मुझे नहीं मालूम, मैं चंद्रशेखर को कितना जानता हूं। पर मुझे इतना मालूम है कि एक शख्स जितना आपके सामने ज़ाहिर होता है, उससे अलग वो जैसा भी हो, आपके लिए उसका कोई अस्तित्व नहीं है।Read More
सन 2002 में जब चंद्रशेखर 75 साल के हुए, उनका लिखा-बोला-कहा सब किताबों की शक्ल में छपना तय हुआ। संपादक मंडल में हमारे नाम की मुनादी हरिवंश जी ने कर दी थी और चंद्रशेखर से हमारी मुलाक़ात सिताब-दियारा में पहले ही करवा दी थी। दिसंबर 2001 के आख़िरी हफ्ते में हम और हमारी पत्नी इसी काम के लिए दिल्ली आये।
आईटीओ के पीछे फैले नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर की पार्टी का दफ्तर था, जहां अब कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती थी। वजह जगज़ाहिर है कि तब तक चंद्रशेखर इस मुल्क में कोई राजनीतिक ताक़त या केंद्र नहीं रह गये थे। सिवाय इसके कि संसद में उनके विरोधी तेवरों की विश्वसनीयता अब भी थी।
नरेंद्र निकेतन में चंद्रशेखर से यह दूसरी मुलाक़ात थी। पत्नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। उन्होंने जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा उन्होंने निबाही। हमने बाहर आकर सबसे पहले मुट्ठी खोली। देखा पांच सौ के कुछ नोट हैं। वहीं हमने ये भी तय किया कि इससे कुछ कपड़े ख़रीदेंगे। दिल्ली में पहनने के लिए कुछ ख़ास नहीं है।
शाम में हम भोंडसी आश्रम के लिए ओमप्रकाश जी के साथ चले। वे चंद्रशेखर की पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव थे और इसलिए थे, क्योंकि चंद्रशेखर के शुरुआती दिनों के राजनीतिक हमसफर थे। काफी शाम हो गयी थी, लेकिन आश्रम की चौहद्दी समझ में आ गयी। सुबह जल्दी उठ गये। पूरे आश्रम का चक्कर लगाते लगाते अच्छी खासी धूप निकल आयी। पता चला, चंद्रशेखर नाश्ते पर हम दोनों का इंतज़ार कर रहे हैं।
नाश्ते के दरम्यान ही एक जादूगर आया। शायद जादूगर शंकर। उसने कुछ जादू दिखाये। मसलन अचानक हाथ में हरे हरे नोट उगा लिये और हवा के किसी छोर से मिठाइयों का डब्बा उड़ा लिया। वहां सब मिल कर इस तमाशे पर हंस रहे थे। अचानक जादूगर ने चंद्रशेखर जी से थोड़ी अलग से गुफ्तगू की गुज़ारिश की। दोनों उठ कर एक किनारे गये और कुछ ही मिनटों बाद लौट कर आ गये। जादूगर के जाने के बाद चंद्रशेखर ने कहा- पद्मश्री की सिफारिश के लिए आया था। ये भी कि इस जादूगर से उनकी पहली मुलाकात ट्रेन के बरसों पुराने किसी सफर में हुई थी।
संयोग से हुई मुलाकात को बरसों बाद एक राजनीतिक सिफारिश में बदलते हुए देखना हमारे लिए अनुभव था। चंद्रशेखर जी के लिए एक सामान्य सी बात। उन्होंने थाली में रखे संदेश का टुकड़ा उठाया। हमसे भी कहा- खाइए, स्वादिष्ट है!
ऐसी कुछ और मुलाक़ातें हैं, लेकिन सवाल ये है कि अंतरंग चर्चाओं का आपका संसार आपके अलावा और किनके लिए मानी रखता है ? भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर का कद जब संयोगों के हवाले हो चुका हो कि जब भी तीसरे मोर्चे की चर्चा होती हो और प्रधानमंत्री कौन हो- तब चंदशेखर का नाम उछल-उछल कर आता रहा है। इसकी वजह यही है कि सत्ता की राजनीति के लिए जितनी गरिमा और जितनी चालबाज़ियां एक शख्सीयत में चाहिए होती है, वो चंद्रशेखर में थी।
हर पार्टी में उनके दोस्त थे। ऐसा कहते हैं। ये भी कहते हैं कि इसी दोस्ती की वजह से वे लगातार बलिया के सांसद रहे। यानी दूसरी पार्टियां उनके ख़िलाफ कमज़ोर उम्मीदवारों को वहां से उतारती रहीं ताकि चंद्रशेखर का रास्ता साफ रहे। वे संसद में हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ बोलते रहते थे और अपनी पत्रिका यंग इंडियन में भी कुछ ऐसा ही लिखते रहते थे। लेकिन निजी रूप से ऐसी पार्टियों के नेताओं से खुलकर दोस्तियां निभाते थे। यानी एक ओर जहां वे अपनी राजनीतिक समझ के लिए सीमारेखाएं तय करते थे, वहीं राजनीतिक संबंध के लिए कोई सीमारेखा नहीं थी। इससे ये भी साफ होता है कि समझदारी की उनकी मुखर अभिव्यक्ति भी उनको ये भरोसा नहीं दे पाती थी कि लोग उनकी शर्तों पर उनके साथ रहेंगे।
आख़िरी दिनों में वे राजनीतिक रूप से अकेले थे। हालांकि लोग उनके पास आते-जाते रहते थे। ये आना-जाना पुरानी रवायतों का सिलसिला था, और इसके सबसे बड़े हिमायती चंद्रशेखर थे। यह हिमायत तब सबसे अधिक दिखती थी, जब दूसरी पार्टियों में शामिल उनके दोस्त घपलों-घोटालों जैसी मुश्किलों में पड़ते थे। जॉर्ज फर्नांडीस जब तहलका कांड में फंसे, तो सबसे पहले चंद्रशेखर ने जाकर ढाढ़स बंधाया था। जब प्रधानमंत्री थे, तब किसी जलसे में धनबाद के कोल माफिया सूरजदेव सिंह के घर गये थे।
नामवर सिंह ऐसी राजनीतिक मित्रताओं को थोड़ा धीरज धर के समझने की गुज़ारिश करते हैं। चंद्रशेखर की मशहूर जेल डायरी की प्रस्तावना (आधुनिक मित्रलाभ) में नामवर सिंह लिखते हैं-अभी कुछ समय पहले जॉक देरिदा की मित्रता की राजनीति (पॉलिटिक्स ऑफ फ्रेंडशिप – 1997) नामक पुस्तक मेरे हाथ लगी और पढ़ने पर लगा कि मित्रता को एक सामंती मूल्य मान कर खारिज़ करना जल्दबाज़ी होगी।लेकिन मेरा सिर्फ एक सवाल है कि अगर आप मुल्क के नियंता की कुर्सी पर बैठे हैं, तो आपको जनहित में कई तरह की निजताओं को कुर्बान करना होता है। परिवार, जाति और निजी मित्रता के दायरे में आने वाले नागरिकों को व्यक्तिगत लाभ पहुंचने पर आम नागरिक सवाल तो उठाएगा ही। ऐसे ही सवाल चंद्रशेखर को जीवन भर परेशान करते रहे। इसके बावजूद उन्होंने इन सबसे कभी ऊपर उठने की कोशिश नहीं की।
पुस्तक संपादन के दरम्यान तस्वीरों के चयन के वक्त उनके बेटे-बहू मुस्तैद थे। साउथ एवेन्यू वाले सरकारी मकान पर भाइयों का कब्ज़ा था। हम जहां टिके थे, वो प्रीत विहार के सामने न्यू राजधानी एनक्लेव का एक बड़ा सा अपार्टमेंट था। वहां अपोलो की सहायता से चंद्रशेखर के भतीजे क्लीनिक चला रहे थे। वह सब घर की संपत्ति थी और है। अभी हम देखते हैं कि कई कद्दावर राजनेता जब चुनाव के लिए परचा भरते वक्त अपनी जायदाद का एलान करते हैं, तो अपने नाम की पासबुक में गिनने लायक पैसा निकलता है- लेकिन रिश्तेदारों के पास पर्याप्त मात्रा में संपत्ति निकलती है। साफ है कि राजनीतिक सत्ता के लाभ से ये संपत्ति बनती है।
चंद्रशेखर इसके अपवाद नहीं थे। आम इंसान थे। विद्वान थे। राजनीतिक समझ के मामले में अपने समकालीनों से ज्यादा तीक्ष्ण थे, लेकिन इसका इस्तेमाल कभी उन्होंने देश की राजनीति को दिशा देने के लिए नहीं किया। वे कर सकते थे। करते, तो शायद उनका कद मुल्क के मानस में एक ख़ास जगह पाता।
किताबों के लिए एक बैठक हुई थी। साउथ एवेन्यू के उनके मकान में। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकट रमण आये थे। इनके अलावा पत्रकार प्रभाष जोशी, रामबहादुर राय, सुरेश शर्मा और हरिवंश थे। नामवर सिंह भी आये थे। और भी बहुतेरे चंद्रशेखर के प्रिय, राजनीति और कारोबार की अपनी अपनी दुनिया में महत्वपूर्ण जगहों पर थे। योजना क्या बननी थी, सबने चंद्रशेखर के महत्व को रेखांकित किया और किताबों की शृंखला कैसे चंद्रशेखर की महानता को साबित कर सके, इस पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर दिया। चंद्रशेखर इस पूरी बैठक में खामोश ही रहे। एकाध वाक्य बोला होगा, जो मेरी स्मृतियों में अब सिर्फ चंद फुसफुसाहटों के रूप में ही बचे हैं।
चंद्रशेखर की दुनिया में उनसे असहमत लोगों के लिए जगह नहीं थी। यही एक वजह थी, जिसकी वजह से वे अकेले थे। आख़िरी समय में भी उनका अकेलापन उनके साथ था। जिस दिन अंत्येष्टि थी, हमारे संवाददाता रेलवे स्टेशन पर सुबह-सुबह मौजूद थे। बलिया और बनारस से आने वाली गाड़ियों से लद कर उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए लोगों के आने की सूचना थी। न्यूज़ बुलेटिन के रनडाउन में उस दृश्य का इंतज़ार हो रहा था। गाड़ियां आयीं, लेकिन आम सवारियों से अलग कोई भीड़ नहीं थी। हमें इंतज़ार छोड़ कर आगे की ख़बर पर जाना पड़ा...
...और इस तरह चंद्रशेखर की ख़त्म हो चुकी कहानी पर अफ़सोस की एक सफ़ेद चादर चढ़ा देनी पड़ी।
Wednesday, July 18, 2007
चंद्रशेखर, जिन्हें मैं जानता हूं...
Posted by Avinash Das at 3:27 AM 2 comments
Labels: कभी कभी की मुलाक़ात
Thursday, July 12, 2007
युवा कवि सम्मान समारोह
वे कुछ लोग जो इस बात से गदगद थे
कि उनकी भाषा में अब चिड़ियों का चहचहाना बंद हो गया है
और नयी राजनीतिक बयार
और बाज़ार का विध्वंस दिखने लगा है
वे कुछ लोग जो गिनती में पांच थे मंच पर बैठे थे
एक युवा कवि पुरस्कृत हो रहा था
ये वो दौर था जब पुरस्कृत होने के लिए
अधेड़ और उम्रदराज़ होने की ज़रूरत नहीं होती थी
शब्द को साधने के शुरुआती दिनों में ही
साधकों की जमात में जगह मिल जाती थी
दर्शक दीर्घा में भी थे पचास-साठ
अपनी भाषा की नयी आहट सुनते हुए उनमें से कइयों को
इस बात का एहसास था
कि वे सब एक ऐतिहासिक घड़ी के साक्षी हैं
ऐसी घड़ियां आमतौर पर दिल्ली में ही आती-जाती हैं
हमारे दरभंगा में तो तब भी ये नहीं आयी
जब बाबा नागार्जुन
पंडासराय के सीलन भरे दो कमरोंवाले किराये के घर में
साल में दो-तीन बार आकर महीनों-महीनों ठहरते थे
ऐतिहासिक सभा में सब बोले
सबने कहा- हिंदी की जय
कइयों की आंखें भींगी कुछ के हाथों ने उंगलियां चटकायीं
सबसे आख़िर में अध्यक्ष की बारी आयी
कम किताबें ज़्यादा शोहरत वाले अध्यक्ष को
काफी तारीफ़ों के साथ बुलाया गया
परसाई कहते थे-
ज़िंदगी में दो मौक़ों पर आदमी सबसे अधिक कातर होता है
पहली बार प्रणय निवेदन करते वक्त
और दूसरी बार अगर आदमी शरीफ़ हुआ
तो अपनी तारीफ सुनते वक़्त
यह एक उद्धरण था, जिसे सुना कर
शराफ़त दिखाते हुए अध्यक्ष ने अपनी तारीफ़ किनारे रखने की कोशिश की
और युवा कविता पर न छोटा न बड़ा लेकिन असरदार बयान दिया
बाहर उमस से भरी दिल्ली को बारिश भिंगो रही थी
मंडी हाउस में इंतज़ार की चाय ठंडी हो रही थी
मुल्क इधर से उधर हो रहा था
हम गदगद हो रहे थे
गो कि गदगद वे लोग ही नहीं हो रहे थे
जो अपनी भाषा के नये-तीखे वाक़ये को मंच से बयान कर रहे थे
बीसवीं सदी के पहले दशक के सातवें साल में
जो इतिहास इस सम्मान समारोह में बन रहा था
सुना है कि कुछ ऐसा ही इतिहास पिछले साल भी बना था
और उसके पिछले साल भी
और पिछले के पिछले साल भी
इस तरह भाषा में अनोखे और अनोखे भाष्य का ये ऐतिहासिक सिलसिला
पिछली सदी के सन अस्सी के दशक से जारी है
जब पहली बार किसी युवा कवि को पुरस्कृत किया गया था
घर पहुंच कर इतिहास के इस कर्ज़ को
हमने पड़ोस में जाकर उतारना चाहा
- क्या आप अरुण कमल को जानते हैं?
- आप भी कमाल करते हैं भाई
आप तो जानते ही हैं
पार्टी-पॉलटिक्स से हमको मतलब नईं
सिन्हा साहब से पूछिए
उन्हें ज़रूर पता होगा
कोई काम होगा, वे थोड़ा ले-देकर ज्यादा करवा देंगे
कोई सिन्हा साहब किसी अरुण कमल को नहीं जानते!
कोई खन्ना साहब किसी हिंदी को नहीं जानते!
ये जानते हैं इन दिनों इस मुल्क में एक दर्जन हड़तालें चल रही हैं
राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है
यूपी में मायावती सरकार अच्छा काम कर रही है
और दो हज़ार दस तक दिल्ली की सभी रूटों में
मेट्रो रेल दौड़ने लगेगी
सम्मान समारोह धन्यवाद ज्ञापन के साथ ख़त्म हुआ
और हमारी भाषा का जादू भी सभागार की सीढ़ियों से
ससरते हुए दीन दयाल उपाध्याय मार्ग की सड़क पर जमे
बरसाती पानी में घुल गया
वहीं किनारे खड़े होकर एक युवा कवि
इस हॉल को हसरत से देख रहा था!
Posted by Avinash Das at 8:46 PM 8 comments
Labels: कविता की कोशिश