हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!
Saturday, September 29, 2007
हिंदी मेरी भाषा
Posted by
Avinash Das
at
11:32 AM
Labels: कविता की कोशिश
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2 comments:
हिन्दी को जितना पढ़े-लिखों ने सताया है ..
गाँवों ने उतना दुलराया है
फ़जीहतें की है मादरीज़ुबान की
इसका माथा झुकाया है
सह्र्दय होकर ज़ुबान को नहीं अपनाएँगे
अपने ही मुलुक में पराए हो जाएँगे
"मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं...........
हिन्दी बोलने वालों का दर्द उभर कर आया है आपकी इन पंक्तियों में....हिन्दी का विकास हो इसके लिए
हर मुल्क की तह्ज़ीब को आत्मसात करना ज़रूरी है.
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