प्रमोद सिंह की लिखावट में एक खास की किस्म की सजावट और तरावट नज़र आती है। वे रोज़ लिखते हैं और खूब लिखते हैं। रोज़ लिखते हुए लगातार अच्छा लिखना एक मुश्किल काम है। आपके पास विषयों की इतनी बहुतायतता के स्रोत कहां होते हैं? वही आस-पड़ोस, छुट्टियों में दो-चार मित्रों के घर की दौड़, टीवी-सिनेमा-अख़बार के अलावा अगर आपके अतीत का सफ़र गहन पेचीदगियों से भरा हो, तो संभव है आपके पास कहने को इतनी बातें हों कि लगे इस जनम में संभव नहीं। लेकिन लिखने की मेज़ पर पूरी तरतीब से लगातार लिखना आपको वैसा ही अभिव्यक्त करे, जैसे आप हैं- ये ज़रूरी नहीं।
कई बार प्रमोद जी के लिखे हुए का तात्पर्य समझ में नहीं आता। वो भाषा की कारीगरी ज़्यादा नज़र आता है। चित्रकला, सिनेमा और कुश्ती में कारीगरी जितना काम आती है, लेखन में कुछ ऐसी बूंदा-बांदी करती है, जो सड़क और पार्क के बीचोबीच मौजूद सतरंगी फुहारें भले लगे, बारिश की शीतलता वहां नहीं होती। लेकिन प्रमोद फिर भी उसे भाषा का रियाज़ कहते हुए लिखते चलते हैं और सिर्फ ब्लॉगिंग के उनके सात महीनों का हिसाब करें तो अपनी संपूर्ण रचनावली का पहला हिस्सा तो उन्होंने तैयार कर ही लिया है।
गयी सदी के दार्शनिक-लेखक ज्यां पाल सार्त्र के लिखने की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही थी। उनके शहर के रेस्त्रां और बार में, जहां वे लगभग रोज़ जाते थे, उनके लिए एक कोना हमेशा रिज़र्व होता था, जिस पर बैठ कर वे लिखा करते थे। रोज़ कुछ हज़ार शब्दों का लिखा जाना वे एक लेखक के लिए ज़रूरी मानते थे। उनके समकालीन भी उनके लिखे के एक बड़े हिस्से को बोझिल और अबूझ मानते थे।
इसलिए कई बार तात्पर्य समझ में नहीं आने के बावजूद किसी लेखन का एक तात्पर्य होता है। भाषा के रियाज़ के तर्क से अलग ठोस और कन्विंसिंग तर्क। इसलिए लेखक की आज़ादी है कि वह अपने हिसाब से हज़ारों पन्ने काला करे, लेकिन कालातीत संदर्भों में जितने पन्ने नागरिक अपनी आलमारी में रखना चाहेंगे, वही लेखक की पूरी रचनात्मक सक्रियता का सार होगा।
किसी भी भाषा की समूची विरासत से पठनीयता का प्रतिशत निकालें, तो अपठनीय और अपठित पन्ने उन पर भारी पड़ेंगे। इसका साफ मतलब है कि सार्वजनिक साहित्य से अधिक तादाद अभ्यास के लेखन की होती है- और ये तादाद जितनी अधिक होती है, सार्वजनिक चिंता-अभिव्यक्ति-लेखन-साहित्य उतना ही तीखा-पैना-अर्थपूर्ण होता है।
अभय तिवारी प्रमोद सिंह के इलाहाबादी मित्र हैं, और प्रमोद सिंह कहते हैं कि अभय अपने जीवन और लेखन में निश्छल है, ईमानदार हैं। अभय जी के लिखे हुए पर प्रमोद जी के निष्कर्ष से मुझे और कई सारे लोगों को असहमति हो सकती है, लेकिन ये सच है कि अभय कभी-कभी लिखते हैं, कई बार लगातार लिखते हैं, और कई बार लंबी सांसें, लंबा वक्त लेते हैं। लेकिन उनके लेखन में कोई सजावट नज़र नहीं आती है। वे अपनी बात तल्खी से कहते हैं, जो उन्हें कहना होता है- सीधे सीधे बेलाग। इसलिए उनका फुल स्टॉप कॉमा कहां पड़ रहा है, इससे उन्हें मतलब नहीं है। शब्दों की एकरूपता से भी उन्हें कोई लेना देना नहीं है। मतलब है तो बस जब जो बात कहनी है, वह कहा जाए। चाहे तैश में, चाहे अतिशय विनम्रता में, चाहे व्यंग्य की टेढ़ी-तिरछी अदा में।
मैं बहुत लिखना और बहुत कुछ लिखना चाहते हुए भी लिखने से दूर भागता रहता हूं। शायद इसलिए क्योंकि मैं जैसा लिखना चाहता हूं, वैसा मुझे लिखना आता नहीं और जब लिखना चाहता हूं, तब दस बहाने करके ज़िंदगी के झमेले मेज़ पर बैठने ही नहीं देते। अब यही मान लिया है कि शायद कभी लिख नहीं पाऊंगा क्योंकि अब तक का अपना लिखा मुझे नैसर्गिक कम और बनावटी ज़्यादा लगता है। हमारे सहकर्मी और लेखक प्रियदर्शन कहते हैं कि आप जैसा स्वाभाविक रूप से लिख सकते हैं, वैसा ही लिखते हैं और इरादा करके आप मुक्तिबोध की तरह या किसी और लेखक की तरह नहीं लिख सकते। यानी आपके भीतर बेचैनियों का अनंत रूप-रंग होगा, लेकिन वो आपकी शख्सीयत के हिसाब से ही बाहर आएगा।
मेरी सनक ये समझने में है कि हम सब जैसा लिख रहे हैं, क्या वो हमारी स्वाभाविकता का हिस्सा है, या हम अपने को ज़बर्दस्ती उंड़ेल रहे हैं? ये भी कि क्या हम सब वही लिख रहे हैं, जो हमें लिखना चाहिए, या वक्त की मांग और पूर्ति के हिसाब-किताब में हमने अपने लेखन की स्वाभाविकता को विराम दिया हुआ है? अगर ये दोनों बातें नहीं हैं, तो कतिपय वाह-वाहियों के अलावा हमारे लिखे से कोई स्तब्ध क्यों नहीं है? किसी का जीना हराम क्यों नहीं हुआ है? कोई सवालों के थप्पड़ लेकर क्यों नहीं आता कि आप चैन से जीने देंगे या नहीं? मुल्क मरता है तो मर जाने दीजिए, हमें महीने की पगार तो मिल जाती है?
इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में हमारी मदद कीजिए।
Saturday, August 11, 2007
हम क्या लिखे जा रहे हैं...
Posted by Avinash Das at 11:11 PM
Labels: विचार ही जगह है
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3 comments:
मुझे लगता है कि हममें से ज्यादातर वही लिख रहे हैं जो हमें लिखना चाहिये, अब अगर आप अपने लिखे हर शब्द पर क्रांति की उम्मीद करेंगे तो ये बेमानी है । दरअसल ये देश ज्यादातर नींद की खुमारी में गिरफ्तार सा रहता है । चिट्ठाकारिता को ही देखें तो हस्बेमामूल वही लोग, वही टिप्पणियां, नये लोग कम आते हैं । आते हैं तो अच्छा ही लगता है । ये उम्मीद मत कीजिए, कि देश अपनी ऊंघ से बाहर निकलकर जागेगा और फिर आंखें मलते हुए हमारा लिखा पढ़ेगा और तमतमाते हुए सवाल भेजेगा । पर इससे लिखने का महत्त्व कम नहीं हो जाता ।
किसी एक छोर पर सत्य को खोजने के बजाय.. सब के बीच में कहीं देखो..मेरा ख्याल है कि वहाँ मिलने की ज़्यादा सम्भावना है..
और इतना सोचते हो अच्छी बात है.. उसी को लिख भी डालो.. जैसे ये पोस्ट लिख डाली..
कोई महान लेखन नहीं कर सकता.. पाठक तय करता है कि क्या महान है.. और उसमें भी अगली पीढ़ी.. कमलेश्वर और विनोद कुमार शुक्ल में कौन महान होगा.. ये उनके जीवन की सफ़लता से तय नहीं होगा.. आगे वाली पीढ़ी किसको लोकती है.. इस पर निर्भर करेगा.. दिनकर जी राष्ट्र कवि थे.. मुक्तिबोध को दो कौड़ी को किसी ने नहीं पूछा.. आप किस के मूल्य को अधिक मानते हैं.. ?
असली बात ये है कि आपके पास कहने के लिए बात होनी चाहिए थोड़ी बहुत सज-धज ठीक है। कुछ लोग आसानी से निभा लेते हैं, कुछ लोग साध लेते हैं, कुछ से नहीं सधता, लेकिन बात में दम हो तो बाक़ी सब इंसीटेंडल है। कथ्य अपना शिल्प खुद ढूँढ लेता है। तो असल बात का एक ग़रीब आदमी का दुख दर्द कहानी भी है, कविता भी, लेख, उपन्यास, शोध प्रंबंध और डाक्युमेंट्री और फीचर फिल्म भी। आप अपने भीतरी रुझान, क्षमता, दक्षता के हिसाब से मीडियम चुनते हैं, हाथ आज़माते हैं और समझ में आते है कि आपकी रवानी कहाँ है। शोध लिखने वाला कहानी लिखने बैठे तो गड़बड़ होगी। बात में दम होना चाहिए, माध्यम आपकी तबीयत का होना चाहिए, बस बाक़ी सब माया है। यह कुछ कुछ आवाज़ की तरह है, अंदाज़ सुधार कर गाने की कोशिश करिए लेकिन आवाज़ बदलकर नहीं।
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