बचपन से लेकर मेरा सफ़र बहुत छुपा हुआ रहा है। मैंने पढ़ा, नहीं पढ़ा - किसी को मतलब नहीं था। कभी-कभी राय मिली, तो वो भले सबकी सुनी - लेकिन हमेशा वही पढ़ा, जो मेरे मन को कबूल था। कभी कॉमिक्स, कभी पराग। थोड़े बड़े हुए तो सुमित्रानंदन पंत, काका हाथरसी और नवीं के दिनों में पहली बार गोदान। ये रांची के दिन थे। दरभंगा में लघु पत्रिकाओं से दोस्ती हुई और वहीं पाश, धूमिल और राजकमल चौधरी कविताओं को पढ़ते हुए किसी ने मुझे टोका नहीं। घर में मेरा संवाद ही किसी से नहीं था। था भी तो मेरी तरफ से नहीं था। मुझे लोग करियर के बारे में सलाह देते, डांटते, पीटते - लेकिन एकतरफा सबको अनसुना करते हुए मेरी आवारागर्दी के किस्सों की निजी डायरी मोटी होती गयी है।
बाबूजी की पीढ़ी में किसी से मेरी बात नहीं होती। हां-हूं। बस इतना ही। पापा से भी नहीं, जो आमतौर पर हम भाई-बहनों से काफी बातें करते हैं। उस वक्त पापा की पोस्टिंग विक्रमगंज में थी और मम्मी, छोटू, दीदी, बाबू पटना में रहते थे। मेरे लिए ये एक ऐसा आश्वस्त करने वाला ठिकाना था कि जिस दिन घर का खाना खाने का मन होता था - पहुंच जाता था। पहुंचना अक्सर रात में ही होता था, जैसा कि बाबू ने एक पोस्ट में मेरे बारे में लिखा भी है। वहां मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने को मिलता था और छोटू होता, तो साथ में कैरम खेलता था और वो हर बार मुझे हरा देता था। पहले तो अक्सर होता था, बाद में बीआईटी सिंदरी पढ़ने चला गया था।
पर संवाद यहां भी न पापा से था, न मम्मी से, न बाबू से, न छोटू से। सिर्फ दीदी से मेरी बात होती थी। उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटी होगी, लेकिन हमारे पूरे परिवार में उसे सब लोग दीदी ही कहते हैं। उसका नाम रश्मि प्रियदर्शिनी है। अब शादी के बाद हो सकता है उसने अपने नाम में कुछ फेरबदल की होगी, मुझे नहीं बताया है। अब जब मैं याद करने की कोशिश करता हूं तो परिवार में संवादहीनता की भरी-पूरी स्थितियों के बीच एक रश्मि ही थी, जिससे मैंने ख़ूब बात की। सब तरह की बातें। सपनों और सिद्धांतों की बातें। अपने प्यार की बातें। अख़बार की बातें। उससे ख़ूब बहसें भी होती थीं, लेकिन ज़्यादातर मेरी बातों से सहमत हो जाती थी। मैं उसे अक्सर उकसाया करता था, जीवन यूं ही बर्बाद करने से कुछ नहीं होगा - तुम्हारी अंग्रेज़ी अच्छी है, कुछ कर लो। वह कहती थी कि हां, करूंगी।
पिछली बार, जब छोटू की शादी में वो मिली, तो मैंने उसे याद दिलाया था सब। उसकी प्यारी बेटी उसके साथ थी। उसने कहा कि जो वो नहीं कर सकी, अब उसकी बेटी करेगी। मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि उसकी बेटी बड़ी हो और उसके साथ रहने का मौक़ा मिले तो उसके साथ भी बहसबाज़ी करूं।
रश्मि को मैं बताया करता था कि अख़बार में क्या हो रहा है, मुझे क्या करना है। वह घर में बताती होगी, तो लोगों को पता होगा - वरना मेरे अरमानों की ख़बर सिर्फ़ हमारे-उसके बीच ही रही होगी।
रश्मि का अध्याय छोड़ दें, तो अब तक सिर्फ़ मैं ही जानता रहा हूं कि मैंने पटना में कितने विरोध और झंझावातों के बीच पत्रकारिता की। प्रभात ख़बर में ट्रेनी सब एडिटर की जगह मिली थी और सिर्फ़ चार साल बाद उस अख़बार की साप्ताहिक पत्रिका का संपादक मुझे बनाया गया था और फिर दो साल बाद ही पूरे संस्करण का समन्वय संपादक।
पटना से लेकर रांची, दिल्ली, देवघर, मुंबई में कितने अवसर आये होंगे, जब प्रतिकूल परिस्थितियां मेरे आगे के सफ़र में दीवार बन कर खड़ी हो गयी हों। मैंने सब पार किया। कभी विरोध की परवाह नहीं की। थोड़ा विचलित ज़रूर हुआ, लेकिन तुरत संभल गया।
पहली बार बहुत विचलित हूं - क्योंकि अपने साथ हुए तमाम हादसों की ख़बर, जो सिर्फ़ मैं जानता था - आज मेरा परिवार भी जानता है। और वो भी ब्लॉग में अपनी सार्वजनिक उपस्थिति की वजह से।(अजीब है ये ब्लॉग भी। बाबू भी इतना शानदार लिख रहा है कि कई बार मुझे ताज्जुब होता है कि हमेशा ख़ामोश रहने वाला ये लड़का और अचानक बीच एक चुहल भरी ग़ैर साहित्यिक बात कहके ग़ायब हो जाने वाला ये लड़का इतनी संजीदगी से चीज़ों को देखता भी है! मैं उसके ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं करता - क्योंकि कई बार मुझे समझ में नहीं आता, मैं क्या लिखूं। ज्ञानदत्त जी जब उसकी तारीफ़ करते हैं, तो बहुत खुशी होती है।)परसों ऑनलाइन था, तो छोटू चैट बॉक्स में आ गया। उसने पूछा कि हिंदी ब्लॉगिंग में ये क्या हो रहा है - आपके बारे में क्या-क्या लिखा जा रहा है - मुझे कुछ नहीं पता - पापा बता रहे थे। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। मैंने उसे लिखा कि किसी बेईमान आदमी की नीयत पर उंगली उठाने की सज़ा जो मिल सकती थी, मिल रही है।
मुझे पूरी उम्मीद है कि बात उसकी समझ में नहीं आयी होगी। मेरे उन तमाम दोस्तों की तरह, जो एक लड़ाई में मुझे अकेला छोड़ गये। अच्छा हुआ, वरना उन तमाम दोस्तों का चरित्र हनन करने की कोशिश भी की जाती। उनके विवेक ने उन्हें बचा लिया। विरोधियों का चक्रव्यूह तो मेरी नियति रही है - मुझे अकेले ही लड़ना है - और सोचे हुए सफ़र को पूरा करना है।
Monday, June 2, 2008
परिवार में पहली बार सार्वजनिक
Posted by Avinash Das at 10:46 PM
Labels: चिंता की लकीरें, स्मृतियों की अनुगूंजें
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8 comments:
अरे वाह. पर्सनल पोस्ट तो बढ़िया लिखते हैं आप.
भैया, सबसे पहले तो मैं आपको ये याद दिलाना चाहूंगा कि दीदी का नाम रश्मि प्रियदर्शीनी नहीं.. रश्मि प्रिया(अब मैं दीदी को ये बात बताने जा रहा हूं, आगे जो हो वो आप जाने और दीदी :)) और शादी के बाद भी नाम नहीं बदला है.. शायद आपको पता ना हो, जब भैया बीआईटी सिंदरी चले गये थे उसके बाद मेरी और दीदी कि बहुत जमती थी.. हम हर एक बात पर बातें करते थे.. और आपकी और दीदी कि जो भी बातें होती थी वो सभी दीदी के अलावा घर में मुझे तो पता होती ही थी..
रही बात ब्लौग की बातें पता चलने की तो, एक दिन पापा जी मोहल्ला पढ रहे थे और उसी से उन्हें इन सब बातों का पता चला.. आप तो जानते ही हैं कि पापा जी कि नौकरी ऐसी है जिसमें उन्हें अब तक हजारों-लाखों लोगों से मिलने-समझने का मौका मिला है.. अब तक के अपने अनुभव से वो एक नजर में किसी भी आदमी को पहचान जाते हैं.. सो उन्हें कोई इतनी आसानी से भटका नहीं सकता है.. आप ज्यादा इस पर सोचे नहीं.. हमारा पूरा सपोर्ट आपके साथ है.. अपने कर्णगोष्ठी समाज की बात तो मुझे पता नहीं कि वो क्या सोच रही होगी( और जितना मैं आपको जानता हूं आपको जमाने के सोचने की फिक्र कभी नहीं रही) मगर आप हमारे परिवार को जानते ही हैं कि इन सब बातों से ज्यादा कोई फर्क नहीं परता है..
आप भैया के औरकुट प्रोफ़ाईल का पता के बदले ये पता दे सकते हैं.. http://prashant7aug.blogspot.com/2007/07/blog-post_23.html
न आप अकेले हैं, न ख़ुद को अकेला समझिए.
आप गंभीरता से अपना काम करते रहिए. ऐसे हमले पीड़ादायक होते हैं, लेकिन बेहतर होता है, अपना काम करते रहना.
duniya me kaun hai aisa jis par logon ne ungaliyan nahee uthyee. par jo sahee hai vah sahee hee hai. galeliyo ko sach bolne ke liye suulee par chaçha diya gaya. chinta na karen. aap sahee hain yahee mayne rakhta hai. aap galat hain to kuchh bhee mayne nahee rakhta hai.
मुझे अकेले ही लड़ना है - और सोचे हुए सफ़र को पूरा करना है।
सबसे अच्छी बात यही है कि आपका आत्मबल आपके साथ है। सिर्फ़ यही है जो बहुत आगे तक काम आता है, जो साथ छोड़ रहे हों, उनके लिए अफ़सोस कैसा...डटे रहिए।
भरे पूरे मोहल्ले में रहकर आप अपने को अकेला न कहें। लड़ाइयों में लोग साथ छोड़ते रहते हैं और नए लोग जुड़ते भी रहते हैं, पर असली लड़ाई तो वही है जो हम अपने भीतर लड़ते हैं। और वह लड़ाई सब को अकेले ही लड़नी पड़ती है।
अविनाश जी,
नमस्कार,
ब्लोग पर घुमते घुमते आपके इस पता पर पहुंच गया. और यहां तो एक दुसरा ही अविनाश को पाया मैने. मैने भी पढा था आपके बारे मे कुछ ब्लोग्स पर. और उस दिन मुझे लगा कि हिन्दी ब्लोगिन्ग को mature होने मे कुछ समय लगेगा. professional rivalry को personal rivalry को अलग रखना लोगो को मालुम नही है. विचारो पर वक्तव्य देना अच्छा है लेकिन उसे व्यक्तिगत रुप देना अच्छा नही है. मुझे आपके बहुत सारे लेखो से वैचारिक मतभेद रहि है. लेकिन आपके व्यक्तित्व पर आरोप पढ कर काफी दुख हुआ. आप लिखते रहें. मै आपके ब्लोग का नियमित पाठक हुं. बिहारियों का नाम ऊच्चा करते रहिये.
सर्वेश
बन्गलुरु
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