मुशायरे कभी सुना करते थे। साइकिल पर चढ़ कर मोराबादी से हरमू कॉलोनी तक जाने का जुनून अब तक ज़ेहन में है। ये रांची की बात है। बाद में शहीद चौक के पास जिला स्कूल में भी एक कवि सम्मेलन हुआ था - जिसमें उन दिनों शहर में अच्छी खासी चर्चा पाने वाले एक हास्य कवि ने पत्नी चालीसा का पाठ किया था। एक बार बेगूसराय में केडी झा और प्रदीप बिहारी के सौजन्य से हमने भी अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में शिरकत की थी, जिसमें ज्यादातर आस-पड़ोस के कवि थे। अखिल भारतीयता के नाम पर यश मालवीय आये थे, जिन्होंने मेरी गुजारिश पर सुनाया था - कहो सदाशिव कैसे हो। ज्यादातर कवि सम्मेलन बस ऐसे ही हुआ करते थे। कोई दरभंगा का दुष्यंत आ जाता था, तो कोई समस्तीपुर के साहिर आ जाते थे। असल मुशायरे में जाना एनडीटीवी की नौकरी के पहले साल में हुआ। कुमार संजॉय सिंह ले गये थे, जो एनडीटीवी इंडिया पर अर्ज किया है के प्रस्तोता थे। वसीम बरेलवी और खातिर गजनवी को वहां सुना। खातिर गजनवी की मौत हाल ही में हुई। उन्होंने सुनाया था, गो जरा सी बात पर बरसों के याराने गये। लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गये। उस मुशायरे का जिक्र एक आर्टिकल में मैंने किया था, जो हंस में छपा। मैंने लिख दिया था कि चवन्नी छाप शायरों की सोहबत में रहने वाले संजॉय सिंह मुझे इस शानदार मुशायरे में ले गये थे। चवन्नी छाप वाली बात पर संजॉय जी से जो झगड़ा हुआ, वो आज तक जारी है।
गालिब पर एक समारोह था, बल्लीमारान में - तब एक मुशायरा हुआ। वो पहला मुशायरा था, जिसमें शुरू से आखिर तक बैठकर हमारी रात गुज़री। मेरा दोस्त और मैथिली-हिंदी में कविताएं-आलोचना लिखने वाला पंकज पराशर साथ था और जमशेदपुर की मेरी परिचित रश्मि भी थी, जिन्हें मैं अपने साथ ले गया था। या ये भी हुआ होगा कि वे मुझे अपने साथ ले गये होंगे - याद नहीं। मुनव्वर राना, गोपालदास नीरज, बाल कवि बैरागी, निदा फाजली सब थे। लेकिन जिस एक शख्सियत की वजह से मैं यहां मुशायरों के जिक्र में उलझा हुआ हूं, वे थे अहमद फराज़। अभी अभी अपने चाहने वालों से हमेशा के लिए विदा हो चुके फराज़ साहब की गजल हमने टूटे हुए दिल के दिनों में खूब गाये हैं - रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ। आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ। अहमद फराज साहब ने बल्लीमारान में बहुत सारी गजलें सुनायीं। लेकिन एक गजल की याद हमेशा ताजा रहती है। वो मैं आप सबके लिए यहां पब्लिश कर रहा हूं।
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़रके देखते हैं
सुना है उस को भी है शेरो शायरी से शगफ
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते है
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारे बामे फलक से उतरके देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आंखें
सुना है उसको हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुर्माफ़रोश आंख भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं... बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्मे तसव्वुर से दश्ते इमकां में
पलंग ज़ावे उस की कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुले मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवाने तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तां से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर करके देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
8 comments:
सुभान अल्लाह...बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है ये फ़राज़ साहेब की...मैंने इसे देल्ही के एक मुशायरे में उन्ही के मुहं से सुना था...जश्ने बहार नाम के मुशायरेकी याद आप ने ताज़ा कर दी जो सन २००४ में हुआ था. यकीनन फ़राज़ साहेब की बराबरी करना किसी के बस का नहीं...उनके फन के जलवे का इससे बढ़ कर सबूत और क्या होगा?
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं
क्या बात है...वाह...वाह....वाह....
नीरज
achha laga aapko padhkar,Faraz saheb ki gazal bhi behatarin hai
Shukriya mushaiyaron aur Faraz sahab se jude apne sansmarnon ko baantne ke liye.
मैंने तो फराज साहब को इसी गजल से जाना था-बहुत दिन नहीं हुआ दो साल पहले की ही बात है।
लेकिन आपको दरभंगा लाईन पर कुछ और भी ट्रेन चलानी चाहिए-आप लिखने में कंजूसी नहीं कर रहे?
वाह!! गजल पढ़कर आनन्द आ गया.
अहमद फ़राज़ साहेब को श्रृद्धांजलि!!
दादा, बड़े शायर तो बड़े होते ही होंगे, मगर मुज़फ़्फ़रपुर के मुनव्वर और दरभंगा के दयाराम जैसों को चवन्नी छाप कहकर ख़ारिज़ करना एकदम सही होगा क्या? बात-बात में गहरी बात कह जाते हैं चवन्नी टाइप लोग - अस्सी पर एक साधु ने सुनाया था शेर - "जमीन पर लेटा था वो, लोग कहते मर गया; अरे था सफर के बीच में वो, आज अपने घर गया"...वैसे उर्दू-हिंदी-साहित्य-शायरी-मुशायरा-गोष्ठी, इनपर अपना एक प्रतिशत भी दखल नहीं है, सो गुस्ताख़ी माफ़ करें।
दैनिक भास्कर में अपने आखिरी दिनों में यह गजल मैंने आफिस में ही अपने शायर मित्र रमेश उपाध्याय को डूब कर और कुछ कुछ शायरों के अंदाज में सुनाई थी। ये यहां पढ़ी तो फिर पुराने दिन हरे हो गए।
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