Thursday, January 3, 2008

वो काग़ज़ की कश्‍ती वो बारिश का पानी!

नौजवानी में एक अजीब सी गुन-धुन होती है। आप आवारा हैं और मां-बाप का आप पर बस नहीं, तो आप या तो कुछ नहीं बनना चाहते या सब कुछ बन जाना चाहते हैं। जैसे एक वक्त था, जब मुझे लगता था कि मैं भारतीय सिनेमा का एक ज़रूरी हिस्सा बनूं। ठीक-ठीक ऐसा ही ख़याल नहीं होगा। ख़याल ये होगा कि या तो बड़ा अभिनेता बनूं या बड़ा निर्देशक। मुकेश की मोटी जिल्दवाली किताबें देख कर नाक से गाने वाले दिनों में ये भी ख़याल रहा होगा कि गायक ही बन जाऊं। जो चीज़ें हमें बांधती थीं, वो सब हम होना चाहते हैं।

भारतीय समाज की फूटती हुई कोंपलों के ये ख़याल बताते हैं कि सिनेमा का उस पर कितना गहरा असर है। ये असर रंगों-रोशनियों का है, जो आमतौर पर हमारे समाज से अब भी ग़ायब हैं। गांवों में अगर बिजली गयी है, तो अब भी बहुत कम रहती है। देश के बड़े शहरों के अलावा जो बचे हुए शहर और कस्बे हैं, वहां तो पूरे-पूरे दिन और पूरी-पूरी रात बिजली होती ही नहीं।

वो दिन थे, जब चंदा जुटाया जाता था। हर घर से पांच-पांच रुपये की रक़म बंधती थी। साठ रुपये हो जाते थे, तो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और तीन सिनेमा के कैसेट आते थे। सत्तर रुपये में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी रंगीन हो जाती थी। बैटरी ज़रूरी था। फिर जगमगाते बलखाते सीन के बीच बिना पलक झपके रतजगा होता था। ये रतजगा हममें से कइयों के बचपन का हिस्सा रहा होगा और अब हमारी स्मृतियों की सबसे बारीक, मुलायम परत पर वो रतजगा मौजूद है।

बचपन की फिल्मों के नाम नहीं होते। वे सिर्फ जादू होते हैं। हर नया सिनेमा तब एक वाक़या होता था। उन वाक़यों से हमारी मुठभेड़ हमें पैसे चुराने का साहस देती थी। हम पैसे चुरा कर फिल्में देखते थे और मार खाते थे और फिर फिल्में देखते थे। सिनेमा देखने जैसे नैतिक असमंजस ने कभी हमारे मनोबल को नहीं गिराया। इसके बावजूद नहीं, जब आठवीं की तिमाही परीक्षा में सात विषयों के अंक लाल घेरे में रंग कर सामने रख दिये गये।

उन दिनों, जब हमारी मासूम आंखें परदे को पूरा-पूरा देख भी नहीं पाती होंगी, बाबूजी पांच बहनों और तीन बेटियों के अपने परिवार को गंगाधाम दिखाने ले गये थे। दरभंगा के सोसाइटी सिनेमा हॉल में तब लोकभाषाओं की फिल्में लगती थीं। क्या देख पाये, क्या नहीं, अब याद नहीं। इतना ही याद है कि गांव में उसके बाद जहां कही चार लोगों के बीच मैं फंसता और वे मुझे गाना सुनाने को कहते, तो मैं सुनाता था- मोर भंगिया के मनाय दs हो भोले नाथ, मोर भंगिया के मनाय दs। इसके बाद थोड़ी मूढ़ी (फरही) देकर सब मुझे भगा देते थे।

गांव में नये पहुना का मान तब तक नहीं होता था, जब तक वे ससुराल के नौनिहालों के साथ बैठकर सिनेमा हॉल में कैम्पाकोला की पार्टी नहीं देते थे। ऐसी टोलियों में जाकर हमने मासूम देखी, सदा सुहागन देखी। नाम याद रखने लायक होश में आने से पहले देखी हुई फिल्मों के नाम ज़ेहन में नहीं हैं। चंद रोशनियों की खुदबुदाहट है, जो अब भी कभी-कभी अवचेतन में चमक उठती है।

हमारी बहनों का हीरो जीतेंद्र था। लिहाजा हम भी जीतेंद्र को अपना हीरो मानते थे। जबकि वे जीतेंद्र के ढलते हुए दिन थे। अमिताभ बच्चन कांग्रेस की राजनीति में उलझे हुए थे। डिस्को डांसर के बाद मिथुन चक्रवर्ती शबाब पर थे और गोविंदा का जलवा अब आने ही वाला था। आप सोचिए, भारतीय सिनेमा के इन चंचल चितेरों ने हमारी किशोर दुनिया को किस कदर बेचैन कर दिया होगा। हम नाचना चाहते थे। चीखना-चिल्लाना चाहते थे। लेकिन घर की धीर-गंभीर दीवारें आंखें तरेर कर देखती थीं। हम सहम कर कोर्स की किताबें ढूंढ़ने लग जाते थे।

लेकिन फिर भी अगला सिनेमा देखने के लिए सेंध मारने की तैयारी में जुट जाते थे।

11 comments:

PD said...

पता नहीं क्यों पहली बार आपके ब्लौग पर ऐसा लगा की कहीं कुछ अधूरा छूटा गया है.. शायद ये किस्सा अभी पूरा नही हुआ है.. आगे के इंतजार में हूँ..

Anonymous said...

हां बाबू, यह उन हसरतों की तरह ही अधूरा अधूरा है। वैसे ये हिंदी टॉकीज डॉट कॉम के लिए मुझे हर हफ्ते लिखना था। पहला पीस लिख कर भेजा और इसी किस्‍से को अनंत काल तक के लिए जारी रखने की योजना बनायी थी। लेकिन मुंबई वाले दोस्‍तों ने हिंदी टॉकीज की ही योजना फिलहाल स्थगित कर दी है। तो सोचा दिल्‍ली दरभंगा पर ही कुछ लिखते रहें। क्‍योंकि बात तो शुरू हो चुकी है। इसलिए चिंता मत करो, सिनेमा और हसरतों से जुड़ी ‍स्‍मृतियों की अनुगूंजें जारी रहेंगी।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

नियमित स्तँभ लिखनेवाले पर, पर बहुत बडा सामाजिक साँस्कृतिक और भविष्य के प्रति सजगता - का उत्तरदायित्व रहता है -
आप उसे निभा रहे हैँ उस बात की खुशी है --
२००८ मेँ और भी अच्छा लेखन करेँ ये शुभ कामना है
-- स स्नेह, सादर,
-- लावण्या

Dipti said...

फ़िल्में देखने का ये मज़ा मुझे कभी नसीब नहीं हुआ। भोपाल ऐसा कुछ गणपति स्थापना के वक़्त होता था। बड़ा-सा पर्दा लगता था। एक तरफ से लाल दिखता था, एक तरफ से नीला। मैं भी दिन भर बड़े जोश में रहती थी कि रात को छत पर पलंग लगाकर फ़िल्म देखेंगे। लेकिन हर बार फ़िल्म शुरू होने पहले ही मां की गोद में सो जाती थी।

दीप्ति।

Ashish Maharishi said...

सही कहा अविनाश भाई, बचपन में हमने भी खूब गाली खाई है घर वालों से लेकिन आज घर वाले के साथ सभी रिश्‍तेदार और दोस्‍त खुश हैं कि मैं एक पत्रकार बनकर कुछ करने का प्रयास कर रहा हूं

Nikhil said...

"मुकेश" बनने वाली बात छू गई....मुझे भी ऐसा ही कुछ लगता था तो सोचता था कि बस मुझे ही ये ख्वाब आता है मगर अब लगता है कि मेरे देखे सपने भी सिर्फ़ मेरे नहीं थे....
वैसे, सही में ये लेख थोड़ा अधूरा रह गया....आगे की प्रतीक्षा में...

Priyambara said...

sahi likha hai aapne.ek baar raat bhar movie dekhne ke chakkar me rah gayi aur doosre din patna me bhashan pratiyogita me bhag lena tha, aur maine pratham aane ka ek swarnim mauka gawan diya. lekin mujhe koi afsos nahi tha kyonki main apne doston aur bhai bahanon ke sath raat bhar video dekhkar kaafi santusht thee.

Gajraj Rao said...

Bhai Avinash bahut badhiya likha tumne...tumhari likhai main Munshi Premchand ki si sahajta hai... Gajraj.

Anonymous said...

Kuchh esi se milta-julta apna bhi wakaya hai. Fark sirf itna hai ki hum aapke ek dashak baad ki pidhi se talluk rakhte hain. Magar, DDLG se shuru hua sine darshak ka apna safar kuchhek varsh hi chala. Ab, chuninda aur mauka-a-sulabh uplabdh filme hi dekhta hun. Warna pahle to airi-gari se lekar har film first day first show ka hi apna riwaz tha. Arthabhav me aur etne se hi kaam chala lete hain ki maansikta me front stall me bhi baithane se koi gurej na tha. Air to aur maine bakayda ek list bhi bana rakhi thi ki kaun sa cinema kis haul me kitni baar dekha? Es list se tanhai me hisab-kitab lagata tha aur filmi duniya me wicharan karta tha. Cinemai diwangi ki entehan thi, lihaja list pakda gaya. Babu ji ki pratikriya hue ki chalo filme dekhna to achchhi baat hai, lekin tumhe dekhkar kahin se pagalpan to jhalkata nahi. Fir ye kyon DDLG dus baar Kisaan cinema me, KKHH panch baar Kumar cinema me, Dreamgirl ...... Aur fir Patna prawas me koi rokne wala to tha nahi. Magar, Banaras pahunch kar khud hi ruk gaya. Yahan Dilli-Noida me to yada-kada hi. Hasraten sahej raha hun, jindagi ke agle padaw me itminan se pura karunga pichhla bakaya bhi.

Anonymous said...

Kuchh esi se milta-julta apna bhi wakaya hai. Fark sirf itna hai ki hum aapke ek dashak baad ki pidhi se talluk rakhte hain. Magar, DDLG se shuru hua sine darshak ka apna safar kuchhek varsh hi chala. Ab, chuninda aur mauka-a-sulabh uplabdh filme hi dekhta hun. Warna pahle to airi-gari se lekar har film first day first show ka hi apna riwaz tha. Arthabhav me aur etne se hi kaam chala lete hain ki maansikta me front stall me bhi baithane se koi gurej na tha. Air to aur maine bakayda ek list bhi bana rakhi thi ki kaun sa cinema kis haul me kitni baar dekha? Es list se tanhai me hisab-kitab lagata tha aur filmi duniya me wicharan karta tha. Cinemai diwangi ki entehan thi, lihaja list pakda gaya. Babu ji ki pratikriya hue ki chalo filme dekhna to achchhi baat hai, lekin tumhe dekhkar kahin se pagalpan to jhalkata nahi. Fir ye kyon DDLG dus baar Kisaan cinema me, KKHH panch baar Kumar cinema me, Dreamgirl ...... Aur fir Patna prawas me koi rokne wala to tha nahi. Magar, Banaras pahunch kar khud hi ruk gaya. Yahan Dilli-Noida me to yada-kada hi. Hasraten sahej raha hun, jindagi ke agle padaw me itminan se pura karunga pichhla bakaya bhi.

SUMAN said...

अहा...चंदा जुटा कर..रतजगा करके सिनेमा देखने वाली बात कह कर क्या दिन याद दिला दिया अविनाशजी..बड़ी सारी यादे तैरने लगीं जेहन में...और वो आनंद याद आ रहा है जो अब कभी २०० rs की टिकट लेके mutiplex में पिक्चर देखने में भी कभ नहीं आया...
एक इससे जुड़ा तब के हिसाब से कटु अनुभव बांटना चाहूंगी ...
''हम मध्यमवर्गीय परिवारों में बहने भाई के बड़े अनुशासन में रहा करती थी और ख़ास करके ऐसे रतजगा करके सिनेमा देखने वाले अवसर बहनों को देना भाई के बड़े दिल से नहीं निकलता था...वो बहाने ढूँढा करते थे...हमें न जाने देने के...अवधि काफी हो चुकी है सो सटीक कारण नहीं याद आ रहा..पर एक ऐसा अवसर हमारे भैया ने हमसे बड़ी नर्दयता से छीन लिया था..जब की हमारी पूरी तैयारी थी...और वो रात हमने किस पीड़ा से काटी.अब याद करके ठहाके छूटते हैं...इतना बता दूँ की घर में रोक लिए जाने पर...हमारी रसोई की खिड़की से तकरीबन ५० फीट की दूरी पर टीवी की स्क्रीन हमें दिकाई दे रही थी..आवाज़ के नाम पर जब गाने आते थे तो आधे-अधूरे सुनाई देते थे...उसे भी हम दो बहने मिलकर बड़े भारी मन से आधी रात तक देखते रहे....''
आज हम सब बहने ३ महानगरों में हैं...लेकिन उस आनंद को याद करके अब भी अभिभूत हो जाते हैं...