थी वो शहनाई, जिसकी मूठ पर दो पतली पत्तियां पसीने की तरह चमकती थी। हमारे बरामदे पर दो छरहरी काली देह वाले ग़रीब आदमी के होठों में सटकर उससे जो धुन निकलती थी, उसने हमारी ज़िंदगी की लय तैयार की है। बुआओं के ब्याह के वक्त तक हमारे पांव मिट्टी पर नंगे ही रहते थे, तब से हम इससे निकलने वाली धुन के दीवाने हैं। आख़िरी बार चाचा के ब्याह में बजी थी शहनाई, उसके बाद गांव ही छूट गया। मां ने उस ब्याह में बड़े शौक से बैंड पार्टी बुलायी थी। चाचा को बेटे जैसा पाला था न, इसलिए। बैंड वालों और शहनाई के ग़रीब कारीगरों की जुगलबंदी जमी नहीं। उदास मन से दो पतली काया अपनी अपनी शहनाई लेकर विदा हो गयी। कलाकार सिरचन की तरह, जिसके मन को फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी में ठेस लग गयी।
बीती सदी में मां गुज़र गयी। इस सदी में शहनाई के उस्ताद। पिछले सात सालों में एक बार ही गांव गया। लाल दीदी के ब्याह में, लेकिन शहनाई नहीं बजी। बाद में शादी भी टूट गयी। दर्द के अपने किस्से होते हैं- उसको बहुत बांटा जाए, ये तहज़ीब को मंज़ूर नहीं। हमने तो शहरों में ये भी देखा है कि आगे आगे शव के साथ निर्गुण नारे लगाता काफिला चलता है और पीछे-पीछे शहनाई बजती है। एक ऐसा वाद्य और उसकी धुन, जो उदासी के बादल भी समेटती है और उत्सव का राग-रंग भी।
वो ज़माना भी आया, जब लाउडस्पीकर वाले से हम नयी फिल्म के कैसेट के बारे में पूछते थे। वो हमारे मन से शाम तक तो यही सब बजाता था, लेकिन जैसे ही मर्करी की झक उजली रोशनी से मड़बा (मंडप) जगमग करने लगता, वो शहनाई के कैसेट बजा कर कमरे में ताला लगा देता और छत की मुंडेर पर खड़े होकर बाराती के लगने का इंतज़ार करने लगता। हमारी फरमाईश बाद में जाती रही और बहनों की शादी में हमने शहनाई बजवायी।
अच्छी धुनों से सजा-संवरा बचपन ऐसे ही फरमाईशों की बाज़ारू ज़िद से कन्नी काटता है।
उस्ताद बिस्मिल्ला खान से कभी मिला नहीं, लेकिन उनके बेहतरीन इंटरव्यू जहां-तहां पढ़े। पढ़ कर दीवाने हुए और ऑडियो सुन-सुन कर तो और भी। बनारस की मस्ती और कबीर का फक्कड़ अंदाज़ उनकी अदा रही और साज़ और आवाज़ की बिगड़ी हुई लय वाली नये संगीतकारों की जमात पर वे अक्सर उसी अदा में फिकरे कसते रहे। जलतरंग के बाद एक शहनाई ही इस कस्बाई शहराती को अपनी ओर खींचती रही, इसलिए जब-तब हम अच्छी धुनों की खोज में भटकते भी रहे हैं।
शहनाई की एक ऐसी धुन से आज हम आपका तआरुफ़ करवाते हैं, जो विवाह के वक्त बजायी जाती है। इसमें चैती की लय है और कलाकार बिस्मिल्ला के सिवा और कौन हो सकते हैं। तो करते हैं बिस्मिल्ला।
Saturday, December 15, 2007
शहनाई के सुर में वे दिन!
Posted by Avinash Das at 10:45 AM
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
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3 comments:
मस्त हो गये भाई
jaade me en sab baato ki yaad jyada aati hai, mujhe bhi, kabhi gaon me rahna nahi hua lekin tab sahar me bhi yae saari cheese mauzood thi.
अपने संस्मरणों के साथ बढिया प्रस्तुति
दीपक भारतदीप
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