अबीर की दोपहर होती थी। सबसे अधिक खिलता था पीला रंग। वो हाथों से उड़ता था और बालों से गुज़रते हुए चेहरे को सहलाता था। गीतों के बीच उठती मादक स्वरलहरी इन अबीरों को बौरा देती थी। फिर ये पूरा गांव घूम आते थे। दरवाज़े-दरवाजे़। हमारे हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा एक जोड़ी झाल होता था। होली में कोरस का सुर अपने उठान के वक्त लय और ताल नहीं देखता, लिहाजा बेसुरा झाल भी उसमें अपना अक्स खोज लेता है।
हमने कायदे से कुछ भी बजाना नहीं सीखा। सिवाय गाल बजाने जैसे मुहावरे के, जो झूठ के अब तक के सफ़र में आज भी काम आ रहा है।
आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्होंने हारमोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा।
फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्टर हमसे छूट गये।
शास्त्रीयता से लगाव हो गया था। इसलिए तो बेहद बूढ़े हो चले लल्ला की सभी ग्रामीण गीतों से पहले गायी गयी रुबाई हम ग़ौर से सुनने की कोशिश करते थे! वे फाग हों, चाहे चैती, गीत के प्रथमाक्षर से पहले वे साहित्यिक छंद पेश करते थे। छंद कुछ इस तरह होता था,नागरी नवेली अलबेली बृषभान जू केये छंद हमें इस भागती-दौड़ती दिल्ली में फिर से मिल गया। हमारे दफ्तर में एक वरिष्ठ साथी हैं, सत्येंद्र रंजन। आज वे ब्लॉगर भी हैं। इंक़लाब उनका ब्लॉग है। दो साल पहले मार्च में बनारस में हुए सिलसिलेवार धमाके के बाद एनडीटीवी की ओर से गंगा घाट पर आयोजित एक लाइव कंसर्ट में जब छन्नूलाल मिश्रा को सुना, उसके बाद उन्हें और सुनने के लिए बेचैन हो गया। उस कंसर्ट में छन्नूलाल जी ने गाया था, दिगंबर खेले मसाने में होली। छन्नूलाल जी के बहुत सारे गाने मिल गये, लेकिन श्मशान में शिव की होली नहीं मिली। मैं शुक्रगुज़ार हूं सत्येंद्र जी का कि उन्होंने हमें एक घंटे की एक सीडी उपलब्ध करवायी, जो एक लाइव कंसर्ट की निजी रिकॉर्डिंग है। ये बाज़ार में नहीं है। ये दुर्गा वंदना से शुरू होती है, ठुमरी, दादरा, चैती, फाग के बाद राम-केवट संवाद पर विराम लेती है। इन दिनों जब भी मैं एक घंटे से अधिक के सफ़र में होता हूं, मेरे कानों में स्पीकर इसी कंसर्ट को बार-बार सुनने के लिए लगा होता है।
जेवर जड़ाऊं नख शिख लो सजायो है
फूलन की सेजन पै सोय रही चंद्रमुखी
आयो ब्रजराज तहं औचक जगायो है
कहें कवि दयाराम भूषण अंग शोभत अति
दृगन की शोभा देखि मृगशावक लजायो है
तो वाही समय एक लट लटकी कपोलन पै
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
Tuesday, February 12, 2008
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
Posted by Avinash Das at 9:31 AM
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
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5 comments:
ऐसे आलेखों को पढ़कर अच्छा लगता है। कलाकार मन कही खो जाता है। अगर हमारे मन मे अपनी लोकसंस्कृति के प्रति ऐसी ही श्रद्धा और प्यार हो तों लोकसंस्कृति के समय के साथ कहीं खो जाने की आशंका निरर्थक है।
अविनाश जी
मैं आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ विशेषकर दिल्ली दरभंगा छोटी लाइन और मैं आपके शास्त्रीय संगीत के संकलन से काफी प्रभावित हुआ | आपकी पिछली पोस्ट मे आपने पंडित छन्नूलाल मिश्रा का जो १ घंटे की रेकॉर्डिंग थी अगर हो सके तो उसका लिंक देने की कृपा करें | क्योंकि यह विदेश मे ये मिलना सम्भव नही है और ये तो एक अनमोल संग्रहण है |
आलोक कुमार सिन्हा
आई बी ऍम , चेक गणराज्य
Parnam Sir,
Filhaal to main ek pathak hoon aur aapke likhe aur samajik sarokaron se khud ko juda pata hoon. aaj bbchindi mein ek lekh hai...'ek bujurg aavishkarak ki mushkil'....wo bahut hi achchha aur prernadayak lekh hai....main chahta hoon ki aap is par kuchh likhen....main us page ka link yahan par de raha hoon....aur haan post se itar tippani ke liye mafi chahta hoon....Ajeet
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/03/080305_bihar_inventor.shtml
अविनाश जी
पिछले कुछ महीनों से आपके ब्लाग को नियमित रुप से पढ़ रहा हूं, मिथिला की यादें फिर से ताजा हो गई हैं।
सधन्यवाद
अविनाश
रेगिस्तान में पानी मिलाने जैसा सुख ...
सिंगापुर में छन्नू लाल मिश्रा का ट्रैक मिलाना बहुत मुश्किल है .....
आप ने जबरदस्त लिंक दिया .. ये ब्लॉग बहुत दिनों बाद नज़र से आज गुजरा .. हलाँकि आप ने इसे feb में ही पोस्ट किया है ..
आज का इतवार आप ने बना दिया ... अल्लाह आप को और भी ऐसे ट्रैक पोस्ट कराने की कैफियत दे ..
मज़ा आ गया ..
शुक्रिया !
नसीमुद्दीन अंसारी
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