वहां जहां जीवित लोग काम करते हैं
मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं
उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियां
और वे उसे उठा कर पास पास हो लेते हैं
एक दूसरे की ओर चेहरा करके
देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गये चेहरे आज आखिरी बार देख रहे हों
सब जानते हैं पूरा वाक्य लिखना और अधूरे वाक्य के बाद उनका दिमाग सुन्न पड़ जाता है
एक लंबे अभ्यास की छाया में मशीनी रूप से पूरे होते हैं वाक्य
और जिनमें अनुपस्थित रहता है एक सचेत नागरिक और निष्पक्ष पत्रकार
ये अनुपस्थिति तो यूं भी रहती आयी है
लेकिन हालात बताने के लिए
तमाम विरोधाभास के बावजूद इसका ज़िक्र अभी ज्यादा जरूरी है
बचत के लिए कम की गयी रोशनी और बांटे गये अंधेरे में
आशंका की आड़ी तिरछी रेखाएं स्पष्ट आकृति में ढल रही हैं
सबके पास इसका हिसाब नहीं है कि दो महीने बाद मकान का किराया कैसे दिया जाएगा
राशन दुकानदार से क्या कहा जाएगा
और जिनके बच्चे हैं वे उनकी ज़िद को ढाढ़स के किस रूपक से कमज़ोर करेंगे
हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
और उन्हें काम से निकाला नहीं गया है!
Friday, January 30, 2009
हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं!
Posted by Avinash Das at 6:51 PM
Labels: कविता की कोशिश
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14 comments:
बहुत ख़ूब , मेरे भाई !
choti line par aa kar kavita padhi, acha laga. ab jara mohalle ki sair bhi kar aata hoo. ki halchal chai. yad abai chi ki nai?
हालांकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
और उन्हें काम से निकाला नहीं गया है!
लेकिन अभी भी --कभी भी
कुछ भी हो सकता है
मैं तो बस यही कहूँगा -
अब कहाँ जीवित लोग काम करते हैं ?
कहाँ?
लेकिन आप हम पर विस्वास करें
हम एक अच्छी दुनिया बना रहे हैं
जहाँ सबको याद होगा पुरा वाक्य लिखना ..
और नही होगा वो दवाब ........
बहुत अच्छा....
बहुत बढ़िया लिखा है अविनाश आपने। हाथ काम करते हैं या आशंकाओं के मारे कांपते हुए खुद-ब-खुद कुछ उकेरते हैं,मौजूदा वक्त में दिमाग को ये सोचने का भी वक्त नहीं मिल पा रहा। थोड़ा खुद को दिलासा देते हैं कि किसी ना किसी के अगले महीने के दाने-पानी के लिए नए जुगाड़ की चिंता हमारी लकीरों को और गहरा देती हैं। दुख सबसे ज्यादा तभी तो होता है जब हम मजबूर होते हैं, एकदम बेबस।
बहुत बढ़िया अविनाशजी। यह लिखने की भी हिम्मत चाहिए।
आर्थिक मंदी के प्रभाव के संबंध में यह पहली ही कविता दिखी है। इस मायने में भी इस अच्छी कविता को देखा जाना चाहिए।
this one gave me HIGH in the times of LOWS
thanks.
pasand aayi aap ki kavitaa ki koshish. jari rakhiye.
...इसीलिए कविता लिखना अब अज्ञेय के ज़माने जैसा आसान हो गया है. तुम्हारी कविता पढ़कर लगता है कि कवितायें तुम बना सकते हो. जैसे कि इस दौर के अनेकानेक कवि और अकवि 'तल' रहे हैं. यह सब इतना ही आसान है इसीलिए तो देखो, अब जिसके हाथ में की-बोर्ड है, वही कवि है. जिसके गले में 'पूं' है वही गायक है.
http://vivj2000.blogspot.com/
nice
बहुत ही सुन्दर रचना । आभार
bahut achchi lagi.
वहां जहां जीवित लोग काम करते हैं
मुर्दा चुप्पी सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैंएक लंबे अभ्यास की छाया में मशीनी रूप से पूरे होते हैं वाक्य और जिनमें अनुपस्थित रहता है एक सचेत नागरिक और निष्पक्ष पत्रकार.. आप मेरे भीतर दस्तक दे रहे है..
निशब्द..
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