यह एक बड़े पुरस्कार की तरह है। आज जनसत्ता में शिक्षाशास्त्री और एनसीईआरटी के निदेशक कृष्ण कुमार ने लिखने के रियाज़ में लगे मुझ जैसे अल्पज्ञात लेखक को तवज्जो दी है। पहले इसी ब्लॉग पर छपे रैंप पर अंतिम औरत का इतिहास और बाद में जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे ’ स्तंभ में ‘वह आख़िरी औरत ’ शीर्षक से छपे निबंध को पढ़ कर उन्होंने मुझे फोन किया था। फोन पर उन्होंने जिस तरह की खुशी ज़ाहिर की, उसे बताना मेरे लिए असमंजस की तरह था। मुझे लगता था कि जो मेरे उल्लास, मेरी खुशी को ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू ’ के मुहावरे वाले झोले में नहीं रखेंगे, उन सबको मैंने बताया कि कृष्ण कुमार जी ने मुझे कंप्लीमेंट दिया है। बाद में मैंने पता लगा ही लिया कि अपूर्वानंद से उन्होंने मेरा फोन नंबर जुटाया था। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 97-98 के साल में कुछ दोपहरी और सांझ मैं आपके यहां आता था। लेकिन मिलने-जुलने को लेकर मेरे निरुत्साह में एक लंबा अरसा यूं ही गुज़र गया। कृष्ण कुमार जी ने जनसत्ता में फोन पर की गयी उस प्रशंसा को जिस तरह से सार्वजनिक किया है, उसे पढ़ कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। जिन शहरों में जनसत्ता नहीं जाता है और जो जनसत्ता के पाठक नहीं हैं - उनके लिए कृष्ण कुमार जी का आलेख मैं दिल्ली-दरभंगा छोटी लाइन पर भी डाल रहा हूं।
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कृष्ण कुमार
हर शब्द अपने भीतर एक छोटा-सा इतिहास समाये रहता है, यह बात मुझे मालूम थी, पर यह समानांतर सत्य - कि शब्द में भविष्य भी झिलमिलाता है - मेरे लिए इसी पखवाड़े खुला। इस अख़बार में ‘दुनिया मेरे आगे’ एक स्तंभ छपता है, जिसमें कभी-कभी कुछ ग़ैरनिष्कर्षी गद्य पढ़ने को मिल जाता है। आठ-दस दिन पहले इस स्तंभ के तहत अविनाश की टिप्पणी पढ़ कर उस ख़बर का खुलासा मेरे लिए थोड़ी देर से हुआ, जो कई दिन पहले अख़बारों में सचित्र आ चुकी थी। ख़बर उन औरतों के बारे में थी, जो सुलभ इंटरनेशनल की पहल और मदद से मैला उठाने के काम से हटायी जा सकी हैं। अलवर की ये महिलाएं संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘सफाई वर्ष’ के अंतर्गत न्यूयार्क में होने वाले एक कार्यक्रम के लिए चुनी गयी हैं। इस कार्यक्रम का एक तरह का पूर्वाभ्यास, जो दिल्ली में हुआ, अविनाश के संक्षिप्त निबंध का विषय था।
अविनाश के निबंध का शीर्षक ‘वह आख़िरी औरत’ सतह पर महात्मा गांधी के मशहूर उद्धरण की गूंज लिये था, जिसमें उन्होंने आख़िरी आदमी की फिक्र की ज़रूरत बतायी है। मगर शुरुआती पैरा सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम के मंच और अगला पैरा गांव को शहर से जोड़ने वाली कंकरीली पगडंडी पर बचपन में बाबूजी द्वारा देख लिये जाने के बारे में था। शेष लेख में उस कैटवॉक का चित्रण था, जो अलवर की महिलाओं ने भारत के विख्यात फैशन मॉडलों के साथ सीरीफोर्ट सभागार के मंच पर की। इंटरनेट पर विकीपीडिया देख कर अविनाश यह पता लगा चुके थे कि कैटवॉक उस नुमाइशी चाल के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है, जो कपड़ों के नये फैशन प्रदर्शित करने के लिए आयोजित की जाती है। मैला ढोने जैसा काम करने वाली महिलाएं नीली साड़ी पहन कर, अमीर मॉडलों के साथ चलीं, फिर अमेरिका जाकर वहां भी कैटवॉक करेंगी। अविनाश ने इस प्रसंग की जटिलता को बड़ी संभली हुई तराश के साथ याद किया था। लेख के आख़िरी हिस्से में एक अधूरी खुशी के आंसू भी थे, एक बड़े-से अंधेरे की घुटन भी, और एकदम अंत में मेरे जैसे कस्बाई संस्कार वाले लोगों को महानगर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी राहत देता आया समोसा भी बदस्तूर मौजूद था। इस तरह वह लेख नहीं, पूरी दुनिया थी।
परसों वह दुनिया न्यूयार्क में साकार हुई। संयुक्त राष्ट्र के उच्च पदासीन अधिकारियों के सम्मुख वह कैटवॉक अपनी पूरी शोभा सहित संपन्न हुई। अलवर की औरतों का मुक्त गीत विश्व की समाचार एजेंसियों की ख़बर बना। अंतत: मेरा भी मन हुआ कि पुस्तकालय के वृहद शब्दकोश में कैटवॉक का अर्थ देखूं। फैशन परेड वाला अर्थ सबसे पहले दिया गया था, जिसके तहत मॉडल नये कपड़े पहने एक उठी हुई सतह पर दर्शकों और कैमरे के सामने चलती हैं। इसके बाद भी कई अर्थ दिये थे। मुझे उन सभी अर्थों को पढ़ना ज़रूरी लगा, क्योंकि बिल्लियों में मेरी दिलचस्पी बचपन से रही है। मैं यह जानने को उत्सुक था कि फैशन की दुनिया में बिल्ली कैसे शामिल हो गयी। भाषा के इतिहास में चले किसी अनोखे खेल के नियम समझने की जिज्ञासावश मैंने पत्नी से कहा कि वे शब्दकोश की महीन छपाई पढ़ें, क्योंकि मेरी आंखों में इतनी रोशनी नहीं है।
शब्दकोश में लिखा था कि ‘कैटवॉक’ मूलत: संकरे पुलनुमा ढांचे को कहा जाता था, जिसे निर्माणाधीन इमारतों में, जहाजों और रेलों में मज़दूरों और सफाई कर्मचारियों के लिए बनाया जाता है। लकड़ी, बांस या धातु का यह संकरा ढांचा ऊंचाई पर स्थित छज्जों या पानी की टंकियों तक पहुंचने में मदद करता है। टंकी साफ करके कर्मचारी के लौट आने के बाद ढांचा हटाया जा सकता है। इसे कैटवॉक कहते थे। पीछे बिल्ली की तरह संभल कर कदम रखने और चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।
इस सघन अर्थछाया के आलोक में अलवर की मैला ढोने वाली औरतों का पहले दिल्ली, फिर न्यूयार्क में प्रायोजित कैटवॉक थोड़ा दूर तक देखा जा सकता है। फैशन मॉडलों के साथ कैटवॉक की उपयुक्तता प्रायोजकों को संभवत: इसलिए सूझी होगी, क्योंकि मैला ढोने से मुक्त किये गये ये इंसान नारी थे, पुरुष नहीं। कपड़ों के नये फैशन का विज्ञापन करने वाली कैटवॉक मुख्यत: औरतों की परेड रही है, आदमी अभी-अभी और बहुत कम संख्या में आने शुरू हुए हैं। मैला ढोने वाली महिला को शख्सियत मिली, अविनाश के लेख में आये आंसू इसी बात की खुशी के थे। शख्सियत एक ऐसे आयोजन से मिली, जो भूमंडलीकरण के युग में नारी की घुटन के अभूतपूर्व विस्तार से जुड़ा है, यह बात उसी अंधेरे का ख़ौफ़ पैदा करती है, जो जनगढ़ सिंह श्याम ने जापान की व्यापारिक आर्ट गैलरी में अपनी आदिवासी आंखों के एकदम सामने महसूस किया होगा। जानकार लोग कहते हैं कि कैटवॉक कर रही औरत को अपनी आंखों में वही भाव लाना सिखाया जाता है, जो उमंग के साथ कंघी कर रहे किशोर के चेहरे पर स्वाभाविक रूप से इस सोच के साथ आ जाता है कि कोई मुझे देख रहा है। संकरे, रपटे या मुंडेर पर चल रही बिल्ली में यह भाव नहीं होता। पर बिल्ली मनुष्य को क्या-क्या सिखाये। हजारों साल के साहचर्य के बाद भी वह मानव को यह नहीं सिखा सकी कि आत्मसम्मान एक ऐसा भाव है, जो कहीं और जाकर नहीं, यहीं व्यक्त होना चाहिए और अपने ही मन और देह में प्रकटना चाहिए, मुजरे के दर्शकों की आंखों से नहीं।