Saturday, October 6, 2007

पानी

अब पीया नहीं जाता पानी
मन बेमन रह जाता है
प्‍यास बाक़ी
आत्‍मा अतृप्‍त

सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज
सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी
दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था

गर्मी में घर लौटना अच्‍छा लगता था
बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना
दो घूंट गले में डाल कर फिर बिस्‍तर पर लेटना
किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना

हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी
आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत

मौसम बदल रहा है
ठंडा पानी पीया नहीं जाता
कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं
ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्‍यास धक्‍का देकर कहीं भाग जाती है

कैसे लोग होते हैं वे
जिनकी प्‍यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!
सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहां से मंगवाता है!
क्‍या दिल्‍ली में मिलता है पानी!
यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही कांपते होंगे

सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी

थक कर प्‍यास से बेकल घर पहुंच कर भी
पानी भरा हुआ गिलास मेरी ह‍थेलियों के बीच फंसा है
बहुत ठंडा है बहुत गर्म

हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं
नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं
बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुंह चुराना चाहते हैं

सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ पचास पैसे में
एक के सिक्‍के में दो गिलास

पर इसमें मिट्टी की बास आती है
गले में खुश्‍की जम जाती है
मुझे रुलाई आती है
मुझे ज़ोर की प्‍यास सताती है!

7 comments:

अजित वडनेरकर said...

प्यास की ऎसी अभिव्यक्ति पहली बार सामने आयी. बधाई बंधु,. सुंदर कविता के लिए धन्यवाद

Bhupen said...

हमारी बदलती लाइफ स्टाइल और उसमें बाज़ार की घुसपैठ पर बहुत ही शूक्ष्म कमेंट है.

सुबोध said...

मुझे तो प्यास के बहाने दिल्ली की बेस्वाद जिंदगी की एहसास हो गया...

Unknown said...

कविता के शुरु से अंत तक ना जाने क्यों मटका याद आता रहा....उसके पानी से प्यास हमेशा बुझ जाती थी।

PD said...

भैया, ये तो आप भी जानते हैं की यही जीवन का सत्य है.. जैसे जैसे हम आपने सपनों के पीछे भागते हुये आगे बढते हैं, वैसे वैसे ही इस तरह की साधारन बाते हमें पीछे छोड़ती नजर आती है..

Anonymous said...

abhi abhi "Pani" ko pdha ek bar main hi ek esi pyas jaga gai ki kya likhun kavita par kuch kehne ki hesiyat meri nahi bas man ko rok nahi paya apni bath kehne se, sach hai ki aaj kal khan mil pata hai zarurat bhar tanda pani.

डाॅ रामजी गिरि said...

"ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये
प्‍यास धक्‍का देकर कहीं भाग जाती है"

आधुनिकता की उमस में आपकी ना बुझनेवाली प्यास की व्यथा से रूबरू हुआ .. आज-कल के सच की खूबसूरत बयानी की है आपने.