उसका नाम कुछ भी नहीं था। बस एक एहसास ही था उसके आसपास से गुज़रना, बोलने-बतियाने का ज़रा-ज़रा सा बहाना ढूंढ़ना। वो पहली दीवानगी थी, जो अपमान और शर्म की थोड़ी-थोड़ी रेत मुट्ठी में थमाती रही। कभी कहती- आओ, कभी कहती- मत आना कभी। हम थे कि वक्त से पहले पहुंच जाते और ख़ाली क्लास रूम के बीचोबीच बेंच पर बैठ कर बाट जोहते।Read More
वो हमेशा आती। सहेलियों को समेटे। चप्पल और जूतों की टकराहटों में चुप आंखों के साथ। हमने कई बार सादे काग़ज़ पर रंगीन क़लम से मोहब्बत का इज़हारनामा लिख कर भेजा। उसने हर बार तोड़ मोड़ कर हमारे बस्ते में वापिस कर दिया। ये लंबा सिलसिला था, जो सब जान गये। छोटी कक्षा के बच्चे तक। आख़िरी इम्तहान तक वो चुप रही और मैं इकतरफा शोर मचाता रहा।
हम बाद में एकाध बार मिले। मिले नहीं, बस आमने सामने हुए। उसकी कालोनी के चक्कर काटते हुए कई दोपहरें ख़त्म हुईं, उसने कुछ नहीं कहा। औरतों के दिल होते होंगे, उसके नहीं थे। होता, तो पसीजता और अपनी कालोनी के उस टीले पर उसे ले आता, जो दोपहर में गर्म हो जाता था और वहीं बैठ कर हम उसके पीले मकान की तरफ देखते रहते थे। वो जानती थी, पर कभी नहीं झांकती थी।
अब वो दिल्ली के किसी हिस्से में रहती है। स्वामी-बच्चों का सुखी परिवार है। स्कूल में साथ पढ़ने वाली एक दोस्त ने बताया था। कोई पांच-छह साल पहले। अचानक हुई एक मुलाक़ात में। ये कहा कि बीच-बीच में फोन आता है। एक बार तुम्हारा भी ज़िक्र आया था। पर वो ज़िक्र ऐसा ही था- कितना पागल था रे।
सचमुच पागल था। दसवीं के एक साल में एक भी दिन नागा नहीं। हर दिन नहा कर जाना। बस्ते में किताबों के बीच कंघी रखना। बीच क्लास में सबकी नज़र बचाकर बाल संवार लेना। दोस्तों के तानों को दिल पे लेना और भिड़ जाना। सब पागलपन ही तो था!
अब भी रांची जाता हूं, तो उस मोड़ पर चेहरा घूम जाता है, जहां उसकी कालोनी थी। स्कूल की गली से यूं ही गुज़रता हूं, तो दीवारों पर नज़र जाती है। बाद के बच्चों ने खुरच डाला है- ए+एस। बदमाश कहीं के। जो जोड़ी बनी नहीं, उसे यहां दीवार पर उकेर दिया। स्कूल भी दलिद्दर। दीवार वैसी की वैसी है। शर्मा सर की भी नजर पड़ती होगी और दास मैडम, तोमर मैडम भी देखती होंगी। जाने क्या सोचते होंगे सब।
मैं तो अब सोच भी नहीं पाता। नाम पहले भी नहीं था। अब चेहरा भी धुंधला पड़ता जा रहा है। बरसों बाद एक गीत ने आंखों के सामने वे दिन लाकर खड़े कर दिये... गुंचा कोई मेरे नाम कर दिया, साक़ी ने फिर से मेरा जाम भर दिया... वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया... आइए सुनें...
Sunday, October 28, 2007
वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया
Posted by Avinash Das at 10:24 PM 10 comments
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
Saturday, October 6, 2007
पानी
अब पीया नहीं जाता पानीRead More
मन बेमन रह जाता है
प्यास बाक़ी
आत्मा अतृप्त
सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज
सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी
दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था
गर्मी में घर लौटना अच्छा लगता था
बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना
दो घूंट गले में डाल कर फिर बिस्तर पर लेटना
किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना
हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी
आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत
मौसम बदल रहा है
ठंडा पानी पीया नहीं जाता
कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं
ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्यास धक्का देकर कहीं भाग जाती है
कैसे लोग होते हैं वे
जिनकी प्यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!
सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहां से मंगवाता है!
क्या दिल्ली में मिलता है पानी!
यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही कांपते होंगे
सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी
थक कर प्यास से बेकल घर पहुंच कर भी
पानी भरा हुआ गिलास मेरी हथेलियों के बीच फंसा है
बहुत ठंडा है बहुत गर्म
हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं
नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं
बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुंह चुराना चाहते हैं
सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ पचास पैसे में
एक के सिक्के में दो गिलास
पर इसमें मिट्टी की बास आती है
गले में खुश्की जम जाती है
मुझे रुलाई आती है
मुझे ज़ोर की प्यास सताती है!
Posted by Avinash Das at 9:46 AM 7 comments
Labels: कविता की कोशिश
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