हम दरभंगा के आवारा छोरे देवास और मालवा की आवोहवा समेटे कुमार गंधर्व की आवाज़ के दीवाने क्यों हुए? वो जो वक्त था, जब हम बड़े होना नहीं चाहते थे, उस वक्त का डिस्को सांग - आइ एम अ डिस्को डांसर - गाते थे और ख्वाहिश करते थे कि जैसे फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती जादूगर की तरह पैर को थिरकाता है, हम भी थिरकाएं। हमारे मकान मालकिन की खूबसूरत हमउम्र बेटी को तबला मास्टर कुछ सिखाने आते थे। शायद संगीत के सुर। हमने उन्हें लकड़ी की चौकी पर हाथ से ठुमका बजा कर दिखाया। कहा- मैं भी बजा सकता हूं। मुझे तबला सिखाइए। हमेशा खामोश रहने वाले और गुनगुनाहट से आगे संगीत को त्यौरियां चढ़ा कर देखने वाले बाबूजी से तबला मास्टर ने कह दिया। कहा होगा यही कि आपके बेटे में हुनर है, लेकिन बाबूजी को लगा कि तबला मास्टर उनके बेटे को नचनिया-गवैया बनाने के फेर में है। मैंने सुना नहीं, बाबूजी उनसे क्या कह रहे हैं। लेकिन उसके बाद से तबला मास्टर जब भी मुझसे टकराते, निरीह नज़रों से देख कर गुज़र जाते थे।Read More
मैं तबला नहीं सीख सका। मेरे छोटे चाचा, जिनका बेतिया में अपना कारोबार है, गाने के बेहद शौकीन। वे ग़ुलाम अली को गाते थे, रफी के क्लासिकल को हूबहू मिला देते थे, अभाव में भी अच्छी कमीज़ पहनते थे, घुंघराले बालों को मज़े की कारीगरी के साथ धूल-गर्दों से बचा कर रखते थे, मेरे आदर्श थे। ग़ुलाम अली का गाया, बरसन लागी सावन बुंदिया राजा, तोरे बिना लागे ना मोरा जिया हमारी बहनें उन्हें बैठा कर, घेर कर सुनती थीं। इंटर के दौरान मेरी छोटी-छोटी इश्कबाज़ियों से आजिज आकर बाबूजी ने एक बार मुझे बेतिया भेज दिया, तो वहां से मैं चाचा का हारमोनियम उठा लाया। दरभंगा रेडियो स्टेशन के नेत्रहीन कलाकार - जिनकी शाम शराबनोशी में बुरी तरह बीतती थी - उन्होंने मुझसे वादा किया था कि वे मुझे हारमोनियम पर उंगली घुमाना सिखाएंगे। लेकिन हर शाम की उनकी अदाएं देख कर मेरा उत्साह जवाब दे गया। एक ही स्वर लहरी मैंने सीखी और अकेले में अक्सर वही रियाज़ आज तक करने की कोशिश करता हूं - सा सा सा सा निधा निधा पमप ग ग पमप गारे गारे निधस।
इन सबके बीच कुमार साहब कहीं नहीं थे। वे कब हमारी ज़िंदगी में आकर हमें संगीत का गहरा अर्थ समझा गये, मालूम नहीं।
शायद एक वक्त कबीर की धुन सवार हुई थी। जिन जिन ने कबीर को गाया, हमने सुना। खोज-खोज कर। दरभंगा से पटना तक, जितना मिला। ब व कारंत साहब सन 2000 के आसपास पटना आये थे। खुदा बख्श लाइब्रेरी में उन्होंने खुद कुछ नाट्य गीतों की प्रस्तुति की थी। एक गीत था- सजना अमरपुरी ले चलो। अमरपुरी की सांकर गलियां अटपट है चलना। सजना अमरपुरी ले चलो। कुछ ऐसा वीतरागी भाव, जिसमें खनक भी थी, हमारी स्मृतियों का सबसे जीवंत हिस्सा बन गया। लेकिन कुमार साहब की कबीरवाणी तो रोएं खड़े कर देती हैं।
मध्यवर्गीय और उससे भी कम आय वाले संगीतपसंद लोगों के लिए कम उपलब्ध कुमार गंधर्व का हम जैसों की ज़िंदगी में होना ही ख़ास मायने रखता है। लेकिन इन मायनों के बीच अक्सर ये गुम हो जाता है कि अच्छी और शास्त्रीय आवाज़ों का जुगाड़ कैसे लगा, कब लगा। दो अदद कैसेटों और कलावार्ता के कुछ पुराने अंकों की खाकछानी में कुमार साहब को लेकर पैदा हुई दीवानगी को कितना उत्साह मिला होगा, जब यू ट्यूब पर उनके एक वर्षागीत का वीडियो मिल गया होगा, ज़रा सोचिए।
फिराक साहब की गज़ल का एक टुकड़ा आप भी जानते होंगे- अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैं/ पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं। लेकिन तकनीक के इस तेज़रफ्तार वक्त में हम अतीत के बोलते हुए दृश्यों को भी आज समेट सकते हैं...
...जैसे हमने कुमार साहब की इस छवि को यहां समेटा है।
Sunday, September 30, 2007
हमने कुमार गंधर्व को देखा है
Posted by Avinash Das at 10:09 PM 5 comments
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
Saturday, September 29, 2007
हिंदी मेरी भाषा
हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैंRead More
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!
Posted by Avinash Das at 11:32 AM 2 comments
Labels: कविता की कोशिश
Friday, September 28, 2007
नैन घट घट तन एक घड़ी
एक ही कमरा था। बाबूजी थे। तीन बहनें थीं। मां का आंचल था, पतली सूती साड़ी का कोर। हम सब उस जगह को लॉज का एक कमरा कहते थे। एक कतार में ढेर सारे कमरों में जो परिवार बसे हुए थे, उनके घर से अक्सर सब्ज़ी की कटोरी आती थी। हमारे घर से भी कभी कभी जाती थी। सबमें इतना घरापा होने के बावजूद हम अपने ही कमरे के लोग थे। हमारी अपनी ही दुनिया थी।Read More
मां ने बरामदे की जगह को मिट्टी से ज़रा सा ऊंचा करके किचन बनाया हुआ था। कोयले के चूल्हे पर खाना बनता था। धुआंई शाम में हम कमरे में खीझ रहे होते थे। सुबह तो पता ही नहीं चलता था कि चूल्हे की आंच कब सुलगायी गयी, कब रोटी बनी और प्याज को भून कर कब बाबूजी के सामने परोस दिया गया। उसकी गंध से नींद खुलती थी।
बाबूजी अहले सुबह उठते थे। उन्हें ट्यूशन पढ़ाने जाना होता था। चार बजे उनके मुंह में ब्रश होता था और एक खास तरह की गुनगुनाहट भी। आज भी उनकी सुबह चार बजे होती है और मुंह धोते वक्त आज भी वे गुनगुनाते हैं। लेकिन अब सबके अपने अपने कमरे हैं और सबकी आवाज़ अपने अपने कमरों में क़ैद है। लेकिन उन दिनों हमारी नींद को बाबूजी की गुनगुनाहट थपथपाती रहती थी। हम अलसाये से उलटते-पुलटते रहते।
नींद खुलती थी आकाशवाणी की आवाज़ से। ये आकाशवाणी का दरभंगा केंद्र है। इस उद्-घोषणा के साथ ही भजन का सिलसिला शुरू होता था। तब उसमें मन रमता नहीं था। लेकिन क्या पता था कि उन भजनों के सुर ज़ेहन में ऐसे बसेंगे कि बहुत बाद में भी हूक की तरह बार-बार सीने में उठते रहेंगे?
पटना के हमारे दोस्त हैं नवीन कुमार। उन्होंने मुश्किल वक्तों में मेरा साथ दिया है। सीपीआई एमएल के होलटाइमर हैं और मसौढ़ी में किसान-मज़दूरों के बीच काम करते हैं। उनके एक साथी के यहां से हमने अपनी पसंद का एक कैसेट उड़ाया। सुना तो एक आवाज़ वही बचपन में आकाशवाणी की जानी-पहचानी आवाज़ के अतीत में छोड़ गयी।
नैन घट घट तन एक घड़ी।
कुमार गंधर्व का ये भजन आकाशवाणी से अक्सर प्रसारित होता था। कुमार गंधर्व हमारे बोध में उन्हीं दिनों जम गये थे, जब नाटक और कविता हमारी दिलचस्पी बन रही थी। पता नहीं कैसे। शायद भोपाल से निकलने वाली कलावार्ता के अंकों में देख कर या बाबा नागार्जुन के यहां से लाये गये एक कैसेट को सुन-सुन कर। एक ऐसी आवाज़, जो लहरों की तरह उठती थी और ऊपर ही कहीं खो जाती थी। सुर का दोहराव फिर नीचे से शुरू होता था। बाद में हमने ढूंढ़ ढूंढ़ कर कुमार साहब को खूब सुना।
आज इंटरनेट पर आवारागर्दी के दौरान वही भजन मिल गया। आप सबकी नज़र कर रहा हूं... नैन घट घट तन एक घड़ी...
Posted by Avinash Das at 11:54 AM 11 comments
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
Tuesday, September 4, 2007
दिल्ली हाट और मंच पर मोरनी
उस दिन दिल्ली हाट में टहलते हुए हमने बेहतरीन शाम बितायी। मन में आया घर पहुंच कर कुछ लिखेंगे। लेकिन घर आकर वे सारे चित्र एक बहुत बुरी और उलझी हुई पेंटिंग में बदल गये। अक्सर ये होता है। एक सफ़र और एक शाम में आप दर्जनों ऐसे वाक्य सोचते हैं, जो आपको खुद की प्रतिभा के मुकाबले बेमिसाल लगते हैं। आप उन्हें कभी लिख नहीं पाते, और इस बात का अफ़सोस आपकी ज़िंदगी को बोझिल करता चलता है।Read More
उन लोगों से कितनी ईर्ष्या होती है, जिनका लिखना सोचने की रफ्तार से ज़्यादा तेज़ होता है। यहां तो हम कुछ सोचकर कंप्यूटर पर बैठते हैं, और शुरुआती वाक्य को ही बीसियों बार काटते हैं। यानी शुरुआत मेरे लिए हमेशा एक कठिन काम होता है। अब जैसे दिल्ली हाट का मैं कोई संस्मरण नहीं लिखना चाहता हूं। लिखना चाहता हूं कि देश की राजधानी में इस जगह के सुकून के पीछे का अर्थशास्त्र कितना कामयाब है। देसी धुन, देसी कला और देसी स्वाद यहां किस वर्ग के लोगों को अपना उपभोक्ता बनाये हुए है। लेकिन चूंकि अर्थशास्त्र अपना इलाक़ा नहीं है, इसलिए ऐसी कल्पना शब्दों की पगडंडी में नहीं ढल पाती।
अक्सर हमारे मित्र कृष्णदेव और उनकी मित्र आकांक्षा हमें दिल्ली हाट बुलाया करते थे। अक्सर हम टालते रहते थे कि बेगानों के ऐश्वर्य में अपनी कुंठा को रसद-पानी देने क्यों जाएं। वे हमें समझाते कि आपके मिज़ाज की हवा यहां बहती है। देश के कोने-कोने से चलकर आवाज़ें और वाद्य यहां पहुंचते हैं। हम अपने मन को समझाते कि गणतंत्र दिवस में नुमाइश लगने वाली देशज संस्कृति की परेड से अलग वहां क्या मिलेगा। बाक़ी तो आईटीओ पर बीस-पच्चीस रुपये में असली देसी माल वाला कैसेट मिल ही जाता है। बिजली रानी से लेकर देसिल बयना का संगीत एक महीना चल कर ख़राब भले हो जाता है- लेकिन इतना तो लगता है कि बौर के मौसम में कान में रेडियो लगा कर आमगाछी की दोपहरी काट रहे हैं।
तो उस दिन साथ-संगत छूटने के लंबे वक्त के बाद जब मैं अपने विवादों का पुलिंदा साथ लेकर चलने वाले हमारे दोस्त राकेश मंजुल के पास गया, तो तय हुआ, शाम में साथ खाएंगे। मंजुल जी ने कहा, जगह तुम तय करो। मेरे मुंह से निकल गया- दिल्ली हाट चलते हैं।
हाथ की कढ़ाई, मिट्टी-लकड़ी की कारीगरी और हमारे गांव की मधुबनी पेंटिंग का मोल जानते हुए हम विंडो शॉपिंग की मनहूसियत से मुख़ातिब थे। राजस्थान की प्याज कचौड़ी और गुलाब जामुन खाने के बाद यूं टहलते हुए अपनी सेहत के साथ इंसाफ़ होता हुआ लगता है- लेकिन राकेश मंजुल आनंद में डूबे हुए थ्ो। वे सरस्वती की प्रतिमा से लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों की लकड़ी से बनी एब्सर्ड कलाकृति के दाम टटोल रहे थे। सब दस हज़ार से ऊपर का था। हमारे तो हाथ-पांव फूल रहे थे। महीने के आख़िर में आने वाली तंगी याद आ रही थी। लेकिन राकेश मंजुल सब ख़रीद लेना चाहते थे।
अचानक लोक संगीत की एक लड़ी मेरे कानों में पड़ी। हमने पीछे पलट कर देखा- छोटा सा स्टेज। राजस्थानी वेशभूषा में कलाकारों की एक पांत साज़ लेकर बैठी है। एक अधेड़ राजस्थानी आदमी और एक ऑस्ट्रेलियाई युवक लंबी माइक के सामने खड़ा दो अलग-अलग ज़बान की सांगीतिक जुगलबंदी में उलझा हुआ है। एक छोटा बच्चा हथेली भर का ढोल लिये स्टेज के वृत्त पर नाच रहा है। हम उधर चले गये। कई दर्जन लोगों की तादाद वहां उनकी महफिल में डूबी हुई बैठी थी।(अच्छा, तो कृष्णदेव और आकांक्षा की बतायी यही वो जगह है, जहां अक्सर वे अपनी शामें हसीन करते रहे हैं।)राजस्थानी कलाकारों ने एक गीत छेड़ा- मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा। मोरनी के विरह या मोरनी के आगे-पीछे मंडराने की कथा कहता ये गीत राजस्थान में मशहूर है और हिंदी फिल्म लम्हे में भी इसको एक्सप्लोर किया गया है...मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...ख़ास बात ये थी कि राजस्थानी कलाकार अपनी बलंद आवाज़ में जब इस गीत की कड़ियां जोड़ते तो लगता कि मन की वीरानी में दर्द ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा है। हमारे हृदय कट कर गिर रहे हैं। ठीक यही एहसास होता था, जब वो ऑस्ट्रेलियाई युवक अपनी ज़बान में मोरया का दर्द उतारता था...
छनन छन चूड़ियां छनक गयी साहिबां...मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा...दिल्ली देश भर के लोगों और कॉरपोरेट बैंकों के कर्ज़ पर ख़रीदी हुई कारों से भरा हुआ महानगर है। यहां ऊंची इमारतें और धुआं बढ़ रहे हैं। ऐसे में दिल्ली हाट रेगिस्तान के उस चश्मे सा नज़र आती है, जो नज़र भर का सुकून आपके ज़ेहन में चमका जाती है। क्योंकि ऐसी जगहों पर उम्र बिता देने की ख्वाहिशों के साथ आपको अपनी भीड़-भाड़ में लौटना पड़ता है। हम दिल्ली हाट से लौट आये हैं। अब कब जाएंगे, पता नहीं। क्योंकि हम सबने अपनी-अपनी ख्वाहिशों के साथ पांव-पैदल चलना बहुत पहले ही छोड़ दिया है।आइए देखते हैं, लम्हे का वो मशहूर गीत, मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...
Posted by Avinash Das at 11:24 PM 7 comments
Labels: यहां वहां जहां तहां
Subscribe to:
Posts (Atom)