ऑडिटोरियम में उम्मीद से अधिक लोग थे। मंच ख़ाली था - घुमावदार रोशनियों का वृत्त उसे बहला रहा था। हम देर से पहुंचे थे और वक्त से कुछ भी शुरू नहीं हुआ था। जो शुरू होना था, वो कैटवॉक था, जिसमें हमारी दिलचस्पी इस वहम के साथ कभी नहीं रही कि मंच पर चलते हुए किसी को क्या देखना। आपके क़दम तमीज से ज़मीन पर पड़ते हैं या बेडौल बदतमीज़ी से - इसमें किसी की क्या दिलचस्पी हो सकती है भला!
हमारे गांव से एक पगडंडी निकलती है, जो शहर पहुंचाती है। जेल की दीवार का एक कोना हमारे गांव की ओर देखता है और दूसरा कोना शहर की ओर। हम शायद शहर से लौट रहे थे, रास्ते के कंकड़-पत्थर को पैर मारते हुए। अचानक पीछे नज़र पड़ी। बाबूजी आ रहे थे। उनकी छवि इतनी सख़्त हुआ करती थी कि हमारा अपनी तरह से जीने का पूरा आत्मविश्वास घुटनों के बल रेंगने लगता था। पहले हमारे पांव सीधे हुए और फिर इतने करीने से आगे बढ़े जैसे पहले कभी उन पांवों ने शैतानियां की ही न हों।
ज़मीन पर क़दम रखना आपकी एक आदत हो सकती है कि आप ऐसे ही रखेंगे, जैसे रखते आये हैं। लेकिन नकलची अक्सर आपकी तरह से डग भर कर आपको बताएंगे कि आपके चलने में क्या ख़ास बात है। इसलिए क़दम कारीगर के हों या कलाकार के, वे अपनी फ़ितरत से पहचान लिये जाते हैं।
विकिपीडिया से मैं थोड़ा और दुरुस्त हुआ कि कैटवॉक दरअसल कपड़ों की नुमाइश का इवेंट होता है। 21 जून, शनिवार की शाम को मैं इसलिए भी सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम चला गया, क्योंकि मदन झा ने पहले ईमेल किया था, फिर फोन किया और आख़िर में एक एसएमएस। मदन झा सरोकारों वाले अख़बारनवीस रहे हैं और एक बार वे दरभंगा से पटना तक मुझे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर लाये थे। रास्ते में मुज़फ़्फ़रपुर के पास लाइनहोटल में बढ़िया खाना भी खिलाया था। तब वे टाइम्स ऑफ इंडिया के दरभंगा कॉरस्पॉन्डेंट थे या इंडियन नेशन पटना में आ गये थे, ये याद नहीं। क़रीब 12 साल पहले का वाक़या है।
मुझे उन्होंने अलवर की उस महिला से मिलवाया था, जो पहले सर पर मैला ढोती थी और अब सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ी है और पुरानी मैला प्रथा के अंधेरे को याद भी नहीं करना चाहती। भगवती की कहानी आपको याद होगी। इन्हीं के बीच की कुछ महिलाएं यूनाइटेड नेशन जा रही हैं। वहां कैटवॉक करेंगी। ऐश्वर्या राय उस मौक़े की गवाह बनेंगी। परदेस में कैटवाक का देसी रिहर्सल ही था, जिसमें देश के टॉप 21 मॉडल अलवर की राजकुमारियों के साथ रैंप पर चल रहे थे।
जस्सी रंधावा, कारोल ग्रैसिया, राहुल देव, आर्यन वैद्य के साथ सारे के सारे मॉडल सबसे पहले रैंप पर चले और पर्दे के पीछे लौट गये। एक मॉडल बची रह गयीं, शीतल मल्हार। मंच के पार्श्व पर्दे के पास खड़ी होकर मुस्करायी और उसके पास आसमानी रंग की साड़ी पहने एक औरत आयी। दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा और रैंप के आख़िरी किनारे तक आये और फिर लौट कर एक ओर खड़े हो गये। फिर और भी मॉडल ऐसी ही जोड़ी बना कर रैंप पर आये। किनारे खड़े होते गये। मॉडल्स और अलवर की साधारण औरतों के क़दमताल से सुर मिलाने वाला संगीत दिल में धम-धम बज रहा था। मेरी आंखों का कोर भीग गया।
यह एक छिछली भावुकता थी, जो अक्सर सिनेमा के दृश्य देखते हुए मेरी आंखें भिगो जाती है। यह जानते हुए कि दुनिया एक रंगमंच है और शोक, असफलता, विरह, भूख के बाद जितने भी आंसू गिरते हैं, वे संवेदनशीलता की महज एक अदा होते है। शनिवार, 21 जून की शाम जब मेरी आंख भीगी, तो वह एक अदा थी या आदत या कोई चीज़ थी, जो सचमुच दिल को भेद गयी थी, मैं समझ नहीं पाया। मेरे सामने ऊंच-नीच की रीत को रौंदने वाले दृश्य खड़े थे और वह महज नाटक नहीं था।
काफी देर हॉल में गुमसुम बैठने के बाद मैं बाहर निकल आया। गिरींद्र से भेंट हुई। संजय त्रिपाठी मिला, पटना के दिनों का मेरा दोस्त। हम सीरीफोर्ट की सरहद से बाहर निकल समोसा खा आये। लौटे तो बारिश की बूंद मेरी हथेली पर गिरी। वे आंसू नहीं थे क्योंकि इस वक्त हम सब किसी बात पर हंस रहे थे।
आइए, आख़िर में अलवर की इन महिलाओं पर एक फिल्म देखें, नयी दिशा...
Saturday, June 21, 2008
रैंप पर अंतिम औरत का इतिहास
Posted by Avinash Das at 12:04 PM
Labels: यहां वहां जहां तहां
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10 comments:
संवेदनशील पोस्ट!
achchha likha...
एक भावपूर्ण पोस्ट।
badhiya rapat. samvedansheel bhaasha.
अविनाश जी..मेरे यहां एक रिपोर्टर है..विजयलक्ष्मी..उसने इसपर एक स्टोरी भी कर दी..अच्छी कहानी..
samvedansheel post ...achchi lagi.
shabdo se khelna koi aapse seekhe...sir....
This is really a sensitive post, Avinash ji.. I am really impressed.
thanks for writing on such point.
http://paramweb.co.nr/
Behad sanjeeda post hai avinash ji..auir film bhi.
मजा आया पढ़कर। एक सार्थक परिवर्तन का गवाह, स्मृतियां, खुशी, आंसू, स्वाद और बारिश, सब कुछ एक साथ। संतुलित और संयमित।
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