Tuesday, November 27, 2007

चेंबूर, विद्या बालन का घर और सुबह की गुफ्तगू

इधर मेरा मोबाइल ग़ुम हो गया, तो सारे नंबर भी चले गये। उसमें विद्या बालन का नंबर भी था। उनका नंबर मैंने कहीं अलग से लिखा भी नहीं था। एक दिन अपने ऑफिस की टेल डायरी से मुझे विद्या बालन का नंबर मिला। पर इस नंबर को लेकर संशय था कि पता नहीं ये उनका सीधा नंबर है या वाया मीडिया वाला नंबर। मैंने एक एसएमएस किया, जिसका जवाब मिला नहीं। परसों अचानक इस नंबर से जवाब मिला - “हाय अविनाश, बुखार था इसलिए रिप्‍लाइ नहीं किया। सब ख़ैरियत? आप कैसे हैं?” और एक बार फिर विद्या से टूटी हुई बातचीत का सिलसिला शुरू हो पाया। मैं उन दिनों सुरेंद्र राजन जी के साथ रहता था। विद्या से मिलने की बात किसी बरिस्‍ता में तय हो रही थी। लेकिन एक शाम विद्या का एसएमएस आया कि सुबह घर पर आ जाइए, इत्‍मीनान से बात हो पाएगी। परिणीता की रिलीज़ के बाद उनका एक-एक मिनट क़ीमती था, इन्‍हीं में से मेरे लिए उन्‍हें वक्‍त निकालना था। एक ऐसी बातचीत के लिए, जिसका प्रस्‍तोता न कोई टीवी था, न कोई अख़बार, न ही कोई बड़ी फिल्‍मी पत्रिका। सुबह-सुबह हम पुराने जूते रास्‍ते में बूट पालिश से चमका कर चेम्‍बूर पहुंचे, विद्या के घर। एक मध्‍यवर्गीय बैठकखाने में सुबह की अलसायी चादरों से ढके गद्दे पर बैठे कुछ मिनट ही हुए कि एकदम से ताज़ा-ताज़ा विद्या सामने खड़ी हो गयीं। फिर हमने एक कोने में बैठ कर खूब बात की। विद्या ने अपनी मां से मुलाक़ात करवायी और घर में काम करने वाले लोगों से भी। वहां से लौटे, तो ये तय था कि फिर शायद ही विद्या हमें वक्‍त दे पाएंगी, क्योंकि परिणीता के बाद बॉलीवुड में उनके छा जाने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। लेकिन शाम को उनका एसएमएस आया कि सुबह की बातचीत अच्‍छी रही। वो बातचीत अब तक कहीं शाया नहीं हो पायी। अचानक पुरानी सीडीज़ चेक करते हुए मिल गयी, तो लगा कि इसे साझा करना चाहिए। बातचीत वैसी की वैसी रखी जा रही है, जैसी हुई। कोई एडिटिंग नहीं। उम्‍मीद है, विद्या को भी इस बातचीत की याद परिणीता के दिनों में ले जाएगी।


हालांकि ये सवाल आपको पूछना चाहिए, पर मैं पूछ रहा हूं। परिणीता आपको कैसी फिल्म लगी?
काम करते वक्त बहुत मज़ा आया। दादा (प्रदीप सरकार) पर मेरा विश्‍वास बहुत ही स्ट्रांग है। तो मेरे खयाल से मुझे पता था कि अच्छी फिल्म बनेगी, और अच्छी फिल्म बनी है। मैंने प्रीमियर में पहली बार देखी परिणीता। बहुत अच्छी लगी, और मुझे लगा कि शायद मैंने काम किया है, तो मैं ऑब्जेक्‍टेवली नहीं देख पाऊंगी। आइ मीन... इस फिल्म को मुझे जहां रुलाना चाहिए, नहीं रुलाएगी। कुछ-कुछ जगह पर ऐसा हुआ भी, पर कुल मिला कर बहुत अच्छी फिल्म लगी।
किसी नवजात अभिनेत्री के लिए पहली ही बार में परिणीता की भूमिका किस तरह की चुनौती है?
दरअसल परिणीता जो है, लॉलिता का कैरेक्टर जो है, बहुत ही लेयर्ड है। बहुत सारे... जिसको कहते हैं हाव-भाव, वो है... दादा जैसे डायरेक्टर इस तरह की भूमिका के लिए आपसे बहुत कुछ चाहते हैं। सिर्फ वो नहीं, जो स्क्रिप्ट में हो। तो हमने तैयारी भी ऐसे की थी। मेरे दिमाग में ये बात नहीं थी कि क्या मै कर पाऊंगी, नहीं कर पाऊंगी, मैं पहली बार कर रही हूं, ऐसा कुछ नहीं था। मैं केवल मेहनत कर रही थी ताकि जो रोल मुझे दिया गया हो, मैं उसे सच्चाई के साथ निभा पाऊं।
किस-किस तरह की दिक्कतें आयीं परिणीता को अपने भीतर एडॉप्ट करने में? आप परिणीता से पहली बार कैसे परिचित हुईं? नॉवेल पढ़के या...
नहीं, पहले दादा ने स्टोरी सुनायी थी मुझे परिणीता की, क्योंकि वो लिख रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि तुम्हें नॉवेल पढ़ना चाहिए और जो इस नॉवेल पर पहले की फिल्में हैं, वो भी देखनी चाहिए तुम्हें। तो मैंने फिल्म देखी। पढ़ा, पर हिंदी का बहुत ही खराब ट्रांसलेशन पढ़ा। मैं होप कर रही हूं कि कोई उसे अच्छी तरह से अभी ट्रांसलेट करे (हंसते हुए)... क्योंकि इस ट्रांसलेशन को पढ़ने में काफी दिक्कत हुई। यही थी तैयारी, बाकी तो तैयारी... जिस हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी गयी है, उसको पढ़के तैयारी की मैंने। मगर सब कुछ धीरे-धीरे हुआ। एक ही दिन में मैं लॉलिता नहीं बन पायी। बहुत बार स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद... दादा के साथ, और दूसरे कैरेक्टर्स के साथ स्क्रिप्ट डिस्कस करने के बाद... और शूट के वक्त... आइ थिंक, दैट प्रॉसेस स्टार्टेड ऑल द मॉन... स्लोली एंड स्ट्रेडली स्टार्टेड थिंकिंग इन टू द कैरेक्टर...
आपने बिमल रॉय की परिणीता कब देखी? यानी प्रदीप सरकार की परिणीता शूट होने के कितने दिन पहले?
दो-तीन महीने पहले...
पहले कभी परिणीता के बारे में सुन रखा था!
हां-हां, सुना तो था कि मीना जी ने इस रोल को मॉडेलाइज किया था... और मौसमी जी ने भी ये रोल किया है, बंगाली में... तो सुना तो बहुत था उसके बारे में, पर देखा नहीं था। जब डिसाइड हुआ कि मैं करनेवाली हूं फिल्म, तब देखा मैंने।
बिमल रॉय की परिणीता क्लासिक है, क्योंकि सिनेमा के चिंतक और व्याख्याकार और क्रिटिक बताते हैं कि शरत बाबू के नॉवेल की पूरी संवेदना बिमल रॉय ने स्क्रीन पर उतारी थी। प्रदीप सरकार की परिणीता और बिमल रॉय की परिणीता में किस तरह का फर्क है?
बहुत फर्क है, क्योंकि दो डायरेक्टर्स के इंटरप्रीटेशन में बहुत फर्क होता है। हमने क्लासिक बनाने की कोशिश नहीं की, एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की है... और... हर डायरेक्टर का जो है वो अलग इंटरप्रेटेशन होता है। और जाहिर है दादा का आग्रह दूसरा था। काफी उन्होंने लिबर्टीज लिये हैं स्टोरी के साथ। पर... दैट इज पार्ट ऑफ हिज विजुअलाइजेशन... लोगों को ये समझना चाहिए कि हर डायरेक्टर का एक अलग नज़रिया होता है। एक ही किताब आप अपनी तरह से पढ़ेंगे, मुझे अपनी तरह से भाएगा। तो जिस तरह से आप उसे स्क्रीन पर दर्शाएंगे... या दिखाएंगे, वह पूरी तरह से अलग होगा, जिस तरह से मैं उसे दिखाऊंगी। तो ये सब्जेक्टिव है बहुत... और बिमल रॉय जी बहुत ही बड़े डायरेक्टर थे। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बनायी हैं, पर हमारी कोशिश अलग थी। हम ये नहीं चाहते थे कि बिमल रॉय की फिल्म को ही हम नये चेहरों में उतार दें। यह महज इत्तफाक है कि परिणीता एक ऐसी कहानी थी, जिस पर बिमल रॉय ने भी फिल्म बनायी थी... बाकी हमलोगों ने तुलनात्मक अध्ययन के नज़रिये से भी फिल्म नहीं बनायी।
परिणीता की शूटिंग के वक्त आपको मीना कुमारी की याद आती थी?
कभी-कभी मैं जिस तरह से वाइस माड्यूलेट करती हूं, दादा कहते हैं कि चलो कभी-कभी लगता है कि तुम मीना कुमारी की री-इनकार्नेशन हो... मज़ाक़ में... (हंसती हैं)... मिस्टर चोपड़ा जी (विधु विनोद चोपड़ा) के ऑफिस में मीना जी की बहुत खूबसूरत एक तसवीर है... (फिर थोड़ा रुक कर हिचकिचाते हुए विद्या ने कहा कि पर यह हमारे-आपके बीच की बात है, मगर चूंकि यह बात रिकार्ड हुई है, इसलिए यहां दी जा रही है)... अगर कभी मिस्टर चोपड़ा ने मुझसे पूछा कि तुम्हें एक वो चीज क्या चाहिए, जो मेरे पास है, तो मैं उनसे कहूंगी कि वो फोटो... बहुत ही खूबसूरत फोटो है... उसमें एक दर्द है, एक स्लाइट्स स्माइल भी है, एक सेंस्वसनेस है... सब कुछ है उस तसवीर में... तो मैं चाहूंगी कि वो मुझे दें।
अभी तक वो मीना कुमारी आपको मिली नहीं है...
नहीं, अभी तक मैंने पूछा भी नहीं है, मैंने उनको बताया तक नहीं है। क्योंकि काफी एक्टरों की तसवीरें उनकी दीवार पे लगी हुई है... बहुत क्लासिक फोटोज़। अगर उनमें से ये मुझे मिल जाए, तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगी... मीना जी के बारे में ऑफकोर्स डिस्कशन होती थी... आइ हैव सीन साहिब बीबी और गुलाम... मैंने कभी सोचा नहीं था... मेरी इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं सोचूं कि मेरी तुलना उनसे हो। वो सबसे ऊंची संवेदना की अभिनेत्री थीं, मेरी तो अभी शुरुआत ही है।
मीना कुमारी की खासियत यह थी विद्या कि वह एक शायरा भी थीं। शाइरी करती भी थीं और शाइरी जीती भी थीं। उनके अभिनय में एक शाइरी थी... वह एक आम आदमी की संवेदना के स्तर पर अपने अभिनय को संवारती थीं। इस लिहाज से आप अपने जीवन और अपने अभिनय को कैसे देखती हैं?
देखिए मैं सुसॉलजी की स्टूडेंट रही हूं, तो मुझमें एक हद तक सामाजिक आग्रह तो है, सेंसेविटी है, अवेयरनेस है... पहले तो यही सारी चीजें होनी चाहिए... लेकिन मैं (संकोच से) लिख नहीं सकती।
लिखने की इच्छा है विद्या?
इच्छा भी नहीं है, क्योंकि मुझमें वो कौशल है भी नहीं। सिर्फ इसलिए कि लोगों को मेरी ऐसी ख्वाहिश के बारे में सुनना अच्छा लगे, मैं नहीं कहूंगी कि मैं लिखना चाहती हूं... मुझे लगता है कि मैं लिख नहीं सकती। पर, आजकल ऐसे लोग भी लिख रहे हैं कि पढ़ कर बहुत दुख होता है। कुछ दिन पहले मेरा एक इंटरव्यू छपा था, जो मैंने दिया ही नहीं था। किसी ने ऐसे ही छाप दिया था। और लैंग्वेज उसमें ऐसी थी कि मैं सेकेंड क्लास में भी वैसी इंगलिश नहीं लिखती थी। इट्स नॉट अबाउट... बड़े लफ्जों से अच्छी राइटिंग नहीं होती। एक लैंग्वेज का वो फील होता है न, वो भी आज की राइटिंग में नहीं आता... तो इट्स वेरी डिस्अपॉइंटिंग... ऐसे में मुझे लगता है कि अगर मैं लिखने लगूं तो सेम थिंग हो जाएगा, तो मैं कोशिश भी नहीं करना चाहती।
कभी-कभी ऐसा भी तो होता है कि हम अपने अभिनय में कविताई संवेदना उतारते हैं...
जैसा कि आपने मीना जी के बारे में कहा, तो मैं पोइट्री ही नहीं, स्टोरीज़ व नॉवेल्ज़ भी पढ़ती हूं। क्लासिक लिटरेचर बहुत कम पढ़ा है मैंने, पर पढ़ने का शौक है... और एक्सपीरिएंसेज बटोरने का मेरा शौक ही नहीं बल्कि मेरे जीवन का हिस्सा है, ऐसी ही हूं मैं। तो मुझे लगता है कि किसी भी एक्टर को हर तरह के अनुभव में अपने आपको इनवॉल्व करना बहुत ज़रूरी है। यू हैव टू हैवेन ओपन माइंड ऑर नॉट ओनली इन पोएट्री... आइ जेनरली ट्राइ टू कीप माइ सेल्फ ओपन टू ऑल ऑफ एक्सपीरिएंसेज... सो दैट... कहीं न कहीं जाके वो मुझे... नॉट ओनली एज एन एक्टर... जब मैं एक्टिंग करती भी नहीं थी... मेरा हमेशा से यही नज़रिया रहा है। आइ थिंक इट हेल्प्स यू डेवलप इन टू अ बेटर परसन...
अपनी ज़‍िंदगी में पहली बार आपने अभिनय के बारे में कब सोचा?
मैं सेवेंथ स्टैंडर्ड में थी, जब मैंने एक-दो-तीन देखा माधुरी दीक्षित का... और मुझे लगा कि काश मैं ऐसे नाच पाती... (हंसती हैं)...! उनमें ऐसी चीज़ थी, जो सबको अपनी तरफ रिझाती थी। और ज़ाहिर है, मैं भी उनकी बहुत बड़ी फैन हो गयी थी। मेरे में कहीं न कहीं हमेशा एक्ट्रेस होने की चाहत थी, और धीरे-धीरे मेरी चाहत बढ़ी... एक-दो-तीन से मामला शुरू हुआ और बाद में जैसे-जैसे मैं और फिल्में देखती रही, मेरी चाह बढ़ती गयी। और शायद माधुरी दीक्षित का ही असर था कि एक दो तीन देखने के बाद से मैंने किसी और प्रोफेशन के बारे में सोचा भी नहीं।
एक फिल्म आयी थी मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं... क्या आप माधुरी दीक्षित बनना चाहती हैं?
जब छोटी थी, तो हां, माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी... इन द सेवेन स्टैंडर्ड... बट आइ... स्टार्टेड ग्रोइंग एंड रीयलाइजिंग कि बहुत सारी एक्ट्रेसेज़ ऐसी हैं, जिनके परफारमेंस देख कर मुझे वैसी चाहत होती थी... जब छोटी थी... जब बड़ी होती गयी, तो लगता गया कि मुझे खुद में एक एनटेटिव बनना है। जब मैं छोटी थी तो मज़ेदार बात ये है कि तब मुझे पता नहीं था कि तानपुरा जो होता है, वह सिर्फ... अकंपनिंग... सुर के लिए होता है। मैं मम्मी से कहती थी कि मैं तानपुरा टीचर बन जाऊंगी... (हंसते हुए)... हालांकि तानपुरा टीचर जैसी कोई चीज होती नहीं है।
आपकी जिंदगी में परिणीता के पहले और बाद का फर्क क्या है?
फर्क तो कोई मुझे ज्यादा नहीं लगता। एक्सेप्ट द फैक्ट कि आप यहां बैठे हैं और मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं। फोन कॉल्स बढ़ गये हैं। मैं दस की रात एम्सटर्डम (आइफा अवार्ड फंक्‍शन) से आयी। आज चौदह तारीख की सुबह है। तब से लेकर अब तक तकरीबन एक सौ फोन कॉल्स आये हैं। मुझे अच्छा लग रहा है। रिव्यूज़ बहुत अच्छे रहे हैं। इन सब बातों से इनकरेजमेंट बहुत मिलती है... इन द फिल्म हैज बिन डीक्लेयर्ड अ हिट... तो ज़ाहिर है मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। फर्क यह है कि मुझे ब्रीदिंग टाइम नहीं मिल रहा... क्योंकि इतने सारे इंटरव्यूज़ हो रहे हैं। क्योंकि परिणीता की रीलीज तक मैं प्रेस से नहीं मिल रही थी, तो अभी मुझे लगता है कि मेरी एक रेस्पांसिबिलिटी है... और मेरे प्रोड्यूसर ने भी कहा है कि अगर लोग तुममें दिलचस्पी दिखा रहे हैं, तो तुम्हें उनसे बात ज़रूर करनी चाहिए। तो अब मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं... और कुछ नहीं... और कोई फर्क मुझे नज़र नहीं आता।
मैं लोगों के एटीट्यूड की भी बात कर रहा हूं विद्या। एक नोन फेस और एक अननोन फेस को दुनिया अलग-अलग देखती है...
अभी तक तो मौका ही नहीं मिला है यह सब महसूस करने का। एम्सटर्डम से आने के बाद बहुत ही बिज़ी रही हूं। लेकिन मेरे एक्सटेंडेड फैमिली से जो है, बहुत अच्छे-अच्छे रेस्पांसेज मिले हैं। उन लोगों ने कभी ये मुझे महसूस नहीं होने दिया कि मैं कुछ अलग कर रही हूं... बाकी नाइन टू फाइव प्रोफेशन में हैं... मैं मे बी नाइन टू सिक्स में हूं... क्योंकि शिफ्ट इतने टाइम का होता है... बस इतना ही फर्क है।
आपकी ज़‍िंदगी का सफर कहां से शुरू होता है?
मुंबई में पली-बढ़ी हूं। पैदा हुई हूं यहां। इस घर के ठीक सामनेवाले घर में। सामनेवाला घर भी हमारा ही है। उस घर में पैदा हुई, इस घर में पली-बढ़ी। टू मच फॉर अ मुंबईकर... स्कूलिंग मेरी चेंबूर सेनैंटिनी स्कूल में हुई। कॉलेज सेंजेवियर्स गयी थी मैं और बहुत पहले काम करना शुरू कर दिया था.. मोर एज अ... शौक... आइ डीडंट नो कि किसी दिन ये मेरा प्रोफेशन बन सकता है। लेकिन कॉलेज में थी और पोस्टर लगा था कि कालेज स्टूडेंट्स अप्लाइ करें। कालेज पर आधारित एक सीरियल बन रहा है। मैंने लोकल फोटो स्टूडियो से कुछ तसवीरें खिंचवायी और बायोडाटा के साथ भेज दिया। बायोडाटा को पढ़ के उन लोगों ने टेस्ट किया मुझे। मैं सेलेक्ट हो गयी। हमने शूटिंग भी की। बाद में सीरियल बंद पड़ गया। बीआइ टीवी के लिए वह बन रहा था।

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Sunday, November 25, 2007

कहत भिखारी भाई

पीली कोठली, जिसकी बाहरी दीवार पर एआईएसएफ का एक नारा लिखा था और किवाड़ पर खुरदरी लिखावट में इंडियन पीपुल्‍स थिएटर एसोसिएशन उर्फ इप्‍टा लिखा था, हमारे थिएट्रिकल किस्‍से का दूसरा अध्‍याय था। पहला अध्‍याय वीणापाणि क्‍लब से शुरू होता है, जिसका किस्‍सा कभी इत्‍मीनान से बांचेंगे। राज कैंपस में ही मिथिला विश्‍वविद्यालय का संगीत एवं नाटक विभाग था, जहां से लोग एमए की डिग्री लिया करते थे। तब उसके विभागाध्‍यक्ष अविनाश चंद्र मिश्र थे, जिनके कुछ नाटकों को पटना इप्‍टा ने पूरे देश में मंचन करके लोकप्रिय बना दिया था, जिनमें दो नाम अभी याद आ रहे हैं - उचक्‍कों का कोरस और बड़ा नटकिया कौन

वो कोठली ऐसी थी, जिसमें बेगूसराय-पटना के जो भी इप्‍टा एक्टिविस्‍ट आते, ठहरा करते। रिहर्सल का कमरा जिसमें एक लकड़ी की आलमारी थी और एक चौकी - शाम के वक्‍त चौकी खड़ी कर दी जाती थी और खाली फर्श पर रिहर्सल होता था। पटना इप्‍टा से जुड़े पंकज और राजेश सिन्‍हा नाम के भी रंगकर्मी एमए की डिग्री लेने दरभंगा आये, तो इसी कोठली में टिके। टिकने के बहाने एक नाटक की तैयारी भी शुरू हुई लोकल रंगकर्मियों के साथ। नाटक था भिखारी ठाकुर रचित गबरघिचोर। मिथिला में भोजपुर का ये नाटक जिस अंदाज़ से खेला गया और लोगों ने इसकी प्रस्‍तुति को जितनी मोहब्‍बत दी, वह ज़ेहन में अब भी बसा हुआ है। इसकी प्रस्‍तुति हमने शहर के थिएटर हॉल से लेकर गांव के पंडाल तक में की।

मैं इसमें सूत्रधार हुआ करता था, जो सिरी गनेस गुरु सीस नवाऊं रामा हो रामा की लय में नृत्‍य करते हुए कथा शुरू करता है और बीच-बीच में आकर कथा आगे बढ़ाता है। इसके रिहर्सल के दरम्‍यान एक बार पंकज ने मुझ पर थप्‍पड़ चला दिया था और मैं रिहर्सल के बीच से रोते हुए घर लौट आया था। बाद में मनाने के बाद ही रिहर्सल के लिए तैयार हुआ।

भिखारी ठाकुर की स्पिरिट और उनके बारे में वक्‍त के साथ और पता चला। संजय उपाध्‍याय निर्देशित बिदेसिया की प्रस्‍तुतियों को कई बार देखने का मौक़ा मिला - पटना से दिल्‍ली तक। बिदेसिया परदेस गये लोगों के पीछे छूटी दुख कथा का बेमिसाल नाट्य-रूपातंरण है और जिसकी वजह से भिखारी को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लोकप्रियता मिल चुकी है। पटना के किसी प्रेस से भिखारी रचनावली का एक पतला सा खंड भी हाथ लगा, जिस पर किसी मेहरबान दोस्‍त ने हाथ फेर दिया। बाद में संजीव के उपन्‍यास सूत्रधार के जरिये भी भिखारी की जीवनी हाथ लगी। एक बार रिपोर्टिंग के लिए भिखारी ठाकुर के गांव जाना चाहता था, लेकिन जब छपरा पहुंचा तो उनका गांव बाढ़ में डूबा हुआ था। छपरा के एक चौराहे पर उनकी मंडली का स्‍कल्‍पचर भी खड़ा है। कोई भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्‍सपीयर मानता है, तो कोई भोजपुरी संस्‍कृति की गांधी धारा के रूप में उन्‍हें व्‍याख्‍यायित करता है। जेएनयू छात्रसंघ के अध्‍यक्ष रहे चंद्रशेखर, जो सीवान में शहाबुद्दीन के गुर्गों के हाथों मारे गये, ने भिखारी पर थीसीस भी लिखी।

कहने का कुल मतलब ये कि जो गुज़र जाता है, उसकी स्‍मृतियां अनंत व्‍याख्‍याओं में उनके पास भी पहुंचती हैं, जिन्‍होंने उस शख्‍स को न कभी देखा न सुना। सिने गायकों की आवाज़ें तो फिर भी हमेशा वर्तमान होती हैं, लेकिन भिखारी जैसे लोग और उनकी नौ‍टंकी तो आख्‍यानों में बची रही। अब आधुनिक थिएटर के कलाकार भी उनके नाटक खेलते हैं। हमारे एक दोस्‍त तैयब हुसेन पीड़‍ित ने उन पर पीएचडी भी की है। आख्‍यानों के साथ ही बाद की पीढ़ी के लिए फिराक ने ये शेर छोड़ दिया है -
अब अक्‍सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैं
पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं।


पर कभी कभी तकनीक का संयोग हमारी मुलाक़ात इतिहास से करवा ही देता है।

भिखारी ठाकुर की ओरिजन आवाज़ हमें नेट पर टहल करते हुए मिल गयी। किसी समारोह में भिखारी काव्‍यपाठ कर रहे हैं। मैं रांची में रहनिहार अपने दोस्‍त निराला से, जो कि बिदेसिया डॉट को डॉट इन चलाते हैं, गुज़ारिश करूंगा कि इसका टेक्‍स्‍ट सुन कर, समझ कर उसे अपनी वेबसाइट पर तो बांचें ही, इसे थोड़ा भोजपुरी प्रेमियों को भी सर्व करें।

तो ये रही भिखारी ठाकुर की आवाज़...

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Saturday, November 17, 2007

हरा हरा नेबुआ कसम से गोल गोल

तब इंदिरा गांधी पर गोली नहीं दागी गयी थी। साठ के दशक में गरज कर बसंत का वज्रनाद सत्तर के दशक में ठंडा पड़ चुका था। इमर्जेंसी की अदाओं ने कांग्रेस को गिरा कर जनता सरकार की हवा चलायी, लेकिन वो भी फुस्‍स हो गयी और फिर से कांग्रेसी राज कायम हो गया। राज-काज-समाज के इस ड्रामे में हम पैदा हुए और समझने लगे कि यही मुल्‍क है- जहां कर्पूरी ठाकुर के बाद जगन्‍नाथ मिश्रा आएंगे, जगन्‍नाथ मिश्रा के बाद लालू प्रसाद आएंगे और लालू प्रसाद के नीतीश कुमार आएंगे। लेकिन इनक़लाब कभी नहीं आएगा।

इनक़लाब आया, जब कोकशास्‍त्र के पहले सचित्र पन्‍ने हमारी ज़‍िंदगी में आये। गांव के एक भाई छत पर ले गये और श्‍वेत-श्‍याम रेखाओं से बने चित्र दिखाते रहे। पतलून की जिप खोली और गोंद गिरा कर दिखाया, कि ये जादू इस किताब से ही होता है।

चार बुआ ब्‍याह कर अपने अपने ससुराल जा चुकी थीं। पांचवीं बुआ की शादी में ज़रा-ज़रा होश वाले हो गये थे। आधी रात तक रस्‍म पूरी हो चुकी, तो फुफाजी के साथ उन्‍हें कमरे में बंद कर दिया गया। हम जिज्ञासा में दरवाज़े पर ही खड़े रह गये और किवाड़ के पल्‍ले अलगा कर अंदर झांकने की कोशिश करने लगे। दूसरों ने हमें वहां से हटाया और दबी हुई इनक़लाबी हंसी की भीड़ में हमें छुपा लिया। वो उन दोनों की सुहागरात का कमरा था। ये कभी हमारी ज़‍िंदगी में भी आयी। लेकिन सुहागरात की पारंपरिक स्क्रिप्‍ट में हमारे लिए शादी से पहले और शादी के बाद की कहानी घुल-मिल गयी थी।

पहला-पहला प्‍यार दरअसल कुछ होता नहीं है। ढेर सारी जुगुप्‍साएं होती हैं, जो हमारे आसपास स्त्रियों की दुनिया के वृत्त बनने के साथ-साथ उगना शुरू होती हैं। बलभद्रपुर में हमारी दूसरी मकान मालकिन की पोती अपूर्व सुंदरी थी और हमने दूसरी कक्षा में ही उसे दिल दे दिया था। उसने अपने खुले हुए बाल छूने के लिए दिये थे। उसका नाम था।

87 के भूकंप में हम पांचवीं कक्षा में थे। कई सारे मकान गिर गये और बेघर हुए लोग बचे हुए मकान वाले रिश्‍तेदारों के यहां सर छिपा रहे थे। की एक रिश्‍तेदार भी उसके यहां आ गयी, जिनकी दो नीली आंखों वाली बेटियां थीं। हमारी ही उम्र की। बड़ी को ठीक से पता था कि अठखेल क्‍या होता है। हमने एक बार कहा कि हमें अपनी गोद में लो, तो उसने मना कर दिया। लाख मनुहार के बाद वादा किया कि अपनी एक सहेली को मेरे लिए तैयार करेगी। ये वादा अगले दिन के साथ ही भूकंप के मुआवज़े में ग़ुम हो गया। अपने नये बने घर में वो रहने चली गयी। बाद में कभी रास्‍ते पर मिली, तो छोटे शहरों की झिझक और बंदिश एक दूसरे की ओर जी भर के देखने के आड़े आती रही।

बचपन से जिस क़दर हमारा माहौल इनक़लाबी होता है, उसमें हमारी मासूमियत भी शिकार होती है और धीरे-धीरे हम भी शिकारी मन के हो जाते हैं। पूरा कैशोर्य चिपचिपाहट की गलियों में भटकता रहता है और सिगरेट के शुरुआती धुएं होंठों के रंग स्‍याह करने में मशगूल रहते हैं। बाद में जब भी दरभंगा-रांची और फिर पटना-रांची के रास्‍ते में झुमरीतिलैया के आसपास किसी लाइन होटल में बस रुकती - ज़‍िंदगी की ये जुगुप्‍साएं झक पीली रोशनियों वाली पान दुकान से सस्‍ते (गंदे) गानों में ढल कर सुनाई देती रही। हम सुनना चाह कर भी कान मूंद लेते रहे। अच्‍छा बच्‍चा बनने की फिराक में इनक़लाब हाथ से फिसलता रहा।

कल रात एक गाना यू ट्यूब पर मिल गया। हरा-हरा नेबुआ क़सम से गोल गोल। भोजपुरी फ़ैज़ाबादी सर्च से हाथ लगा ये गाना हमें उन्‍हीं इनक़लाबी दिनों में ले गया, जब लड़कियां हमारे लिए सात समंदर पार एक गुफा में मौजूद पिंजड़े में बंद होती थीं और गुफा के दरवाज़े पर कुछ विशालकाय राक्षस उसकी पहरेदारी करते थे। हमारे बुज़ुर्ग ऐसे ही तो होते हैं। बहरहाल...

ब्‍लॉग की दुनिया के पवित्र-पावन दोस्‍तों से माफ़ी के साथ मैं ये वीडियो यहां पेश कर रहा हूं।

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Friday, November 16, 2007

मानिनी आब उचित नहि मान

सौ आदमियों को ढोने वाली नाव पर खड़े होकर जाने किस लगन में खोये पुजारी जी बागमती में कूद गये थे। गांव में सनसनी फैल गयी। हर आंगन में यही कोरस था कि पुजारी जी ने जलसमाधि ले ली। हमारा परिवार तब तक गांव से निकला नहीं था। अपनी आवाज़ और हारमोनियम के सुर के लिए जाने जानेवाले पुजारी जी को सब लोग पुजारी जी ही पुकारते थे। जबकि छोटे और बहुत थोड़ी जगह छोड़ कर बने मकानों वाले गांव में, जहां सबका सबसे रिश्‍ता था, वे भी चाचा थे, बाबा थे, भाई थे। उनकी जलसमाधि के क़रीब पचीस बरस बाद, इस दिल्‍ली में सुरों की खाक छानते हुए उनकी याद आयी, तो बाबूजी ने बताया - पुजारी जी का असल नाम सत्‍यनारायण दास था, जो बाद में आचार्य की डिग्री के चलते सत्‍यनारायण आचार्य में बदल गया।

पुजारी जी सीता स्‍वयंवर के गीत गाते थे। होरी, फाग, चैती के मास्‍टर थे और लोग चकित-मगन उनकी आवाज़ में खो जाया करते थे। हमारे और हमारी उम्र के दोस्‍तों के ज़ेहन से उनका चेहरा और उनकी आवाज़ मिट चुकी है। कुछ जो धुंधले स्‍मृति चिह्न बनते हैं, उसमें गांव के मुहाने पर खड़े मंदिर की फर्श पर पुजारी जी पालथी मार कर बैठे हैं। अब वहां ताश का जमघट लगता है। मीटिंग-सीटिंग होती है। होली में झाल और झांझर की झनकार के बीच मतवाले लोगों के बिखरे हुए केश के ऊपर अबीर-गुलाल उड़ते हैं। वहां लल्‍ला अस्‍सी बरस में अभी भी विद्यापति की तान छेड़ते हैं- सामरि हे झामरि तोर देह/ कह कह का सए लाओल नेह (सुंदरी, तुम्‍हारी सूरत फीकी पड़ गयी है। बोलो किससे प्‍यार हो गया है)।

बात यह होती है कि पुजारी जी के बाद अब लल्‍ला के पास ही वो टेक और उठान बचा है।

लल्‍ला बूढ़े हो चले हैं। सारे दांत झड़ चुके हैं। पान खाते हैं, तो पीक होंठों को तलछट बना कर धार की तरह नीचे उतरने लगती है। छोटा-सा हारमोनियम कभी उनके गले में लटके-लटके कई रेलों में सफ़र करता रहा, अब तो अपनी ही देह मुश्किल से संभलती है। लेकिन होली के आसपास चैती गाने मंदिर या पुस्‍तकालय पर आ जाते हैं। नयी नौजवानी के लिए थोड़ी मुश्किल होती है। सब अब फिल्‍मी गानों की धुन के पीछे भाग रहे हैं। दस साल पहले गांव की होली में हमने दलेर मेंहदी के गाने की पैरोडी मैथिली में सुनी थी। लल्‍ला के पास पुरानी, बिसूरी और उनके ही कंठ में बची हुई धुनें हैं- जो हम सुनना नहीं चाहते। ऊपर से बुढ़ापा गले में अटकता है। खांसी होती है, पर लोग तो बस झूमते रहना चाहते हैं। इसलिए वे लिहाज़ छोड़ कर हूट करना सीख गये हैं।

हमारी बहन ने एक बार लल्‍ला से कहा था, लल्‍ला गीत सिखा दीजिए न। लल्‍ला ने कहा था, बेटा तुमको गाना ज़रूर सिखाएंगे।

अब हमारी दिलचस्‍पी सीखने और सुनने में नहीं है। आवाज़ की असलियत से ज़्यादा हमारी इलाक़ाई/कबीलाई संवेदना किसी को इंडियन आइडल बना देती है। हम सब जिस तरह की दिल्लियों में रहते हैं, वहां कोई रस नहीं, बस जीने की नियति और आदत की वजह से रहते हैं। कभी बस पर कोई ग़रीब बच्‍चा ठुमरी गाते हुए मिल जाता है, तो भी जेब से अठन्‍नी नहीं निकलती है - क्‍योंकि वो भी एक फ्लैश है - जो हफ्ते में कई बार चमकता है और बुझ जाता है। लेकिन इस रूखे-सूखे रेगिस्‍तान में भी कभी-कभी असली चश्‍मा मिल जाता है।

एक ऐसी ओरिजनल आवाज़ मिल गयी, जिसकी उम्‍मीद हमारी नौजवान ज़‍िंदगियों से तो लगभग टूट ही रही है। मैं आपको सुनाता हूं, लेकिन ये पता नहीं चल पाया कि आवाज़ किनकी है। हमारे इतिहास के पन्‍नों पर न जाने कितने नामालूम लोगों ने सोने-चांदी की कलम से हीरा-पन्‍ना लिख डाला है! गीत विद्यापति का है - मानिनी आब उचित नहि मान।

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बाबा नागार्जुन ने विद्यापति के जिन गीतों का गद्यानुवाद किया है, उनमें ये भी है। गीत की पंक्तियां हैं...
मानिनी आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागए जागल पए पंचबान।।
जूड़‍ि रयनि चकमक करु चांदनि एहन समय नहीं आन।
एहि अवसर पिय-मिलन जेहन सुख जकरहि होए से जान।।
रभसि-रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करए मधुर मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुअ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्‍भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परतिग्रह करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम थिर न रहय मन दिढ़ करु अपन गेआन।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कबि भान।।
गद्यानुवाद: मानिनी, अब मान छोड़ो, इस समय अपने पांचों शरों के संधान कर कामदेव आ डटा है। कैसी सुंदर रात है, चांदनी जगमगा रही है। एक-एक पत्र से अमृत बरस रहा है। ऐसा समय अब और नहीं मिलेगा। मिलन-सुख के लिए यही अवसर ठीक रहेगा।

भ्रमर मंडरा-मंडरा कर, झूम-झूम कर कली को छेड़ रहा है; मकरंद पान कर रहा है, सब अपने-अपने प्रीतम को जिमा चुकी है, तुम्‍हारा प्रीतम भूखा है।

तुम्‍हारी नाभि के ऊपर की लहरियां तरंगित हैं। गंगा-यमुना के संगम पर दोनों स्‍तन शिव-शंभु जैसे प्रतीत होते हैं। प्रियतम बहुत ही आतुर हो रहा है, वह याचक बन कर खड़ा है। सुंदरी, इस सुअवसर पर तुम अपना सर्वस्‍व दान कर दो।

मन का क्‍या ठिकाना है! वह तो दीपशिखा की भांति कांपता ही रहेगा। अपने विवेक को दृढ़ करो। मदन-वेदना बहुत अधिक मात्रा में संचित हो चुकी है। वह बड़ी भयानक यातना देगी तुझको - विद्यापति कवि तुम्‍हें समझा रहे हैं।
मोहल्‍ला पर भी

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Tuesday, November 13, 2007

बागडोगरा में सुबह

दरभंगा महाराज के महलों-क़‍िलों के बीच बड़े भाई तारानंद वियोगी के साथ झमकते हुए चलते थे। सारंग जी और स्‍नेही जी भी साथ रहते थे। उनके पास उल्‍लास और यात्रा के दर्जनों क़‍िस्‍से थे। मुंगेर से लेकर बागडोगरा तक। उनकी एक मैथिली कविता है, जिसका क़रीब दशक भर पहले मैंने हिंदी में अनुवाद किया था। बागडोगरा में ब्रह्ममुहूर्त। यानी बागडोगरा में सुबह। नंदीग्राम में सीपीएम की गुंडागर्दी का शिकार होते आम नागरिक, आंदोलनकारी इतिहास चक्र के उस ग्रामवृत्त की कहानी दोहरा रहे हैं, जिसे नक्‍सलबाड़ी कहते हैं। बागडोगरा नक्‍सलबाड़ी के पास है। मैथिली के नावेलिस्ट-कहानीकार, हमउम्र प्रदीप बिहारी के साथ सफ़र में वियोगी जी ने बागडोगरा में सुबह की चाय पी। कविता उन्‍हीं दिनों की है।
तुम्‍हारी बनायी चाय अतिशय तीखी लगती है
ऐ बच्‍चा, होरीपोदो राय!
टूटा नहीं अब तक नशा। झम्‍प अब भी बाक़ी है।
लगता है
या तो वातावरण में ही कुछ ज़्यादा नमी है
या हमीं में कुछ पात्रता की कमी है।

और तुम भी तो लल्‍लू के लल्‍लू रहे प्रदीप!
जाने कितनी बार आये-गये इस इलाक़े में,
लेकिन अनचीन्‍हा ही रहा मौसम का मिज़ाज।
अंधेरे से जो बनते हैं बिंब घनेरो भाई!
वे सब क्‍या सिर्फ मृत्‍यु के प्रतीक हुआ करते हैं?

अमलतास के नवीन सुपुष्‍ट किसलयों पर झूला झूलने लगे हैं बतास।
नीम के गाछ पर चुनमुनियों का बसेरा अकुलाने लगा है।
उस फुदकी चिड़ैया को देखो - किस तरह अचरज किये जा रही है!
दौड़ यहां, भाग वहां

मुझे तो लगता है एकबारगी
आह्लाद से जान न निकल जाए इस पगली की।

हां, कौआ नहीं बोला अब तक -
यही कहोगे न?
कौआ करे घोषणा - तभी मानूं भोर
इसी कुबोध से जनमता है
क्रांति में चिल्‍होर।

देखो-देखो प्रदीप!
पौ फटने का संकेत दे रहा है क्षितिज सीमांत।
अब लाइन होटल की इस खाट से उठो प्रदीप
सुबह होने को आयी, देखो
चलो अब हम चलें
नक्‍सलबाड़ी कुछ ही दूर है यहां से!
बिहार में रहते हुए बंगाल से दोस्‍ती नहीं हुई। यह संयोग ही था। लेकिन बंगालियों से दोस्‍ती रही। बंगाली नाटक से थिएटर का सफ़र शुरू हुआ- बोल्‍लभपुरेर रूपकोथा। फिलहाल एक रवींद्र संगीत आपके लिए, जो मुझे बहुत-बहुत-बहुत प्रिय है... मेघ बोले छे जाबो जाबो...
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बीड़ी जलाय ले जिगर से पिया!

बंगाल की सरहद में पहुंचे तो धूप खिल चुकी थी। जाड़ा था। नौ बजते-बजते रेल हावड़ा जंक्‍शन पर रेंगते हुए रुक गयी। प्‍लेटफार्म पर ही कई सारी गा‍ड़‍ियां लगी थीं। पीली टैक्सियों वाले कोलकाता में हमारी दिलचस्‍पी चौरंगी देखने की थी। शंकर का ये नॉविल हमें जीवकांत जी ने पढ़ाया था। जीवकांत मैथिली के बड़े राइटर हैं। मधुबनी ज़‍िले में झंझारपुर के आगे घोघरडीहा जंक्‍शन से सटा उनका गांव है- डेओढ़। हम अक्‍सर वहां जाकर उनके साथ वक्‍त बिताते थे। झोले में भर-भर कर किताबें ले आते थे।

अपने आख़‍िरी कुछ दिन मां मेरे साथ थी। पटना में। हमने उसे चौरंगी पढ़ायी थी। हार्डबॉन्‍ड संस्‍करण पर जीवकांत जी का स्‍टांप लगा हुआ था। अब वो प्रति पता नहीं किसके पास है। मां नशे की तरह पढ़ती थी नॉविल। दूसरी कक्षा तक पढ़ी थी और जासूसी उपन्‍यासों की दीवानी थी। मुझे ख़त लिखती थी। मेरे मन में लेखकों के चित्र की तरह मां का चित्र है। उंगलियों में फंसी हुई बीड़ी होंठों के बीच टिकी हुई। दूसरे हाथ में नॉविल। इस वक्‍त आसपास कितना भी शोर हो, उसे फर्क नहीं पड़ता था। हम किताब के पीछे, मां के कानों के पास हाथ-हाथ हिला-हिला कर उसकी एकाग्रता की परीक्षा लिया करते थे। चौरंगी पढ़ कर उसे अच्‍छा लगा था।

चौरंगी से गुज़रते हुए हम टेलीग्राफ के दफ्तर पहुंचे। उत्तम दा तब इस अंग्रेज़ी अख़बार के झारखंड संस्‍करण के एडिटर थे। उनसे पुराना राब्‍ता था। पटना के गर्दिश भरे दिनों में उन्‍होंने सहारा दिया था। ऊंची चमकती हुई बिल्डिंग में घुसने से पहले हमने दो महिलाओं को बाहर सिगरेट के छल्‍ले उड़ाते हुए देखा। एक आधी उम्र की थी, दूसरी नवयौवना। मैं दो मिनट ठहर कर इन्‍हें सिगरेट के संग-साथ में देखना चाहता था, लेकिन तहजीब में बने रहने की आदत ने फ़रमाया- ये ग़लत बात है।

सन 98 की जनवरी या फ़रवरी में दिल्‍ली में एक आधी रात प्रथमा बनर्जी के साथ थे। स्‍त्री संदर्भ के किसी लेख पर वो काम कर रही थीं और मैं अपनी बुद्धि भर उन्‍हें मदद कर रहा था। उस वक्‍त देशकाल के स्‍वर्ण जयंती विशेषांक के संपादक समूह में होने की हैसियत से उनका संग-साथ मिला था। उस आधी रात में उन्‍होंने दर्जनों सिगरेट जलायी-बुझायी होंगी। मैं थोड़ा चकित-विस्मित, जबकि मां को मैंने बरसों बीड़ी पीते हुए देखा था। आधुनिक स्त्रियों की ज़‍िंदगी में धुएं के इस दिलक़श नज़ारे से पहली बार परिचय हो रहा था।

हां, बीच में मोहब्‍बत की वजह से एक चक्‍कर मुंबई का लगा, तो अनीश भाई के जन्‍म दिन की पार्टी में ढेर सारी सिने-बालाओं को सिगरेट और शराब के साथ अंतरंगता बरतते देख कर नज़र चकरा गया। अब तो एनडीटीवी के स्‍मोकिंग ज़ोन में हर वक्‍त सिगरेट और दोस्‍तों से चिपकी हुई स्‍त्री सहकर्मियों को देख कर भी आंख निर्भाव ही बनी रहती है।

मेरी मां बीड़ी पीती है - पहली बार ये ज़‍िक्र मैंने अपने शहर के एक बुद्धिजीवी के सामने छेड़ा, (जो अच्‍छी-दुरुस्‍त हिंदी के हिमायती थे) तो वे बिफर पड़े। मुझे शराफत सिखायी। कहा कि अपने पूर्वजों के लिए सम्‍मानजनक भाषा होनी चाहिए। उनकी आदतों के ऐसे ज़‍िक्र से हमें बचना चाहिए। उसके बाद बरसों मैं सचमुच इस ज़‍िक्र से बचता रहा। अब जबकि स्त्रियां और धूम्रपान हमारी ज़‍िंदगी से जुड़े रोज़मर्रा के दृश्‍यों में शामिल है- मुझे ये बताते हुए दिक्‍कत नहीं हो रही है कि मेरी मां बीड़ी पीती थी।

मेरी दादी भी बीड़ी पीती थी, लेकिन वो पत्ते झाड़ कर तंबाकू भरती थी और अपनी बीड़ी खुद तैयार करती थी। हमारे यहां एक लकड़ी का मोटा-सा कठौत उनकी बीड़ी के पत्ते रखने के लिए होता था, जो उनके इंतक़ाल के बहुत दिनों बाद तक गांव के घर में दिखता था। अचानक एक दिन दिखना बंद हो गया। मेरी मां बाज़ार से बीड़ी मंगवाती थी। बाबूजी मां के लिए बीड़ी लाते थे। बड़े होने के बाद ये हमारा काम हो गया था।

जन संस्‍कृति मंच का राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन बनारस में था। दरभंगा से हमारी सांस्‍कृतिक टोली के प्रतिनिधि को भी हिस्‍सा लेना था। मेरी इच्‍छा थी, लेकिन संजीव स्‍नेही को भेजने का इंतज़ाम किया गया। वे दोस्‍त थे, लेकिन कसक मेरे दिल में थी। मैं यूं ही चल पड़ा। पटना से मुग़लसराय और फिर वहां से बनारस। पटना में संजीव स्‍नेही मिल गये थे। मुग़लसराय जंक्‍शन पर टीटीई ने धर लिया, तो मेरा जुर्माना भी संजीव स्‍नेही ने ही भरा। वहां कलकत्ता की एक रंग टोली भी आयी थी, जिसने मस्‍त कोरस सुनाया था- समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आयी। उनमें से एक बीड़ी पीते थे और उनके पास कई बंडल था। हमने रिक्‍वेस्‍ट करके एक बंडल मांग लिया कि मेरी मां बीड़ी पीती है, उसके लिए। उन्‍होंने खुशी-खुशी दे दिया।

बंगाल की बीड़ी ले जाकर मैंने मां के हाथ में रख दी। उसकी आंखों में आंसू थे। खुशी के या अपराधबोध के, कह नहीं सकता - लेकिन बाद में बीड़ी की वजह से उसके दोनों फेफड़े गल गये। डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया। तीन भाइयों में सबसे छोटी बहन थी मेरी मां। उनका बड़ा भतीजा, मेरे ममेरे भाई अमेरिका में डॉक्‍टर हैं। उनके पास पूरी रिपोर्ट भेजी गयी और जिस सुबह उनका फोन आया - मां गुज़र चुकी थी।

बीड़ी की आदत का किस्‍सा कुछ यूं सुनाया था मां ने कि उनकी बुआ बीड़ी की तलबगार थी। उनके लिए अक्‍सर चूल्‍हे से जला कर बीड़ी मां ही ले जाती थी। जब सात साल की रही होगी, तभी बीड़ी जलाने और बुआ के हाथ में थमाने के बीच रास्‍ते में एकाध कश ले लिया और फिर कई बार बीड़ी जला कर बुआ को थमाने के बीच रास्‍ते में कई-कई क़श। धीरे-धीरे चेन स्‍मोकर हो गयी। घर में सबको पता चल गया। शादी ठीक हुई, तो छुड़वाने की कोशिश की गयी। लेकिन इस कोशिश में मां बीमार पड़ गयी, तो नाना ने मां को बीड़ी से दूर नहीं रहने देने का सख्‍त एलान कर दिया।

शादी के बाद विदाई हुई, तो साथ आने वाली कमनाहरि (टहल-टिकोला करने वाली) केले के थंब में छिपा कर बीड़ी लेती आयी। इस तरह नइहर से ससुराल तक मां की बीड़ी आयी, जो उनकी मौत तक साथ रही। 7 जुलाई 1999 को मां का इंतकाल हुआ।

आठ साल बाद ओमकारा (2006) में बीड़ी जलाय ले गीत सुना, तो मां की याद आयी। याद भी बड़ी कमीनी चीज़ होती है। गीत का संदर्भ क्‍या है और याद किसकी आयी! ख़ैर, मन की ऐसी नियतियों का क्‍या किया जाए? मेरी अपनी यादों के बहाने आपकी खिदमत में पेश है ये गीत...

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Thursday, November 8, 2007

झूला पटना में डाला रे, अमरइयां!

अब ऐसा भी नहीं है कि एक शहर हमारी ज़‍िंदगी से बाहर हो गया है। हम कभी भी वहां जाकर रहना शुरू कर सकते हैं और जक्‍कनपुर में गौरिया मठ के सामने आलू पकौड़ी और हरी चटनी के आसपास शाम बिता सकते हैं। जंक्‍शन के बाहर महावीर मंदिर से सटी मस्जिद की दूसरी तरफ पहली मंज़‍िल वाली खोली में लिट्टी और बैंगन की चटनी में मूड़ी गोड़ना किसी को भी अच्‍छा लगेगा।

एक बार रिपोर्टिंग के सिलसिले में बक्‍सर गये थे, तो वरुणा हॉल्‍ट के पास कोई ट्रेन पटरी से उतर गयी। घंटों आगे-पीछे की ट्रेन बक्‍सर और डुमरांव स्‍टेशन पर खड़ी रही। हम डुमरांव में फंस गये, जिसका अहाता थोड़ी ही देर में सिगरेट में घुले इंतज़ार के घुओं से भर गया। भूख लगी, तो बाहर निकल कर हमने लिट्टी खायी। घी में डूबी हुई लिट्टी, एक मिर्च और घुघनी ने जो तसल्‍ली दी, उसका ज़‍िक्र आज भी देखिए- हुलस कर निकल रहा है।

आरा में भी लिट्टी मिलती है। हमारे एक दोस्‍त के ब्‍याह में गये, तो तेल की गंध ने ऐसा घेरा कि बरसों के बीमार जैसे लगने लगे। बाहर निकल कर सूखी लिट्टी की दुकान में बैठ गये। लिट्टी का पूरा कल्‍चर पुराने मध्‍य बिहार में ही रहा है। सासाराम और कैमूर ज़‍िले में हमने लिट्टी खाकर संतोष की रात बितायी है।

रांची में हमारी एक दोस्‍त अनुपमा है, जो यूपी के गाज़ीपुर की रहने वाली है। गाज़ीपुर में अफीम की खेती बड़े पैमाने पर होती है और कैमूर से एक रास्‍ता गाज़ीपुर की ओर जाता है। लिट्टी वहां के परिवारों में भी आम है। एक शाम अनुपमा के पिताजी ने घर के आंगन में लिट्टी के लिए आग जलायी और अपने हाथों से लिट्टी बना कर हमें खिलाया। शहरों में बसे लोग, जो कहीं अपने गांवों से आये हैं, खान-पान में पुराना बर्ताव ही बरतते हैं।

पटना में विधायक क्‍लब के पास घी में लपेटी गयी सत्तू की रोटी के लिए काफ़ी इंतज़ार करना होता था, लेकिन हम इंतज़ार करते थे। फिर भी ऐसा नहीं है कि पटना में रहने की ख्‍वाहिश में स्‍वाद सबसे ज़रूरी कारक है। वहां रहना आसान है। पैदल चलना आसान है। मुख्‍यमंत्री, नेताओं और नवधनाढ्यों की दुनिया में झांकना आसान है- क्‍योंकि मौर्यालोक कांप्‍लेक्‍स की शाम सबके लिए एक साथ रोशन है और जहां पंद्रह रुपये में हाफ प्‍लेट मस्‍त चाउमीन चिकेन ग्रेवी से साथ मिल जाता है। यहीं एक पत्रिका की दुकान पर कुछ पत्रकार जुट जाते हैं, जो दारू पीने के लिए जुगाड़ खोजते हैं। चालीस रुपये में रम का नीप नौ-दस बजते-बजते उग आता है और पत्रकारिता के पटनिया परिदृश्‍य की परतें भी उघड़ने लगती हैं।

इसी कांप्‍लेक्‍स के सामने से एक रास्‍ता निकलता है, जिसमें पहली बायीं मोड़ में घुसने पर सामने पटना म्‍युज़‍ियम दिखता है। म्‍युज़‍ियम के मैदान में अंग्रेज़ों के ज़माने की बड़ी सी तोप रखी है और कई सारे पेड़ और कई सारे चबूतरे हैं, जो पतझड़ के मौसम में इश्‍क़ का एहसास देते हैं। आर्ट कॉलेज के जोड़े तो चित्र बनाने के नाम पर ऐसे ही घुस आते हैं, दूसरे आम जोड़े भी दो रुपये का टिकट लेकर पूरा दिन यहां बिताते हैं।

मौर्यालोक कांप्‍लेक्‍स के पास ही डाक बंगला चौराहे से अक्‍सर कोई जुलूस निकलता है और पुलिस की बड़ी गाड़ी जुलूस में शामिल लोगों को उठाती है और दानापुर के किसी स्‍कूल के अहाते में ले जाकर छोड़ देती है। वहां चूड़ा और गुड़ मिलता है और फिर शाम को वही गाड़ी बेलीरोड के किसी स्‍टॉप पर लाकर छोड़ देती है।

गांधी मैदान में आल्‍हा-ऊदल गाने वाला एक कलाकार रोज़ महफिल जमाता है और गुप्‍त रोगों से निज़ात दिलानेवाली दवाइयों का कारीगर ऊंची आवाज़ में चिल्‍लाता है। इसी मैदान में मोना सिनेमा वाले कार्नर पर रंग‍कर्मियों ने सफदर हाशमी रंगभूमि बना रखी है, जिस पर अक्‍सर नुक्‍कड़ नाटक होता है। लोग देखते हैं और डायलॉग की हर ऊंची टेक पर ताली बजाते हैं।

इसी पटना में पुनाइचक वाले कमरे में, जो समन्‍वय के नाम से जाना जाने लगा था, नवीन अक्‍सर एक गीत छेड़ते रहे हैं- झूला किन्‍ने डाला रे, अमरइयां...

जो सचमुच गायक नहीं बनना चाहता और कोशिश करके जिसने सुर की क़ाबिलियत भी नहीं हासिल की है, गीत उसकी ज़‍िंदगी का भी हिस्‍सा कैसे होती है- नवीन इसकी मिसाल हैं। मैंने तो थिएटर भी किया है। गाने का रियाज़ भी। हारमोनियम भी सीखने की कोशिश की है- लेकिन मेरा सुर पटरी से उतर जाता है। नवीन के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर भी वे गाते हैं तो लगता है, लय उनकी शख्‍सीयत का हिस्‍सा है।

झूला किन्‍ने डाला रे, अमरइयां भी मुझे नेट पर मिल गया और इसके साथ ही पटना और नवीन को याद करने का एक बहाना भी। ये पहला गीत थोड़ा कम ड्यूरेशन का है, जो उमराव जान में इस्‍तेमाल हुआ है और सिंगर कोई अननोन आर्टिस्‍ट है।
और ये दूसरा गीत नैय्यरा नूर ने गाया है, जो बड़े ड्यूरेशन का है।

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Wednesday, November 7, 2007

पटना में विरह के वे बरसते हुए दिन!

पटना की कोई शाम मनहूस नहीं होती। वे दिन भी थे, जब दोस्‍तों ने थाम लिया- वरना हम गंगा के आसपास अकेले भटकते उसके पानी में हमेशा के लिए उतर जाते। प्रेम के एकाध किस्‍सों में अकेले रह जाने के बाद कमरे का अंधेरा फैल भी गया, गिलास में शराब भर भी गयी- लेकिन उदासी का कोई ऐसा सिलसिला नहीं चला, जो विरह का कवि बना दे।

पुनाइचक में एक छोटा सा कमरा था। पहले पहलवान लॉज, फिर एक बड़े मकान के ग्राउंड फ्लोर का कमरा। उस कमरे को हमारे एक दोस्‍त ने किराये पर ले रखा था, बाद में मुझे साथ में रखा और मज़े में खाना-वाना भी खिलाता रहा। वो कंपटीशन की तैयारी करता था, अब पटना से सटे मसौढ़ी में डीएसपी है। तबादला होता रहता है। वो कमरा थोड़े दिनों बाद संस्‍कृति-राजनीति की बतकही से गुलज़ार रहने लगा। मेरे पैर पार्टी-पॉलिटिक्‍स में पहले से ही थोड़े फंसे थे।

नवीन का आना-जाना उन्‍हीं दिनों शुरू हुआ। वे फिज़‍िक्‍स पढ़ा करते थे। साइंटिस्‍ट बनने के ख़्वाब देखते थे और पीओ की तैयार करते थे। पटना में लड़के आमतौर पर ऐसा करते हैं। लखनऊ, भोपाल और दिल्‍ली के मुखर्जी नगर इलाक़े में भी लड़के यही करते हैं। कोई विकल्‍प नहीं है। ख़्वाब और नियति के बीच उदास सड़कों पर चलना और कभी कभी यूं ही मुस्‍करा देना। क्‍योंकि मैंने कभी कंपटीशन वगैरा में दिलचस्‍पी नहीं ली और अख़बार की सस्‍ती नौकरियों में जी जमने लगा- तो थोड़े मौलिक भी हो गये। दोस्‍ती में वक्‍त बर्बाद करना इसी मौलिकता का सृजनात्‍मक पहलू था।

कई बार पूरी दोपहर पटना की सड़कों पर पैदल चलते हुए शाम को उस कमरे में लौट आते थे। वो कमरा अब किसी एक का रह नहीं गया था। सबके दावे हो गये थे और कई बार तो अपनी प्रेमिकाओं को लेकर कोई आ जाता और कहता- थोड़ा टहल आओ। इसकी मार सबसे अधिक पड़ी धर्मेंद्र सुशांत को, जो अब दैनिक हिंदुस्‍तान के दिल्‍ली संस्‍करण में उपसंपादक हैं। कमरे की चाबी उन्‍हीं के पास रहती थी। मां के इंतक़ाल के बाद बाबूजी और बहनें मेरे साथ रहने आ गयी थीं। हमने किराये का एक अलग घर ले लिया।

उसी कमरे में पहली बार मैंने अपनी पत्‍नी के हाथ छूए थे, और होंठ भी। तब वो सिर्फ एक ख़ामोश लड़की थी, जो कभी-कभी बोलती थी।

नवीन का राजनीतिक रूपांतरण होने लगा था। वे सीपीआई एमएल लिबरेशन की तरफ भी झुक रहे थे और सीपीआई एमएल पीपुल्‍स वार (अब माओइस्‍ट) की तरफ भी। उस कमरे में रामजी राय भी आते थे और अमिताभ भी। दोनों अपनी अपनी तरह से हमसे संवाद करते थे। रामजी राय के विचार जैसे भी लगें, अमिताभ के जनवादी गीत हमें पसंद आते थे। सीपीएम, सीपीआई सीन में कहीं नहीं था, जबकि इन पार्टियों के कॉमरेड भी उस कमरे में आते-जाते थे। आख़‍िरकार हम सब लिबरेशन के पाले में चले गये।

नवीन तो अब पार्टी वर्कर हो गये हैं। उसी मसौढ़ी में, जहां सुशील फिलहाल डीएसपी है। ये उन दोनों का संयोग है। हम तो बस इतना ही याद करते हैं कि दोनों पटना में पुनाईचक के उस कमरे में हमसे अपना मन साझा करते थे। नवीन की आदत थी, वे कहीं से भी आते, एक कोने में पसर जाते। उनकी पतली काया एहसास भी नहीं होने देती थी कि वे कमरे में हैं। अंधेरी रात में जब बहस फुसफुसाहटों और भनभनाहटों में तब्‍दील होने लगती, वे मच्‍छड़ मारते हुए उठते। कहते, सोने नहीं दोगे तुमलोग। कई बार बीच बहस में वे कोई सवाल करते और फिर सो जाते। लेकिन बहसबाज़ उनका जवाब दूसरों को देते रहते।

नवीन की शख्‍सीयत में अतीत ज़्यादा घुला हुआ है। वे उस मीठापुर को याद करते हैं, जहां उनका बचपन बीता। मीठापुर पटना जंक्‍शन के पीछे का पुराना, पिछड़ा हुआ इलाक़ा है- जिसने कुछ नामी गुंडे पैदा किये हैं। कुछ शास्‍त्रीय गीतों को भी वे ज़बान पर चढ़ाये रखते थे, जो कभी किसी सिलसिले में सुन लिया था। उनके पास गायकों जैसी आवाज़ नहीं थी और रियाज़ वाली सफ़ाई तो बिल्‍कुल नहीं थी। लेकिन सुर था। प्रेम में पलटी खाने के पहले वे अक्‍सर सुनाया करते थे- बरसन लागी सावन बुंदिया, राजा तोरे बिन लागे न मोरा जिया।

ये गीत मेरे चाचा भी गाते थे, जो अब बेतिया में रहते हैं।

पटना जैसे शहरों में नौजवानी जिन हालातों में बीतती है, उन्‍हें बरसन लागी जैसा गाना बेहतर अभिव्‍य‍क्‍त करता है। हम मूलत: पटना जैसे शहरों के लोग अब भी वहीं के हैं। यही वो बात है कि तमाम लोगों के बिना जी लगने के बावजूद बरसन लागी सुनना अच्‍छा लगता है। आप भी सुनें और थोड़ी देर के लिए पटना जैसे शहरों के हो जाएं।

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Monday, November 5, 2007

मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो...

2001 की जनवरी। महाकुंभ के मेले की दोपहर। क़दमतालों से उड़ते ग़र्दो-गुबार में झोला लटकाये हम घूमते थे। शाम हो जाती थी और रात में कल्‍पवासियों के छोटे-छोटे तंबू के आगे लकड़‍ियां जलने लगती थीं। उनके ताप को घेरे हुए लोगों के साथ थोड़ी देर बैठ कर हम गौरिया मठ में लौट आते थे, जहां एक दिन रात गुज़ारने के लिए मिली थोड़ी सी फ़र्श के एवज़ में डेढ़ सौ रुपये अदा करना होता था। ये सिलसिला हफ्ता भर चला। प्रयाग से थोड़ी ऊब होने लगी, तो हम इलाहाबाद में ठौर खोजने लगे। टेलीफोन डायरेक्‍टरी में यश मालवीय का नंबर खोजा, जिनसे एकाध इधर-उधर की मुलाक़ात थी। बेगूसराय में बरौनी रिफाइनरी के कवि सम्‍मेलन में हमने साथ-साथ गीत पढ़े थे।

यश मालवीय का घर एक मंदिर था। यश भाई हमें शाम को महादेवी जी के घर ले गये। जिस कमरे में वो रहती थीं, वहां अभी भी उनका बिस्‍तर, उनकी मेज़ मौजूद है। दूसरी सुबह यश भाई की पत्‍नी, जिनका रिश्‍ता महादेवी जी के परिवार से है- उन्‍होंने हमें सोहर सुनाया- छापक पेड़ छिहुलिया... रामकथा में धोखा और पीड़ा का राग इस सोहर में इस क़दर बसा है कि आपकी आंखों में पानी आ जाए।

इससे पहले पटना में रवींद्र भारती के नाटक फूकन का सुथन्ना में ये सोहर सुना। प्रभात ख़बर में हमारे सीनियर मिथिलेश जी अक्‍सर ये सोहर गाकर सुनाते थे, जब हम अख़बार की व्‍यवस्‍थापकीय दुरावस्‍था पर ग़मज़दा होकर थोड़ी-थोड़ी पी लेते थे। अभी ठुमरी में एक दिन देखा- बिमल भाई ने इस सोहर का ज़‍िक्र किया है।

छापक पेड़ छिहुलिया में दर्द की कहानी है। हिरनी का मनुहार है। मेरे हिरन का मृगछाला लौटा दो। लेकिन दशरथ राम के लिए उसकी डफली बनवा रहे हैं, और हिरनी तड़प कर कह रही है- नहीं, ऐसा न करो। उस पर पड़ने वाली थाप की आवाज़ मेरे कानों में पड़ेगी, तो सह न पाऊंगी, हृदय कट जाएगा। मैंने बिमल भाई से अनुरोध किया है कि वे इस गीत को कहीं से उपलब्‍ध करें और ठुमरी पर इसे सुनाएं। उन्‍होंने वादा भी किया है।

इधर अंतर्जाल के एक बेचैन से सफ़र में हमें छन्‍नूलाल मिश्रा का गाया एक सोहर मिल गया। ऐसा क्‍यों है कि सोहर के सुर में वेदना का राग है? बधैया के बीच में ही तो सोहर गाया जाता रहा है- या फिर मेरी समझ का फेर है! अयोध्‍या में बाजत बधैया हो रामा, रामजी जनम लेल में एक उल्‍लास है, लेकिन सोहर के किसी भी टेक्‍स्‍ट में वेदना ही वेदना है।

आपको सुनाता हूं, छन्‍नूलाल मिश्रा का गाया वो सोहर - मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो sss

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