हमारे गांव के किनारे से एक नदी बहती है। बागमती। कई बार हमने उसके ओर-छोर की खोज की और ज्यादा से ज्यादा एक बांध के ओर-छोर को ही जान पाये। नदी किनारे एक मंदिर और डोम के दो-चार घर की याद है। एक डोमिन थी, जो बांस के सामान घर में दे जाती थी। उसका चेहरा हमारी मां से मिलता था। एक बार बाढ़ की रिपोर्टिंग करने पटना से गांव गया, तो डोमिन एक तंबू तान कर बांध पर रह रही थी। हम शहर के स्टूडियो से भाड़े का कैमरामैन लेकर पहुंचे थे। उस डोमिन की तस्वीर अख़बार में छपी, जिसे शायद वह नहीं देख पायी होगी। अख़बार का सर्कुलेशन उतना नहीं था, जो बाढ़ विस्थापितों से भरे बांध तक पहुंच पाता।
सावन में बाढ़ आती थी। सावन में ही कांवरियों की टोली बाबाधाम के लिए निकलती थी और फूल गये पांव में पट्टी बांध कर लौटती थी। हमारे घर चिउड़ा, इलायची दाना और पेड़े का एक टुकड़ा आता था। साथ में केसरिया रंग की बद्धी भी आती थी, जिसे गले में लटकाये हमारा बचपन बीता है। प्रगतिशीलता की ऐसी पहली बयार कभी नहीं बही कि हम उसे उठा कर खिड़की के बाहर फेंकते।
सन 99 के सावन में मेरी मां मरी। बांध के पार बाढ़ थी, इसलिए हमारी आम गाछी में उसे जलाया गया। एक पेड़ को काटकर चिता बनायी गयी। मेरा हाथ पकड़कर उस चिता में चारों दिशाओं से किसी आग दिलवायी और वो धू-धू करके जल उठी। कई लोग सावन में मरते हैं और सुना है जलाने के लिए लकड़ी नहीं मिलती। मिल भी जाती है, तो जलने में मुश्किल होती है। रिवाज ये है कि जब तक चिता पूरी न जले, कठिहारी (हमारे यहां का शब्द है लाश के साथ श्मशान गये लोगों के लिए) में गये लोग वापिस नहीं लौटते।
सावन में हमने कम लोगों को सुखी देखा है। एक बार गांव के अपने दोस्त भाई के साथ किसी बीयर बार में शाम बिता कर हम शहर में ख़ूब भीगे और सखी-सहेलियों के बारे में बातें करते रह गये। शहर से गांव पैदल लौटे। वो बेहतर गवैया है और होली में उसके रहने से गांव में रौनक रहती है। वो पिछले कई सालों से गांव जा रहा है और मैं पिछले कई सालों से गांव नहीं गया हूं। आजकल वो आईसीआईसीआई बैंक के लखनऊ ब्रांच में अफसर है और उसने कार भी ख़रीद ली है। मेरी ही तरह फैल गया है और कोई बता रहा था, इस साल जो होली बीती, उसमें वह अपनी कार से गांव गया था।
मैथिली के एक नाटककार हैं महेंद्र मलंगिया। उनका एक नाटक है - ओकरा आंगनक बारहमासा। बारह महीने के दुखी-दारुण जीवन की दिल को बेधने वाली कारुणिक कथा है। उसमें सावन का एक रुलाने वाला राग है। वरना सावन के सुख में भीगे गीतों को ही हम जानते हैं। सावन में ही कजरी गायी जाती है और अक्सर विरह के सुर में होती है। हम ज़िंदगी की बेहतरीन सुबहों में अपनी बुआओं से कजरी सुनते आये हैं। बाद में रेडियो स्टेशन से कजरी के कई अंदाज़ हमारे हिस्से आये। पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी की आवाज़ में कजरी सुनी। शुभा मुदगल और शोभा गुर्टू ने भी कजरी गायी हैं।
लेकिन जो कजरी हमने छन्नूलाल मिश्रा की आवाज़ में सुनी है, उसका कोई जवाब नहीं है। बनारसी फकीरी वाली आवाज़। गंगाघाटों पर आवारा उड़ते हुए कुछ खोजती-सी। पान की खस-खस से भरी हुई। दीवाना बनाने के लिए सबसे निर्गुण आवाज़। ऐसी आवाज़ इस धरती पर अकेली है। सुनिए, उनकी आवाज़ में ये बेमिसाल बनारसी कजरी,
थी वो शहनाई, जिसकी मूठ पर दो पतली पत्तियां पसीने की तरह चमकती थी। हमारे बरामदे पर दो छरहरी काली देह वाले ग़रीब आदमी के होठों में सटकर उससे जो धुन निकलती थी, उसने हमारी ज़िंदगी की लय तैयार की है। बुआओं के ब्याह के वक्त तक हमारे पांव मिट्टी पर नंगे ही रहते थे, तब से हम इससे निकलने वाली धुन के दीवाने हैं। आख़िरी बार चाचा के ब्याह में बजी थी शहनाई, उसके बाद गांव ही छूट गया। मां ने उस ब्याह में बड़े शौक से बैंड पार्टी बुलायी थी। चाचा को बेटे जैसा पाला था न, इसलिए। बैंड वालों और शहनाई के ग़रीब कारीगरों की जुगलबंदी जमी नहीं। उदास मन से दो पतली काया अपनी अपनी शहनाई लेकर विदा हो गयी। कलाकार सिरचन की तरह, जिसके मन को फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी में ठेस लग गयी।
बीती सदी में मां गुज़र गयी। इस सदी में शहनाई के उस्ताद। पिछले सात सालों में एक बार ही गांव गया। लाल दीदी के ब्याह में, लेकिन शहनाई नहीं बजी। बाद में शादी भी टूट गयी। दर्द के अपने किस्से होते हैं- उसको बहुत बांटा जाए, ये तहज़ीब को मंज़ूर नहीं। हमने तो शहरों में ये भी देखा है कि आगे आगे शव के साथ निर्गुण नारे लगाता काफिला चलता है और पीछे-पीछे शहनाई बजती है। एक ऐसा वाद्य और उसकी धुन, जो उदासी के बादल भी समेटती है और उत्सव का राग-रंग भी।
वो ज़माना भी आया, जब लाउडस्पीकर वाले से हम नयी फिल्म के कैसेट के बारे में पूछते थे। वो हमारे मन से शाम तक तो यही सब बजाता था, लेकिन जैसे ही मर्करी की झक उजली रोशनी से मड़बा (मंडप) जगमग करने लगता, वो शहनाई के कैसेट बजा कर कमरे में ताला लगा देता और छत की मुंडेर पर खड़े होकर बाराती के लगने का इंतज़ार करने लगता। हमारी फरमाईश बाद में जाती रही और बहनों की शादी में हमने शहनाई बजवायी।
अच्छी धुनों से सजा-संवरा बचपन ऐसे ही फरमाईशों की बाज़ारू ज़िद से कन्नी काटता है।
उस्ताद बिस्मिल्ला खान से कभी मिला नहीं, लेकिन उनके बेहतरीन इंटरव्यू जहां-तहां पढ़े। पढ़ कर दीवाने हुए और ऑडियो सुन-सुन कर तो और भी। बनारस की मस्ती और कबीर का फक्कड़ अंदाज़ उनकी अदा रही और साज़ और आवाज़ की बिगड़ी हुई लय वाली नये संगीतकारों की जमात पर वे अक्सर उसी अदा में फिकरे कसते रहे। जलतरंग के बाद एक शहनाई ही इस कस्बाई शहराती को अपनी ओर खींचती रही, इसलिए जब-तब हम अच्छी धुनों की खोज में भटकते भी रहे हैं।
शहनाई की एक ऐसी धुन से आज हम आपका तआरुफ़ करवाते हैं, जो विवाह के वक्त बजायी जाती है। इसमें चैती की लय है और कलाकार बिस्मिल्ला के सिवा और कौन हो सकते हैं। तो करते हैं बिस्मिल्ला।