शहर था शहर नहीं था : 5
हम सब अस्सी के शुरुआती दशक में अपने गांव से शहर आये थे। वैसे गांव शहर से दूर नहीं है। कलक्टेरिएट से पांव-पैदल गांव पहुंचने में घंटा भर भी नहीं लगता है। पहले, बीच में एक बड़ा बरगद था- जिस पर धूपदार दिनों में लोग सुस्ताया करते थे। उन दिनों बीच में जंगल होने की वजह से दो दुनिया लगती थी, लेकिन आज तो मकानों की सघन कतार गांव तक खड़ी है। शहर और गांव में फर्क ही नहीं लगता। बाबूजी शहर आये, क्योंकि वे बच्चों को एक तहज़ीब देना चाहते थे। गांव में ये संभव नहीं था। नवयुवकों का ताड़ीखाने में बैठने का सिलसिला बढ़ गया था। गुंडागर्दी भी बढ़ रही थी। हमारे गांव में आकर बस गये फुफा के एक लड़के को बड़े बरगद के पास कुछ लोगों ने पकड़ लिया और चाकू से चौदह बार गोदा और मरा हुआ समझ कर झाड़ी में फेंक दिया। सुबह जब हल्ला हुआ, तो हमें समझ में आया कि कुछ कांड हो गया है। लेकिन अपने फुफेरे भाई को हमने तभी देखा, जब वे अस्पताल से लौटे। आंगन-आंगन घूम कर सीना और पीठ दिखाते थे। जहां-जहां चाकू लगा था। बात क्या हुई थी दरअसल, ये बताते हुए हकलाने लगते थे- लेकिन बच गये, यह कहते हुए उनके चेहरे पर मायूसी नहीं, बल्कि बहादुरी चमक उठती थी। बाबूजी ने यही सब देख-देख कर शहर का रुख किया।
और भी कारण थे। बहने शहर के एक माध्यमिक विद्यालय में पढ़ती थी। रोज़ पैदल जाती थीं। बड़े बरगद से थोड़ा आगे एक छोटी सी कम गहरी नहर पार करके रास्ता थोड़ा पड़ता था। जब आंगन में दसबजिया फूल खिल उठता था, तो गांव से दर्जनों लड़के लड़कियां स्कूल की तरफ भागते थे। बड़े बरगद से आगे नहर पार करके जाते थे। लेकिन बरसात के दिनों में खासी तक़लीफ होती थी। अक्सर बहनें मुझे गोद में लेकर स्कूल जाती थीं। घर में ये कह कर कि आज मुन्ना मेरे साथ रहेगा। स्कूल में ज्यादातर पढ़ानेवालियां थीं और इस एक काम के अलावा नयी लड़कियों से कढ़ाई-बिनाई सीखने में उनकी दिलचस्पी अधिक थी। इसलिए बहनें हमें ले जातीं, तो वे भी हमें पुचकारती थीं। कभी-कभी तो हवामिठाई भी ख़रीद कर देती थीं। ऐसे ही एक दिन बरसात हो रही थी। टिपिर-टिपिर। वो भी रास्ते में शुरु हुई, जब बहनें स्कूल और गांव के बीच में थीं। मैं बीच वाली बहन की गोद में था। वो मुझे लेकर नहर में उतरी। उसके बायें पैर के नीचे की मिट्टी पांव पड़ते ही भसक गयी। ठेहुना मुड़ गया और गर्दन तक पानी में जा पहुंची। लेकिन मैं हाथ से नहीं छूटा। दूसरे तमाम लड़के-लड़कियां अवाक थे। मेरी बहन रोते हुए मुझे दोनों हाथों से ऊपर उठाये हुए थी। किसी तरह टो-टा कर किनारे तक पहुंची। कीचड़ और पानी में कपड़े लिथड़े हुए थे। घर लौट आये। बहन मेरी लगातार रो रही थी। रात दस बजे बाबूजी गांव लौटे, तब तक। एक वो वजह भी थी, हमारे शहर में आने की।
लेकिन बात ये थी कि बाबूजी संस्कृत विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में बैठ कर पुरानी पांडुलिपियों को सफेद काग़ज़ पर नीली स्याही से उतारने का काम करते थे। उनकी लिखावट मोतियों जैसी होती थी। कुलपति उसी लिखावट में छापेखाने भेजना चाहते थे और बाबूजी को साठ रुपये महीने की तनख्वाह मिल रही थी। कुछ ट्यूशन भी कर लेते थे। फिर भी कुल डेढ़ सौ रुपये से ज्यादा की कमाई नहीं हो पाती थी। गांव में बाबूजी के भाइयों और बहनों को मिला कर परिवार बड़ा हो जाता था और ये पैसे कब ख़त्म हो जाते थे, पता भी नहीं चलता था। महीने के आखिरी दस दिन जैसे-तैसे कटते थे। इधर-उधर से मांग कर, जिन्हें नहीं लौटाते-लौटाते बड़ा कर्ज़ बाबूजी को डराने लगा था। इसीलिए भी हम शहर आ गये थे।
वैसे भी बाबूजी शहर को चाहते थे। आप वहां रहना ज्यादा पसंद करते हैं, जहां लोगों की दिलचस्पी आपमें हो और आपकी दिलचस्पी उन लोगों में। वे ज्यादातर अमीर घरों के बच्चों को पढ़ाते थे। उन्हें विद्वान समझा जाता था। वे विद्वान थे भी, क्योंकि जब भी हमने उन्हें अपने शहर की सड़कों पर देखा- लोग उन्हें प्रणाम करते थे। कोई हेठी नहीं दिखाता था। ज़्यादातर रिज़र्व रहते थे। पर्व-त्योहारों में एक अजीब किस्म की तटस्थता के साथ वे घर में बंद रहते थे। उनके दोस्तों का संसार भी बड़ा नहीं था। जो दो-तीन लोग थे, वे बड़े कायदे से बात करने वाले थे। सरकारी नौकरियों में थे और बाबूजी से जब भी मिलने आते थे, शरीफ की तरह पेश आते थे। लगता नहीं था कि वे दोस्त हैं। हमारे वक्त में तो दोस्तों की बातचीत उलाहने और गाली-गलौज से शुरू होती है। यही सब देख कर लगता था कि शहरी आचरण और सभ्यता बाबूजी में भरी हुई होने की वजह से वे शहर आये।
बाबूजी रमानंद बाबू को जानते थे। किसी की दुआ का सीधा जवाब न देने वाले रमानंद बाबू को राह चलते जब भी बाबूजी प्रणाम करते थे, वे न केवल मन से उसे स्वीकार करते थे, बाबूजी और उनके बच्चों यानी कि हमारा हालचाल भी पूछते थे। रमानंद बाबू के व्यक्तित्व के खिंचाव में पूरी तरह जकड़े हुए बाबूजी अक्सर हमें बताते थे- दोनों एक ही स्कूल में पढ़े। रमानंद बाबू उनसे तीन कक्षा वरिष्ठ थे। गज़ब के मेधावी थे। उनके सामने शिक्षकों की मेधा कहीं नहीं ठहरती थी। उन दिनों की बात और अब रमानंद बाबू का क़द- दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। तब भी रमानंद बाबू इज़्ज़त से देखे-सुने, बोले-बताये जाते थे और आज भी।
ये आकर्षण आखिरी तक बना रहा। बाबूजी और रमानंद बाबू, दोनों ही आज नहीं हैं। बाबूजी होते, तो शायद मैं रमानंद बाबू की ज़िन्दगी के विवरण इतना खुल कर नहीं जुटा पाता। यक़ीनन वे बुरा मान जाते।
Monday, June 4, 2007
जब हम पहली बार शहर आये
Posted by Avinash Das at 10:51 PM
Labels: उपन्यास की तर्ज पर
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3 comments:
बेहद मर्मस्पर्शी संस्मरण . और लिखें . प्रतीक्षा रहेगी .
यादों की घाटी का आपका सफ़र बहुत रोचक है. शहरो में जो ये बडे बडे वट पेड नजर आते हैं उनकी जडें छोटे छोटे गांव में ही पनपी हैं बस पेट के लिये पलायन ही मुख्य कारण है
बहुत ख़ूब। बहुत अच्छा और ईमानदारी से लिखा है। साधुवाद
-ओम
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