Friday, September 28, 2007

नैन घट घट तन एक घड़ी

एक ही कमरा था। बाबूजी थे। तीन बहनें थीं। मां का आंचल था, पतली सूती साड़ी का कोर। हम सब उस जगह को लॉज का एक कमरा कहते थे। एक कतार में ढेर सारे कमरों में जो परिवार बसे हुए थे, उनके घर से अक्सर सब्‍ज़ी की कटोरी आती थी। हमारे घर से भी कभी कभी जाती थी। सबमें इतना घरापा होने के बावजूद हम अपने ही कमरे के लोग थे। हमारी अपनी ही दुनिया थी।

मां ने बरामदे की जगह को मिट्टी से ज़रा सा ऊंचा करके किचन बनाया हुआ था। कोयले के चूल्हे पर खाना बनता था। धुआंई शाम में हम कमरे में खीझ रहे होते थे। सुबह तो पता ही नहीं चलता था कि चूल्हे की आंच कब सुलगायी गयी, कब रोटी बनी और प्याज को भून कर कब बाबूजी के सामने परोस दिया गया। उसकी गंध से नींद खुलती थी।

बाबूजी अहले सुबह उठते थे। उन्हें ट्यूशन पढ़ाने जाना होता था। चार बजे उनके मुंह में ब्रश होता था और एक खास तरह की गुनगुनाहट भी। आज भी उनकी सुबह चार बजे होती है और मुंह धोते वक्त आज भी वे गुनगुनाते हैं। लेकिन अब सबके अपने अपने कमरे हैं और सबकी आवाज़ अपने अपने कमरों में क़ैद है। लेकिन उन दिनों हमारी नींद को बाबूजी की गुनगुनाहट थपथपाती रहती थी। हम अलसाये से उलटते-पुलटते रहते।

नींद खुलती थी आकाशवाणी की आवाज़ से। ये आकाशवाणी का दरभंगा केंद्र है। इस उद्-घोषणा के साथ ही भजन का सिलसिला शुरू होता था। तब उसमें मन रमता नहीं था। लेकिन क्या पता था कि उन भजनों के सुर ज़ेहन में ऐसे बसेंगे कि बहुत बाद में भी हूक की तरह बार-बार सीने में उठते रहेंगे?

पटना के हमारे दोस्त हैं नवीन कुमार। उन्होंने मुश्किल वक्तों में मेरा साथ दिया है। सीपीआई एमएल के होलटाइमर हैं और मसौढ़ी में किसान-मज़दूरों के बीच काम करते हैं। उनके एक साथी के यहां से हमने अपनी पसंद का एक कैसेट उड़ाया। सुना तो एक आवाज़ वही बचपन में आकाशवाणी की जानी-पहचानी आवाज़ के अतीत में छोड़ गयी।

नैन घट घट तन एक घड़ी।

कुमार गंधर्व का ये भजन आकाशवाणी से अक्‍सर प्रसारित होता था। कुमार गंधर्व हमारे बोध में उन्‍हीं दिनों जम गये थे, जब नाटक और कविता हमारी दिलचस्‍पी बन रही थी। पता नहीं कैसे। शायद भोपाल से निकलने वाली कलावार्ता के अंकों में देख कर या बाबा नागार्जुन के यहां से लाये गये एक कैसेट को सुन-सुन कर। एक ऐसी आवाज़, जो लहरों की तरह उठती थी और ऊपर ही कहीं खो जाती थी। सुर का दोहराव फिर नीचे से शुरू होता था। बाद में हमने ढूंढ़ ढूंढ़ कर कुमार साहब को खूब सुना।

आज इंटरनेट पर आवारागर्दी के दौरान वही भजन मिल गया। आप सबकी नज़र कर रहा हूं... नैन घट घट तन एक घड़ी...

11 comments:

अजित वडनेरकर said...

लगा जैसे मेरी यादों से रहगुज़र बन रही हो आपकी....वही कमरा, वही हम चार भाई बहन, बर्तनों की खन-खन, पिताजी का गुनगुनाना... ट्यूशन पर निकलना,.....बिस्तरे में कुनमुनाना...
ये सब गुनगुनी यादे हैं। सबके अपने कमरे हैं सही कहा। यादें साझी हैं पर अब बांटी नहीं जातीं क्योंकि सबके अपने कमरे हैं। एक स्विच कहीं है जो नज़र नहीं आता। उसे दबाते ही उजाला हो जाएगा पर नज़र नहीं आता।
अच्छा संस्मरण। प्यारी, सौंधी यादें । हमें शेयर करने का शुक्रिया अविनाश बाबू।

Udan Tashtari said...

वाह, बड़ी शिद्दत से बचपन याद किया है. सब जगह जुड़ पा रहा हूँ. याद है, जब में छोटा था. शाम को उपर पहाड़ पर बजार में जय गणेश जय गणेश देवा..बजा करता था. आज भी जब वो भजन सुनता हूँ सीधे उसी बचपन के घर में पहुँच जाता हूँ. बहुत बढ़िया लगा यह संस्मरण. बहुत आभार.

Anonymous said...

वो समय भूले नहीं भूलता.तब ये सब नहीं था जो आज है पर फिर भी कितना अपनापा था. इन यादों के लिये शुक्रिया.

Bhupen said...

शायद मैंने भी कभी तुमसे शेयर किया था कि बचपन में सुनी धुनें पीछा नहीं छोड़तीं. फिर से याद दिलाने के लिए शुक्रिया.

ढाईआखर said...

दिल्ली- दरभंगा के बीच में कहीं मैं भी यादों का सफर में निकल पड़ा। अच्छी पोस्ट। लगातार लिखा करो अविनाश।

Gajraj Rao said...

Priy Avinash... mahannagar na to beete huye kal ko yaad karne deta hai , na hi aane waale kal ke baare main sochne ka mauka deta hai...apne AAJ ko bachane,sudharne main itna uljhe hote hain ki , jado ko bhoolne lagte hain...jad ho jaate hain... tumhari yaado ke biscope ne mujhe apne bachpan ki kuch tasveere yaad dila di... shukriya.. Gajraj.

PD said...

बहुत ही खूबसूरती से आपने अपने बचपन को याद किया है..
आपने अपने रसोई की बात करके मुझे भी एक बात याद दिलाया है.. किस समय का है ये तो याद नहीं है और ना ही ये याद है की आप उस समय वहां थे या नहीं.. हमलोग किसी कारण से गांव गये हुये थे और हम सारे भाई-बहनों कि मंडली आपके ही घर में जमीं हुई थी.. रसोई में फूल दीदी रोटियां पका रही थी और तभी ना जाने क्या हुआ था हम सभी को बस रोटीयां खाने कि चाह पैदा हो गयी और बस रोटी और अचार की तो जैसे सामत ही आ गयी थी.. वैसे तो सामत फूल दीदी की भी आ गयी थी तभी तो मधु दीदी भी उनके साथ जुट गयी थी..
पर एक बात तो जरूर है की उन रोटीयों का स्वाद अभी भी महसूस होती है.. :)

Anonymous said...

गांव में कभी नहीं रही अविनाश जी, लेकिन वो रसोई में एक साथ बैठकर मां और बड़े भाइयों के हाथ से नाश्ता करना आज भी याद है। अब तो पूरा परिवार कब पिछला बार एक साथ था ये भी साथ नहीं। सचमुच कितना मासूम था बचपन। कुछ नहीं था तो भी सब कुछ था । वो खोटे सिक्के, कुछ चूड़ियों के टुकड़े, वो सुन्दर कागज कितना खजाना भरा था। पर अब सब कुछ है तो भी कुछ नहीं , वही खाली हाथ ।

Anonymous said...

kumarji ke aur bhajan bhi net par honge? kya Naiharva humka na bhave....kauno thgava nagriya lutal ho.....sakhiya va ghar sabse nyara net par mil sakte hain?
cassette par mere paas hain par phone/cd par utarana chata hun.

Unknown said...

बहुत साफ दिख रहा है...कमरा, बाबूजी, बहनें, बरामदा और माँ....आपके शब्दों का ही कमाल है।

नितिन नाम है said...

सही है गुरु... मजा आ गया...
नींदें तो बचपन मे हमारी भी कुछ इसी तरह खुला करती थी...