हमने कमाल का निकाला है। कल लोग देखेंगे, तो वाह तो कहेंगे ही।

हमने दोपहर में लंच किया। रात में डिनर। सोने से पहले जब टीवी ऑफ कर रहे थे - मुंबई में आतंकी कार्रवाई पर काबू की कोशिश जारी थी। यानी 24 घंटे बाद भी सीन साफ नहीं था। हम सो गये, क्‍योंकि रोज़ रात को सो जाने का नियम है।

सुबह हमने सबसे पहले अपना अखबार खोला और बार-बार उसे निहारा। अपने कमाल पर निहाल हुए - लेकिन एमएससी ईएम की एक छात्रा के फोन ने हतोत्‍साहित कर दिया। उसने ‘अ वेन्‍सडे’ के साथ मुंबई मामले की तुलना पर एतराज़ जाहिर किया था। हमने उससे कहा कि अपना एतराज़ लिख कर भेज दो - हम उसे भी छापेंगे। आज भी हम कॉर्नफ्लेक्‍स खाकर, लंच लेकर ऑफिस गये और न्‍यूज एडिटर से फीडबैक लिया। उन्‍होंने बताया कि आज का अखबार देख कर सब चकित हैं। मैंने उन्‍हें सुबह के फोन वाला फीडबैक दिया और उस छात्रा को दफ्तर भी बुला लिया। दोनों ने खूब बहस की और कोई एक दूसरे को कन्विंस नहीं कर सका। 28 नवंबर की शाम मा.च.प.सं.विवि की एक नौजवान टोली ने धावा बोला। उनके हाथों में कागज़ थे, जिन पर नीली स्‍याहियों में कुछ-कुछ दर्ज था। वो गुस्‍सा था - जो मुंबई हादसे के बाद उन्‍होंने जाहिर किया था। ज्‍यादातर लोग नेताओं को गोली मार देने के पक्ष में थे। हमने उन्‍हें भरोसा दिया कि अब आज तो नहीं, लेकिन कल जरूर उन सबके विचार अखबार में छापेंगे।

उस दिन सीधे घर लौटने का प्रोग्राम नहीं था। बीवी बेटी को लेकर न्‍यू मार्केट में थी। हम वहीं मिले। खरीदारी की। दुकानों में टीवी चैनल्स मुंबई का समाचार दे रहे थे। लोग गाहे-बगाहे, अपनी-अपनी दिलचस्‍पी के हिसाब से एक-आध बार उधर भी नज़रें दौड़ा लेते थे। इन्‍हीं लोगों में हम भी शामिल थे। हमने 28 नवंबर की शाम का डिनर बाहर ही किया। घर लौटे। सो गये।

तीसरे दिन सुबह नौ बजे के आसपास जवानों के ऑपरेशंस तो ख़त्‍म हो चुके थे, लेकिन ताज में सर्च अभियान चल रहा था, जो अगले कुछ घंटों तक चलने वाला था। हम रोज़मर्रा की तरह ही विचलित थे, सहज थे, शांत थे - वो सब थे, जो लगभग रोज़ ही होते हैं - अलग-अलग वक्‍त पर।

पूरे देश में बहस जारी थी। बीजेपी ने विज्ञापनों से देश के अखबार पाट दिये। आतंकवाद को कुचलना है, तो बीजेपी को वोट दो। बीजेपी की राजनीति देश की आवाज़ नहीं है, फिर भी देश 29 नवंबर को शिवराज पाटिल का इस्‍तीफा चाह रहा था। हमने 29 नवंबर को गुस्‍साये नौजवानों का जो स्‍पीकअप अखबार के पेज पर चस्‍पां किया - उसमें एक प्रमोद दुबे भी थे। उन्‍होंने लिखा, ‘मैं प्रमोद दुबे, भारत का एक साधारण नागरिक हूं, जो कहीं पदासीन, प्रतिष्ठित या मनोनीत नहीं है। साधारण हूं, इसलिए भारत की बढ़ती असाधारण समस्‍याओं के प्रति उदासीन हूं। तो भारत का यह साधारण नागरिक यह स्‍वीकार करता है कि वह व्‍यवस्‍था के साथ म्‍युचुअल कांस्पिरेसी में शरीक रहा है।’ मुझे लगा कि आज भी हम विचारोत्तेजना की स्‍टाइलशीट में अख़बार फिट करके घर लौटे हैं।

30 नवंबर। दोपहर से पहले शिवराज पाटिल इस्‍तीफा दे चुके थे। हमने सुबह टीवी पर खबर नहीं देखी थी - एक फिल्‍म देखते रह गये थे। इस्‍तीफे की ख़बर मुझे श्रीकांत सिंह, एचओडी, एमएससी ईएम, मा.च.प.सं.विवि से मिली। हम दोनों विश्‍वविद्यालय के एमएससी ईएम के फ्रेशर्स डे में मौजूद थे। मेरी बेटी गोद में थी। उन्‍होंने एक लिफाफे में भरा मौद्रिक आशीर्वाद उसके हाथ में थमाया और मुझसे पूछा - आज इसका जन्‍मदिन है न। छात्र-छात्राओं ने मेरी बेटी के जन्‍मदिन पर भव्‍य आयोजन किया था। केक से लेकर बैलून, चमकी, समोसा, मिठाई तक। हम मियां-बीवी अंदर से भर आये थे। ये भरना आयोजन की भव्‍यता से गदगद होकर हुआ था।

पिछले तीन दिनों तक मुंबई में जो हुआ - हम एक बार भी नहीं रोये थे। बल्कि कई बार किसी न किसी बात पर ठठा कर हंसे थे।

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Saturday, August 23, 2008

देवता मेरे सपने चुराते हैं और महंथों को बेच आते हैं!

तारानंद वियोगी मैथिली के बड़े कवि हैं। उनकी कविताओं का हिंदी में एक चयन अगले माह नयी किताब प्रकाशन से छपने वाला है। चयन और अनुवाद मेरा है। संकलन की भूमिका यहां प्रस्‍तुत है। साथ ही दो कविताएं भी। नोश फरमाएं।

तारानंद वियोगी की कविताएं मेरे लिए महज पाठ-सामग्री कभी नहीं रहीं, उन तमाम शब्‍दों की तरह जो अनगिनत लेखकों ने इजाद किये और जिन शब्‍दों ने हमारे लिए दुनिया को जानने-समझने वाले दरवाजे की सांकल उतारी। तारानंद की कविताओं ने मेरी निजी दुनिया का निर्माण किया है, जिसमें चलने-बोलने-सोचने और लिखने का तरीका शामिल है। मेरी पैदाइश के ठीक से अठारह बरस भी नहीं हुए थे, जब तारानंद से मेरा परिचय हुआ। मैं उस वक्‍त अभिव्‍यक्ति के खेत में उगा हुआ नवान्‍न था और वे हमारी भाषा को कहन की नयी गली में ले जाने वाले समर्थ साहित्यिक युवा। इस गली में परंपरा की झोपड़पट्टियां नहीं थीं, आधुनिकता के बनते हुए मकान थे। उस वक्‍त उनके पास विधाओं की कोई ऐसी सड़क नहीं थी, जिस पर वे दौड़ नहीं रहे थे। उनके अलावा मेरे पास उस वक्‍त बाबा नागार्जुन थे, जो सांसों की आखिरी तकलीफ से गुजर रहे थे और कभी कभार मेरे कागज पर थरथराती उंगलियों में कलम फंसाकर प्रसाद की तरह कुछ वर्ण खींच देते थे। सा‍हित्‍य की मेरी पाठशाला में वह पहली कक्षा थी, तो तारानंद वियोगी मेरे महाविद्यालय। मेरी अपनी आवारगी ने विश्‍वविद्यालय में दाखिल नहीं होने दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।

तारानंद वियोगी महिषी के रहने वाले हैं। ये गांव बिहार के सहरसा जिले में पड़ता है। इसी गांव में शंकराचार्य से शास्‍त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र हुए और राजकमल चौधरी भी, जिनके हिंदी उपन्‍यासों और जिनकी मैथिली कहानियों ने आने वाली पीढ़‍ियों को एक नयी लीक, नया साहस दिया। महिषी में ही सिद्ध शक्तिपीठ तारास्‍थान है, जिसकी वजह से शहरी रहवासियों की भीड़ आये दिन जुटती रहती है। तारानंद की अपनी शख्सियत में महिषी के इन तीनों तत्‍वों का निचोड़ मौजूद है। एक सिरे से आप उनकी कविताएं पढ़‍िए, मंडन मिश्र का तर्क कौशल, राजकमल चौधरी का आधुनिक-बोध और तारास्‍थान की आस्‍था का त्रिकोण आपको हर जगह मिलेगा।

मिलनसार तारानंद एकांतिक भी हैं, जो उनकी अध्‍ययनशीलता को बनाये रखता है। वे संस्‍कृत के विद्यार्थी रहे हैं और अंग्रेजी की शतकाधिक पुस्‍तकें उन्‍होंने पढ़ी हैं। वे बचपन में अल्‍पकालिक चरवाहा भी रहे - बकरी चराते थे। वे उन समकालीन कवियों की तरह नहीं हैं, जिनके पांवों में हमेशा चप्‍पलें रहीं और जो संवेदना के कारोबार को एक शानदार सेल्‍समैन की तरह आगे बढ़ाना जानते हैं। उनका प्रिय श्‍लोक है - ईशावास्‍य मिदं सर्वम्। ईश्‍वर सभी जगह है। वो ईश्‍वर जो आपकी चालाकियों को उंगलियों पर गिन रहा है। वो ईश्‍वर जो आपके शार्टकट का हिसाब सहेज कर रख रहा है। इसलिए चाहे वो जीवन जीने का मोर्चा हो या कविता रचने का, ईमानदारी और पवित्रता तारानंद के लिए पहली शर्त है।

इस संग्रह में उनकी जितनी भी कविताएं हैं, उन्‍हें जोड़ेंगे तो आपको उनका जीवनवृत्त मिलेगा। एक ऐसा जीवनवृत्त जिसमें जितनी मात्रा में संताप है, तो उम्‍मीद के आसार भी लगभग उतनी ही मात्रा में है। उनकी कविताएं सिर्फ दृश्‍य नहीं हैं - दर्शन हैं, जो जीने की नयी राह देते हैं। तारानंद वियोगी कविताएं मनुष्‍यता के विविध आयामों की चर्चा करती चलती है। खेमों-जातियों में बंटे समाज की नयी व्‍याख्‍या करती चलती है। सरकारी दफ़्तरों में फैले भ्रष्‍टाचार की तल्‍ख रिपोर्ट करती चलती है। ये तीन तथ्‍य मैं उनकी महज तीन कविताओं को सामने रख कर जाहिर कर रहा हूं - बुद्ध का दुख, ब्राह्मणों का गांव और गांधी जी। वरना जितनी कविताएं, उतने अर्थ। हर कविता इतिहास और समाजशास्‍त्र की पगडंडी पर अनोखी संवेदना के क़दमों से चलती हुई। इन कविताओं का अनुवाद मेरे लिए संभव नहीं था। ठीक उसी तरह जैसे किसी भी लोकभाषा के साहित्‍य का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं, अगर उस साहित्‍य की चेतना भाषाई मौलिकता में नहायी हुई हो। यानी ये कविताएं अपनी मूल भाषाई लय में जो कह रही हैं - सिर्फ उसके सारों का ये संकलन है।

मेरे लिए तो यह उस काम की तरह है, जो अभी खत्‍म नहीं हुआ है और जो कायदे से शुरू भी नहीं हुआ है।

ईशावास्यमिदंसर्वम्

समूचे ब्रह्मांड में फैले हैं देवता
तीनों लोकों में चौदह भुवनों में दसों दिशाओं में
जल में थल में अनिल अनल में
ओह! कोई जगह खाली नहीं बची
जहां आदमी सिर्फ अपने साथ हो सके

तरस गया हूं तड़प रहा हूं एकांत के लिए
लेकिन ये देवता! जीना हराम कर दिया है इन्होंने!

पानी पीता हूं
तो बैक्टीरिया वायरस की तरह
जाने कितने देवता मेरे आमाशय में पहुंच जाते हैं
कैसे खाऊं अन्न?
वृक्ष के फल भी शुद्ध नहीं हैं न मुरगी के अंडे
जाने किस धूर्त्त ने इस मिलावट की शुरुआत की
कि पांच हजार वर्षों से
मेरा स्वास्थ्य चौपट चल रहा है!

चीलर की तरह ये
अंडे बच्चे देते जा रहे हैं
बढ़ती जा रही है मिलावट
हराम होता जाता है आदमी का जीवन

पत्नी से प्रेमालाप तक नहीं कर सकता चुपचाप
जाने कितने देवता
टकटकी लगाकर
घूरते रहते हैं

अपना वीर्य तक नहीं बचा विशुद्ध
कि हम वो बच्चे पैदा कर सकें
जो सिर्फ हमारे हों

दुख समझो मेरा दुख
देवता मेरे सपने चुराते हैं
और महंथों को बेच आते हैं!

त्वया समं यास्यति

बड़े तेजस्वी थे वह राजा
मगर एक दिन चले गये।

बड़े खूंखार थे
थे बड़े मायावी
एक और राजा

बड़े मेधावी थे
जाने कैसे सूंघ लेते थे ख़तरा
और पैदा होने से पहले मार डालते थे
मगर एक दिन
खुद भी मार डाले गये।

एक और आये
वह भगवान थे
एक और आये
वह शैतान थे।

समंदर को चूस लेने वाले आये
सूरज को ढंक देने वाले आये
कुछ घोड़ों पर कुछ बैलों पर
कुछ गोलों पर कुछ थैलों पर
कुछ खाली आये कुछ भरे हुए
कुछ ज़िन्दा कुछ मरे हुए
मगर सब गये
सबके सब चले गये।

चमको बमको राजा
अकड़ो पकड़ो
जो चले गए वह तुम नहीं थे

और चलाओ गोलियां
और स्वादो मछलियां
चप्पा-चप्पा जमीन नपवा लो
टके-टके पर लिख लो अपना नाम

खाओ गाओ राजा
पीओ जीओ
मस्ती करो राजा मस्ती
दुश्मन के हिस्से जाए पस्ती

भरभराओ राजा
मगर चरमराओ मत

यह बेबस धरती
किसी के साथ गयी तो नहीं
पर तुम्हारे साथ जाएगी
पक्का जाएगी

तुम्हारे साथ नहीं
तो क्या ज़हन्नुम में जाएगी?

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Saturday, July 5, 2008

शुक्रिया कहने की इजाज़त चाहूंगा सर

यह एक बड़े पुरस्‍कार की तरह है। आज जनसत्ता में शिक्षाशास्‍त्री और एनसीईआरटी के निदेशक कृष्‍ण कुमार ने लिखने के रियाज़ में लगे मुझ जैसे अल्‍पज्ञात लेखक को तवज्‍जो दी है। पहले इसी ब्‍लॉग पर छपे रैंप पर अंतिम औरत का इतिहास और बाद में जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे ’ स्‍तंभ में ‘वह आख़‍िरी औरत ’ शीर्षक से छपे निबंध को पढ़ कर उन्‍होंने मुझे फोन किया था। फोन पर उन्‍होंने जिस तरह की खुशी ज़ाहिर की, उसे बताना मेरे लिए असमंजस की तरह था। मुझे लगता था कि जो मेरे उल्‍लास, मेरी खुशी को ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू ’ के मुहावरे वाले झोले में नहीं रखेंगे, उन सबको मैंने बताया कि कृष्‍ण कुमार जी ने मुझे कंप्‍लीमेंट दिया है। बाद में मैंने पता लगा ही लिया कि अपूर्वानंद से उन्‍होंने मेरा फोन नंबर जुटाया था। मैंने उन्‍हें याद दिलाया कि 97-98 के साल में कुछ दोपहरी और सांझ मैं आपके यहां आता था। लेकिन मिलने-जुलने को लेकर मेरे निरुत्‍साह में एक लंबा अरसा यूं ही गुज़र गया। कृष्‍ण कुमार जी ने जनसत्ता में फोन पर की गयी उस प्रशंसा को जिस तरह से सार्वजनिक किया है, उसे पढ़ कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। जिन शहरों में जनसत्ता नहीं जाता है और जो जनसत्ता के पाठक नहीं हैं - उनके लिए कृष्‍ण कुमार जी का आलेख मैं दिल्‍ली-दरभंगा छोटी लाइन पर भी डाल रहा हूं।

मुक्ति की चाल

कृष्‍ण कुमार

हर शब्‍द अपने भीतर एक छोटा-सा इतिहास समाये रहता है, यह बात मुझे मालूम थी, पर यह समानांतर सत्‍य - कि शब्‍द में भविष्‍य भी झिलमिलाता है - मेरे लिए इसी पखवाड़े खुला। इस अख़बार में ‘दुनिया मेरे आगे’ एक स्‍तंभ छपता है, जिसमें कभी-कभी कुछ ग़ैरनिष्‍कर्षी गद्य पढ़ने को मिल जाता है। आठ-दस दिन पहले इस स्‍तंभ के तहत अविनाश की टिप्‍पणी पढ़ कर उस ख़बर का खुलासा मेरे लिए थोड़ी देर से हुआ, जो कई दिन पहले अख़बारों में सचित्र आ चुकी थी। ख़बर उन औरतों के बारे में थी, जो सुलभ इंटरनेशनल की पहल और मदद से मैला उठाने के काम से हटायी जा सकी हैं। अलवर की ये महिलाएं संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा घोषित ‘सफाई वर्ष’ के अंतर्गत न्‍यूयार्क में होने वाले एक कार्यक्रम के लिए चुनी गयी हैं। इस कार्यक्रम का एक तरह का पूर्वाभ्‍यास, जो दिल्‍ली में हुआ, अविनाश के संक्षिप्‍त निबंध का विषय था।

अविनाश के निबंध का शीर्षक ‘वह आख़‍िरी औरत’ सतह पर महात्‍मा गांधी के मशहूर उद्धरण की गूंज लिये था, जिसमें उन्‍होंने आख़‍िरी आदमी की फिक्र की ज़रूरत बतायी है। मगर शुरुआती पैरा सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम के मंच और अगला पैरा गांव को शहर से जोड़ने वाली कंकरीली पगडंडी पर बचपन में बाबूजी द्वारा देख लिये जाने के बारे में था। शेष लेख में उस कैटवॉक का चित्रण था, जो अलवर की महिलाओं ने भारत के विख्‍यात फैशन मॉडलों के साथ सीरीफोर्ट सभागार के मंच पर की। इंटरनेट पर विकीपीडिया देख कर अविनाश यह पता लगा चुके थे कि कैटवॉक उस नुमाइशी चाल के लिए इस्‍तेमाल किया जाने वाला शब्‍द है, जो कपड़ों के नये फैशन प्रदर्शित करने के लिए आयोजित की जाती है। मैला ढोने जैसा काम करने वाली महिलाएं नीली साड़ी पहन कर, अमीर मॉडलों के साथ चलीं, फिर अमेरिका जाकर वहां भी कैटवॉक करेंगी। अविनाश ने इस प्रसंग की जटिलता को बड़ी संभली हुई तराश के साथ याद किया था। लेख के आख़‍िरी हिस्‍से में एक अधूरी खुशी के आंसू भी थे, एक बड़े-से अंधेरे की घुटन भी, और एकदम अंत में मेरे जैसे कस्‍बाई संस्‍कार वाले लोगों को महानगर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी राहत देता आया समोसा भी बदस्‍तूर मौजूद था। इस तरह वह लेख नहीं, पूरी दुनिया थी।

परसों वह दुनिया न्‍यूयार्क में साकार हुई। संयुक्‍त राष्‍ट्र के उच्‍च पदासीन अधिकारियों के सम्‍मुख वह कैटवॉक अपनी पूरी शोभा सहित संपन्‍न हुई। अलवर की औरतों का मुक्‍त गीत विश्‍व की समाचार एजेंसियों की ख़बर बना। अंतत: मेरा भी मन हुआ कि पुस्‍तकालय के वृहद शब्‍दकोश में कैटवॉक का अर्थ देखूं। फैशन परेड वाला अर्थ सबसे पहले दिया गया था, जिसके तहत मॉडल नये कपड़े पहने एक उठी हुई सतह पर दर्शकों और कैमरे के सामने चलती हैं। इसके बाद भी कई अर्थ दिये थे। मुझे उन सभी अर्थों को पढ़ना ज़रूरी लगा, क्‍योंकि बिल्लियों में मेरी दिलचस्‍पी बचपन से रही है। मैं यह जानने को उत्‍सुक था कि फैशन की दुनिया में बिल्‍ली कैसे शामिल हो गयी। भाषा के इतिहास में चले किसी अनोखे खेल के नियम समझने की जिज्ञासावश मैंने पत्‍नी से कहा कि वे शब्‍दकोश की महीन छपाई पढ़ें, क्‍योंकि मेरी आंखों में इतनी रोशनी नहीं है।

शब्‍दकोश में लिखा था कि ‘कैटवॉक’ मूलत: संकरे पुलनुमा ढांचे को कहा जाता था, जिसे निर्माणाधीन इमारतों में, जहाजों और रेलों में मज़दूरों और सफाई कर्मचारियों के लिए बनाया जाता है। लकड़ी, बांस या धातु का यह संकरा ढांचा ऊंचाई पर स्थित छज्‍जों या पानी की टंकियों तक पहुंचने में मदद करता है। टंकी साफ करके कर्मचारी के लौट आने के बाद ढांचा हटाया जा सकता है। इसे कैटवॉक कहते थे। पीछे बिल्‍ली की तरह संभल कर कदम रखने और चौकन्‍ना रहने की ज़रूरत है।

इस सघन अर्थछाया के आलोक में अलवर की मैला ढोने वाली औरतों का पहले दिल्‍ली, फिर न्‍यूयार्क में प्रायोजित कैटवॉक थोड़ा दूर तक देखा जा सकता है। फैशन मॉडलों के साथ कैटवॉक की उपयुक्‍तता प्रायोजकों को संभवत: इसलिए सूझी होगी, क्‍योंकि मैला ढोने से मुक्‍त किये गये ये इंसान नारी थे, पुरुष नहीं। कपड़ों के नये फैशन का विज्ञापन करने वाली कैटवॉक मुख्‍यत: औरतों की परेड रही है, आदमी अभी-अभी और बहुत कम संख्‍या में आने शुरू हुए हैं। मैला ढोने वाली महिला को शख्सियत मिली, अविनाश के लेख में आये आंसू इसी बात की खुशी के थे। शख्सियत एक ऐसे आयोजन से मिली, जो भूमंडलीकरण के युग में नारी की घुटन के अभूतपूर्व विस्‍तार से जुड़ा है, यह बात उसी अंधेरे का ख़ौफ़ पैदा करती है, जो जनगढ़ सिंह श्‍याम ने जापान की व्‍यापारिक आर्ट गैलरी में अपनी आदिवासी आंखों के एकदम सामने महसूस किया होगा। जानकार लोग कहते हैं कि कैटवॉक कर रही औरत को अपनी आंखों में वही भाव लाना सिखाया जाता है, जो उमंग के साथ कंघी कर रहे किशोर के चेहरे पर स्‍वाभाविक रूप से इस सोच के साथ आ जाता है कि कोई मुझे देख रहा है। संकरे, रपटे या मुंडेर पर चल रही बिल्‍ली में यह भाव नहीं होता। पर बिल्‍ली मनुष्‍य को क्‍या-क्‍या सिखाये। हजारों साल के साहचर्य के बाद भी वह मानव को यह नहीं सिखा सकी कि आत्‍मसम्‍मान एक ऐसा भाव है, जो कहीं और जाकर नहीं, यहीं व्‍यक्‍त होना चाहिए और अपने ही मन और देह में प्रकटना चाहिए, मुजरे के दर्शकों की आंखों से नहीं।

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Friday, January 11, 2008

अपनी भाषा की कविता के बारे में

हम किसी भी इलाक़ाई भाषा से किस तरह के साहित्‍य की अपेक्षा रखते हैं? इलाक़े की संवेदना, सामाजिक वैविध्‍य और देश की मुख्‍यधारा में इलाक़े का योगदान। क्‍या मैथिली कविता इन कसौटियों पर उतरती है? अगर मैं एक प्रवासी मैथिल हूं, तो क्‍या मुझे मेरे इलाक़े की कविता अपनी मिट्टी के महत्‍व से साक्षात्‍कार कराती है? मिथिला, जो बदल रहा है, गांवों में जिस तरह जीवन मूल्‍य बदल रहे हैं, उसकी आहट कविता दे रही है या फिर पुराने मुहावरों के खोल में घुसी हुई कविता सिर्फ स्‍मृतियों की चित्रकारी बनी हुई है? प्रकाशनों की कठिन डगर और साहित्‍य संपर्क की संकरी गलियों में टहलने के चलते मिथिला का काव्‍य संस्‍कार पूरी तरह हमारे सामने नहीं है, इसलिए मैं मैथिली कविता पर बोलने, बात करने के लिए सही अथॉरिटी नहीं हूं। लेकिन छोटे भूगोल वाली भाषाओं की सीमा और सहूलियत ये होती है कि इसमें हम बिना विशेषज्ञता के भी अपने अनुभव शेयर करते हैं। इसी सहूलियत का लाभ उठाते हुए मैथिली कविता पर थोड़ी बात करने का साहस कर रहा हूं।

मेरे सामने नारायणजी की एक कविता है। मंदिर। कविता में मंदिर एक प्रतीक है, जिसकी धुरी पर बदले हुए गांव की कथा कही जा रही है। ताश खेलना हो तो मंदिर पर चलो, जुआ-चिलम करना है तो मंदिर पर चलो। पुराने सामाजिक मूल्‍य के हिसाब से जो अनैतिक है, उसका अड्डा पुराने समाज की सबसे पवित्र जगह बन रहा है। अंत में एक सवाल है कि ऐसा ही मंदिर अयोध्‍या में बनाने की भी कोशिश हो रही है। छोटी-सी कविता में नये मिथिला में बनते हुए सामाजिक मुहावरे भी हैं और एक ताक़तवर राजनीतिक टिप्‍पणी भी। ये कविता नयी सदी के पांचवें या छठे साल में लिखी गयी और अंतिका के अप्रैल 05 - मार्च 06 कें संयुक्‍तांक में छपी।

अब पचास साल पहले यात्री नागार्जुन की कविता देखिए। उमा भाइ छोड़लनि फुफकार। इस कविता में यात्री जी एक ऐसे अहम्‍मन्‍य आदमी की कथा कहते हैं, जो अपने विपक्षी का गला रेतने वाले को हज़ार रुपये इनाम देगा। इनाम ही नहीं हत्‍या के मुक़दमे की पैरवी के लिए दो हज़ार और देगा। वो आदमी बताता है कि उसका बेटा रेल में अफसर है और बेटी का ससुर रावण का अवतार है। इस पूरी घटना का गवाह बनने के लिए वो पूरे समाज को आमंत्रित भी करेगा। यानी समाज में उमा भाई जैसे लोगों के लिए जगह है और सम्‍मान भी। यात्री नागार्जुन की ये कविता मिथिला दर्शन के मई 1954 के अंक में छपी।

इन दोनों संदर्भ कविताओं के समय में पचास साल का फर्क है और ये दोनों ही कविताएं अपने समाज पर तीखा व्‍यंग्‍य है। जाति और गोत्र की पवित्रता-श्रेष्‍ठता गाने वाली काव्‍य-पीढ़‍ियों के बीच मैथिली कविता की ये धारा अभी भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है - क्‍योंकि आलोचना की समग्रता में इस धारा का मूल्‍यांकन अभी नहीं हुआ है।

मैथिली कविता में सौंदर्य के कुछ ख़ास ज़मीनी बिंब मिलते हैं, जो मुग्‍ध करते हैं। ये बिंब अभिजात संस्‍कार का अतिक्रमण करते हैं, मैथिली कविता को नया रास्‍ता दिखाते हैं। एक बानगी कुलानंद मिश्र की यही कविता है - ओ धान रोपैत हाथ सं सीउथ परक खढ़ कें हटौने रहय। थोड़े गिल्‍ल माटि ओकरा कपार पर टिकुलि जकां सटि गेल रहै। हम सोचने रही। एहने रमनगर मुद्रा मे हमरो आंगनवालीक फोटो बेजाय तं नहिये लगतनि। (धान रोपते हुए उसने अपनी मांग से एक खर (-पतवार) हटाया। थोड़ी गीली मिट्टी उसके माथे पर टिकुली की तरह चिपक गयी। हम सोचने लगे। ऐसे ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में मेरी बीवी की तस्‍वीर भी बुरी नहीं लगेगी।)

ये कविताएं ऐसी हैं, जिसका रुप-बिंब, जिसके मुहावरे दूसरे भूगोल वाले पाठकों को भी समझने में आसानी होगी। लेकिन असल लोकभाषा का सबसे मौलिक रचाव भी मैथिली कविता में इस वक्‍त सक्रिय है, जिसको समझने के लिए मैथिल होना ज़रूरी है। हरेकृष्‍ण झा ऐसे ही प्रगतिशील मैथिली कवि हैं, जिनकी काव्‍य भाषा अनुवाद के लिहाज़ से सर्वाधिक जटिल है। लाल धामा, रसनचौकी, रागभास, कलमबाग, अकादारुन आदि-आदि जैसे शब्‍द अब मैथिली कविता के बाड़ से बाहर हो रहे हैं। लेकिन हरेकृष्‍ण झा ऐसे हज़ार-हज़ार शब्‍दों के माध्‍यम से नये मिथिला का कथा-काव्‍य रच रहे हैं। हरेकृष्‍ण झा लंबे समय तक जनांदोलनों में सक्रिय रहे हैं। ऐसी पृष्‍ठभूमि से आये लेखकों के बारे में आमतौर पर ये समझ होती है कि वे पुराने लोकमुहावरों और शब्‍दों से इसलिए परहेज करते हैं, क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि भाषाई अभिव्‍यक्ति के ये औजार सामंती बुनावट वाले हैं। मैथिली की बहुत सारी प्रगतिशील कविताओं में इस्‍तेमाल की गयी भाषाओं से भी ये धारणा बनी, जिसमें ऐसे नारे-मुहावरे आये, जो सामाजिक ताने-बाने में फिट नहीं बैठते थे। लेकिन हरेकृष्‍ण झा का शब्‍द संसार मिथिला की मिट्टी और हरित वन क्षेत्रों की कहानियों से भरा हुआ है, जिसमें आधुनिक जीवन मूल्‍य की क्रांतिकारी अनुगूंजें लोकगीत की तरह मौजूद हैं। पिछले चार दशक से हरेकृष्‍ण कविताएं लिख रहे हैं और अब जाकर उनका एक संकलन छप सका है।

ठीक उसी तरह विद्यानंद झा की कविताएं भी स्‍मृतियों के ऐसे आख्‍यान में हमें ले जाती हैं, जहां से मिथिला की रीति-नीति को समझने में आसानी होती है। उनकी कविताएं दार्शनिक अंदाज़ में एक मैथिल प्रवासी की दैनंदिन अ‍नुभूतियों की ऐतिहासिक व्‍याख्‍या करती है। उनकी एक शृंखलाबद्ध कविता है, मृत्‍यु से पहले। कविता कहती है कि सामाजिक रूप से दिखती हुई निष्‍ठा दरअसल कितनी विसंगतियों का लेखा-जोखा होती है। कविता कहती है कि मरने से पहले आदमी की मानवीय कुंठाएं कैसे सहज रूप से प्रदर्शित होने लगती हैं। आखिरी वक्‍त के दारूण विवरण भी कविता को ख़ास बनाते हैं। जैसे एक बहुत ही सामान्‍य-सी दिखने वाली पंक्ति है, जो पूरी कविता में एक लय की तरह बंधी हुई है, आप देखें - उठैत सुरुजक संग / उठैत अछि बुरहीक राग / शांत होइत अछि / सांझ भेला पर / थाकि गेला पर। (उठते हुए सूरज के संग / उठता है बूढ़ी का राग / शांत होता है शाम होने पर / थक जाने पर) विद्यानंद झा के पास ऐसी कविताओं की लंबी फेहरिस्‍त है।

ये तमाम कवि अस्‍सी और दो हजार के बीच सक्रिय रहे हैं। लेकिन जो नवान्‍न हैं और नब्‍बे के बाद जिन्‍होंने अपने अस्तित्‍व से संघर्ष करती हुई मैथिली को अपनी अभिव्‍यक्ति के लिए चुना, उनकी कविताएं भी मैथिली को एक नया विस्‍तार देती हैं। इनमें से ज्‍यादातर कवि शहरी संवेदनाओं के साथ बड़े हुए, लेकिन जड़ों की तलाश की छटपटाहट इन्‍हें बार-बार ग्रामीण संवेदनाओं के सामने बौना सिद्ध करती रही। ये समस्‍याएं उन महिला रचनाकारों के लिए ज्‍यादा रही, जिनके लिए सामाजिक जकड़बंदी के चलते इन दोनों संवेदनाओं का ख़ास मतलब नहीं है। गांवों में उनके हिस्‍से पर्दा और दीवार है और शहर की आधुनिकता का दरवाज़ा भी उनके लिए ज़्यादा नहीं खुला है। मुक्‍ता की एक कविता प्रैक्टिकल इस बेचैनी को शब्‍द देती है - मेडिकल तैयारी लेल / बहरेबाक हमर रस्‍ता भेल बन्‍न / पिता कहलनि, नहि अछि बुत्ता / मर्यादा आ कुल-प्रतिष्‍ठा लग नत प्रतिभा / गामक माटि-पानि मे चासनी बनि घुलि रहल अछि / आ हम भविष्‍य तकैत क' रहल छी होम साइंसक प्रैक्टिकल... (मेडिकल की तैयारी लेल / बाहर जाने का रास्‍ता हुआ बंद / पिता ने कहा, नहीं है औकात / मर्यादा और कुल प्रतिष्‍ठा के आगे नत प्रतिभा / गांव की मिट्टी-पानी में चाशनी बन घुल रही है / और हम भविष्‍य को देखते हुए कर रहे हैं होम साइंस का प्रैक्टिकल)

अब ऐसे कवि ज्‍यादा हैं, जो मिथिला में नहीं रहते। रोजी-रोटी और दूसरी कई वजहों से वे परदेस में रहते हैं। मैथिली में लिखना उनके लिए परायों की भीड़ में मौलिक होने की छटपटाहट भी होती है, इसलिए वे लिखते हैं। उनमें हम एक भाषा का अपना प्रवाह न भी देखें, तो संवेदना और स्‍मृतियों का प्रवाह ज़रूर मिलेगा। कृष्‍णमोहन झा, सारंग कुमार, संजय कुंदन, कुमार मनीष अरविंद, धीरेंद्र प्रेमर्षि, रमण कुमार सिंह, नूतन चंद्र, कामिनी, विनय भूषण, अजित कुमार आजाद, पंकज पराशर अपनी भाषा में सक्रिय ऐसे ही प्रवासी कवि हैं। प्रगतिशील काव्‍यधारा में पलास के वन और नागफनी जैसे गैरमैथिल शब्‍द-बिंबों के प्रयोग वाली अनेकानेक कविताओं को छोड़ दें, तो ज़्यादातर कविताएं मिथिला को समझ रही हैं और अभिव्‍यक्‍त कर रही हैं।

लेकिन जिस एक कवि से मैं सबसे ज्‍यादा प्रभावित रहा हूं, वे हैं तारानंद वियोगी। वे दलित परिवार से आते हैं और उनकी कविता उन्‍नत सामाजिक चेतना से भरी-भरी होती है। अंतिका में ही उनकी कविता बाभनक गांव छपी, जो मिथिला के सामाजिक सत्ता-संघर्ष का इतिहास-वर्तमान इस तरह बताती है, जैसे कोई आदमी चीख़ रहा है, रो रहा है और सबसे दारुण दुख को अपनी अंतरात्‍मा से गा रहा है।

मैथिली कविता ऐसी ही असंख्‍य लय की तलाश में भारतीय भाषा साहित्‍य में एक ख़ास जगह बना रही है।

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Tuesday, August 21, 2007

ये दरअसल हमारे मुल्‍क की वीरानी है



जिस वीरानी में कुर्तुल आपा ने पूरी ज़‍िंदगी गुज़ारी, वही वीरानी अस्‍पताल में उनके साथ अब भी मौजूद थी, जब उनकी सांस थम गयी थी। शव उनके वार्ड से निकाल कर उस कमरे में रख दिया गया था, जहां दरअसल शव ही रखे जाते हैं। रिसेप्‍शनिस्‍ट के पास कोई ज़्यादा जानकारी नहीं थी। टीवी वाला कहने पर अस्‍पताल के प्रशासनिक रूम का रास्‍ता ज़रूर बता दिया। वहां से पता चला, सुबह तीन बजे ही इंतक़ाल हुआ। साथ के लोग शव छोड़ कर घर चले गये हैं।

दफ्तर में काम के बोझ से थोड़ा हल्‍का होने के लिए हम स्‍मोकिंग ज़ोन में खड़े थे कि रवीश कुमार ने फोन किया- कुर्तुल एन हैदर नहीं रहीं। हम दौड़ते हुए न्‍यूज़ रूम पहुंचे। ब्रेकिंग न्‍यूज़ की पट्टी टीवी स्‍क्रीन पर चल रही थी। खेल बुलेटिन के बीच में रवीश के हल्‍ला करने पर हमने चार लाइन की इनफॉर्मेशन एंकर के लिए लिखी- उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्तुल एन हैदर का आज सुबह नोएडा के कैलाश अस्‍पताल में निधन हो गया है। उनकी मशहूर किताब आग का दरिया की अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार भी मिल चुका है। आज शाम साढ़े चार बजे उन्‍हें जामिया के क़ब्रिस्‍तान में सुपुर्दे ख़ाक किया जाएगा।

... और वीटी लाइब्रेरी से टेप लेकर सीढ़‍ियों पर लगभग दौड़ते हुए स्‍टोर की तरफ भागे। ओबी वैन पहले ही रवाना हो चुकी थी। जिस अफरातफरी के आलम में ये क़यास लगाते हुए पहुंचे कि अस्‍पताल में भारी भीड़ होगी, वहां वे तमाम लोग मौजूद थे, जिन्‍हें शायद नहीं पता होगा कि यहीं एक इतिहास शव कक्ष में खामोश लेटा हुआ है। जानने वालों को शायद आपा के इंतक़ाल की ख़बर नहीं थी या हम इस समझ से भागना चाहते थे कि हमारे मुल्‍क में कुर्तुल जैसी शख्‍सीयत के नहीं रहने के कोई मायने नहीं हैं।

हम भी कहां जानते हैं कुर्तुल एन हैदर को! दफ्तर से अस्‍पताल तक, जितनी देर गाड़ी ने वक्‍त तय किया, इधर उधर फोन मारते रहे। लगभग आधा दर्जन दोस्‍तों से कुर्तुल के नहीं होने का मतलब टटोलते रहे।
(मुंबई में प्रमोद सिंह ने कहा था- आग का दरिया कहीं से लहा लो। लहा नहीं पाये। नये नये एनडीटीवी में आये तो एक दिन विनोद दुआ के हाथ में दिख गया। हमने कहा- दे दीजिए, पढ़कर लौटा देंगे। उन्‍होंने कहा- किस पब्लिकेशन का चाहिए? ये एक टीवी पत्रकार का सवाल था। हम लाजवाब थे। उन्‍होंने समझाया कि दो पब्लिकेशन से ये किताब शाया हुई है। किताबघर वाला अनुवाद ज़्यादा अच्‍छा है, लेकिन वे उन दिनों उसे पढ़ रहे थे। पढ़कर देने का वादा अब भी वादा ही है, जिसे शायद वे भूल चुके होंगे।)
अस्‍पताल से ही घर का पता मिला। सेक्‍टर 21 ई 55, हम वहां गये। वहां भी अस्‍पताल जैसी वीरानी ही तैर रही थी। बाहर कुछ किताबें रखी थीं, जिसके पन्ने टीवी के कुछ कैमरामैन पलट रहे थे। अंदर आम-फहम से दिखने वाले तीन-चार पड़ोसी जैसे लोग हाथों में उर्दू की पतली सी कोई पाक किताब लेकर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदा रहे थे। अगरबत्ती की गंध घर से बाहर बरामदे में आकर पसर चुकी थी।

आपा की किताबों से कुछ बेहद ही ख़ूबसूरत तस्‍वीरें हमारे कैमरामैन ने उतारी। उन दिनों की तस्‍वीरें, जब कुर्तुल जवान थीं और जब अपनी जवानी को उन्‍होंने वीरानी का हमक़दम बनाने का फ़ैसला लिया होगा। प्रमोद सही कहते हैं कि जबकि एक हिंदुस्‍तानी औरत के लिए इस तरह का जीवन मुश्किल है- अपने वक़्त में अविवाहित, अकेली रहीं। उनकी तीस बरस पुरानी दोस्‍त शुग़रा मेहदी, जो हमें वहीं मिल गयी, कैमरे के सामने की गुफ्तगू में हमें बताया कि वे इस मस'ले पर कुछ भी पूछो ख़फ़ा हो जाती थीं। कहती थीं, पूरी दुनिया संग-साथ शादी-ब्‍याह में रची-बसी है, एक मैं ही अकेली हूं तो क़हर क्‍यों बरपा होता है।

अकेले रहना दरअसल अपने साथ होना होता है। अपने साथ होकर आप तबीयत से दुनिया के रहस्‍य सुलझा सकते हैं। उन्‍होंने सुलझाया। आग का दरिया का नीलांबर रामायण-महाभारत के वक्‍त से लेकर आधुनिक वक्‍त तक से संवाद करता है। महफिलों वाला आदमी तो कायदे से अपने वक्‍त से भी संवाद नहीं कर पाता।

ख़ैर दोपहर बाद से लोगबाग आने शुरू हुए। डेड बॉडी भी आयी। टेलीविज़न की ढेरों गाड़‍ियों से निकल कर पत्रकार ई 55 के आगे चहलक़दमी करने लगे। लेकिन तब तक कुर्तुल के नहीं होने की ख़बर का कोई मतलब नहीं रह गया था। देश में दूसरे बड़े डेवलपमेंट टेलीविज़न से पूरा-पूरा वक्‍त की मांग कर रहे थे।

नाइट शिफ्ट के बाद की जगी दुपहरी में आंख का गर्दा परेशान करने लगा। सुपुर्दे-खाक से पहले हमने घर का रुख कर लिया।

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Sunday, August 12, 2007

हंसी के ख़‍िलाफ एक गद्य

वे प्रणय के क्षण हों चाहे न हों, गर्दन पर होंठ जाते ही उनकी हंसी फूट पड़ती है। आप एहसास की पतली चादर को उनकी गर्दन पर लपेटना चाहेंगे और हंस हंस कर वो उसके धागे उधेड़ देगी। खामोश पानी में कंकड़ पड़ने से वृत्त जिस तरह छोटे से बड़ा होता जाता है, ये हंसी भी पहले गुनगुनाहट में और आख़‍िरकार ख‍िलखिला खिलखिला कर निकल पड़ती है। ऐसी हंसी जो प्रणय के आपके काम को अधूरा कर देती है।

हंसी कई बार आपकी पटरी पर चल रही ज़‍िंदगी से क़दमताल करके आपको पीछे छोड़ देती है और मुड़-मुड़ कर देखते हुए आपका मज़ाक़ उड़ाती है। बरसों पहले लंबे समय तक रांची मेडिकल अस्‍पताल में भर्ती रहने के बाद हमारे नानाजी का इंतकाल हो गया। सुबह-सुबह डॉक्‍टरों ने इत्तला की थी। अस्‍पताल में सबने अपने को ज़ब्‍त करके रखा हुआ था, क्‍योंकि सबको मालूम था कि नाना जी नहीं बचेंगे। मैंने अपनी मां के अलावा उस मौक़े पर रोते हुए किसी को नहीं देखा था।

उस वक्‍त हम नवीं कक्षा में थे। अस्‍पताल से घर लौट रहे थे। पैदल ही। महज़ डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी, घर और अस्‍पताल के बीच। या शायद उतनी भी नहीं होगी। हमें तो उन दिनों चलना आता था और खूब चल कर हम खुश होते थे। घर में मामाओं की ग़ैररचनात्‍मक निगहबानियों के बीच घर से बाहर किसी भी डगर पर चलना हमें अच्‍छा लगता था।

घर के पास पहुंचे, तो पड़ोस में रहने वाले एक बुज़ुर्ग शख्‍स ने नाना जी का हाल पूछा। मेरा पूरा चेहरा हंसने लगा और पूरी तरह उस हंसी को दबाने की कोशिश करते हुए बताया- नानाजी गुज़र गये। मैं दुखी था, लेकिन मैं हंस रहा था। क्‍यों हंस रहा था, नहीं मालूम। लेकिन जैसे ही उन पड़ोसी का घर गुज़रा, मैं खुद से ही शर्मसार हो गया।

वो वाक़या अब भी याद आता है, तो शर्म की एक हिलोर से मन दुखी हो जाता है।

दरभंगा में उन दिनों सुबह से शाम-रात तक घर से ग़ायब रहने के दिन थे। शामें अक्‍सर नाटकों के रिहर्सल में बीतती। इप्‍टा के लिए जगदीश चंद्र माथुर के एक नाटक कोणार्क का रिहर्सल हमने बहुत दिनों तक किया। उसका मंचन कभी हो नहीं पाया। और उसकी वजह सिर्फ मैं था। आधे नाटक के बीच नाटक के दो अहम पात्रों का सघन संवाद चलता है। विशु और किशोर कारीगर। विशु शहर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनकी हार्डवेयर की दुकान थी और किशोर कारीगर मैं बना था। संवाद के लंबे-तीखे सिलसिले में एक वक्‍त ऐसा आता है, जब दोनों की आंखें मिलती है। और जैसे ही विशु अपनी गहरी नज़रें किशोर कारीगर की मासूम आंखों में गड़ाता, मेरी हंसी निकल जाती।

फिर भी मुझे महीनों तक मौक़ा दिया गया। और महीनों उस एक सीन के रिहर्सल के दौरान मैं हंस पड़ता था। एक वक्‍त तो ऐसा भी आया कि वो सीन आने से पहले निर्देशक ब्रेक करके बोलते कि अबकी हंसा तो थप्‍पड़ लगेगा। लेकिन तब क्‍या होता कि इधर विशु और कारीगर की आंखें मिली, उधर निर्देशक खुद भी हंसने लगते। विशु भी हंसते। वे सब हंसते, जो रिहर्सल देखते। एक संजीदा दृश्‍य का हश्र हास्‍यास्‍पद हो गया था। आख़‍िरकार वो नाटक हमने कभी नहीं किया। और, ये बात अब तक समझ में नहीं आती है कि उस हंसी के स्रोत क्‍या थे।

कभी कभी रास्‍ते चलते हंसने की इच्‍छा होती है और हम हंसते हैं और इधर-उधर देखते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा है। उस साल पटना के हमारे पांच दोस्‍तों का एनएसडी में दाखिला हुआ था। संयोग से मैं दिल्‍ली में था और अक्‍सर शाम को मंडी हाउस चला जाता था। एक दिन अंधेरा उतरने पर जब मैं लौट रहा था, तो दूर से देखा कि क्रांति आ रही हैं। अपने आप से कुछ बातें करते, निकल पड़ने को बेताब हंसी को दबाने की कोशिश करते। उस वक्‍त वो आलोकधन्‍वा की बीवी थीं और क़ानूनी तौर पर तो आज भी हैं। अब उनका नाम असीमा भट्ट है। तो जैसे ही एनएसडी के दरवाज़े पर हमारी आंखें मिलीं, वो असहज हो गयीं। संक्षेप में हाल-चाल लेने के बाद वो ऐसे भागी कि बाद की कई मुलाक़ातों में असहज होती रहीं।

हंसना आपके हिस्‍से का हक़ है। आप अकेले भी हंसते हैं और सबके साथ भी। हितैषी कहते हैं, हंसो हंसो खूब हंसो। स्‍वस्‍थ प्रसन्‍न रहोगे। कवि कहते हैं, हंसना एक निश्‍छल हंसी, ताकि मानवता निस्‍संकोच राज कर सके। मैं दुविधा में हूं। मैं जब भी हंसता हूं या हंसते हुए किसी को देख लेता हूं- मुझे शर्मसार होना पड़ता है।

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Saturday, August 11, 2007

हम क्‍या लिखे जा रहे हैं...

प्रमोद सिंह की लिखावट में एक खास की किस्‍म की सजावट और तरावट नज़र आती है। वे रोज़ लिखते हैं और खूब लिखते हैं। रोज़ लिखते हुए लगातार अच्‍छा लिखना एक मुश्किल काम है। आपके पास विषयों की इतनी बहुतायतता के स्रोत कहां होते हैं? वही आस-पड़ोस, छुट्टियों में दो-चार मित्रों के घर की दौड़, टीवी-सिनेमा-अख़बार के अलावा अगर आपके अतीत का सफ़र गहन पेचीदगियों से भरा हो, तो संभव है आपके पास कहने को इतनी बातें हों कि लगे इस जनम में संभव नहीं। लेकिन लिखने की मेज़ पर पूरी तरतीब से लगातार लिखना आपको वैसा ही अभिव्‍यक्‍त करे, जैसे आप हैं- ये ज़रूरी नहीं।

कई बार प्रमोद जी के लिखे हुए का तात्‍पर्य समझ में नहीं आता। वो भाषा की कारीगरी ज़्यादा नज़र आता है। चित्रकला, सिनेमा और कुश्‍ती में कारीगरी जितना काम आती है, लेखन में कुछ ऐसी बूंदा-बांदी करती है, जो सड़क और पार्क के बीचोबीच मौजूद सतरंगी फुहारें भले लगे, बारिश की शीतलता वहां नहीं होती। लेकिन प्रमोद फिर भी उसे भाषा का रियाज़ कहते हुए लिखते चलते हैं और सिर्फ ब्‍लॉगिंग के उनके सात म‍हीनों का हिसाब करें तो अपनी संपूर्ण रचनावली का पहला हिस्‍सा तो उन्‍होंने तैयार कर ही लिया है।

गयी सदी के दार्शनिक-लेखक ज्‍यां पाल सार्त्र के लिखने की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही थी। उनके शहर के रेस्‍त्रां और बार में, जहां वे लगभग रोज़ जाते थे, उनके लिए एक कोना हमेशा रिज़र्व होता था, जिस पर बैठ कर वे लिखा करते थे। रोज़ कुछ हज़ार शब्‍दों का लिखा जाना वे एक लेखक के लिए ज़रूरी मानते थे। उनके समकालीन भी उनके लिखे के एक बड़े हिस्‍से को बोझिल और अबूझ मानते थे।

इसलिए कई बार तात्‍पर्य समझ में नहीं आने के बावजूद किसी लेखन का एक तात्‍पर्य होता है। भाषा के रियाज़ के तर्क से अलग ठोस और कन्विंसिंग तर्क। इसलिए ले‍खक की आज़ादी है कि वह अपने हिसाब से हज़ारों पन्‍ने काला करे, लेकिन कालातीत संदर्भों में जितने पन्‍ने नागरिक अपनी आलमारी में रखना चाहेंगे, वही लेखक की पूरी रचनात्‍मक सक्रियता का सार होगा।

किसी भी भाषा की समूची विरासत से पठनीयता का प्रतिशत निकालें, तो अपठनीय और अपठित पन्‍ने उन पर भारी पड़ेंगे। इसका साफ मतलब है कि सार्वजनिक साहित्‍य से अधिक तादाद अभ्‍यास के लेखन की होती है- और ये तादाद जितनी अधिक होती है, सार्वजनिक चिंता-अभिव्‍यक्ति-लेखन-साहित्‍य उतना ही तीखा-पैना-अर्थपूर्ण होता है।

अभय‍ तिवारी प्रमोद सिंह के इलाहाबादी मित्र हैं, और प्रमोद सिंह कहते हैं कि अभय अपने जीवन और लेखन में निश्‍छल है, ईमानदार हैं। अभय जी के लिखे हुए पर प्रमोद जी के निष्‍कर्ष से मुझे और कई सारे लोगों को असहमति हो सकती है, लेकिन ये सच है कि अभय कभी-कभी लिखते हैं, कई बार लगातार लिखते हैं, और कई बार लंबी सांसें, लंबा वक्‍त लेते हैं। लेकिन उनके लेखन में कोई सजावट नज़र नहीं आती है। वे अपनी बात तल्‍खी से कहते हैं, जो उन्‍हें कहना होता है- सीधे सीधे बेलाग। इसलिए उनका फुल स्‍टॉप कॉमा कहां पड़ रहा है, इससे उन्‍हें मतलब नहीं है। शब्‍दों की एकरूपता से भी उन्‍हें कोई लेना देना नहीं है। मतलब है तो बस जब जो बात कहनी है, वह कहा जाए। चाहे तैश में, चाहे अतिशय विनम्रता में, चाहे व्‍य‍ंग्‍य की टेढ़ी-तिरछी अदा में।

मैं बहुत लिखना और बहुत कुछ लिखना चाहते हुए भी लिखने से दूर भागता रहता हूं। शायद इसलिए क्‍योंकि मैं जैसा लिखना चाहता हूं, वैसा मुझे लिखना आता नहीं और जब लिखना चाहता हूं, तब दस बहाने करके ज़‍िंदगी के झमेले मेज़ पर बैठने ही नहीं देते। अब यही मान लिया है कि शायद कभी लिख नहीं पाऊंगा क्‍योंकि अब तक का अपना लिखा मुझे नैसर्गिक कम और बनावटी ज़्यादा लगता है। हमारे सहकर्मी और लेखक प्रियदर्शन कहते हैं कि आप जैसा स्‍वाभाविक रूप से लिख सकते हैं, वैसा ही लिखते हैं और इरादा करके आप मुक्तिबोध की तरह या किसी और लेखक की तरह नहीं लिख सकते। यानी आपके भीतर बेचैनियों का अनंत रूप-रंग होगा, लेकिन वो आपकी शख्‍सीयत के हिसाब से ही बाहर आएगा।

मेरी सनक ये समझने में है कि हम सब जैसा लिख रहे हैं, क्‍या वो हमारी स्‍वाभाविकता का हिस्‍सा है, या हम अपने को ज़बर्दस्‍ती उंड़ेल रहे हैं? ये भी कि क्‍या हम सब वही लिख रहे हैं, जो हमें लिखना चाहिए, या वक्‍त की मांग और पूर्ति के हिसाब-किताब में हमने अपने लेखन की स्‍वाभाविकता को विराम दिया हुआ है? अगर ये दोनों बातें नहीं हैं, तो कतिपय वाह-वाहियों के अलावा हमारे लिखे से कोई स्‍तब्‍ध क्‍यों नहीं है? किसी का जीना हराम क्‍यों नहीं हुआ है? कोई सवालों के थप्‍पड़ लेकर क्‍यों नहीं आता कि आप चैन से जीने देंगे या नहीं? मुल्‍क मरता है तो मर जाने दीजिए, हमें महीने की पगार तो मिल जाती है?

इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में हमारी मदद कीजिए।

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Monday, May 14, 2007

आंचलिक आंदोलनों की राष्‍ट्रीय अभिव्‍यक्ति

हम लाल बहादुर ओझा के साथ खाने की टेबिल पर थे। बात उन आंदोलनों की हो रही थी, जो देश के अलग-अलग हिस्‍सों में ज़ोर-शोर से चलते रहे हैं। मेरी उनकी चिंता ये थी कि इन आंदोलनों की कोई राष्‍ट्रीय अभिव्‍यक्ति नहीं है। यानी इन आंदोलनों का कोई राष्‍ट्रीय प्रभाव नहीं है। जैसे मेधा का नर्मदा आंदोलन और गुजरात में सांप्रदायिकता विरोधी अभियान को देश के हर शहर ने आवाज़ दी। राष्‍ट्रीय प्रभाव का ये मतलब कतई नहीं होता कि आंदोलन सफल ही हो। गुजरात में मोदी विरोध के बावजूद मोदी मुख्‍यमंत्री बने और नर्मदा को राष्‍ट्रीय समर्थन मिलने के बावजूद सरदार सरोवर बन रहा है।

मुद्दे हर सूबे के अलग-अलग हैं, होते है। लेकिन वे दूसरे हिस्‍सों को भी आंदोलित करते हैं, अगर उसकी सही-सही समझ और ज़रूरत उन हिस्‍सों में पहुंचती है। राष्‍ट्रीय प्रभाव यही है। लेकिन बिहार में चल रहे भाकपा माले के किसान-मजदूर आंदोलन को देश सहानुभूति से नहीं देख पा रहा। या फिर आंध्र और छत्तीसगढ़ में चल रहे माओवादी आंदोलन देश को नहीं जोड़ पा रहे। वजह क्‍या है? गुजरात और नर्मदा की तरह ये बहुप्रशंसित क्‍यों नहीं हो पा रहे?

लाल बहादुर ओझा से हमारी बात इतने पर ही छूट गयी। लेकिन मुझे लगा कि इस पर सोचना चाहिए, शेयर करना चाहिए। हमारे समाज की छवि पर आज मीडिया और बाज़ार का कब्‍जा है। बाज़ार की आज जैसी परिकल्‍पना हमारे समाज में पहले नहीं थी। जाहिर है, इस बाज़ार का विकल्‍प हमारे आंदोलनों के पास नहीं है। जो विकल्‍प हैं, वे पुराने तरीकों के हैं और उससे शहरी मध्‍यवर्ग का सहमत हो पाना संभव नहीं। वैसे हमारे आंदोलन शहरी मध्‍यवर्ग के लिए हैं भी नहीं।

जेपी का संपूर्ण क्रांति अभियान शहरी मध्‍यवर्ग के बीच चला। सत्ता बदली लेकिन चूंकि सामाजिक साफ-सफाई नीचे से नहीं चली, इसलिए कूड़ा रह गया। ज्‍यादा गंध देने लगा तो इस नयी सत्ता को ही लोगों ने खारिज़ कर दिया। उसके बाद पूरे डेढ़ दशक तक कांग्रेस के हाथ में मुल्‍क रहा और बाद में जब समाजवादियों ने जोड़-तोड़ से सरकार बनायी भी, तो जेपी के अभियान की सुगंध यहां नहीं थी। आज तक मिल-बांट कर कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादियों की सरकारें देश को खा रही हैं।

मायावती का आना भी इसी बंदरबांट के बीच से हुआ। आज बहुत सारे बुद्ध‍िजीवी इस बात से खुश हैं कि सोशल इंजीनियरिंग का नया शास्‍त्र मायावती ने पेश किया। उसका आना देश में दलित दशा के लिए अच्‍छा है। लेकिन मेरी चिंता ये है कि मायावती की परिघटना देश में चल रहे उन तमाम आंदोलनों के लिए धक्‍का है, जो अंतिम आदमी के मुद्दे पकड़ कर चल रहे हैं। सत्ता की बयार बीच-बीच में ऐसे ही देश को धुंध में ले जाती रही रहेगी और वाजिब आंदोलन उस धुंध में धुलते रहेंगे।

क्‍या करना होगा, यही सवाल है। अरुंधति के नर्मदा से जुड़ने पर सरदार सरोवर के विरोधियों का तर्क और दावा मज़बूत हुआ। राजदीप और बरखा ने गुजरात की क़ातिल मोदी सरकार का सच नंगा कर दिया। लेकिन देश के दूसरे आंदोलनों को अरुंधति, राजदीप और बरखा नहीं मिल पा रहे। इन आंदोलनों को कॉर्पोरेट के बीच सामाजिक प्रतिबद्धता का आग्रह रखने वाली छवियों को जोड़ने के प्रति सचेत होकर काम करना पड़ेगा।

अगर ऐसा करने में कठिनाई है, तो ज़‍िला स्‍तर पर अख़बार निकालने होंगे। कार्यकर्ताओं के काम में संपादक के नाम पत्र लिखने का दायित्‍व ज़रूरी तौर पर जोड़ना होगा। ज्‍यादा से ज्‍यादा संपादक नहीं छापेगा, लेकिन सहजता से उन सूचनाओं को निजी स्‍तर पर स्‍वीकार तो उन्‍हें करना ही पड़ेगा। यही स्‍वीकार एक दिन उन्‍हें बड़े होते आंदोलन को भी स्‍वीकारने के लिए बाध्‍य करेगा।

एक आदोलन की राष्‍ट्रीय अभिव्‍यक्ति भी ऐसे ही संभव मुझे लगती है।

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Thursday, May 3, 2007

हिंदी समाज के भविष्‍य का दुख

हमारे एक दोस्‍त को देखकर मैं सन्‍नाटे में आ जाता हूं। वो हमेशा दिप-दिप आत्‍मविश्‍वास से दमकते रहते हैं। कोई बात कहते हैं तो लहज़ा ये होता है कि यही एक बात है, जो कही जा सकती है, वरना सब बेकार की बातें करते हैं। हमारे आसपास ऐसे आत्‍मविश्‍वास वाले लोग बहुतायत में पाये जाते हैं। उन्‍हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कोई अरुंधति राय कहां-क्‍या लिख रही है, या स्त्रियों को प्रसव के दर्द से थोड़ी राहत देने वाली वाटर बेबी कैसे पैदा होती है। वे फूलों और बल्‍वों से सजे मंडप में वर-वधू को अक्षत छींटते हैं, तो लगता है जैसे कठिन छंद वाली कविता लिख दी हो। कहने का मतलब... ये जो आत्‍मविश्‍वास उन्‍हें सुखी रखता है, वो हिंदी समाज के भविष्‍य का दुख है।

इस दुख को बढ़ाने में मैं भी एक कड़ी हूं। मैं जो एक संशय में हमेशा रहता हूं। ये संशय है अपने घोर अधूरेपन का। शब्‍दों से एक शांत किस्‍म के अपरिचय का। अपनी उस कद-काठी का, जो दस लोगों के बीच और कमज़ोर नज़र आती है। इतना खाली होकर कोई किसी भाषा में सोच तो सकता है, लेकिन उसे काग़ज़ पर चढ़ा पाना अक्‍सर आसान नहीं होता। पसीने छूटते हैं। सोचना अधूरे वाक्‍यों में होता है और कहना पूरे वाक्‍यों में। हिंदी की दिक्‍कत ये है कि जो पूरा वाक्‍य सिरजना जानते हैं, वे सोचना नहीं जानते। और जो सोचना जानते हैं, उन्‍हें अधूरे वाक्‍यों की काबिलियत की वजह से चुप रह जाना पड़ता है।

पूरा वाक्‍य लिखने लायक अभ्‍यास और उत्‍साह भी हिंदी समाज के पास नहीं है। होता, तो प्रतिरोध और लोकतंत्र की व्‍यापक ललक होती। कहानियों-कविताओं में लालित्‍य दिखता है, कला दिखती है। कभी बेलौसपन दिखता भी है, तो वहां सोच-विचार का अनुशासन ग़ायब रहता है। हमारी बेचैनी भी उस वक्‍त हवा हो जाती है, जब लगातार सोचने के बाद कुछ लिखने बैठते हैं और कोई दोस्‍त आता है तो कहकहे में लग जाते हैं। प्राथमिकताओं से वंचित हमारा निजी समय भी हिंदी समाज के भविष्‍य का दुख है।
आइए, हिंदी के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य के लिए हम उस दोस्‍त को विनम्रतापूर्वक घर से जाने के लिए कह दें, जो बेवक्‍त आ गया है। वो जैसे ही किवाड़ से बाहर हो, हम ज़ोर से आवाज़ करने की हद तक किवाड़ बंद कर दें, ताकि विदाई के वक्‍त का दुख उस शोर से चनक कर टूट जाए। विचारों की वो फेहरिस्‍त बिना किसी भावुक व्‍यतिक्रम के बढ़ती रहेगी।

क्‍या मैं यह सोचते हुए असंवेदनशील हो रहा हूं? और क्‍या महान रचने के लिए संवेदनशील होना ज़रूरी है?

अगर आपकी हैसियत राह दिखाने की हो, तो कृपा कर दिखाएं।

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