Friday, December 28, 2007

बेटी है ठुमरी उम्‍मीदों की टेक

श्रावणी के लिए

छोटी सी चादर रजाई सा भार
फाहे सी बेटी हवा पर सवार
मां की, बुआ की हथेली कहार

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

चावल के चलते सुहागन है सूप
जाड़े की संगत में दुपहर की धूप
सरसों की मालिश में खिला खिला रूप

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

छोटे-से घर में है बालकनी एक
बेटी है ठुमरी उम्‍मीदों की टेक
चादर को देती है पांवों से फेंक

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

उजाले का दिन अंधेरे की रात
उनींदे में हंस हंस के करती है बात
फूल सी फुहारे सी नन्‍हीं सौगात

रे हैया रे हैया
रे डोला रे डोला

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Saturday, December 22, 2007

बन में बोलन लागे मोर

हमारे गांव के किनारे से एक नदी बहती है। बागमती। कई बार हमने उसके ओर-छोर की खोज की और ज्यादा से ज्यादा एक बांध के ओर-छोर को ही जान पाये। नदी किनारे एक मंदिर और डोम के दो-चार घर की याद है। एक डोमिन थी, जो बांस के सामान घर में दे जाती थी। उसका चेहरा हमारी मां से मिलता था। एक बार बाढ़ की रिपोर्टिंग करने पटना से गांव गया, तो डोमिन एक तंबू तान कर बांध पर रह रही थी। हम शहर के स्‍टूडियो से भाड़े का कैमरामैन ले‍कर पहुंचे थे। उस डोमिन की तस्‍वीर अख़बार में छपी, जिसे शायद वह नहीं देख पायी होगी। अख़बार का सर्कुलेशन उतना नहीं था, जो बाढ़ विस्‍थापितों से भरे बांध तक पहुंच पाता।

सावन में बाढ़ आती थी। सावन में ही कांवरियों की टोली बाबाधाम के लिए निकलती थी और फूल गये पांव में पट्टी बांध कर लौटती थी। हमारे घर चिउड़ा, इलायची दाना और पेड़े का एक टुकड़ा आता था। साथ में केसरिया रंग की बद्धी भी आती थी, जिसे गले में लटकाये हमारा बचपन बीता है। प्रगतिशीलता की ऐसी पहली बयार कभी नहीं बही कि हम उसे उठा कर खिड़की के बाहर फेंकते।

सन 99 के सावन में मेरी मां मरी। बांध के पार बाढ़ थी, इसलिए हमारी आम गाछी में उसे जलाया गया। एक पेड़ को काटकर चिता बनायी गयी। मेरा हाथ पकड़कर उस चिता में चारों दिशाओं से किसी आग दिलवायी और वो धू-धू करके जल उठी। कई लोग सावन में मरते हैं और सुना है जलाने के लिए लकड़ी नहीं मिलती। मिल भी जाती है, तो जलने में मुश्किल होती है। रिवाज ये है कि जब तक चिता पूरी न जले, कठिहारी (हमारे यहां का शब्‍द है लाश के साथ श्‍मशान गये लोगों के लिए) में गये लोग वापिस नहीं लौटते।

सावन में हमने कम लोगों को सुखी देखा है। एक बार गांव के अपने दोस्‍त भाई के साथ किसी बीयर बार में शाम बिता कर हम शहर में ख़ूब भीगे और सखी-सहेलियों के बारे में बातें करते रह गये। शहर से गांव पैदल लौटे। वो बेहतर गवैया है और होली में उसके रहने से गांव में रौनक रहती है। वो पिछले कई सालों से गांव जा रहा है और मैं पिछले कई सालों से गांव नहीं गया हूं। आजकल वो आईसीआईसीआई बैंक के लखनऊ ब्रांच में अफसर है और उसने कार भी ख़रीद ली है। मेरी ही तरह फैल गया है और कोई बता रहा था, इस साल जो होली बीती, उसमें वह अपनी कार से गांव गया था।

मैथिली के एक नाटककार हैं महेंद्र मलंगिया। उनका एक नाटक है - ओकरा आंगनक बारहमासा। बारह महीने के दुखी-दारुण जीवन की दिल को बेधने वाली कारुणिक कथा है। उसमें सावन का एक रुलाने वाला राग है। वरना सावन के सुख में भीगे गीतों को ही हम जानते हैं। सावन में ही कजरी गायी जाती है और अक्‍सर विरह के सुर में होती है। हम ज़‍िंदगी की बेहतरीन सुबहों में अपनी बुआओं से कजरी सुनते आये हैं। बाद में रेडियो स्‍टेशन से कजरी के कई अंदाज़ हमारे हिस्‍से आये। पद्मश्री विंध्‍यवासिनी देवी की आवाज़ में कजरी सुनी। शुभा मुदगल और शोभा गुर्टू ने भी कजरी गायी हैं।

लेकिन जो कजरी हमने छन्‍नूलाल मिश्रा की आवाज़ में सुनी है, उसका कोई जवाब नहीं है। बनारसी फकीरी वाली आवाज़। गंगाघाटों पर आवारा उड़ते हुए कुछ खोजती-सी। पान की खस-खस से भरी हुई। दीवाना बनाने के लिए सबसे निर्गुण आवाज़। ऐसी आवाज़ इस धरती पर अकेली है। सुनिए, उनकी आवाज़ में ये बेमिसाल बनारसी कजरी,


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Saturday, December 15, 2007

शहनाई के सुर में वे दिन!

थी वो शहनाई, जिसकी मूठ पर दो पतली पत्तियां पसीने की तरह चमकती थी। हमारे बरामदे पर दो छरहरी काली देह वाले ग़रीब आदमी के होठों में सटकर उससे जो धुन निकलती थी, उसने हमारी ज़‍िंदगी की लय तैयार की है। बुआओं के ब्‍याह के वक्‍त तक हमारे पांव मिट्टी पर नंगे ही रहते थे, तब से हम इससे निकलने वाली धुन के दीवाने हैं। आख़‍िरी बार चाचा के ब्‍याह में बजी थी शहनाई, उसके बाद गांव ही छूट गया। मां ने उस ब्‍याह में बड़े शौक से बैंड पार्टी बुलायी थी। चाचा को बेटे जैसा पाला था न, इसलिए। बैंड वालों और शहनाई के ग़रीब कारीगरों की जुगलबंदी जमी नहीं। उदास मन से दो पतली काया अपनी अपनी शहनाई लेकर विदा हो गयी। कलाकार सिरचन की तरह, जिसके मन को फणीश्‍वरनाथ रेणु की कहानी में ठेस लग गयी।

बीती सदी में मां गुज़र गयी। इस सदी में शहनाई के उस्‍ताद। पिछले सात सालों में एक बार ही गांव गया। लाल दीदी के ब्‍याह में, लेकिन शहनाई नहीं बजी। बाद में शादी भी टूट गयी। दर्द के अपने किस्‍से होते हैं- उसको बहुत बांटा जाए, ये तहज़ीब को मंज़ूर नहीं। हमने तो शहरों में ये भी देखा है कि आगे आगे शव के साथ निर्गुण नारे लगाता काफिला चलता है और पीछे-पीछे शहनाई बजती है। एक ऐसा वाद्य और उसकी धुन, जो उदासी के बादल भी समेटती है और उत्‍सव का राग-रंग भी।

वो ज़माना भी आया, जब लाउडस्‍पीकर वाले से हम नयी फिल्‍म के कैसेट के बारे में पूछते थे। वो हमारे मन से शाम तक तो यही सब बजाता था, लेकिन जैसे ही मर्करी की झक उजली रोशनी से मड़बा (मंडप) जगमग करने लगता, वो शहनाई के कैसेट बजा कर कमरे में ताला लगा देता और छत की मुंडेर पर खड़े होकर बाराती के लगने का इंतज़ार करने लगता। हमारी फरमाईश बाद में जाती रही और बहनों की शादी में हमने शहनाई बजवायी।

अच्‍छी धुनों से सजा-संवरा बचपन ऐसे ही फरमाईशों की बाज़ारू ज़‍िद से कन्‍नी काटता है।

उस्‍ताद बिस्मिल्‍ला खान से कभी मिला नहीं, लेकिन उनके बेहतरीन इंटरव्‍यू जहां-तहां पढ़े। पढ़ कर दीवाने हुए और ऑडियो सुन-सुन कर तो और भी। बनारस की मस्‍ती और कबीर का फक्‍कड़ अंदाज़ उनकी अदा रही और साज़ और आवाज़ की बिगड़ी हुई लय वाली नये संगीतकारों की जमात पर वे अक्‍सर उसी अदा में फिकरे कसते रहे। जलतरंग के बाद एक शहनाई ही इस कस्‍बाई शहराती को अपनी ओर खींचती रही, इसलिए जब-तब हम अच्‍छी धुनों की खोज में भटकते भी रहे हैं।

शहनाई की एक ऐसी धुन से आज हम आपका तआरुफ़ करवाते हैं, जो विवाह के वक्‍त बजायी जाती है। इसमें चैती की लय है और कलाकार बिस्मिल्‍ला के सिवा और कौन हो सकते हैं। तो करते हैं बिस्मिल्‍ला।

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Tuesday, November 27, 2007

चेंबूर, विद्या बालन का घर और सुबह की गुफ्तगू

इधर मेरा मोबाइल ग़ुम हो गया, तो सारे नंबर भी चले गये। उसमें विद्या बालन का नंबर भी था। उनका नंबर मैंने कहीं अलग से लिखा भी नहीं था। एक दिन अपने ऑफिस की टेल डायरी से मुझे विद्या बालन का नंबर मिला। पर इस नंबर को लेकर संशय था कि पता नहीं ये उनका सीधा नंबर है या वाया मीडिया वाला नंबर। मैंने एक एसएमएस किया, जिसका जवाब मिला नहीं। परसों अचानक इस नंबर से जवाब मिला - “हाय अविनाश, बुखार था इसलिए रिप्‍लाइ नहीं किया। सब ख़ैरियत? आप कैसे हैं?” और एक बार फिर विद्या से टूटी हुई बातचीत का सिलसिला शुरू हो पाया। मैं उन दिनों सुरेंद्र राजन जी के साथ रहता था। विद्या से मिलने की बात किसी बरिस्‍ता में तय हो रही थी। लेकिन एक शाम विद्या का एसएमएस आया कि सुबह घर पर आ जाइए, इत्‍मीनान से बात हो पाएगी। परिणीता की रिलीज़ के बाद उनका एक-एक मिनट क़ीमती था, इन्‍हीं में से मेरे लिए उन्‍हें वक्‍त निकालना था। एक ऐसी बातचीत के लिए, जिसका प्रस्‍तोता न कोई टीवी था, न कोई अख़बार, न ही कोई बड़ी फिल्‍मी पत्रिका। सुबह-सुबह हम पुराने जूते रास्‍ते में बूट पालिश से चमका कर चेम्‍बूर पहुंचे, विद्या के घर। एक मध्‍यवर्गीय बैठकखाने में सुबह की अलसायी चादरों से ढके गद्दे पर बैठे कुछ मिनट ही हुए कि एकदम से ताज़ा-ताज़ा विद्या सामने खड़ी हो गयीं। फिर हमने एक कोने में बैठ कर खूब बात की। विद्या ने अपनी मां से मुलाक़ात करवायी और घर में काम करने वाले लोगों से भी। वहां से लौटे, तो ये तय था कि फिर शायद ही विद्या हमें वक्‍त दे पाएंगी, क्योंकि परिणीता के बाद बॉलीवुड में उनके छा जाने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। लेकिन शाम को उनका एसएमएस आया कि सुबह की बातचीत अच्‍छी रही। वो बातचीत अब तक कहीं शाया नहीं हो पायी। अचानक पुरानी सीडीज़ चेक करते हुए मिल गयी, तो लगा कि इसे साझा करना चाहिए। बातचीत वैसी की वैसी रखी जा रही है, जैसी हुई। कोई एडिटिंग नहीं। उम्‍मीद है, विद्या को भी इस बातचीत की याद परिणीता के दिनों में ले जाएगी।


हालांकि ये सवाल आपको पूछना चाहिए, पर मैं पूछ रहा हूं। परिणीता आपको कैसी फिल्म लगी?
काम करते वक्त बहुत मज़ा आया। दादा (प्रदीप सरकार) पर मेरा विश्‍वास बहुत ही स्ट्रांग है। तो मेरे खयाल से मुझे पता था कि अच्छी फिल्म बनेगी, और अच्छी फिल्म बनी है। मैंने प्रीमियर में पहली बार देखी परिणीता। बहुत अच्छी लगी, और मुझे लगा कि शायद मैंने काम किया है, तो मैं ऑब्जेक्‍टेवली नहीं देख पाऊंगी। आइ मीन... इस फिल्म को मुझे जहां रुलाना चाहिए, नहीं रुलाएगी। कुछ-कुछ जगह पर ऐसा हुआ भी, पर कुल मिला कर बहुत अच्छी फिल्म लगी।
किसी नवजात अभिनेत्री के लिए पहली ही बार में परिणीता की भूमिका किस तरह की चुनौती है?
दरअसल परिणीता जो है, लॉलिता का कैरेक्टर जो है, बहुत ही लेयर्ड है। बहुत सारे... जिसको कहते हैं हाव-भाव, वो है... दादा जैसे डायरेक्टर इस तरह की भूमिका के लिए आपसे बहुत कुछ चाहते हैं। सिर्फ वो नहीं, जो स्क्रिप्ट में हो। तो हमने तैयारी भी ऐसे की थी। मेरे दिमाग में ये बात नहीं थी कि क्या मै कर पाऊंगी, नहीं कर पाऊंगी, मैं पहली बार कर रही हूं, ऐसा कुछ नहीं था। मैं केवल मेहनत कर रही थी ताकि जो रोल मुझे दिया गया हो, मैं उसे सच्चाई के साथ निभा पाऊं।
किस-किस तरह की दिक्कतें आयीं परिणीता को अपने भीतर एडॉप्ट करने में? आप परिणीता से पहली बार कैसे परिचित हुईं? नॉवेल पढ़के या...
नहीं, पहले दादा ने स्टोरी सुनायी थी मुझे परिणीता की, क्योंकि वो लिख रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि तुम्हें नॉवेल पढ़ना चाहिए और जो इस नॉवेल पर पहले की फिल्में हैं, वो भी देखनी चाहिए तुम्हें। तो मैंने फिल्म देखी। पढ़ा, पर हिंदी का बहुत ही खराब ट्रांसलेशन पढ़ा। मैं होप कर रही हूं कि कोई उसे अच्छी तरह से अभी ट्रांसलेट करे (हंसते हुए)... क्योंकि इस ट्रांसलेशन को पढ़ने में काफी दिक्कत हुई। यही थी तैयारी, बाकी तो तैयारी... जिस हिसाब से स्क्रिप्ट लिखी गयी है, उसको पढ़के तैयारी की मैंने। मगर सब कुछ धीरे-धीरे हुआ। एक ही दिन में मैं लॉलिता नहीं बन पायी। बहुत बार स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद... दादा के साथ, और दूसरे कैरेक्टर्स के साथ स्क्रिप्ट डिस्कस करने के बाद... और शूट के वक्त... आइ थिंक, दैट प्रॉसेस स्टार्टेड ऑल द मॉन... स्लोली एंड स्ट्रेडली स्टार्टेड थिंकिंग इन टू द कैरेक्टर...
आपने बिमल रॉय की परिणीता कब देखी? यानी प्रदीप सरकार की परिणीता शूट होने के कितने दिन पहले?
दो-तीन महीने पहले...
पहले कभी परिणीता के बारे में सुन रखा था!
हां-हां, सुना तो था कि मीना जी ने इस रोल को मॉडेलाइज किया था... और मौसमी जी ने भी ये रोल किया है, बंगाली में... तो सुना तो बहुत था उसके बारे में, पर देखा नहीं था। जब डिसाइड हुआ कि मैं करनेवाली हूं फिल्म, तब देखा मैंने।
बिमल रॉय की परिणीता क्लासिक है, क्योंकि सिनेमा के चिंतक और व्याख्याकार और क्रिटिक बताते हैं कि शरत बाबू के नॉवेल की पूरी संवेदना बिमल रॉय ने स्क्रीन पर उतारी थी। प्रदीप सरकार की परिणीता और बिमल रॉय की परिणीता में किस तरह का फर्क है?
बहुत फर्क है, क्योंकि दो डायरेक्टर्स के इंटरप्रीटेशन में बहुत फर्क होता है। हमने क्लासिक बनाने की कोशिश नहीं की, एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की है... और... हर डायरेक्टर का जो है वो अलग इंटरप्रेटेशन होता है। और जाहिर है दादा का आग्रह दूसरा था। काफी उन्होंने लिबर्टीज लिये हैं स्टोरी के साथ। पर... दैट इज पार्ट ऑफ हिज विजुअलाइजेशन... लोगों को ये समझना चाहिए कि हर डायरेक्टर का एक अलग नज़रिया होता है। एक ही किताब आप अपनी तरह से पढ़ेंगे, मुझे अपनी तरह से भाएगा। तो जिस तरह से आप उसे स्क्रीन पर दर्शाएंगे... या दिखाएंगे, वह पूरी तरह से अलग होगा, जिस तरह से मैं उसे दिखाऊंगी। तो ये सब्जेक्टिव है बहुत... और बिमल रॉय जी बहुत ही बड़े डायरेक्टर थे। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बनायी हैं, पर हमारी कोशिश अलग थी। हम ये नहीं चाहते थे कि बिमल रॉय की फिल्म को ही हम नये चेहरों में उतार दें। यह महज इत्तफाक है कि परिणीता एक ऐसी कहानी थी, जिस पर बिमल रॉय ने भी फिल्म बनायी थी... बाकी हमलोगों ने तुलनात्मक अध्ययन के नज़रिये से भी फिल्म नहीं बनायी।
परिणीता की शूटिंग के वक्त आपको मीना कुमारी की याद आती थी?
कभी-कभी मैं जिस तरह से वाइस माड्यूलेट करती हूं, दादा कहते हैं कि चलो कभी-कभी लगता है कि तुम मीना कुमारी की री-इनकार्नेशन हो... मज़ाक़ में... (हंसती हैं)... मिस्टर चोपड़ा जी (विधु विनोद चोपड़ा) के ऑफिस में मीना जी की बहुत खूबसूरत एक तसवीर है... (फिर थोड़ा रुक कर हिचकिचाते हुए विद्या ने कहा कि पर यह हमारे-आपके बीच की बात है, मगर चूंकि यह बात रिकार्ड हुई है, इसलिए यहां दी जा रही है)... अगर कभी मिस्टर चोपड़ा ने मुझसे पूछा कि तुम्हें एक वो चीज क्या चाहिए, जो मेरे पास है, तो मैं उनसे कहूंगी कि वो फोटो... बहुत ही खूबसूरत फोटो है... उसमें एक दर्द है, एक स्लाइट्स स्माइल भी है, एक सेंस्वसनेस है... सब कुछ है उस तसवीर में... तो मैं चाहूंगी कि वो मुझे दें।
अभी तक वो मीना कुमारी आपको मिली नहीं है...
नहीं, अभी तक मैंने पूछा भी नहीं है, मैंने उनको बताया तक नहीं है। क्योंकि काफी एक्टरों की तसवीरें उनकी दीवार पे लगी हुई है... बहुत क्लासिक फोटोज़। अगर उनमें से ये मुझे मिल जाए, तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगी... मीना जी के बारे में ऑफकोर्स डिस्कशन होती थी... आइ हैव सीन साहिब बीबी और गुलाम... मैंने कभी सोचा नहीं था... मेरी इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं सोचूं कि मेरी तुलना उनसे हो। वो सबसे ऊंची संवेदना की अभिनेत्री थीं, मेरी तो अभी शुरुआत ही है।
मीना कुमारी की खासियत यह थी विद्या कि वह एक शायरा भी थीं। शाइरी करती भी थीं और शाइरी जीती भी थीं। उनके अभिनय में एक शाइरी थी... वह एक आम आदमी की संवेदना के स्तर पर अपने अभिनय को संवारती थीं। इस लिहाज से आप अपने जीवन और अपने अभिनय को कैसे देखती हैं?
देखिए मैं सुसॉलजी की स्टूडेंट रही हूं, तो मुझमें एक हद तक सामाजिक आग्रह तो है, सेंसेविटी है, अवेयरनेस है... पहले तो यही सारी चीजें होनी चाहिए... लेकिन मैं (संकोच से) लिख नहीं सकती।
लिखने की इच्छा है विद्या?
इच्छा भी नहीं है, क्योंकि मुझमें वो कौशल है भी नहीं। सिर्फ इसलिए कि लोगों को मेरी ऐसी ख्वाहिश के बारे में सुनना अच्छा लगे, मैं नहीं कहूंगी कि मैं लिखना चाहती हूं... मुझे लगता है कि मैं लिख नहीं सकती। पर, आजकल ऐसे लोग भी लिख रहे हैं कि पढ़ कर बहुत दुख होता है। कुछ दिन पहले मेरा एक इंटरव्यू छपा था, जो मैंने दिया ही नहीं था। किसी ने ऐसे ही छाप दिया था। और लैंग्वेज उसमें ऐसी थी कि मैं सेकेंड क्लास में भी वैसी इंगलिश नहीं लिखती थी। इट्स नॉट अबाउट... बड़े लफ्जों से अच्छी राइटिंग नहीं होती। एक लैंग्वेज का वो फील होता है न, वो भी आज की राइटिंग में नहीं आता... तो इट्स वेरी डिस्अपॉइंटिंग... ऐसे में मुझे लगता है कि अगर मैं लिखने लगूं तो सेम थिंग हो जाएगा, तो मैं कोशिश भी नहीं करना चाहती।
कभी-कभी ऐसा भी तो होता है कि हम अपने अभिनय में कविताई संवेदना उतारते हैं...
जैसा कि आपने मीना जी के बारे में कहा, तो मैं पोइट्री ही नहीं, स्टोरीज़ व नॉवेल्ज़ भी पढ़ती हूं। क्लासिक लिटरेचर बहुत कम पढ़ा है मैंने, पर पढ़ने का शौक है... और एक्सपीरिएंसेज बटोरने का मेरा शौक ही नहीं बल्कि मेरे जीवन का हिस्सा है, ऐसी ही हूं मैं। तो मुझे लगता है कि किसी भी एक्टर को हर तरह के अनुभव में अपने आपको इनवॉल्व करना बहुत ज़रूरी है। यू हैव टू हैवेन ओपन माइंड ऑर नॉट ओनली इन पोएट्री... आइ जेनरली ट्राइ टू कीप माइ सेल्फ ओपन टू ऑल ऑफ एक्सपीरिएंसेज... सो दैट... कहीं न कहीं जाके वो मुझे... नॉट ओनली एज एन एक्टर... जब मैं एक्टिंग करती भी नहीं थी... मेरा हमेशा से यही नज़रिया रहा है। आइ थिंक इट हेल्प्स यू डेवलप इन टू अ बेटर परसन...
अपनी ज़‍िंदगी में पहली बार आपने अभिनय के बारे में कब सोचा?
मैं सेवेंथ स्टैंडर्ड में थी, जब मैंने एक-दो-तीन देखा माधुरी दीक्षित का... और मुझे लगा कि काश मैं ऐसे नाच पाती... (हंसती हैं)...! उनमें ऐसी चीज़ थी, जो सबको अपनी तरफ रिझाती थी। और ज़ाहिर है, मैं भी उनकी बहुत बड़ी फैन हो गयी थी। मेरे में कहीं न कहीं हमेशा एक्ट्रेस होने की चाहत थी, और धीरे-धीरे मेरी चाहत बढ़ी... एक-दो-तीन से मामला शुरू हुआ और बाद में जैसे-जैसे मैं और फिल्में देखती रही, मेरी चाह बढ़ती गयी। और शायद माधुरी दीक्षित का ही असर था कि एक दो तीन देखने के बाद से मैंने किसी और प्रोफेशन के बारे में सोचा भी नहीं।
एक फिल्म आयी थी मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं... क्या आप माधुरी दीक्षित बनना चाहती हैं?
जब छोटी थी, तो हां, माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी... इन द सेवेन स्टैंडर्ड... बट आइ... स्टार्टेड ग्रोइंग एंड रीयलाइजिंग कि बहुत सारी एक्ट्रेसेज़ ऐसी हैं, जिनके परफारमेंस देख कर मुझे वैसी चाहत होती थी... जब छोटी थी... जब बड़ी होती गयी, तो लगता गया कि मुझे खुद में एक एनटेटिव बनना है। जब मैं छोटी थी तो मज़ेदार बात ये है कि तब मुझे पता नहीं था कि तानपुरा जो होता है, वह सिर्फ... अकंपनिंग... सुर के लिए होता है। मैं मम्मी से कहती थी कि मैं तानपुरा टीचर बन जाऊंगी... (हंसते हुए)... हालांकि तानपुरा टीचर जैसी कोई चीज होती नहीं है।
आपकी जिंदगी में परिणीता के पहले और बाद का फर्क क्या है?
फर्क तो कोई मुझे ज्यादा नहीं लगता। एक्सेप्ट द फैक्ट कि आप यहां बैठे हैं और मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं। फोन कॉल्स बढ़ गये हैं। मैं दस की रात एम्सटर्डम (आइफा अवार्ड फंक्‍शन) से आयी। आज चौदह तारीख की सुबह है। तब से लेकर अब तक तकरीबन एक सौ फोन कॉल्स आये हैं। मुझे अच्छा लग रहा है। रिव्यूज़ बहुत अच्छे रहे हैं। इन सब बातों से इनकरेजमेंट बहुत मिलती है... इन द फिल्म हैज बिन डीक्लेयर्ड अ हिट... तो ज़ाहिर है मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। फर्क यह है कि मुझे ब्रीदिंग टाइम नहीं मिल रहा... क्योंकि इतने सारे इंटरव्यूज़ हो रहे हैं। क्योंकि परिणीता की रीलीज तक मैं प्रेस से नहीं मिल रही थी, तो अभी मुझे लगता है कि मेरी एक रेस्पांसिबिलिटी है... और मेरे प्रोड्यूसर ने भी कहा है कि अगर लोग तुममें दिलचस्पी दिखा रहे हैं, तो तुम्हें उनसे बात ज़रूर करनी चाहिए। तो अब मैं इंटरव्यू देने में व्यस्त हो गयी हूं... और कुछ नहीं... और कोई फर्क मुझे नज़र नहीं आता।
मैं लोगों के एटीट्यूड की भी बात कर रहा हूं विद्या। एक नोन फेस और एक अननोन फेस को दुनिया अलग-अलग देखती है...
अभी तक तो मौका ही नहीं मिला है यह सब महसूस करने का। एम्सटर्डम से आने के बाद बहुत ही बिज़ी रही हूं। लेकिन मेरे एक्सटेंडेड फैमिली से जो है, बहुत अच्छे-अच्छे रेस्पांसेज मिले हैं। उन लोगों ने कभी ये मुझे महसूस नहीं होने दिया कि मैं कुछ अलग कर रही हूं... बाकी नाइन टू फाइव प्रोफेशन में हैं... मैं मे बी नाइन टू सिक्स में हूं... क्योंकि शिफ्ट इतने टाइम का होता है... बस इतना ही फर्क है।
आपकी ज़‍िंदगी का सफर कहां से शुरू होता है?
मुंबई में पली-बढ़ी हूं। पैदा हुई हूं यहां। इस घर के ठीक सामनेवाले घर में। सामनेवाला घर भी हमारा ही है। उस घर में पैदा हुई, इस घर में पली-बढ़ी। टू मच फॉर अ मुंबईकर... स्कूलिंग मेरी चेंबूर सेनैंटिनी स्कूल में हुई। कॉलेज सेंजेवियर्स गयी थी मैं और बहुत पहले काम करना शुरू कर दिया था.. मोर एज अ... शौक... आइ डीडंट नो कि किसी दिन ये मेरा प्रोफेशन बन सकता है। लेकिन कॉलेज में थी और पोस्टर लगा था कि कालेज स्टूडेंट्स अप्लाइ करें। कालेज पर आधारित एक सीरियल बन रहा है। मैंने लोकल फोटो स्टूडियो से कुछ तसवीरें खिंचवायी और बायोडाटा के साथ भेज दिया। बायोडाटा को पढ़ के उन लोगों ने टेस्ट किया मुझे। मैं सेलेक्ट हो गयी। हमने शूटिंग भी की। बाद में सीरियल बंद पड़ गया। बीआइ टीवी के लिए वह बन रहा था।

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Sunday, November 25, 2007

कहत भिखारी भाई

पीली कोठली, जिसकी बाहरी दीवार पर एआईएसएफ का एक नारा लिखा था और किवाड़ पर खुरदरी लिखावट में इंडियन पीपुल्‍स थिएटर एसोसिएशन उर्फ इप्‍टा लिखा था, हमारे थिएट्रिकल किस्‍से का दूसरा अध्‍याय था। पहला अध्‍याय वीणापाणि क्‍लब से शुरू होता है, जिसका किस्‍सा कभी इत्‍मीनान से बांचेंगे। राज कैंपस में ही मिथिला विश्‍वविद्यालय का संगीत एवं नाटक विभाग था, जहां से लोग एमए की डिग्री लिया करते थे। तब उसके विभागाध्‍यक्ष अविनाश चंद्र मिश्र थे, जिनके कुछ नाटकों को पटना इप्‍टा ने पूरे देश में मंचन करके लोकप्रिय बना दिया था, जिनमें दो नाम अभी याद आ रहे हैं - उचक्‍कों का कोरस और बड़ा नटकिया कौन

वो कोठली ऐसी थी, जिसमें बेगूसराय-पटना के जो भी इप्‍टा एक्टिविस्‍ट आते, ठहरा करते। रिहर्सल का कमरा जिसमें एक लकड़ी की आलमारी थी और एक चौकी - शाम के वक्‍त चौकी खड़ी कर दी जाती थी और खाली फर्श पर रिहर्सल होता था। पटना इप्‍टा से जुड़े पंकज और राजेश सिन्‍हा नाम के भी रंगकर्मी एमए की डिग्री लेने दरभंगा आये, तो इसी कोठली में टिके। टिकने के बहाने एक नाटक की तैयारी भी शुरू हुई लोकल रंगकर्मियों के साथ। नाटक था भिखारी ठाकुर रचित गबरघिचोर। मिथिला में भोजपुर का ये नाटक जिस अंदाज़ से खेला गया और लोगों ने इसकी प्रस्‍तुति को जितनी मोहब्‍बत दी, वह ज़ेहन में अब भी बसा हुआ है। इसकी प्रस्‍तुति हमने शहर के थिएटर हॉल से लेकर गांव के पंडाल तक में की।

मैं इसमें सूत्रधार हुआ करता था, जो सिरी गनेस गुरु सीस नवाऊं रामा हो रामा की लय में नृत्‍य करते हुए कथा शुरू करता है और बीच-बीच में आकर कथा आगे बढ़ाता है। इसके रिहर्सल के दरम्‍यान एक बार पंकज ने मुझ पर थप्‍पड़ चला दिया था और मैं रिहर्सल के बीच से रोते हुए घर लौट आया था। बाद में मनाने के बाद ही रिहर्सल के लिए तैयार हुआ।

भिखारी ठाकुर की स्पिरिट और उनके बारे में वक्‍त के साथ और पता चला। संजय उपाध्‍याय निर्देशित बिदेसिया की प्रस्‍तुतियों को कई बार देखने का मौक़ा मिला - पटना से दिल्‍ली तक। बिदेसिया परदेस गये लोगों के पीछे छूटी दुख कथा का बेमिसाल नाट्य-रूपातंरण है और जिसकी वजह से भिखारी को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लोकप्रियता मिल चुकी है। पटना के किसी प्रेस से भिखारी रचनावली का एक पतला सा खंड भी हाथ लगा, जिस पर किसी मेहरबान दोस्‍त ने हाथ फेर दिया। बाद में संजीव के उपन्‍यास सूत्रधार के जरिये भी भिखारी की जीवनी हाथ लगी। एक बार रिपोर्टिंग के लिए भिखारी ठाकुर के गांव जाना चाहता था, लेकिन जब छपरा पहुंचा तो उनका गांव बाढ़ में डूबा हुआ था। छपरा के एक चौराहे पर उनकी मंडली का स्‍कल्‍पचर भी खड़ा है। कोई भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्‍सपीयर मानता है, तो कोई भोजपुरी संस्‍कृति की गांधी धारा के रूप में उन्‍हें व्‍याख्‍यायित करता है। जेएनयू छात्रसंघ के अध्‍यक्ष रहे चंद्रशेखर, जो सीवान में शहाबुद्दीन के गुर्गों के हाथों मारे गये, ने भिखारी पर थीसीस भी लिखी।

कहने का कुल मतलब ये कि जो गुज़र जाता है, उसकी स्‍मृतियां अनंत व्‍याख्‍याओं में उनके पास भी पहुंचती हैं, जिन्‍होंने उस शख्‍स को न कभी देखा न सुना। सिने गायकों की आवाज़ें तो फिर भी हमेशा वर्तमान होती हैं, लेकिन भिखारी जैसे लोग और उनकी नौ‍टंकी तो आख्‍यानों में बची रही। अब आधुनिक थिएटर के कलाकार भी उनके नाटक खेलते हैं। हमारे एक दोस्‍त तैयब हुसेन पीड़‍ित ने उन पर पीएचडी भी की है। आख्‍यानों के साथ ही बाद की पीढ़ी के लिए फिराक ने ये शेर छोड़ दिया है -
अब अक्‍सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैं
पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं।


पर कभी कभी तकनीक का संयोग हमारी मुलाक़ात इतिहास से करवा ही देता है।

भिखारी ठाकुर की ओरिजन आवाज़ हमें नेट पर टहल करते हुए मिल गयी। किसी समारोह में भिखारी काव्‍यपाठ कर रहे हैं। मैं रांची में रहनिहार अपने दोस्‍त निराला से, जो कि बिदेसिया डॉट को डॉट इन चलाते हैं, गुज़ारिश करूंगा कि इसका टेक्‍स्‍ट सुन कर, समझ कर उसे अपनी वेबसाइट पर तो बांचें ही, इसे थोड़ा भोजपुरी प्रेमियों को भी सर्व करें।

तो ये रही भिखारी ठाकुर की आवाज़...

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Saturday, November 17, 2007

हरा हरा नेबुआ कसम से गोल गोल

तब इंदिरा गांधी पर गोली नहीं दागी गयी थी। साठ के दशक में गरज कर बसंत का वज्रनाद सत्तर के दशक में ठंडा पड़ चुका था। इमर्जेंसी की अदाओं ने कांग्रेस को गिरा कर जनता सरकार की हवा चलायी, लेकिन वो भी फुस्‍स हो गयी और फिर से कांग्रेसी राज कायम हो गया। राज-काज-समाज के इस ड्रामे में हम पैदा हुए और समझने लगे कि यही मुल्‍क है- जहां कर्पूरी ठाकुर के बाद जगन्‍नाथ मिश्रा आएंगे, जगन्‍नाथ मिश्रा के बाद लालू प्रसाद आएंगे और लालू प्रसाद के नीतीश कुमार आएंगे। लेकिन इनक़लाब कभी नहीं आएगा।

इनक़लाब आया, जब कोकशास्‍त्र के पहले सचित्र पन्‍ने हमारी ज़‍िंदगी में आये। गांव के एक भाई छत पर ले गये और श्‍वेत-श्‍याम रेखाओं से बने चित्र दिखाते रहे। पतलून की जिप खोली और गोंद गिरा कर दिखाया, कि ये जादू इस किताब से ही होता है।

चार बुआ ब्‍याह कर अपने अपने ससुराल जा चुकी थीं। पांचवीं बुआ की शादी में ज़रा-ज़रा होश वाले हो गये थे। आधी रात तक रस्‍म पूरी हो चुकी, तो फुफाजी के साथ उन्‍हें कमरे में बंद कर दिया गया। हम जिज्ञासा में दरवाज़े पर ही खड़े रह गये और किवाड़ के पल्‍ले अलगा कर अंदर झांकने की कोशिश करने लगे। दूसरों ने हमें वहां से हटाया और दबी हुई इनक़लाबी हंसी की भीड़ में हमें छुपा लिया। वो उन दोनों की सुहागरात का कमरा था। ये कभी हमारी ज़‍िंदगी में भी आयी। लेकिन सुहागरात की पारंपरिक स्क्रिप्‍ट में हमारे लिए शादी से पहले और शादी के बाद की कहानी घुल-मिल गयी थी।

पहला-पहला प्‍यार दरअसल कुछ होता नहीं है। ढेर सारी जुगुप्‍साएं होती हैं, जो हमारे आसपास स्त्रियों की दुनिया के वृत्त बनने के साथ-साथ उगना शुरू होती हैं। बलभद्रपुर में हमारी दूसरी मकान मालकिन की पोती अपूर्व सुंदरी थी और हमने दूसरी कक्षा में ही उसे दिल दे दिया था। उसने अपने खुले हुए बाल छूने के लिए दिये थे। उसका नाम था।

87 के भूकंप में हम पांचवीं कक्षा में थे। कई सारे मकान गिर गये और बेघर हुए लोग बचे हुए मकान वाले रिश्‍तेदारों के यहां सर छिपा रहे थे। की एक रिश्‍तेदार भी उसके यहां आ गयी, जिनकी दो नीली आंखों वाली बेटियां थीं। हमारी ही उम्र की। बड़ी को ठीक से पता था कि अठखेल क्‍या होता है। हमने एक बार कहा कि हमें अपनी गोद में लो, तो उसने मना कर दिया। लाख मनुहार के बाद वादा किया कि अपनी एक सहेली को मेरे लिए तैयार करेगी। ये वादा अगले दिन के साथ ही भूकंप के मुआवज़े में ग़ुम हो गया। अपने नये बने घर में वो रहने चली गयी। बाद में कभी रास्‍ते पर मिली, तो छोटे शहरों की झिझक और बंदिश एक दूसरे की ओर जी भर के देखने के आड़े आती रही।

बचपन से जिस क़दर हमारा माहौल इनक़लाबी होता है, उसमें हमारी मासूमियत भी शिकार होती है और धीरे-धीरे हम भी शिकारी मन के हो जाते हैं। पूरा कैशोर्य चिपचिपाहट की गलियों में भटकता रहता है और सिगरेट के शुरुआती धुएं होंठों के रंग स्‍याह करने में मशगूल रहते हैं। बाद में जब भी दरभंगा-रांची और फिर पटना-रांची के रास्‍ते में झुमरीतिलैया के आसपास किसी लाइन होटल में बस रुकती - ज़‍िंदगी की ये जुगुप्‍साएं झक पीली रोशनियों वाली पान दुकान से सस्‍ते (गंदे) गानों में ढल कर सुनाई देती रही। हम सुनना चाह कर भी कान मूंद लेते रहे। अच्‍छा बच्‍चा बनने की फिराक में इनक़लाब हाथ से फिसलता रहा।

कल रात एक गाना यू ट्यूब पर मिल गया। हरा-हरा नेबुआ क़सम से गोल गोल। भोजपुरी फ़ैज़ाबादी सर्च से हाथ लगा ये गाना हमें उन्‍हीं इनक़लाबी दिनों में ले गया, जब लड़कियां हमारे लिए सात समंदर पार एक गुफा में मौजूद पिंजड़े में बंद होती थीं और गुफा के दरवाज़े पर कुछ विशालकाय राक्षस उसकी पहरेदारी करते थे। हमारे बुज़ुर्ग ऐसे ही तो होते हैं। बहरहाल...

ब्‍लॉग की दुनिया के पवित्र-पावन दोस्‍तों से माफ़ी के साथ मैं ये वीडियो यहां पेश कर रहा हूं।

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Friday, November 16, 2007

मानिनी आब उचित नहि मान

सौ आदमियों को ढोने वाली नाव पर खड़े होकर जाने किस लगन में खोये पुजारी जी बागमती में कूद गये थे। गांव में सनसनी फैल गयी। हर आंगन में यही कोरस था कि पुजारी जी ने जलसमाधि ले ली। हमारा परिवार तब तक गांव से निकला नहीं था। अपनी आवाज़ और हारमोनियम के सुर के लिए जाने जानेवाले पुजारी जी को सब लोग पुजारी जी ही पुकारते थे। जबकि छोटे और बहुत थोड़ी जगह छोड़ कर बने मकानों वाले गांव में, जहां सबका सबसे रिश्‍ता था, वे भी चाचा थे, बाबा थे, भाई थे। उनकी जलसमाधि के क़रीब पचीस बरस बाद, इस दिल्‍ली में सुरों की खाक छानते हुए उनकी याद आयी, तो बाबूजी ने बताया - पुजारी जी का असल नाम सत्‍यनारायण दास था, जो बाद में आचार्य की डिग्री के चलते सत्‍यनारायण आचार्य में बदल गया।

पुजारी जी सीता स्‍वयंवर के गीत गाते थे। होरी, फाग, चैती के मास्‍टर थे और लोग चकित-मगन उनकी आवाज़ में खो जाया करते थे। हमारे और हमारी उम्र के दोस्‍तों के ज़ेहन से उनका चेहरा और उनकी आवाज़ मिट चुकी है। कुछ जो धुंधले स्‍मृति चिह्न बनते हैं, उसमें गांव के मुहाने पर खड़े मंदिर की फर्श पर पुजारी जी पालथी मार कर बैठे हैं। अब वहां ताश का जमघट लगता है। मीटिंग-सीटिंग होती है। होली में झाल और झांझर की झनकार के बीच मतवाले लोगों के बिखरे हुए केश के ऊपर अबीर-गुलाल उड़ते हैं। वहां लल्‍ला अस्‍सी बरस में अभी भी विद्यापति की तान छेड़ते हैं- सामरि हे झामरि तोर देह/ कह कह का सए लाओल नेह (सुंदरी, तुम्‍हारी सूरत फीकी पड़ गयी है। बोलो किससे प्‍यार हो गया है)।

बात यह होती है कि पुजारी जी के बाद अब लल्‍ला के पास ही वो टेक और उठान बचा है।

लल्‍ला बूढ़े हो चले हैं। सारे दांत झड़ चुके हैं। पान खाते हैं, तो पीक होंठों को तलछट बना कर धार की तरह नीचे उतरने लगती है। छोटा-सा हारमोनियम कभी उनके गले में लटके-लटके कई रेलों में सफ़र करता रहा, अब तो अपनी ही देह मुश्किल से संभलती है। लेकिन होली के आसपास चैती गाने मंदिर या पुस्‍तकालय पर आ जाते हैं। नयी नौजवानी के लिए थोड़ी मुश्किल होती है। सब अब फिल्‍मी गानों की धुन के पीछे भाग रहे हैं। दस साल पहले गांव की होली में हमने दलेर मेंहदी के गाने की पैरोडी मैथिली में सुनी थी। लल्‍ला के पास पुरानी, बिसूरी और उनके ही कंठ में बची हुई धुनें हैं- जो हम सुनना नहीं चाहते। ऊपर से बुढ़ापा गले में अटकता है। खांसी होती है, पर लोग तो बस झूमते रहना चाहते हैं। इसलिए वे लिहाज़ छोड़ कर हूट करना सीख गये हैं।

हमारी बहन ने एक बार लल्‍ला से कहा था, लल्‍ला गीत सिखा दीजिए न। लल्‍ला ने कहा था, बेटा तुमको गाना ज़रूर सिखाएंगे।

अब हमारी दिलचस्‍पी सीखने और सुनने में नहीं है। आवाज़ की असलियत से ज़्यादा हमारी इलाक़ाई/कबीलाई संवेदना किसी को इंडियन आइडल बना देती है। हम सब जिस तरह की दिल्लियों में रहते हैं, वहां कोई रस नहीं, बस जीने की नियति और आदत की वजह से रहते हैं। कभी बस पर कोई ग़रीब बच्‍चा ठुमरी गाते हुए मिल जाता है, तो भी जेब से अठन्‍नी नहीं निकलती है - क्‍योंकि वो भी एक फ्लैश है - जो हफ्ते में कई बार चमकता है और बुझ जाता है। लेकिन इस रूखे-सूखे रेगिस्‍तान में भी कभी-कभी असली चश्‍मा मिल जाता है।

एक ऐसी ओरिजनल आवाज़ मिल गयी, जिसकी उम्‍मीद हमारी नौजवान ज़‍िंदगियों से तो लगभग टूट ही रही है। मैं आपको सुनाता हूं, लेकिन ये पता नहीं चल पाया कि आवाज़ किनकी है। हमारे इतिहास के पन्‍नों पर न जाने कितने नामालूम लोगों ने सोने-चांदी की कलम से हीरा-पन्‍ना लिख डाला है! गीत विद्यापति का है - मानिनी आब उचित नहि मान।

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बाबा नागार्जुन ने विद्यापति के जिन गीतों का गद्यानुवाद किया है, उनमें ये भी है। गीत की पंक्तियां हैं...
मानिनी आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागए जागल पए पंचबान।।
जूड़‍ि रयनि चकमक करु चांदनि एहन समय नहीं आन।
एहि अवसर पिय-मिलन जेहन सुख जकरहि होए से जान।।
रभसि-रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करए मधुर मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुअ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्‍भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परतिग्रह करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम थिर न रहय मन दिढ़ करु अपन गेआन।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कबि भान।।
गद्यानुवाद: मानिनी, अब मान छोड़ो, इस समय अपने पांचों शरों के संधान कर कामदेव आ डटा है। कैसी सुंदर रात है, चांदनी जगमगा रही है। एक-एक पत्र से अमृत बरस रहा है। ऐसा समय अब और नहीं मिलेगा। मिलन-सुख के लिए यही अवसर ठीक रहेगा।

भ्रमर मंडरा-मंडरा कर, झूम-झूम कर कली को छेड़ रहा है; मकरंद पान कर रहा है, सब अपने-अपने प्रीतम को जिमा चुकी है, तुम्‍हारा प्रीतम भूखा है।

तुम्‍हारी नाभि के ऊपर की लहरियां तरंगित हैं। गंगा-यमुना के संगम पर दोनों स्‍तन शिव-शंभु जैसे प्रतीत होते हैं। प्रियतम बहुत ही आतुर हो रहा है, वह याचक बन कर खड़ा है। सुंदरी, इस सुअवसर पर तुम अपना सर्वस्‍व दान कर दो।

मन का क्‍या ठिकाना है! वह तो दीपशिखा की भांति कांपता ही रहेगा। अपने विवेक को दृढ़ करो। मदन-वेदना बहुत अधिक मात्रा में संचित हो चुकी है। वह बड़ी भयानक यातना देगी तुझको - विद्यापति कवि तुम्‍हें समझा रहे हैं।
मोहल्‍ला पर भी

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Tuesday, November 13, 2007

बागडोगरा में सुबह

दरभंगा महाराज के महलों-क़‍िलों के बीच बड़े भाई तारानंद वियोगी के साथ झमकते हुए चलते थे। सारंग जी और स्‍नेही जी भी साथ रहते थे। उनके पास उल्‍लास और यात्रा के दर्जनों क़‍िस्‍से थे। मुंगेर से लेकर बागडोगरा तक। उनकी एक मैथिली कविता है, जिसका क़रीब दशक भर पहले मैंने हिंदी में अनुवाद किया था। बागडोगरा में ब्रह्ममुहूर्त। यानी बागडोगरा में सुबह। नंदीग्राम में सीपीएम की गुंडागर्दी का शिकार होते आम नागरिक, आंदोलनकारी इतिहास चक्र के उस ग्रामवृत्त की कहानी दोहरा रहे हैं, जिसे नक्‍सलबाड़ी कहते हैं। बागडोगरा नक्‍सलबाड़ी के पास है। मैथिली के नावेलिस्ट-कहानीकार, हमउम्र प्रदीप बिहारी के साथ सफ़र में वियोगी जी ने बागडोगरा में सुबह की चाय पी। कविता उन्‍हीं दिनों की है।
तुम्‍हारी बनायी चाय अतिशय तीखी लगती है
ऐ बच्‍चा, होरीपोदो राय!
टूटा नहीं अब तक नशा। झम्‍प अब भी बाक़ी है।
लगता है
या तो वातावरण में ही कुछ ज़्यादा नमी है
या हमीं में कुछ पात्रता की कमी है।

और तुम भी तो लल्‍लू के लल्‍लू रहे प्रदीप!
जाने कितनी बार आये-गये इस इलाक़े में,
लेकिन अनचीन्‍हा ही रहा मौसम का मिज़ाज।
अंधेरे से जो बनते हैं बिंब घनेरो भाई!
वे सब क्‍या सिर्फ मृत्‍यु के प्रतीक हुआ करते हैं?

अमलतास के नवीन सुपुष्‍ट किसलयों पर झूला झूलने लगे हैं बतास।
नीम के गाछ पर चुनमुनियों का बसेरा अकुलाने लगा है।
उस फुदकी चिड़ैया को देखो - किस तरह अचरज किये जा रही है!
दौड़ यहां, भाग वहां

मुझे तो लगता है एकबारगी
आह्लाद से जान न निकल जाए इस पगली की।

हां, कौआ नहीं बोला अब तक -
यही कहोगे न?
कौआ करे घोषणा - तभी मानूं भोर
इसी कुबोध से जनमता है
क्रांति में चिल्‍होर।

देखो-देखो प्रदीप!
पौ फटने का संकेत दे रहा है क्षितिज सीमांत।
अब लाइन होटल की इस खाट से उठो प्रदीप
सुबह होने को आयी, देखो
चलो अब हम चलें
नक्‍सलबाड़ी कुछ ही दूर है यहां से!
बिहार में रहते हुए बंगाल से दोस्‍ती नहीं हुई। यह संयोग ही था। लेकिन बंगालियों से दोस्‍ती रही। बंगाली नाटक से थिएटर का सफ़र शुरू हुआ- बोल्‍लभपुरेर रूपकोथा। फिलहाल एक रवींद्र संगीत आपके लिए, जो मुझे बहुत-बहुत-बहुत प्रिय है... मेघ बोले छे जाबो जाबो...
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बीड़ी जलाय ले जिगर से पिया!

बंगाल की सरहद में पहुंचे तो धूप खिल चुकी थी। जाड़ा था। नौ बजते-बजते रेल हावड़ा जंक्‍शन पर रेंगते हुए रुक गयी। प्‍लेटफार्म पर ही कई सारी गा‍ड़‍ियां लगी थीं। पीली टैक्सियों वाले कोलकाता में हमारी दिलचस्‍पी चौरंगी देखने की थी। शंकर का ये नॉविल हमें जीवकांत जी ने पढ़ाया था। जीवकांत मैथिली के बड़े राइटर हैं। मधुबनी ज़‍िले में झंझारपुर के आगे घोघरडीहा जंक्‍शन से सटा उनका गांव है- डेओढ़। हम अक्‍सर वहां जाकर उनके साथ वक्‍त बिताते थे। झोले में भर-भर कर किताबें ले आते थे।

अपने आख़‍िरी कुछ दिन मां मेरे साथ थी। पटना में। हमने उसे चौरंगी पढ़ायी थी। हार्डबॉन्‍ड संस्‍करण पर जीवकांत जी का स्‍टांप लगा हुआ था। अब वो प्रति पता नहीं किसके पास है। मां नशे की तरह पढ़ती थी नॉविल। दूसरी कक्षा तक पढ़ी थी और जासूसी उपन्‍यासों की दीवानी थी। मुझे ख़त लिखती थी। मेरे मन में लेखकों के चित्र की तरह मां का चित्र है। उंगलियों में फंसी हुई बीड़ी होंठों के बीच टिकी हुई। दूसरे हाथ में नॉविल। इस वक्‍त आसपास कितना भी शोर हो, उसे फर्क नहीं पड़ता था। हम किताब के पीछे, मां के कानों के पास हाथ-हाथ हिला-हिला कर उसकी एकाग्रता की परीक्षा लिया करते थे। चौरंगी पढ़ कर उसे अच्‍छा लगा था।

चौरंगी से गुज़रते हुए हम टेलीग्राफ के दफ्तर पहुंचे। उत्तम दा तब इस अंग्रेज़ी अख़बार के झारखंड संस्‍करण के एडिटर थे। उनसे पुराना राब्‍ता था। पटना के गर्दिश भरे दिनों में उन्‍होंने सहारा दिया था। ऊंची चमकती हुई बिल्डिंग में घुसने से पहले हमने दो महिलाओं को बाहर सिगरेट के छल्‍ले उड़ाते हुए देखा। एक आधी उम्र की थी, दूसरी नवयौवना। मैं दो मिनट ठहर कर इन्‍हें सिगरेट के संग-साथ में देखना चाहता था, लेकिन तहजीब में बने रहने की आदत ने फ़रमाया- ये ग़लत बात है।

सन 98 की जनवरी या फ़रवरी में दिल्‍ली में एक आधी रात प्रथमा बनर्जी के साथ थे। स्‍त्री संदर्भ के किसी लेख पर वो काम कर रही थीं और मैं अपनी बुद्धि भर उन्‍हें मदद कर रहा था। उस वक्‍त देशकाल के स्‍वर्ण जयंती विशेषांक के संपादक समूह में होने की हैसियत से उनका संग-साथ मिला था। उस आधी रात में उन्‍होंने दर्जनों सिगरेट जलायी-बुझायी होंगी। मैं थोड़ा चकित-विस्मित, जबकि मां को मैंने बरसों बीड़ी पीते हुए देखा था। आधुनिक स्त्रियों की ज़‍िंदगी में धुएं के इस दिलक़श नज़ारे से पहली बार परिचय हो रहा था।

हां, बीच में मोहब्‍बत की वजह से एक चक्‍कर मुंबई का लगा, तो अनीश भाई के जन्‍म दिन की पार्टी में ढेर सारी सिने-बालाओं को सिगरेट और शराब के साथ अंतरंगता बरतते देख कर नज़र चकरा गया। अब तो एनडीटीवी के स्‍मोकिंग ज़ोन में हर वक्‍त सिगरेट और दोस्‍तों से चिपकी हुई स्‍त्री सहकर्मियों को देख कर भी आंख निर्भाव ही बनी रहती है।

मेरी मां बीड़ी पीती है - पहली बार ये ज़‍िक्र मैंने अपने शहर के एक बुद्धिजीवी के सामने छेड़ा, (जो अच्‍छी-दुरुस्‍त हिंदी के हिमायती थे) तो वे बिफर पड़े। मुझे शराफत सिखायी। कहा कि अपने पूर्वजों के लिए सम्‍मानजनक भाषा होनी चाहिए। उनकी आदतों के ऐसे ज़‍िक्र से हमें बचना चाहिए। उसके बाद बरसों मैं सचमुच इस ज़‍िक्र से बचता रहा। अब जबकि स्त्रियां और धूम्रपान हमारी ज़‍िंदगी से जुड़े रोज़मर्रा के दृश्‍यों में शामिल है- मुझे ये बताते हुए दिक्‍कत नहीं हो रही है कि मेरी मां बीड़ी पीती थी।

मेरी दादी भी बीड़ी पीती थी, लेकिन वो पत्ते झाड़ कर तंबाकू भरती थी और अपनी बीड़ी खुद तैयार करती थी। हमारे यहां एक लकड़ी का मोटा-सा कठौत उनकी बीड़ी के पत्ते रखने के लिए होता था, जो उनके इंतक़ाल के बहुत दिनों बाद तक गांव के घर में दिखता था। अचानक एक दिन दिखना बंद हो गया। मेरी मां बाज़ार से बीड़ी मंगवाती थी। बाबूजी मां के लिए बीड़ी लाते थे। बड़े होने के बाद ये हमारा काम हो गया था।

जन संस्‍कृति मंच का राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन बनारस में था। दरभंगा से हमारी सांस्‍कृतिक टोली के प्रतिनिधि को भी हिस्‍सा लेना था। मेरी इच्‍छा थी, लेकिन संजीव स्‍नेही को भेजने का इंतज़ाम किया गया। वे दोस्‍त थे, लेकिन कसक मेरे दिल में थी। मैं यूं ही चल पड़ा। पटना से मुग़लसराय और फिर वहां से बनारस। पटना में संजीव स्‍नेही मिल गये थे। मुग़लसराय जंक्‍शन पर टीटीई ने धर लिया, तो मेरा जुर्माना भी संजीव स्‍नेही ने ही भरा। वहां कलकत्ता की एक रंग टोली भी आयी थी, जिसने मस्‍त कोरस सुनाया था- समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आयी। उनमें से एक बीड़ी पीते थे और उनके पास कई बंडल था। हमने रिक्‍वेस्‍ट करके एक बंडल मांग लिया कि मेरी मां बीड़ी पीती है, उसके लिए। उन्‍होंने खुशी-खुशी दे दिया।

बंगाल की बीड़ी ले जाकर मैंने मां के हाथ में रख दी। उसकी आंखों में आंसू थे। खुशी के या अपराधबोध के, कह नहीं सकता - लेकिन बाद में बीड़ी की वजह से उसके दोनों फेफड़े गल गये। डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया। तीन भाइयों में सबसे छोटी बहन थी मेरी मां। उनका बड़ा भतीजा, मेरे ममेरे भाई अमेरिका में डॉक्‍टर हैं। उनके पास पूरी रिपोर्ट भेजी गयी और जिस सुबह उनका फोन आया - मां गुज़र चुकी थी।

बीड़ी की आदत का किस्‍सा कुछ यूं सुनाया था मां ने कि उनकी बुआ बीड़ी की तलबगार थी। उनके लिए अक्‍सर चूल्‍हे से जला कर बीड़ी मां ही ले जाती थी। जब सात साल की रही होगी, तभी बीड़ी जलाने और बुआ के हाथ में थमाने के बीच रास्‍ते में एकाध कश ले लिया और फिर कई बार बीड़ी जला कर बुआ को थमाने के बीच रास्‍ते में कई-कई क़श। धीरे-धीरे चेन स्‍मोकर हो गयी। घर में सबको पता चल गया। शादी ठीक हुई, तो छुड़वाने की कोशिश की गयी। लेकिन इस कोशिश में मां बीमार पड़ गयी, तो नाना ने मां को बीड़ी से दूर नहीं रहने देने का सख्‍त एलान कर दिया।

शादी के बाद विदाई हुई, तो साथ आने वाली कमनाहरि (टहल-टिकोला करने वाली) केले के थंब में छिपा कर बीड़ी लेती आयी। इस तरह नइहर से ससुराल तक मां की बीड़ी आयी, जो उनकी मौत तक साथ रही। 7 जुलाई 1999 को मां का इंतकाल हुआ।

आठ साल बाद ओमकारा (2006) में बीड़ी जलाय ले गीत सुना, तो मां की याद आयी। याद भी बड़ी कमीनी चीज़ होती है। गीत का संदर्भ क्‍या है और याद किसकी आयी! ख़ैर, मन की ऐसी नियतियों का क्‍या किया जाए? मेरी अपनी यादों के बहाने आपकी खिदमत में पेश है ये गीत...

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Thursday, November 8, 2007

झूला पटना में डाला रे, अमरइयां!

अब ऐसा भी नहीं है कि एक शहर हमारी ज़‍िंदगी से बाहर हो गया है। हम कभी भी वहां जाकर रहना शुरू कर सकते हैं और जक्‍कनपुर में गौरिया मठ के सामने आलू पकौड़ी और हरी चटनी के आसपास शाम बिता सकते हैं। जंक्‍शन के बाहर महावीर मंदिर से सटी मस्जिद की दूसरी तरफ पहली मंज़‍िल वाली खोली में लिट्टी और बैंगन की चटनी में मूड़ी गोड़ना किसी को भी अच्‍छा लगेगा।

एक बार रिपोर्टिंग के सिलसिले में बक्‍सर गये थे, तो वरुणा हॉल्‍ट के पास कोई ट्रेन पटरी से उतर गयी। घंटों आगे-पीछे की ट्रेन बक्‍सर और डुमरांव स्‍टेशन पर खड़ी रही। हम डुमरांव में फंस गये, जिसका अहाता थोड़ी ही देर में सिगरेट में घुले इंतज़ार के घुओं से भर गया। भूख लगी, तो बाहर निकल कर हमने लिट्टी खायी। घी में डूबी हुई लिट्टी, एक मिर्च और घुघनी ने जो तसल्‍ली दी, उसका ज़‍िक्र आज भी देखिए- हुलस कर निकल रहा है।

आरा में भी लिट्टी मिलती है। हमारे एक दोस्‍त के ब्‍याह में गये, तो तेल की गंध ने ऐसा घेरा कि बरसों के बीमार जैसे लगने लगे। बाहर निकल कर सूखी लिट्टी की दुकान में बैठ गये। लिट्टी का पूरा कल्‍चर पुराने मध्‍य बिहार में ही रहा है। सासाराम और कैमूर ज़‍िले में हमने लिट्टी खाकर संतोष की रात बितायी है।

रांची में हमारी एक दोस्‍त अनुपमा है, जो यूपी के गाज़ीपुर की रहने वाली है। गाज़ीपुर में अफीम की खेती बड़े पैमाने पर होती है और कैमूर से एक रास्‍ता गाज़ीपुर की ओर जाता है। लिट्टी वहां के परिवारों में भी आम है। एक शाम अनुपमा के पिताजी ने घर के आंगन में लिट्टी के लिए आग जलायी और अपने हाथों से लिट्टी बना कर हमें खिलाया। शहरों में बसे लोग, जो कहीं अपने गांवों से आये हैं, खान-पान में पुराना बर्ताव ही बरतते हैं।

पटना में विधायक क्‍लब के पास घी में लपेटी गयी सत्तू की रोटी के लिए काफ़ी इंतज़ार करना होता था, लेकिन हम इंतज़ार करते थे। फिर भी ऐसा नहीं है कि पटना में रहने की ख्‍वाहिश में स्‍वाद सबसे ज़रूरी कारक है। वहां रहना आसान है। पैदल चलना आसान है। मुख्‍यमंत्री, नेताओं और नवधनाढ्यों की दुनिया में झांकना आसान है- क्‍योंकि मौर्यालोक कांप्‍लेक्‍स की शाम सबके लिए एक साथ रोशन है और जहां पंद्रह रुपये में हाफ प्‍लेट मस्‍त चाउमीन चिकेन ग्रेवी से साथ मिल जाता है। यहीं एक पत्रिका की दुकान पर कुछ पत्रकार जुट जाते हैं, जो दारू पीने के लिए जुगाड़ खोजते हैं। चालीस रुपये में रम का नीप नौ-दस बजते-बजते उग आता है और पत्रकारिता के पटनिया परिदृश्‍य की परतें भी उघड़ने लगती हैं।

इसी कांप्‍लेक्‍स के सामने से एक रास्‍ता निकलता है, जिसमें पहली बायीं मोड़ में घुसने पर सामने पटना म्‍युज़‍ियम दिखता है। म्‍युज़‍ियम के मैदान में अंग्रेज़ों के ज़माने की बड़ी सी तोप रखी है और कई सारे पेड़ और कई सारे चबूतरे हैं, जो पतझड़ के मौसम में इश्‍क़ का एहसास देते हैं। आर्ट कॉलेज के जोड़े तो चित्र बनाने के नाम पर ऐसे ही घुस आते हैं, दूसरे आम जोड़े भी दो रुपये का टिकट लेकर पूरा दिन यहां बिताते हैं।

मौर्यालोक कांप्‍लेक्‍स के पास ही डाक बंगला चौराहे से अक्‍सर कोई जुलूस निकलता है और पुलिस की बड़ी गाड़ी जुलूस में शामिल लोगों को उठाती है और दानापुर के किसी स्‍कूल के अहाते में ले जाकर छोड़ देती है। वहां चूड़ा और गुड़ मिलता है और फिर शाम को वही गाड़ी बेलीरोड के किसी स्‍टॉप पर लाकर छोड़ देती है।

गांधी मैदान में आल्‍हा-ऊदल गाने वाला एक कलाकार रोज़ महफिल जमाता है और गुप्‍त रोगों से निज़ात दिलानेवाली दवाइयों का कारीगर ऊंची आवाज़ में चिल्‍लाता है। इसी मैदान में मोना सिनेमा वाले कार्नर पर रंग‍कर्मियों ने सफदर हाशमी रंगभूमि बना रखी है, जिस पर अक्‍सर नुक्‍कड़ नाटक होता है। लोग देखते हैं और डायलॉग की हर ऊंची टेक पर ताली बजाते हैं।

इसी पटना में पुनाइचक वाले कमरे में, जो समन्‍वय के नाम से जाना जाने लगा था, नवीन अक्‍सर एक गीत छेड़ते रहे हैं- झूला किन्‍ने डाला रे, अमरइयां...

जो सचमुच गायक नहीं बनना चाहता और कोशिश करके जिसने सुर की क़ाबिलियत भी नहीं हासिल की है, गीत उसकी ज़‍िंदगी का भी हिस्‍सा कैसे होती है- नवीन इसकी मिसाल हैं। मैंने तो थिएटर भी किया है। गाने का रियाज़ भी। हारमोनियम भी सीखने की कोशिश की है- लेकिन मेरा सुर पटरी से उतर जाता है। नवीन के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर भी वे गाते हैं तो लगता है, लय उनकी शख्‍सीयत का हिस्‍सा है।

झूला किन्‍ने डाला रे, अमरइयां भी मुझे नेट पर मिल गया और इसके साथ ही पटना और नवीन को याद करने का एक बहाना भी। ये पहला गीत थोड़ा कम ड्यूरेशन का है, जो उमराव जान में इस्‍तेमाल हुआ है और सिंगर कोई अननोन आर्टिस्‍ट है।
और ये दूसरा गीत नैय्यरा नूर ने गाया है, जो बड़े ड्यूरेशन का है।

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Wednesday, November 7, 2007

पटना में विरह के वे बरसते हुए दिन!

पटना की कोई शाम मनहूस नहीं होती। वे दिन भी थे, जब दोस्‍तों ने थाम लिया- वरना हम गंगा के आसपास अकेले भटकते उसके पानी में हमेशा के लिए उतर जाते। प्रेम के एकाध किस्‍सों में अकेले रह जाने के बाद कमरे का अंधेरा फैल भी गया, गिलास में शराब भर भी गयी- लेकिन उदासी का कोई ऐसा सिलसिला नहीं चला, जो विरह का कवि बना दे।

पुनाइचक में एक छोटा सा कमरा था। पहले पहलवान लॉज, फिर एक बड़े मकान के ग्राउंड फ्लोर का कमरा। उस कमरे को हमारे एक दोस्‍त ने किराये पर ले रखा था, बाद में मुझे साथ में रखा और मज़े में खाना-वाना भी खिलाता रहा। वो कंपटीशन की तैयारी करता था, अब पटना से सटे मसौढ़ी में डीएसपी है। तबादला होता रहता है। वो कमरा थोड़े दिनों बाद संस्‍कृति-राजनीति की बतकही से गुलज़ार रहने लगा। मेरे पैर पार्टी-पॉलिटिक्‍स में पहले से ही थोड़े फंसे थे।

नवीन का आना-जाना उन्‍हीं दिनों शुरू हुआ। वे फिज़‍िक्‍स पढ़ा करते थे। साइंटिस्‍ट बनने के ख़्वाब देखते थे और पीओ की तैयार करते थे। पटना में लड़के आमतौर पर ऐसा करते हैं। लखनऊ, भोपाल और दिल्‍ली के मुखर्जी नगर इलाक़े में भी लड़के यही करते हैं। कोई विकल्‍प नहीं है। ख़्वाब और नियति के बीच उदास सड़कों पर चलना और कभी कभी यूं ही मुस्‍करा देना। क्‍योंकि मैंने कभी कंपटीशन वगैरा में दिलचस्‍पी नहीं ली और अख़बार की सस्‍ती नौकरियों में जी जमने लगा- तो थोड़े मौलिक भी हो गये। दोस्‍ती में वक्‍त बर्बाद करना इसी मौलिकता का सृजनात्‍मक पहलू था।

कई बार पूरी दोपहर पटना की सड़कों पर पैदल चलते हुए शाम को उस कमरे में लौट आते थे। वो कमरा अब किसी एक का रह नहीं गया था। सबके दावे हो गये थे और कई बार तो अपनी प्रेमिकाओं को लेकर कोई आ जाता और कहता- थोड़ा टहल आओ। इसकी मार सबसे अधिक पड़ी धर्मेंद्र सुशांत को, जो अब दैनिक हिंदुस्‍तान के दिल्‍ली संस्‍करण में उपसंपादक हैं। कमरे की चाबी उन्‍हीं के पास रहती थी। मां के इंतक़ाल के बाद बाबूजी और बहनें मेरे साथ रहने आ गयी थीं। हमने किराये का एक अलग घर ले लिया।

उसी कमरे में पहली बार मैंने अपनी पत्‍नी के हाथ छूए थे, और होंठ भी। तब वो सिर्फ एक ख़ामोश लड़की थी, जो कभी-कभी बोलती थी।

नवीन का राजनीतिक रूपांतरण होने लगा था। वे सीपीआई एमएल लिबरेशन की तरफ भी झुक रहे थे और सीपीआई एमएल पीपुल्‍स वार (अब माओइस्‍ट) की तरफ भी। उस कमरे में रामजी राय भी आते थे और अमिताभ भी। दोनों अपनी अपनी तरह से हमसे संवाद करते थे। रामजी राय के विचार जैसे भी लगें, अमिताभ के जनवादी गीत हमें पसंद आते थे। सीपीएम, सीपीआई सीन में कहीं नहीं था, जबकि इन पार्टियों के कॉमरेड भी उस कमरे में आते-जाते थे। आख़‍िरकार हम सब लिबरेशन के पाले में चले गये।

नवीन तो अब पार्टी वर्कर हो गये हैं। उसी मसौढ़ी में, जहां सुशील फिलहाल डीएसपी है। ये उन दोनों का संयोग है। हम तो बस इतना ही याद करते हैं कि दोनों पटना में पुनाईचक के उस कमरे में हमसे अपना मन साझा करते थे। नवीन की आदत थी, वे कहीं से भी आते, एक कोने में पसर जाते। उनकी पतली काया एहसास भी नहीं होने देती थी कि वे कमरे में हैं। अंधेरी रात में जब बहस फुसफुसाहटों और भनभनाहटों में तब्‍दील होने लगती, वे मच्‍छड़ मारते हुए उठते। कहते, सोने नहीं दोगे तुमलोग। कई बार बीच बहस में वे कोई सवाल करते और फिर सो जाते। लेकिन बहसबाज़ उनका जवाब दूसरों को देते रहते।

नवीन की शख्‍सीयत में अतीत ज़्यादा घुला हुआ है। वे उस मीठापुर को याद करते हैं, जहां उनका बचपन बीता। मीठापुर पटना जंक्‍शन के पीछे का पुराना, पिछड़ा हुआ इलाक़ा है- जिसने कुछ नामी गुंडे पैदा किये हैं। कुछ शास्‍त्रीय गीतों को भी वे ज़बान पर चढ़ाये रखते थे, जो कभी किसी सिलसिले में सुन लिया था। उनके पास गायकों जैसी आवाज़ नहीं थी और रियाज़ वाली सफ़ाई तो बिल्‍कुल नहीं थी। लेकिन सुर था। प्रेम में पलटी खाने के पहले वे अक्‍सर सुनाया करते थे- बरसन लागी सावन बुंदिया, राजा तोरे बिन लागे न मोरा जिया।

ये गीत मेरे चाचा भी गाते थे, जो अब बेतिया में रहते हैं।

पटना जैसे शहरों में नौजवानी जिन हालातों में बीतती है, उन्‍हें बरसन लागी जैसा गाना बेहतर अभिव्‍य‍क्‍त करता है। हम मूलत: पटना जैसे शहरों के लोग अब भी वहीं के हैं। यही वो बात है कि तमाम लोगों के बिना जी लगने के बावजूद बरसन लागी सुनना अच्‍छा लगता है। आप भी सुनें और थोड़ी देर के लिए पटना जैसे शहरों के हो जाएं।

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Monday, November 5, 2007

मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो...

2001 की जनवरी। महाकुंभ के मेले की दोपहर। क़दमतालों से उड़ते ग़र्दो-गुबार में झोला लटकाये हम घूमते थे। शाम हो जाती थी और रात में कल्‍पवासियों के छोटे-छोटे तंबू के आगे लकड़‍ियां जलने लगती थीं। उनके ताप को घेरे हुए लोगों के साथ थोड़ी देर बैठ कर हम गौरिया मठ में लौट आते थे, जहां एक दिन रात गुज़ारने के लिए मिली थोड़ी सी फ़र्श के एवज़ में डेढ़ सौ रुपये अदा करना होता था। ये सिलसिला हफ्ता भर चला। प्रयाग से थोड़ी ऊब होने लगी, तो हम इलाहाबाद में ठौर खोजने लगे। टेलीफोन डायरेक्‍टरी में यश मालवीय का नंबर खोजा, जिनसे एकाध इधर-उधर की मुलाक़ात थी। बेगूसराय में बरौनी रिफाइनरी के कवि सम्‍मेलन में हमने साथ-साथ गीत पढ़े थे।

यश मालवीय का घर एक मंदिर था। यश भाई हमें शाम को महादेवी जी के घर ले गये। जिस कमरे में वो रहती थीं, वहां अभी भी उनका बिस्‍तर, उनकी मेज़ मौजूद है। दूसरी सुबह यश भाई की पत्‍नी, जिनका रिश्‍ता महादेवी जी के परिवार से है- उन्‍होंने हमें सोहर सुनाया- छापक पेड़ छिहुलिया... रामकथा में धोखा और पीड़ा का राग इस सोहर में इस क़दर बसा है कि आपकी आंखों में पानी आ जाए।

इससे पहले पटना में रवींद्र भारती के नाटक फूकन का सुथन्ना में ये सोहर सुना। प्रभात ख़बर में हमारे सीनियर मिथिलेश जी अक्‍सर ये सोहर गाकर सुनाते थे, जब हम अख़बार की व्‍यवस्‍थापकीय दुरावस्‍था पर ग़मज़दा होकर थोड़ी-थोड़ी पी लेते थे। अभी ठुमरी में एक दिन देखा- बिमल भाई ने इस सोहर का ज़‍िक्र किया है।

छापक पेड़ छिहुलिया में दर्द की कहानी है। हिरनी का मनुहार है। मेरे हिरन का मृगछाला लौटा दो। लेकिन दशरथ राम के लिए उसकी डफली बनवा रहे हैं, और हिरनी तड़प कर कह रही है- नहीं, ऐसा न करो। उस पर पड़ने वाली थाप की आवाज़ मेरे कानों में पड़ेगी, तो सह न पाऊंगी, हृदय कट जाएगा। मैंने बिमल भाई से अनुरोध किया है कि वे इस गीत को कहीं से उपलब्‍ध करें और ठुमरी पर इसे सुनाएं। उन्‍होंने वादा भी किया है।

इधर अंतर्जाल के एक बेचैन से सफ़र में हमें छन्‍नूलाल मिश्रा का गाया एक सोहर मिल गया। ऐसा क्‍यों है कि सोहर के सुर में वेदना का राग है? बधैया के बीच में ही तो सोहर गाया जाता रहा है- या फिर मेरी समझ का फेर है! अयोध्‍या में बाजत बधैया हो रामा, रामजी जनम लेल में एक उल्‍लास है, लेकिन सोहर के किसी भी टेक्‍स्‍ट में वेदना ही वेदना है।

आपको सुनाता हूं, छन्‍नूलाल मिश्रा का गाया वो सोहर - मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो sss

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Sunday, October 28, 2007

वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया

उसका नाम कुछ भी नहीं था। बस एक एहसास ही था उसके आसपास से गुज़रना, बोलने-बतियाने का ज़रा-ज़रा सा बहाना ढूंढ़ना। वो पहली दीवानगी थी, जो अपमान और शर्म की थोड़ी-थोड़ी रेत मुट्ठी में थमाती रही। कभी कहती- आओ, कभी कहती- मत आना कभी। हम थे कि वक्‍त से पहले पहुंच जाते और ख़ाली क्‍लास रूम के बीचोबीच बेंच पर बैठ कर बाट जोहते।

वो हमेशा आती। सहेलियों को समेटे। चप्‍पल और जूतों की टकराहटों में चुप आंखों के साथ। हमने कई बार सादे काग़ज़ पर रंगीन क़लम से मोहब्‍बत का इज़हारनामा लिख कर भेजा। उसने हर बार तोड़ मोड़ कर हमारे बस्‍ते में वापिस कर दिया। ये लंबा सिलसिला था, जो सब जान गये। छोटी कक्षा के बच्‍चे तक। आख़‍िरी इम्‍तहान तक वो चुप रही और मैं इकतरफा शोर मचाता रहा।

हम बाद में एकाध बार मिले। मिले नहीं, बस आमने सामने हुए। उसकी कालोनी के चक्‍कर काटते हुए कई दोपहरें ख़त्‍म हुईं, उसने कुछ नहीं कहा। औरतों के दिल होते होंगे, उसके नहीं थे। होता, तो पसीजता और अपनी कालोनी के उस टीले पर उसे ले आता, जो दोपहर में गर्म हो जाता था और वहीं बैठ कर हम उसके पीले मकान की तरफ देखते रहते थे। वो जानती थी, पर कभी नहीं झांकती थी।

अब वो दिल्‍ली के किसी हिस्‍से में रहती है। स्‍वामी-बच्‍चों का सुखी परिवार है। स्‍कूल में साथ पढ़ने वाली एक दोस्‍त ने बताया था। कोई पांच-छह साल पहले। अचानक हुई एक मुलाक़ात में। ये कहा कि बीच-बीच में फोन आता है। एक बार तुम्‍हारा भी ज़‍िक्र आया था। पर वो ज़‍िक्र ऐसा ही था- कितना पागल था रे।

सचमुच पागल था। दसवीं के एक साल में एक भी दिन नागा नहीं। हर दिन नहा कर जाना। बस्‍ते में किताबों के बीच कंघी रखना। बीच क्‍लास में सबकी नज़र बचाकर बाल संवार लेना। दोस्‍तों के तानों को दिल पे लेना और भिड़ जाना। सब पागलपन ही तो था!

अब भी रांची जाता हूं, तो उस मोड़ पर चेहरा घूम जाता है, जहां उसकी कालोनी थी। स्‍कूल की गली से यूं ही गुज़रता हूं, तो दीवारों पर नज़र जाती है। बाद के बच्‍चों ने खुरच डाला है- ए+एस। बदमाश कहीं के। जो जोड़ी बनी नहीं, उसे यहां दीवार पर उकेर दिया। स्‍कूल भी दलिद्दर। दीवार वैसी की वैसी है। शर्मा सर की भी नजर पड़ती होगी और दास मैडम, तोमर मैडम भी देखती होंगी। जाने क्‍या सोचते होंगे सब।

मैं तो अब सोच भी नहीं पाता। नाम पहले भी नहीं था। अब चेहरा भी धुंधला पड़ता जा रहा है। बरसों बाद एक गीत ने आंखों के सामने वे दिन लाकर खड़े कर दिये... गुंचा कोई मेरे नाम कर दिया, साक़ी ने फिर से मेरा जाम भर दिया... वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया... आइए सुनें...

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Saturday, October 6, 2007

पानी

अब पीया नहीं जाता पानी
मन बेमन रह जाता है
प्‍यास बाक़ी
आत्‍मा अतृप्‍त

सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज
सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी
दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था

गर्मी में घर लौटना अच्‍छा लगता था
बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना
दो घूंट गले में डाल कर फिर बिस्‍तर पर लेटना
किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना

हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी
आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत

मौसम बदल रहा है
ठंडा पानी पीया नहीं जाता
कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं
ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्‍यास धक्‍का देकर कहीं भाग जाती है

कैसे लोग होते हैं वे
जिनकी प्‍यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!
सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहां से मंगवाता है!
क्‍या दिल्‍ली में मिलता है पानी!
यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही कांपते होंगे

सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी

थक कर प्‍यास से बेकल घर पहुंच कर भी
पानी भरा हुआ गिलास मेरी ह‍थेलियों के बीच फंसा है
बहुत ठंडा है बहुत गर्म

हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं
नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं
बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुंह चुराना चाहते हैं

सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ पचास पैसे में
एक के सिक्‍के में दो गिलास

पर इसमें मिट्टी की बास आती है
गले में खुश्‍की जम जाती है
मुझे रुलाई आती है
मुझे ज़ोर की प्‍यास सताती है!

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Sunday, September 30, 2007

हमने कुमार गंधर्व को देखा है

हम दरभंगा के आवारा छोरे देवास और मालवा की आवोहवा समेटे कुमार गंधर्व की आवाज़ के दीवाने क्‍यों हुए? वो जो वक्‍त था, जब हम बड़े होना नहीं चाहते थे, उस वक्‍त का डिस्‍को सांग - आइ एम अ डिस्‍को डांसर - गाते थे और ख्‍वाहिश करते थे कि जैसे फिल्‍म में मिथुन चक्रवर्ती जादूगर की तरह पैर को थिरकाता है, हम भी थिरकाएं। हमारे मकान मालकिन की खूबसूरत हमउम्र बेटी को तबला मास्‍टर कुछ सिखाने आते थे। शायद संगीत के सुर। हमने उन्‍हें लकड़ी की चौकी पर हाथ से ठुमका बजा कर दिखाया। कहा- मैं भी बजा सकता हूं। मुझे तबला सिखाइए। हमेशा खामोश रहने वाले और गुनगुनाहट से आगे संगीत को त्‍यौरियां चढ़ा कर देखने वाले बाबूजी से तबला मास्‍टर ने कह दिया। कहा होगा यही कि आपके बेटे में हुनर है, लेकिन बाबूजी को लगा कि तबला मास्‍टर उनके बेटे को नचनिया-गवैया बनाने के फेर में है। मैंने सुना नहीं, बाबूजी उनसे क्‍या कह रहे हैं। लेकिन उसके बाद से तबला मास्‍टर जब भी मुझसे टकराते, निरीह नज़रों से देख कर गुज़र जाते थे।

मैं तबला नहीं सीख सका। मेरे छोटे चाचा, जिनका बेतिया में अपना कारोबार है, गाने के बेहद शौकीन। वे ग़ुलाम अली को गाते थे, रफी के क्‍लासिकल को हूबहू मिला देते थे, अभाव में भी अच्‍छी कमीज़ पहनते थे, घुंघराले बालों को मज़े की कारीगरी के साथ धूल-गर्दों से बचा कर रखते थे, मेरे आदर्श थे। ग़ुलाम अली का गाया, बरसन लागी सावन बुंदिया राजा, तोरे बिना लागे ना मोरा जिया हमारी बहनें उन्‍हें बैठा कर, घेर कर सुनती थीं। इंटर के दौरान मेरी छोटी-छोटी इश्‍कबाज़‍ियों से आजिज आकर बाबूजी ने एक बार मु‍झे बेतिया भेज दिया, तो वहां से मैं चाचा का हारमोनियम उठा लाया। दरभंगा रेडियो स्‍टेशन के नेत्रहीन कलाकार - जिनकी शाम शराबनोशी में बुरी तरह बीतती थी - उन्‍होंने मुझसे वादा किया था कि वे मुझे हारमोनियम पर उंगली घुमाना सिखाएंगे। लेकिन हर शाम की उनकी अदाएं देख कर मेरा उत्‍साह जवाब दे गया। एक ही स्‍वर लहरी मैंने सीखी और अकेले में अक्‍सर वही रियाज़ आज तक करने की कोशिश करता हूं - सा सा सा सा निधा निधा पमप ग ग पमप गारे गारे निधस।

इन सबके बीच कुमार साहब कहीं नहीं थे। वे कब हमारी ज़‍िंदगी में आकर हमें संगीत का गहरा अर्थ समझा गये, मालूम नहीं।

शायद एक वक्‍त कबीर की धुन सवार हुई थी। जिन जिन ने कबीर को गाया, हमने सुना। खोज-खोज कर। दरभंगा से पटना तक, जितना मिला। ब व कारंत साहब सन 2000 के आसपास पटना आये थे। खुदा बख्‍श लाइब्रेरी में उन्‍होंने खुद कुछ नाट्य गीतों की प्रस्‍तुति की थी। एक गीत था- सजना अमरपुरी ले चलो। अमरपुरी की सांकर गलियां अटपट है चलना। सजना अमरपुरी ले चलो। कुछ ऐसा वीतरागी भाव, जिसमें खनक भी थी, हमारी स्‍मृतियों का सबसे जीवंत हिस्‍सा बन गया। लेकिन कुमार साहब की कबीरवाणी तो रोएं खड़े कर देती हैं।

मध्‍यवर्गीय और उससे भी कम आय वाले संगीतपसंद लोगों के लिए कम उपलब्‍ध कुमार गंधर्व का हम जैसों की ज़‍िंदगी में होना ही ख़ास मायने रखता है। लेकिन इन मायनों के बीच अक्‍सर ये गुम हो जाता है कि अच्‍छी और शास्‍त्रीय आवाज़ों का जुगाड़ कैसे लगा, कब लगा। दो अदद कैसेटों और कलावार्ता के कुछ पुराने अंकों की खाकछानी में कुमार साहब को लेकर पैदा हुई दीवानगी को कितना उत्‍साह मिला होगा, जब यू ट्यूब पर उनके एक वर्षागीत का वीडियो मिल गया होगा, ज़रा सोचिए।

फिराक साहब की गज़ल का एक टुकड़ा आप भी जानते होंगे- अब अक्‍सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैं/ पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं। लेकिन तकनीक के इस तेज़रफ्तार वक्‍त में हम अतीत के बोलते हुए दृश्‍यों को भी आज समेट सकते हैं...

...जैसे हमने कुमार साहब की इस छवि को यहां समेटा है।

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Saturday, September 29, 2007

हिंदी मेरी भाषा

हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है

सब्‍जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं

यहाँ तक कि गोश्‍त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता

हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर

दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है

पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं

मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं

दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें

मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है

‘वैष्‍णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’


हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे

कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!

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Friday, September 28, 2007

नैन घट घट तन एक घड़ी

एक ही कमरा था। बाबूजी थे। तीन बहनें थीं। मां का आंचल था, पतली सूती साड़ी का कोर। हम सब उस जगह को लॉज का एक कमरा कहते थे। एक कतार में ढेर सारे कमरों में जो परिवार बसे हुए थे, उनके घर से अक्सर सब्‍ज़ी की कटोरी आती थी। हमारे घर से भी कभी कभी जाती थी। सबमें इतना घरापा होने के बावजूद हम अपने ही कमरे के लोग थे। हमारी अपनी ही दुनिया थी।

मां ने बरामदे की जगह को मिट्टी से ज़रा सा ऊंचा करके किचन बनाया हुआ था। कोयले के चूल्हे पर खाना बनता था। धुआंई शाम में हम कमरे में खीझ रहे होते थे। सुबह तो पता ही नहीं चलता था कि चूल्हे की आंच कब सुलगायी गयी, कब रोटी बनी और प्याज को भून कर कब बाबूजी के सामने परोस दिया गया। उसकी गंध से नींद खुलती थी।

बाबूजी अहले सुबह उठते थे। उन्हें ट्यूशन पढ़ाने जाना होता था। चार बजे उनके मुंह में ब्रश होता था और एक खास तरह की गुनगुनाहट भी। आज भी उनकी सुबह चार बजे होती है और मुंह धोते वक्त आज भी वे गुनगुनाते हैं। लेकिन अब सबके अपने अपने कमरे हैं और सबकी आवाज़ अपने अपने कमरों में क़ैद है। लेकिन उन दिनों हमारी नींद को बाबूजी की गुनगुनाहट थपथपाती रहती थी। हम अलसाये से उलटते-पुलटते रहते।

नींद खुलती थी आकाशवाणी की आवाज़ से। ये आकाशवाणी का दरभंगा केंद्र है। इस उद्-घोषणा के साथ ही भजन का सिलसिला शुरू होता था। तब उसमें मन रमता नहीं था। लेकिन क्या पता था कि उन भजनों के सुर ज़ेहन में ऐसे बसेंगे कि बहुत बाद में भी हूक की तरह बार-बार सीने में उठते रहेंगे?

पटना के हमारे दोस्त हैं नवीन कुमार। उन्होंने मुश्किल वक्तों में मेरा साथ दिया है। सीपीआई एमएल के होलटाइमर हैं और मसौढ़ी में किसान-मज़दूरों के बीच काम करते हैं। उनके एक साथी के यहां से हमने अपनी पसंद का एक कैसेट उड़ाया। सुना तो एक आवाज़ वही बचपन में आकाशवाणी की जानी-पहचानी आवाज़ के अतीत में छोड़ गयी।

नैन घट घट तन एक घड़ी।

कुमार गंधर्व का ये भजन आकाशवाणी से अक्‍सर प्रसारित होता था। कुमार गंधर्व हमारे बोध में उन्‍हीं दिनों जम गये थे, जब नाटक और कविता हमारी दिलचस्‍पी बन रही थी। पता नहीं कैसे। शायद भोपाल से निकलने वाली कलावार्ता के अंकों में देख कर या बाबा नागार्जुन के यहां से लाये गये एक कैसेट को सुन-सुन कर। एक ऐसी आवाज़, जो लहरों की तरह उठती थी और ऊपर ही कहीं खो जाती थी। सुर का दोहराव फिर नीचे से शुरू होता था। बाद में हमने ढूंढ़ ढूंढ़ कर कुमार साहब को खूब सुना।

आज इंटरनेट पर आवारागर्दी के दौरान वही भजन मिल गया। आप सबकी नज़र कर रहा हूं... नैन घट घट तन एक घड़ी...

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Tuesday, September 4, 2007

दिल्‍ली हाट और मंच पर मोरनी

उस दिन दिल्‍ली हाट में टहलते हुए हमने बेहतरीन शाम बितायी। मन में आया घर पहुंच कर कुछ लिखेंगे। लेकिन घर आकर वे सारे चित्र एक बहुत बुरी और उलझी हुई पेंटिंग में बदल गये। अक्‍सर ये होता है। एक सफ़र और एक शाम में आप दर्जनों ऐसे वाक्‍य सोचते हैं, जो आपको खुद की प्रतिभा के मुकाबले बेमिसाल लगते हैं। आप उन्‍हें कभी लिख नहीं पाते, और इस बात का अफ़सोस आपकी ज़‍िंदगी को बोझिल करता चलता है।

उन लोगों से कितनी ईर्ष्‍या होती है, जिनका लिखना सोचने की रफ्तार से ज़्यादा तेज़ होता है। यहां तो हम कुछ सोचकर कंप्‍यूटर पर बैठते हैं, और शुरुआती वाक्‍य को ही बीसियों बार काटते हैं। यानी शुरुआत मेरे लिए हमेशा एक कठिन काम होता है। अब जैसे दिल्‍ली हाट का मैं कोई संस्‍मरण नहीं लिखना चाहता हूं। लिखना चाहता हूं कि देश की राजधानी में इस जगह के सुकून के पीछे का अर्थशास्‍त्र कितना कामयाब है। देसी धुन, देसी कला और देसी स्‍वाद यहां किस वर्ग के लोगों को अपना उपभोक्‍ता बनाये हुए है। लेकिन चूंकि अर्थशास्‍त्र अपना इलाक़ा नहीं है, इसलिए ऐसी कल्‍पना शब्‍दों की पगडंडी में नहीं ढल पाती।

अक्‍सर हमारे मित्र कृष्‍णदेव और उनकी मित्र आकांक्षा हमें दिल्‍ली हाट बुलाया करते थे। अक्‍सर हम टालते रहते थे कि बेगानों के ऐश्‍वर्य में अपनी कुंठा को रसद-पानी देने क्‍यों जाएं। वे हमें समझाते कि आपके मिज़ाज की हवा यहां बहती है। देश के कोने-कोने से चलकर आवाज़ें और वाद्य यहां पहुंचते हैं। हम अपने मन को समझाते कि गणतंत्र दिवस में नुमाइश लगने वाली देशज संस्‍कृति की परेड से अलग वहां क्‍या मिलेगा। बाक़ी तो आईटीओ पर बीस-पच्‍चीस रुपये में असली देसी माल वाला कैसेट मिल ही जाता है। बिजली रानी से लेकर देसिल बयना का संगीत एक महीना चल कर ख़राब भले हो जाता है- लेकिन इतना तो लगता है कि बौर के मौसम में कान में रेडियो लगा कर आमगाछी की दोपहरी काट रहे हैं।

तो उस दिन साथ-संगत छूटने के लंबे वक्‍त के बाद जब मैं अपने विवादों का पुलिंदा साथ लेकर चलने वाले हमारे दोस्‍त राकेश मंजुल के पास गया, तो तय हुआ, शाम में साथ खाएंगे। मंजुल जी ने कहा, जगह तुम तय करो। मेरे मुंह से निकल गया- दिल्‍ली हाट चलते हैं।

हाथ की कढ़ाई, मिट्टी-लकड़ी की कारीगरी और हमारे गांव की मधुबनी पेंटिंग का मोल जानते हुए हम विंडो शॉपिंग की मनहूसियत से मुख़ातिब थे। राजस्‍थान की प्‍याज कचौड़ी और गुलाब जामुन खाने के बाद यूं टहलते हुए अपनी सेहत के साथ इंसाफ़ होता हुआ लगता है- लेकिन राकेश मंजुल आनंद में डूबे हुए थ्‍ो। वे सरस्‍वती की प्रतिमा से लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों की लकड़ी से बनी एब्‍सर्ड कलाकृति के दाम टटोल रहे थे। सब दस हज़ार से ऊपर का था। हमारे तो हाथ-पांव फूल रहे थे। महीने के आख़‍िर में आने वाली तंगी याद आ रही थी। लेकिन राकेश मंजुल सब ख़रीद लेना चाहते थे।

अचानक लोक संगीत की एक लड़ी मेरे कानों में पड़ी। हमने पीछे पलट कर देखा- छोटा सा स्‍टेज। राजस्‍थानी वेशभूषा में कलाकारों की एक पांत साज़ लेकर बैठी है। एक अधेड़ राजस्‍थानी आदमी और एक ऑस्‍ट्रेलियाई युवक लंबी माइक के सामने खड़ा दो अलग-अलग ज़बान की सांगीतिक जुगलबंदी में उलझा हुआ है। एक छोटा बच्‍चा हथेली भर का ढोल लिये स्‍टेज के वृत्त पर नाच रहा है। हम उधर चले गये। कई दर्जन लोगों की तादाद वहां उनकी महफिल में डूबी हुई बैठी थी।
(अच्‍छा, तो कृष्‍णदेव और आकांक्षा की बतायी यही वो जगह है, जहां अक्‍सर वे अपनी शामें हसीन करते रहे हैं।)
राजस्‍थानी कलाकारों ने एक गीत छेड़ा- मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा। मोरनी के विरह या मोरनी के आगे-पीछे मंडराने की कथा कहता ये गीत राजस्‍थान में मशहूर है और हिंदी फिल्‍म लम्‍हे में भी इसको एक्‍सप्‍लोर किया गया है...
मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...
छनन छन चूड़‍ियां छनक गयी साहिबां...
ख़ास बात ये थी कि राजस्‍थानी कलाकार अपनी बलंद आवाज़ में जब इस गीत की कड़‍ियां जोड़ते तो लगता कि मन की वीरानी में दर्द ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा है। हमारे हृदय कट कर गिर रहे हैं। ठीक यही एहसास होता था, जब वो ऑस्‍ट्रेलियाई युवक अपनी ज़बान में मोरया का दर्द उतारता था...
मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा...
दिल्‍ली देश भर के लोगों और कॉरपोरेट बैंकों के कर्ज़ पर ख़रीदी हुई कारों से भरा हुआ महानगर है। यहां ऊंची इमारतें और धुआं बढ़ रहे हैं। ऐसे में दिल्‍ली हाट रेगिस्‍तान के उस चश्‍मे सा नज़र आती है, जो नज़र भर का सुकून आपके ज़ेहन में चमका जाती है। क्‍योंकि ऐसी जगहों पर उम्र बिता देने की ख्‍वाहिशों के साथ आपको अपनी भीड़-भाड़ में लौटना पड़ता है। हम दिल्‍ली हाट से लौट आये हैं। अब कब जाएंगे, पता नहीं। क्‍योंकि हम सबने अपनी-अपनी ख्‍वाहिशों के साथ पांव-पैदल चलना बहुत पहले ही छोड़ दिया है।
आइए देखते हैं, लम्‍हे का वो मशहूर गीत, मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...

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Tuesday, August 21, 2007

ये दरअसल हमारे मुल्‍क की वीरानी है



जिस वीरानी में कुर्तुल आपा ने पूरी ज़‍िंदगी गुज़ारी, वही वीरानी अस्‍पताल में उनके साथ अब भी मौजूद थी, जब उनकी सांस थम गयी थी। शव उनके वार्ड से निकाल कर उस कमरे में रख दिया गया था, जहां दरअसल शव ही रखे जाते हैं। रिसेप्‍शनिस्‍ट के पास कोई ज़्यादा जानकारी नहीं थी। टीवी वाला कहने पर अस्‍पताल के प्रशासनिक रूम का रास्‍ता ज़रूर बता दिया। वहां से पता चला, सुबह तीन बजे ही इंतक़ाल हुआ। साथ के लोग शव छोड़ कर घर चले गये हैं।

दफ्तर में काम के बोझ से थोड़ा हल्‍का होने के लिए हम स्‍मोकिंग ज़ोन में खड़े थे कि रवीश कुमार ने फोन किया- कुर्तुल एन हैदर नहीं रहीं। हम दौड़ते हुए न्‍यूज़ रूम पहुंचे। ब्रेकिंग न्‍यूज़ की पट्टी टीवी स्‍क्रीन पर चल रही थी। खेल बुलेटिन के बीच में रवीश के हल्‍ला करने पर हमने चार लाइन की इनफॉर्मेशन एंकर के लिए लिखी- उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्तुल एन हैदर का आज सुबह नोएडा के कैलाश अस्‍पताल में निधन हो गया है। उनकी मशहूर किताब आग का दरिया की अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्‍हें ज्ञानपीठ पुरस्‍कार भी मिल चुका है। आज शाम साढ़े चार बजे उन्‍हें जामिया के क़ब्रिस्‍तान में सुपुर्दे ख़ाक किया जाएगा।

... और वीटी लाइब्रेरी से टेप लेकर सीढ़‍ियों पर लगभग दौड़ते हुए स्‍टोर की तरफ भागे। ओबी वैन पहले ही रवाना हो चुकी थी। जिस अफरातफरी के आलम में ये क़यास लगाते हुए पहुंचे कि अस्‍पताल में भारी भीड़ होगी, वहां वे तमाम लोग मौजूद थे, जिन्‍हें शायद नहीं पता होगा कि यहीं एक इतिहास शव कक्ष में खामोश लेटा हुआ है। जानने वालों को शायद आपा के इंतक़ाल की ख़बर नहीं थी या हम इस समझ से भागना चाहते थे कि हमारे मुल्‍क में कुर्तुल जैसी शख्‍सीयत के नहीं रहने के कोई मायने नहीं हैं।

हम भी कहां जानते हैं कुर्तुल एन हैदर को! दफ्तर से अस्‍पताल तक, जितनी देर गाड़ी ने वक्‍त तय किया, इधर उधर फोन मारते रहे। लगभग आधा दर्जन दोस्‍तों से कुर्तुल के नहीं होने का मतलब टटोलते रहे।
(मुंबई में प्रमोद सिंह ने कहा था- आग का दरिया कहीं से लहा लो। लहा नहीं पाये। नये नये एनडीटीवी में आये तो एक दिन विनोद दुआ के हाथ में दिख गया। हमने कहा- दे दीजिए, पढ़कर लौटा देंगे। उन्‍होंने कहा- किस पब्लिकेशन का चाहिए? ये एक टीवी पत्रकार का सवाल था। हम लाजवाब थे। उन्‍होंने समझाया कि दो पब्लिकेशन से ये किताब शाया हुई है। किताबघर वाला अनुवाद ज़्यादा अच्‍छा है, लेकिन वे उन दिनों उसे पढ़ रहे थे। पढ़कर देने का वादा अब भी वादा ही है, जिसे शायद वे भूल चुके होंगे।)
अस्‍पताल से ही घर का पता मिला। सेक्‍टर 21 ई 55, हम वहां गये। वहां भी अस्‍पताल जैसी वीरानी ही तैर रही थी। बाहर कुछ किताबें रखी थीं, जिसके पन्ने टीवी के कुछ कैमरामैन पलट रहे थे। अंदर आम-फहम से दिखने वाले तीन-चार पड़ोसी जैसे लोग हाथों में उर्दू की पतली सी कोई पाक किताब लेकर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदा रहे थे। अगरबत्ती की गंध घर से बाहर बरामदे में आकर पसर चुकी थी।

आपा की किताबों से कुछ बेहद ही ख़ूबसूरत तस्‍वीरें हमारे कैमरामैन ने उतारी। उन दिनों की तस्‍वीरें, जब कुर्तुल जवान थीं और जब अपनी जवानी को उन्‍होंने वीरानी का हमक़दम बनाने का फ़ैसला लिया होगा। प्रमोद सही कहते हैं कि जबकि एक हिंदुस्‍तानी औरत के लिए इस तरह का जीवन मुश्किल है- अपने वक़्त में अविवाहित, अकेली रहीं। उनकी तीस बरस पुरानी दोस्‍त शुग़रा मेहदी, जो हमें वहीं मिल गयी, कैमरे के सामने की गुफ्तगू में हमें बताया कि वे इस मस'ले पर कुछ भी पूछो ख़फ़ा हो जाती थीं। कहती थीं, पूरी दुनिया संग-साथ शादी-ब्‍याह में रची-बसी है, एक मैं ही अकेली हूं तो क़हर क्‍यों बरपा होता है।

अकेले रहना दरअसल अपने साथ होना होता है। अपने साथ होकर आप तबीयत से दुनिया के रहस्‍य सुलझा सकते हैं। उन्‍होंने सुलझाया। आग का दरिया का नीलांबर रामायण-महाभारत के वक्‍त से लेकर आधुनिक वक्‍त तक से संवाद करता है। महफिलों वाला आदमी तो कायदे से अपने वक्‍त से भी संवाद नहीं कर पाता।

ख़ैर दोपहर बाद से लोगबाग आने शुरू हुए। डेड बॉडी भी आयी। टेलीविज़न की ढेरों गाड़‍ियों से निकल कर पत्रकार ई 55 के आगे चहलक़दमी करने लगे। लेकिन तब तक कुर्तुल के नहीं होने की ख़बर का कोई मतलब नहीं रह गया था। देश में दूसरे बड़े डेवलपमेंट टेलीविज़न से पूरा-पूरा वक्‍त की मांग कर रहे थे।

नाइट शिफ्ट के बाद की जगी दुपहरी में आंख का गर्दा परेशान करने लगा। सुपुर्दे-खाक से पहले हमने घर का रुख कर लिया।

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Sunday, August 12, 2007

हंसी के ख़‍िलाफ एक गद्य

वे प्रणय के क्षण हों चाहे न हों, गर्दन पर होंठ जाते ही उनकी हंसी फूट पड़ती है। आप एहसास की पतली चादर को उनकी गर्दन पर लपेटना चाहेंगे और हंस हंस कर वो उसके धागे उधेड़ देगी। खामोश पानी में कंकड़ पड़ने से वृत्त जिस तरह छोटे से बड़ा होता जाता है, ये हंसी भी पहले गुनगुनाहट में और आख़‍िरकार ख‍िलखिला खिलखिला कर निकल पड़ती है। ऐसी हंसी जो प्रणय के आपके काम को अधूरा कर देती है।

हंसी कई बार आपकी पटरी पर चल रही ज़‍िंदगी से क़दमताल करके आपको पीछे छोड़ देती है और मुड़-मुड़ कर देखते हुए आपका मज़ाक़ उड़ाती है। बरसों पहले लंबे समय तक रांची मेडिकल अस्‍पताल में भर्ती रहने के बाद हमारे नानाजी का इंतकाल हो गया। सुबह-सुबह डॉक्‍टरों ने इत्तला की थी। अस्‍पताल में सबने अपने को ज़ब्‍त करके रखा हुआ था, क्‍योंकि सबको मालूम था कि नाना जी नहीं बचेंगे। मैंने अपनी मां के अलावा उस मौक़े पर रोते हुए किसी को नहीं देखा था।

उस वक्‍त हम नवीं कक्षा में थे। अस्‍पताल से घर लौट रहे थे। पैदल ही। महज़ डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी, घर और अस्‍पताल के बीच। या शायद उतनी भी नहीं होगी। हमें तो उन दिनों चलना आता था और खूब चल कर हम खुश होते थे। घर में मामाओं की ग़ैररचनात्‍मक निगहबानियों के बीच घर से बाहर किसी भी डगर पर चलना हमें अच्‍छा लगता था।

घर के पास पहुंचे, तो पड़ोस में रहने वाले एक बुज़ुर्ग शख्‍स ने नाना जी का हाल पूछा। मेरा पूरा चेहरा हंसने लगा और पूरी तरह उस हंसी को दबाने की कोशिश करते हुए बताया- नानाजी गुज़र गये। मैं दुखी था, लेकिन मैं हंस रहा था। क्‍यों हंस रहा था, नहीं मालूम। लेकिन जैसे ही उन पड़ोसी का घर गुज़रा, मैं खुद से ही शर्मसार हो गया।

वो वाक़या अब भी याद आता है, तो शर्म की एक हिलोर से मन दुखी हो जाता है।

दरभंगा में उन दिनों सुबह से शाम-रात तक घर से ग़ायब रहने के दिन थे। शामें अक्‍सर नाटकों के रिहर्सल में बीतती। इप्‍टा के लिए जगदीश चंद्र माथुर के एक नाटक कोणार्क का रिहर्सल हमने बहुत दिनों तक किया। उसका मंचन कभी हो नहीं पाया। और उसकी वजह सिर्फ मैं था। आधे नाटक के बीच नाटक के दो अहम पात्रों का सघन संवाद चलता है। विशु और किशोर कारीगर। विशु शहर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनकी हार्डवेयर की दुकान थी और किशोर कारीगर मैं बना था। संवाद के लंबे-तीखे सिलसिले में एक वक्‍त ऐसा आता है, जब दोनों की आंखें मिलती है। और जैसे ही विशु अपनी गहरी नज़रें किशोर कारीगर की मासूम आंखों में गड़ाता, मेरी हंसी निकल जाती।

फिर भी मुझे महीनों तक मौक़ा दिया गया। और महीनों उस एक सीन के रिहर्सल के दौरान मैं हंस पड़ता था। एक वक्‍त तो ऐसा भी आया कि वो सीन आने से पहले निर्देशक ब्रेक करके बोलते कि अबकी हंसा तो थप्‍पड़ लगेगा। लेकिन तब क्‍या होता कि इधर विशु और कारीगर की आंखें मिली, उधर निर्देशक खुद भी हंसने लगते। विशु भी हंसते। वे सब हंसते, जो रिहर्सल देखते। एक संजीदा दृश्‍य का हश्र हास्‍यास्‍पद हो गया था। आख़‍िरकार वो नाटक हमने कभी नहीं किया। और, ये बात अब तक समझ में नहीं आती है कि उस हंसी के स्रोत क्‍या थे।

कभी कभी रास्‍ते चलते हंसने की इच्‍छा होती है और हम हंसते हैं और इधर-उधर देखते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा है। उस साल पटना के हमारे पांच दोस्‍तों का एनएसडी में दाखिला हुआ था। संयोग से मैं दिल्‍ली में था और अक्‍सर शाम को मंडी हाउस चला जाता था। एक दिन अंधेरा उतरने पर जब मैं लौट रहा था, तो दूर से देखा कि क्रांति आ रही हैं। अपने आप से कुछ बातें करते, निकल पड़ने को बेताब हंसी को दबाने की कोशिश करते। उस वक्‍त वो आलोकधन्‍वा की बीवी थीं और क़ानूनी तौर पर तो आज भी हैं। अब उनका नाम असीमा भट्ट है। तो जैसे ही एनएसडी के दरवाज़े पर हमारी आंखें मिलीं, वो असहज हो गयीं। संक्षेप में हाल-चाल लेने के बाद वो ऐसे भागी कि बाद की कई मुलाक़ातों में असहज होती रहीं।

हंसना आपके हिस्‍से का हक़ है। आप अकेले भी हंसते हैं और सबके साथ भी। हितैषी कहते हैं, हंसो हंसो खूब हंसो। स्‍वस्‍थ प्रसन्‍न रहोगे। कवि कहते हैं, हंसना एक निश्‍छल हंसी, ताकि मानवता निस्‍संकोच राज कर सके। मैं दुविधा में हूं। मैं जब भी हंसता हूं या हंसते हुए किसी को देख लेता हूं- मुझे शर्मसार होना पड़ता है।

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Saturday, August 11, 2007

हम क्‍या लिखे जा रहे हैं...

प्रमोद सिंह की लिखावट में एक खास की किस्‍म की सजावट और तरावट नज़र आती है। वे रोज़ लिखते हैं और खूब लिखते हैं। रोज़ लिखते हुए लगातार अच्‍छा लिखना एक मुश्किल काम है। आपके पास विषयों की इतनी बहुतायतता के स्रोत कहां होते हैं? वही आस-पड़ोस, छुट्टियों में दो-चार मित्रों के घर की दौड़, टीवी-सिनेमा-अख़बार के अलावा अगर आपके अतीत का सफ़र गहन पेचीदगियों से भरा हो, तो संभव है आपके पास कहने को इतनी बातें हों कि लगे इस जनम में संभव नहीं। लेकिन लिखने की मेज़ पर पूरी तरतीब से लगातार लिखना आपको वैसा ही अभिव्‍यक्‍त करे, जैसे आप हैं- ये ज़रूरी नहीं।

कई बार प्रमोद जी के लिखे हुए का तात्‍पर्य समझ में नहीं आता। वो भाषा की कारीगरी ज़्यादा नज़र आता है। चित्रकला, सिनेमा और कुश्‍ती में कारीगरी जितना काम आती है, लेखन में कुछ ऐसी बूंदा-बांदी करती है, जो सड़क और पार्क के बीचोबीच मौजूद सतरंगी फुहारें भले लगे, बारिश की शीतलता वहां नहीं होती। लेकिन प्रमोद फिर भी उसे भाषा का रियाज़ कहते हुए लिखते चलते हैं और सिर्फ ब्‍लॉगिंग के उनके सात म‍हीनों का हिसाब करें तो अपनी संपूर्ण रचनावली का पहला हिस्‍सा तो उन्‍होंने तैयार कर ही लिया है।

गयी सदी के दार्शनिक-लेखक ज्‍यां पाल सार्त्र के लिखने की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही थी। उनके शहर के रेस्‍त्रां और बार में, जहां वे लगभग रोज़ जाते थे, उनके लिए एक कोना हमेशा रिज़र्व होता था, जिस पर बैठ कर वे लिखा करते थे। रोज़ कुछ हज़ार शब्‍दों का लिखा जाना वे एक लेखक के लिए ज़रूरी मानते थे। उनके समकालीन भी उनके लिखे के एक बड़े हिस्‍से को बोझिल और अबूझ मानते थे।

इसलिए कई बार तात्‍पर्य समझ में नहीं आने के बावजूद किसी लेखन का एक तात्‍पर्य होता है। भाषा के रियाज़ के तर्क से अलग ठोस और कन्विंसिंग तर्क। इसलिए ले‍खक की आज़ादी है कि वह अपने हिसाब से हज़ारों पन्‍ने काला करे, लेकिन कालातीत संदर्भों में जितने पन्‍ने नागरिक अपनी आलमारी में रखना चाहेंगे, वही लेखक की पूरी रचनात्‍मक सक्रियता का सार होगा।

किसी भी भाषा की समूची विरासत से पठनीयता का प्रतिशत निकालें, तो अपठनीय और अपठित पन्‍ने उन पर भारी पड़ेंगे। इसका साफ मतलब है कि सार्वजनिक साहित्‍य से अधिक तादाद अभ्‍यास के लेखन की होती है- और ये तादाद जितनी अधिक होती है, सार्वजनिक चिंता-अभिव्‍यक्ति-लेखन-साहित्‍य उतना ही तीखा-पैना-अर्थपूर्ण होता है।

अभय‍ तिवारी प्रमोद सिंह के इलाहाबादी मित्र हैं, और प्रमोद सिंह कहते हैं कि अभय अपने जीवन और लेखन में निश्‍छल है, ईमानदार हैं। अभय जी के लिखे हुए पर प्रमोद जी के निष्‍कर्ष से मुझे और कई सारे लोगों को असहमति हो सकती है, लेकिन ये सच है कि अभय कभी-कभी लिखते हैं, कई बार लगातार लिखते हैं, और कई बार लंबी सांसें, लंबा वक्‍त लेते हैं। लेकिन उनके लेखन में कोई सजावट नज़र नहीं आती है। वे अपनी बात तल्‍खी से कहते हैं, जो उन्‍हें कहना होता है- सीधे सीधे बेलाग। इसलिए उनका फुल स्‍टॉप कॉमा कहां पड़ रहा है, इससे उन्‍हें मतलब नहीं है। शब्‍दों की एकरूपता से भी उन्‍हें कोई लेना देना नहीं है। मतलब है तो बस जब जो बात कहनी है, वह कहा जाए। चाहे तैश में, चाहे अतिशय विनम्रता में, चाहे व्‍य‍ंग्‍य की टेढ़ी-तिरछी अदा में।

मैं बहुत लिखना और बहुत कुछ लिखना चाहते हुए भी लिखने से दूर भागता रहता हूं। शायद इसलिए क्‍योंकि मैं जैसा लिखना चाहता हूं, वैसा मुझे लिखना आता नहीं और जब लिखना चाहता हूं, तब दस बहाने करके ज़‍िंदगी के झमेले मेज़ पर बैठने ही नहीं देते। अब यही मान लिया है कि शायद कभी लिख नहीं पाऊंगा क्‍योंकि अब तक का अपना लिखा मुझे नैसर्गिक कम और बनावटी ज़्यादा लगता है। हमारे सहकर्मी और लेखक प्रियदर्शन कहते हैं कि आप जैसा स्‍वाभाविक रूप से लिख सकते हैं, वैसा ही लिखते हैं और इरादा करके आप मुक्तिबोध की तरह या किसी और लेखक की तरह नहीं लिख सकते। यानी आपके भीतर बेचैनियों का अनंत रूप-रंग होगा, लेकिन वो आपकी शख्‍सीयत के हिसाब से ही बाहर आएगा।

मेरी सनक ये समझने में है कि हम सब जैसा लिख रहे हैं, क्‍या वो हमारी स्‍वाभाविकता का हिस्‍सा है, या हम अपने को ज़बर्दस्‍ती उंड़ेल रहे हैं? ये भी कि क्‍या हम सब वही लिख रहे हैं, जो हमें लिखना चाहिए, या वक्‍त की मांग और पूर्ति के हिसाब-किताब में हमने अपने लेखन की स्‍वाभाविकता को विराम दिया हुआ है? अगर ये दोनों बातें नहीं हैं, तो कतिपय वाह-वाहियों के अलावा हमारे लिखे से कोई स्‍तब्‍ध क्‍यों नहीं है? किसी का जीना हराम क्‍यों नहीं हुआ है? कोई सवालों के थप्‍पड़ लेकर क्‍यों नहीं आता कि आप चैन से जीने देंगे या नहीं? मुल्‍क मरता है तो मर जाने दीजिए, हमें महीने की पगार तो मिल जाती है?

इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में हमारी मदद कीजिए।

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Wednesday, July 18, 2007

चंद्रशेखर, जिन्‍हें मैं जानता हूं...

मुझे नहीं मालूम, मैं चंद्रशेखर को कितना जानता हूं। पर मुझे इतना मालूम है कि एक शख्‍स जितना आपके सामने ज़ाहिर होता है, उससे अलग वो जैसा भी हो, आपके लिए उसका कोई अस्तित्‍व नहीं है।

सन 2002 में जब चंद्रशेखर 75 साल के हुए, उनका लिखा-बोला-कहा सब किताबों की शक्‍ल में छपना तय हुआ। संपादक मंडल में हमारे नाम की मुनादी हरिवंश जी ने कर दी थी और चंद्रशेखर से हमारी मुलाक़ात सिताब-दियारा में पहले ही करवा दी थी। दिसंबर 2001 के आख़ि‍री हफ्ते में हम और हमारी पत्‍नी इसी काम के लिए दिल्‍ली आये।

आईटीओ के पीछे फैले नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर की पार्टी का दफ्तर था, जहां अब कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती थी। वजह जगज़ाहिर है कि तब तक चंद्रशेखर इस मुल्‍क में कोई राजनीतिक ताक़त या केंद्र नहीं रह गये थे। सिवाय इसके कि संसद में उनके विरोधी तेवरों की विश्‍वसनीयता अब भी थी।

नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर से यह दूसरी मुलाक़ात थी। पत्‍नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। उन्‍होंने जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा उन्‍होंने निबाही। हमने बाहर आकर सबसे पहले मुट्ठी खोली। देखा पांच सौ के कुछ नोट हैं। वहीं हमने ये भी तय किया कि इससे कुछ कपड़े ख़रीदेंगे। दिल्‍ली में पहनने के लिए कुछ ख़ास नहीं है।

शाम में हम भोंडसी आश्रम के लिए ओमप्रकाश जी के साथ चले। वे चंद्रशेखर की पार्टी के राष्‍ट्रीय महासचिव थे और इसलिए थे, क्‍योंकि चंद्रशेखर के शुरुआती दिनों के राजनीतिक हमसफर थे। काफी शाम हो गयी थी, लेकिन आश्रम की चौहद्दी समझ में आ गयी। सुबह जल्‍दी उठ गये। पूरे आश्रम का चक्‍कर लगाते लगाते अच्‍छी खासी धूप निकल आयी। पता चला, चंद्रशेखर नाश्‍ते पर हम दोनों का इंतज़ार कर रहे हैं।

नाश्‍ते के दरम्‍यान ही एक जादूगर आया। शायद जादूगर शंकर। उसने कुछ जादू दिखाये। मसलन अचानक हाथ में हरे हरे नोट उगा लिये और हवा के किसी छोर से मिठाइयों का डब्‍बा उड़ा लिया। वहां सब मिल कर इस तमाशे पर हंस रहे थे। अचानक जादूगर ने चंद्रशेखर जी से थोड़ी अलग से गुफ्तगू की गुज़ारिश की। दोनों उठ कर एक किनारे गये और कुछ ही मिनटों बाद लौट कर आ गये। जादूगर के जाने के बाद चंद्रशेखर ने कहा- पद्मश्री की सिफारिश के लिए आया था। ये भी कि इस जादूगर से उनकी पहली मुलाकात ट्रेन के बरसों पुराने किसी सफर में हुई थी।

संयोग से हुई मुलाकात को बरसों बाद एक राजनीतिक सिफारिश में बदलते हुए देखना हमारे लिए अनुभव था। चंद्रशेखर जी के लिए एक सामान्‍य सी बात। उन्‍होंने थाली में रखे संदेश का टुकड़ा उठाया। हमसे भी कहा- खाइए, स्‍वादिष्‍ट है!

ऐसी कुछ और मुलाक़ातें हैं, लेकिन सवाल ये है कि अंतरंग चर्चाओं का आपका संसार आपके अलावा और किनके लिए मानी रखता है ? भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर का कद जब संयोगों के हवाले हो चुका हो कि जब भी तीसरे मोर्चे की चर्चा होती हो और प्रधानमंत्री कौन हो- तब चंदशेखर का नाम उछल-उछल कर आता रहा है। इसकी वजह यही है कि सत्ता की राजनीति के लिए जितनी गरिमा और जितनी चालबाज़‍ियां एक शख्‍सीयत में चाहिए होती है, वो चंद्रशेखर में थी।

हर पार्टी में उनके दोस्‍त थे। ऐसा कहते हैं। ये भी कहते हैं कि इसी दोस्‍ती की वजह से वे लगातार बलिया के सांसद रहे। यानी दूसरी पार्टियां उनके ख़‍िलाफ कमज़ोर उम्‍मीदवारों को वहां से उतारती रहीं ताकि चंद्रशेखर का रास्‍ता साफ रहे। वे संसद में हिंदुत्‍ववादी राजनीति के ख़‍िलाफ बोलते रहते थे और अपनी पत्रिका यंग इंडियन में भी कुछ ऐसा ही लिखते रहते थे। लेकिन निजी रूप से ऐसी पार्टियों के नेताओं से खुलकर दोस्तियां निभाते थे। यानी एक ओर जहां वे अपनी राजनीतिक समझ के लिए सीमारेखाएं तय करते थे, वहीं राजनीतिक संबंध के लिए कोई सीमारेखा नहीं थी। इससे ये भी साफ होता है कि समझदारी की उनकी मुखर अभिव्‍यक्ति भी उनको ये भरोसा नहीं दे पाती थी कि लोग उनकी शर्तों पर उनके साथ रहेंगे।

आख़‍िरी दिनों में वे राजनीतिक रूप से अकेले थे। हालांकि लोग उनके पास आते-जाते रहते थे। ये आना-जाना पुरानी रवायतों का सिलसिला था, और इसके सबसे बड़े हिमायती चंद्रशेखर थे। यह हिमायत तब सबसे अधिक दिखती थी, जब दूसरी पार्टियों में शामिल उनके दोस्‍त घपलों-घोटालों जैसी मुश्किलों में पड़ते थे। जॉर्ज फर्नांडीस जब तहलका कांड में फंसे, तो सबसे पहले चंद्रशेखर ने जाकर ढाढ़स बंधाया था। जब प्रधानमंत्री थे, तब किसी जलसे में धनबाद के कोल माफिया सूरजदेव सिंह के घर गये थे।

नामवर सिंह ऐसी राजनीतिक मित्रताओं को थोड़ा धीरज धर के समझने की गुज़ारिश करते हैं। चंद्रशेखर की मशहूर जेल डायरी की प्रस्‍तावना (आधुनिक मित्रलाभ) में नामवर सिंह लिखते हैं-
अभी कुछ समय पहले जॉक देरिदा की मित्रता की राजनीति (पॉलिटिक्‍स ऑफ फ्रेंडशिप – 1997) नामक पुस्‍तक मेरे हाथ लगी और पढ़ने पर लगा कि मित्रता को एक सामंती मूल्‍य मान कर खार‍िज़ करना जल्‍दबाज़ी होगी।
लेकिन मेरा सिर्फ एक सवाल है कि अगर आप मुल्‍क के नियंता की कुर्सी पर बैठे हैं, तो आपको जनहित में कई तरह की निजताओं को कुर्बान करना होता है। परिवार, जाति और निजी मित्रता के दायरे में आने वाले नागरिकों को व्‍यक्तिगत लाभ पहुंचने पर आम नागरिक सवाल तो उठाएगा ही। ऐसे ही सवाल चंद्रशेखर को जीवन भर परेशान करते रहे। इसके बावजूद उन्‍होंने इन सबसे कभी ऊपर उठने की कोशिश नहीं की।

पुस्‍तक संपादन के दरम्‍यान तस्‍वीरों के चयन के वक्‍त उनके बेटे-बहू मुस्‍तैद थे। साउथ एवेन्‍यू वाले सरकारी मकान पर भाइयों का कब्‍ज़ा था। हम जहां टिके थे, वो प्रीत विहार के सामने न्‍यू राजधानी एनक्‍लेव का एक बड़ा सा अपार्टमेंट था। वहां अपोलो की सहायता से चंद्रशेखर के भतीजे क्‍लीनिक चला रहे थे। वह सब घर की संपत्ति थी और है। अभी हम देखते हैं कि कई कद्दावर राजनेता जब चुनाव के लिए परचा भरते वक्‍त अपनी जायदाद का एलान करते हैं, तो अपने नाम की पासबुक में गिनने लायक पैसा निकलता है- लेकिन रिश्‍तेदारों के पास पर्याप्‍त मात्रा में संपत्ति निकलती है। साफ है कि राजनीतिक सत्ता के लाभ से ये संपत्ति बनती है।

चंद्रशेखर इसके अपवाद नहीं थे। आम इंसान थे। विद्वान थे। राजनीतिक समझ के मामले में अपने समकालीनों से ज्‍यादा तीक्ष्‍ण थे, लेकिन इसका इस्‍तेमाल कभी उन्‍होंने देश की राजनीति को दिशा देने के लिए नहीं किया। वे कर सकते थे। करते, तो शायद उनका कद मुल्‍क के मानस में एक ख़ास जगह पाता।

किताबों के लिए एक बैठक हुई थी। साउथ एवेन्‍यू के उनके मकान में। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्‍हा राव और पूर्व राष्‍ट्रपति आर वेंकट रमण आये थे। इनके अलावा पत्रकार प्रभाष जोशी, रामबहादुर राय, सुरेश शर्मा और हरिवंश थे। नामवर सिंह भी आये थे। और भी बहुतेरे चंद्रशेखर के प्रिय, राजनीति और कारोबार की अपनी अपनी दुनिया में महत्‍वपूर्ण जगहों पर थे। योजना क्‍या बननी थी, सबने चंद्रशेखर के महत्‍व को रेखांकित किया और किताबों की शृंखला कैसे चंद्रशेखर की महानता को साबित कर सके, इस पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर दिया। चंद्रशेखर इस पूरी बैठक में खामोश ही रहे। एकाध वाक्‍य बोला होगा, जो मेरी स्‍मृतियों में अब सिर्फ चंद फुसफुसाहटों के रूप में ही बचे हैं।

चंद्रशेखर की दुनिया में उनसे असहमत लोगों के लिए जगह नहीं थी। यही एक वजह थी, जिसकी वजह से वे अकेले थे। आख़‍िरी समय में भी उनका अकेलापन उनके साथ था। जिस दिन अंत्‍येष्टि थी, हमारे संवाददाता रेलवे स्‍टेशन पर सुबह-सुबह मौजूद थे। बलिया और बनारस से आने वाली गाड़‍ियों से लद कर उनकी अंत्‍येष्टि में शामिल होने के लिए लोगों के आने की सूचना थी। न्‍यूज़ बुलेटिन के रनडाउन में उस दृश्‍य का इंतज़ार हो रहा था। गाड़‍ियां आयीं, लेकिन आम सवारियों से अलग कोई भीड़ नहीं थी। हमें इंतज़ार छोड़ कर आगे की ख़बर पर जाना पड़ा...

...और इस तरह चंद्रशेखर की ख़त्‍म हो चुकी कहानी पर अफ़सोस की एक सफ़ेद चादर चढ़ा देनी पड़ी।

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