वे प्रणय के क्षण हों चाहे न हों, गर्दन पर होंठ जाते ही उनकी हंसी फूट पड़ती है। आप एहसास की पतली चादर को उनकी गर्दन पर लपेटना चाहेंगे और हंस हंस कर वो उसके धागे उधेड़ देगी। खामोश पानी में कंकड़ पड़ने से वृत्त जिस तरह छोटे से बड़ा होता जाता है, ये हंसी भी पहले गुनगुनाहट में और आख़िरकार खिलखिला खिलखिला कर निकल पड़ती है। ऐसी हंसी जो प्रणय के आपके काम को अधूरा कर देती है।
हंसी कई बार आपकी पटरी पर चल रही ज़िंदगी से क़दमताल करके आपको पीछे छोड़ देती है और मुड़-मुड़ कर देखते हुए आपका मज़ाक़ उड़ाती है। बरसों पहले लंबे समय तक रांची मेडिकल अस्पताल में भर्ती रहने के बाद हमारे नानाजी का इंतकाल हो गया। सुबह-सुबह डॉक्टरों ने इत्तला की थी। अस्पताल में सबने अपने को ज़ब्त करके रखा हुआ था, क्योंकि सबको मालूम था कि नाना जी नहीं बचेंगे। मैंने अपनी मां के अलावा उस मौक़े पर रोते हुए किसी को नहीं देखा था।
उस वक्त हम नवीं कक्षा में थे। अस्पताल से घर लौट रहे थे। पैदल ही। महज़ डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी, घर और अस्पताल के बीच। या शायद उतनी भी नहीं होगी। हमें तो उन दिनों चलना आता था और खूब चल कर हम खुश होते थे। घर में मामाओं की ग़ैररचनात्मक निगहबानियों के बीच घर से बाहर किसी भी डगर पर चलना हमें अच्छा लगता था।
घर के पास पहुंचे, तो पड़ोस में रहने वाले एक बुज़ुर्ग शख्स ने नाना जी का हाल पूछा। मेरा पूरा चेहरा हंसने लगा और पूरी तरह उस हंसी को दबाने की कोशिश करते हुए बताया- नानाजी गुज़र गये। मैं दुखी था, लेकिन मैं हंस रहा था। क्यों हंस रहा था, नहीं मालूम। लेकिन जैसे ही उन पड़ोसी का घर गुज़रा, मैं खुद से ही शर्मसार हो गया।
वो वाक़या अब भी याद आता है, तो शर्म की एक हिलोर से मन दुखी हो जाता है।
दरभंगा में उन दिनों सुबह से शाम-रात तक घर से ग़ायब रहने के दिन थे। शामें अक्सर नाटकों के रिहर्सल में बीतती। इप्टा के लिए जगदीश चंद्र माथुर के एक नाटक कोणार्क का रिहर्सल हमने बहुत दिनों तक किया। उसका मंचन कभी हो नहीं पाया। और उसकी वजह सिर्फ मैं था। आधे नाटक के बीच नाटक के दो अहम पात्रों का सघन संवाद चलता है। विशु और किशोर कारीगर। विशु शहर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनकी हार्डवेयर की दुकान थी और किशोर कारीगर मैं बना था। संवाद के लंबे-तीखे सिलसिले में एक वक्त ऐसा आता है, जब दोनों की आंखें मिलती है। और जैसे ही विशु अपनी गहरी नज़रें किशोर कारीगर की मासूम आंखों में गड़ाता, मेरी हंसी निकल जाती।
फिर भी मुझे महीनों तक मौक़ा दिया गया। और महीनों उस एक सीन के रिहर्सल के दौरान मैं हंस पड़ता था। एक वक्त तो ऐसा भी आया कि वो सीन आने से पहले निर्देशक ब्रेक करके बोलते कि अबकी हंसा तो थप्पड़ लगेगा। लेकिन तब क्या होता कि इधर विशु और कारीगर की आंखें मिली, उधर निर्देशक खुद भी हंसने लगते। विशु भी हंसते। वे सब हंसते, जो रिहर्सल देखते। एक संजीदा दृश्य का हश्र हास्यास्पद हो गया था। आख़िरकार वो नाटक हमने कभी नहीं किया। और, ये बात अब तक समझ में नहीं आती है कि उस हंसी के स्रोत क्या थे।
कभी कभी रास्ते चलते हंसने की इच्छा होती है और हम हंसते हैं और इधर-उधर देखते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा है। उस साल पटना के हमारे पांच दोस्तों का एनएसडी में दाखिला हुआ था। संयोग से मैं दिल्ली में था और अक्सर शाम को मंडी हाउस चला जाता था। एक दिन अंधेरा उतरने पर जब मैं लौट रहा था, तो दूर से देखा कि क्रांति आ रही हैं। अपने आप से कुछ बातें करते, निकल पड़ने को बेताब हंसी को दबाने की कोशिश करते। उस वक्त वो आलोकधन्वा की बीवी थीं और क़ानूनी तौर पर तो आज भी हैं। अब उनका नाम असीमा भट्ट है। तो जैसे ही एनएसडी के दरवाज़े पर हमारी आंखें मिलीं, वो असहज हो गयीं। संक्षेप में हाल-चाल लेने के बाद वो ऐसे भागी कि बाद की कई मुलाक़ातों में असहज होती रहीं।
हंसना आपके हिस्से का हक़ है। आप अकेले भी हंसते हैं और सबके साथ भी। हितैषी कहते हैं, हंसो हंसो खूब हंसो। स्वस्थ प्रसन्न रहोगे। कवि कहते हैं, हंसना एक निश्छल हंसी, ताकि मानवता निस्संकोच राज कर सके। मैं दुविधा में हूं। मैं जब भी हंसता हूं या हंसते हुए किसी को देख लेता हूं- मुझे शर्मसार होना पड़ता है।
Sunday, August 12, 2007
हंसी के ख़िलाफ एक गद्य
Posted by Avinash Das at 10:19 PM
Labels: विचार ही जगह है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
12 comments:
ऎसे भी लिखा करें ! जंचता है आपपर !
और हां क्रांति की बात को बढाएं आगे!
आपकी तस्वीर मेरे छोटे भाई से इतनी मिलती है कि बीवी शर्त लगाती रही कि आप नहीं वही है और ये उसीका ब्लोग है. फिर मैने दरभंगा मधुबनी के उन स्थलों को मार्क करके उसे समझाया कि ये जगह सीतामढी में है ही नहीं. मनीमत है आपकी तस्वीर मुझसे नहीं मिलती. ये क्रांति जी का ब्लोग अभी खोलना पडा.
खामोश पानी में कंकड़ पड़ने से वृत्त जिस तरह छोटे से बड़ा होता जाता है, ये हंसी भी पहले गुनगुनाहट में और आख़िरकार खिलखिला खिलखिला कर निकल पड़ती है।
बहुत सुंदर!!
बहुत अच्छे ! ऐसे ही लिखा करें । ऐसे ही कई वाकये याद आये जब हँसना बहुत महँगा पडा है तब , अब याद कर सच हँसी आती है ।
तुम्हारा गद्य बहुत मनोहारी है। मन को छूने वाला पर लालित्य के साथ एक किस्म की निर्ममता और निस्पृहता भी है।
बहुत अच्छा, मज़ा आया. और लिखिए.
सही है.. सब.. सिवाय शीर्षक के.. जटिल सूक्ष्म अनुभूतियों की चर्चा में विरोध को मुल्तवी रखो न? अच्छा लिखा है..
पढ़कर बहुत अच्छा लगा । ये नानाजी वाली बात तो जैसे मुझे बीते समय में ले गई जब इसी तरह अपने नाना की मृत्यु की बात सुन मेरी बेटी हँसी थी । वह भी आज तक नहीं समझ पाई कि ऐसा क्यों हुआ था। मेरे पिता भी बीमार थे व यह समाचार अपेक्षित था।और उसमें करुणा की भी कोई कमी नहीं है। वह भी किशोर थी । शायद इसका कारण उम्र हो ।
घुघूती बासूती
अरे वाह, यह हुई न बात. पसंद आया यह अंदाज लेखन का. बधाई.
बहुत ख़ूब लिखा है आपने. आपका ब्लोग पहली बार देखा इतना पसंद आया कि प्रतिक्रिया लिखने से खुद को रोक नही पायी.जहाँ नही हँसना चाहिए वहाँ हंसने की बीमारी मुझे भी है .बचपन में इसके लिए कई बार मार भी खा चुकी हूँ.पर अभी तक नही सुधरी .स्कूल के दिनों में शोक सभा में जब दो मिनट का मौन रखने को कह जाता था तो बहुत रोकने पर भी मुझे हंसी आ जाती थी .फिर यह हंसी छूत की बीमारी की तरह एस्म्ब्ली में फ़ैल जाती थी .आज तक मुझे समझ नही आया कि ऐसा क्यों होता है .कभी-कभी तो लगता है कि इसके बारे में किसी सैकोलोजिस्ट से पूछना चाहिऐ .कोई मुझे बताये कि ऐसा क्यों होता है ?
अरे भैया, आप भी हंसने लगे? चलिये अच्छा है, कम से कम स्वास्थ तो अच्छा रहेगा। :)
वैसे एक बात जो मुझे अभी कुछ दिन पहले पता चली है(जब से Job Join किया है) कि इस भागदौड़ की दुनिया में हंसने के लिये या तो समय नहीं है या फिर उस समय की कीमत चुकानी परती है। आज-कल तो आपसे Gmail पर भी बात नहीं हो पाती है।
वैसे भैया मुझे आपसे एक शिकायत भी है, पहले आप कहते थे की तुम अपने ब्लौग पर कुछ लिखते नहीं हो और जब आज-कल मैं अमूमन हर दूसरे-तीसरे दिन कुछ ना कुछ लिखता रहता हूं तो आपके दर्शन नहीं होते हैं।
कभी जिंदगी के ताम-झाम से बाहर निकल कर मेरी दुनिया में भी झांक लिया किजीये।
Post a Comment