वहां जहां जीवित लोग काम करते हैंRead More
मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं
उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियां
और वे उसे उठा कर पास पास हो लेते हैं
एक दूसरे की ओर चेहरा करके
देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गये चेहरे आज आखिरी बार देख रहे हों
सब जानते हैं पूरा वाक्य लिखना और अधूरे वाक्य के बाद उनका दिमाग सुन्न पड़ जाता है
एक लंबे अभ्यास की छाया में मशीनी रूप से पूरे होते हैं वाक्य
और जिनमें अनुपस्थित रहता है एक सचेत नागरिक और निष्पक्ष पत्रकार
ये अनुपस्थिति तो यूं भी रहती आयी है
लेकिन हालात बताने के लिए
तमाम विरोधाभास के बावजूद इसका ज़िक्र अभी ज्यादा जरूरी है
बचत के लिए कम की गयी रोशनी और बांटे गये अंधेरे में
आशंका की आड़ी तिरछी रेखाएं स्पष्ट आकृति में ढल रही हैं
सबके पास इसका हिसाब नहीं है कि दो महीने बाद मकान का किराया कैसे दिया जाएगा
राशन दुकानदार से क्या कहा जाएगा
और जिनके बच्चे हैं वे उनकी ज़िद को ढाढ़स के किस रूपक से कमज़ोर करेंगे
हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
और उन्हें काम से निकाला नहीं गया है!
Friday, January 30, 2009
हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं!
Posted by Avinash Das at 6:51 PM 14 comments
Labels: कविता की कोशिश
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