सौ आदमियों को ढोने वाली नाव पर खड़े होकर जाने किस लगन में खोये पुजारी जी बागमती में कूद गये थे। गांव में सनसनी फैल गयी। हर आंगन में यही कोरस था कि पुजारी जी ने जलसमाधि ले ली। हमारा परिवार तब तक गांव से निकला नहीं था। अपनी आवाज़ और हारमोनियम के सुर के लिए जाने जानेवाले पुजारी जी को सब लोग पुजारी जी ही पुकारते थे। जबकि छोटे और बहुत थोड़ी जगह छोड़ कर बने मकानों वाले गांव में, जहां सबका सबसे रिश्ता था, वे भी चाचा थे, बाबा थे, भाई थे। उनकी जलसमाधि के क़रीब पचीस बरस बाद, इस दिल्ली में सुरों की खाक छानते हुए उनकी याद आयी, तो बाबूजी ने बताया - पुजारी जी का असल नाम सत्यनारायण दास था, जो बाद में आचार्य की डिग्री के चलते सत्यनारायण आचार्य में बदल गया।मोहल्ला पर भी
पुजारी जी सीता स्वयंवर के गीत गाते थे। होरी, फाग, चैती के मास्टर थे और लोग चकित-मगन उनकी आवाज़ में खो जाया करते थे। हमारे और हमारी उम्र के दोस्तों के ज़ेहन से उनका चेहरा और उनकी आवाज़ मिट चुकी है। कुछ जो धुंधले स्मृति चिह्न बनते हैं, उसमें गांव के मुहाने पर खड़े मंदिर की फर्श पर पुजारी जी पालथी मार कर बैठे हैं। अब वहां ताश का जमघट लगता है। मीटिंग-सीटिंग होती है। होली में झाल और झांझर की झनकार के बीच मतवाले लोगों के बिखरे हुए केश के ऊपर अबीर-गुलाल उड़ते हैं। वहां लल्ला अस्सी बरस में अभी भी विद्यापति की तान छेड़ते हैं- सामरि हे झामरि तोर देह/ कह कह का सए लाओल नेह (सुंदरी, तुम्हारी सूरत फीकी पड़ गयी है। बोलो किससे प्यार हो गया है)।
बात यह होती है कि पुजारी जी के बाद अब लल्ला के पास ही वो टेक और उठान बचा है।
लल्ला बूढ़े हो चले हैं। सारे दांत झड़ चुके हैं। पान खाते हैं, तो पीक होंठों को तलछट बना कर धार की तरह नीचे उतरने लगती है। छोटा-सा हारमोनियम कभी उनके गले में लटके-लटके कई रेलों में सफ़र करता रहा, अब तो अपनी ही देह मुश्किल से संभलती है। लेकिन होली के आसपास चैती गाने मंदिर या पुस्तकालय पर आ जाते हैं। नयी नौजवानी के लिए थोड़ी मुश्किल होती है। सब अब फिल्मी गानों की धुन के पीछे भाग रहे हैं। दस साल पहले गांव की होली में हमने दलेर मेंहदी के गाने की पैरोडी मैथिली में सुनी थी। लल्ला के पास पुरानी, बिसूरी और उनके ही कंठ में बची हुई धुनें हैं- जो हम सुनना नहीं चाहते। ऊपर से बुढ़ापा गले में अटकता है। खांसी होती है, पर लोग तो बस झूमते रहना चाहते हैं। इसलिए वे लिहाज़ छोड़ कर हूट करना सीख गये हैं।
हमारी बहन ने एक बार लल्ला से कहा था, लल्ला गीत सिखा दीजिए न। लल्ला ने कहा था, बेटा तुमको गाना ज़रूर सिखाएंगे।
अब हमारी दिलचस्पी सीखने और सुनने में नहीं है। आवाज़ की असलियत से ज़्यादा हमारी इलाक़ाई/कबीलाई संवेदना किसी को इंडियन आइडल बना देती है। हम सब जिस तरह की दिल्लियों में रहते हैं, वहां कोई रस नहीं, बस जीने की नियति और आदत की वजह से रहते हैं। कभी बस पर कोई ग़रीब बच्चा ठुमरी गाते हुए मिल जाता है, तो भी जेब से अठन्नी नहीं निकलती है - क्योंकि वो भी एक फ्लैश है - जो हफ्ते में कई बार चमकता है और बुझ जाता है। लेकिन इस रूखे-सूखे रेगिस्तान में भी कभी-कभी असली चश्मा मिल जाता है।
एक ऐसी ओरिजनल आवाज़ मिल गयी, जिसकी उम्मीद हमारी नौजवान ज़िंदगियों से तो लगभग टूट ही रही है। मैं आपको सुनाता हूं, लेकिन ये पता नहीं चल पाया कि आवाज़ किनकी है। हमारे इतिहास के पन्नों पर न जाने कितने नामालूम लोगों ने सोने-चांदी की कलम से हीरा-पन्ना लिख डाला है! गीत विद्यापति का है - मानिनी आब उचित नहि मान।
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बाबा नागार्जुन ने विद्यापति के जिन गीतों का गद्यानुवाद किया है, उनमें ये भी है। गीत की पंक्तियां हैं...मानिनी आब उचित नहि मान।गद्यानुवाद: मानिनी, अब मान छोड़ो, इस समय अपने पांचों शरों के संधान कर कामदेव आ डटा है। कैसी सुंदर रात है, चांदनी जगमगा रही है। एक-एक पत्र से अमृत बरस रहा है। ऐसा समय अब और नहीं मिलेगा। मिलन-सुख के लिए यही अवसर ठीक रहेगा।
एखनुक रंग एहन सन लागए जागल पए पंचबान।।
जूड़ि रयनि चकमक करु चांदनि एहन समय नहीं आन।
एहि अवसर पिय-मिलन जेहन सुख जकरहि होए से जान।।
रभसि-रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करए मधुर मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुअ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परतिग्रह करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम थिर न रहय मन दिढ़ करु अपन गेआन।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कबि भान।।
भ्रमर मंडरा-मंडरा कर, झूम-झूम कर कली को छेड़ रहा है; मकरंद पान कर रहा है, सब अपने-अपने प्रीतम को जिमा चुकी है, तुम्हारा प्रीतम भूखा है।
तुम्हारी नाभि के ऊपर की लहरियां तरंगित हैं। गंगा-यमुना के संगम पर दोनों स्तन शिव-शंभु जैसे प्रतीत होते हैं। प्रियतम बहुत ही आतुर हो रहा है, वह याचक बन कर खड़ा है। सुंदरी, इस सुअवसर पर तुम अपना सर्वस्व दान कर दो।
मन का क्या ठिकाना है! वह तो दीपशिखा की भांति कांपता ही रहेगा। अपने विवेक को दृढ़ करो। मदन-वेदना बहुत अधिक मात्रा में संचित हो चुकी है। वह बड़ी भयानक यातना देगी तुझको - विद्यापति कवि तुम्हें समझा रहे हैं।
Friday, November 16, 2007
मानिनी आब उचित नहि मान
Posted by Avinash Das at 9:36 PM
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
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2 comments:
ejan neek awaaz main vidyapati sunyabak lel dhanvaad avinash jee.
----pramode mallik.
p_mallik@hotmail.com
सुन्दर गीत ! विद्यापतिअ की पदावली हमारे एमए के स्लेबस में थी अब हटा दी गई है ! संभवत: यह सोचकर कि क्लास में टीचर व्याख्या कैसे करेगा :) ! पर हमने पढ लिया है मैथिल कोकिल को ! बहुत धन्यवाद !
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