Saturday, August 23, 2008

देवता मेरे सपने चुराते हैं और महंथों को बेच आते हैं!

तारानंद वियोगी मैथिली के बड़े कवि हैं। उनकी कविताओं का हिंदी में एक चयन अगले माह नयी किताब प्रकाशन से छपने वाला है। चयन और अनुवाद मेरा है। संकलन की भूमिका यहां प्रस्‍तुत है। साथ ही दो कविताएं भी। नोश फरमाएं।

तारानंद वियोगी की कविताएं मेरे लिए महज पाठ-सामग्री कभी नहीं रहीं, उन तमाम शब्‍दों की तरह जो अनगिनत लेखकों ने इजाद किये और जिन शब्‍दों ने हमारे लिए दुनिया को जानने-समझने वाले दरवाजे की सांकल उतारी। तारानंद की कविताओं ने मेरी निजी दुनिया का निर्माण किया है, जिसमें चलने-बोलने-सोचने और लिखने का तरीका शामिल है। मेरी पैदाइश के ठीक से अठारह बरस भी नहीं हुए थे, जब तारानंद से मेरा परिचय हुआ। मैं उस वक्‍त अभिव्‍यक्ति के खेत में उगा हुआ नवान्‍न था और वे हमारी भाषा को कहन की नयी गली में ले जाने वाले समर्थ साहित्यिक युवा। इस गली में परंपरा की झोपड़पट्टियां नहीं थीं, आधुनिकता के बनते हुए मकान थे। उस वक्‍त उनके पास विधाओं की कोई ऐसी सड़क नहीं थी, जिस पर वे दौड़ नहीं रहे थे। उनके अलावा मेरे पास उस वक्‍त बाबा नागार्जुन थे, जो सांसों की आखिरी तकलीफ से गुजर रहे थे और कभी कभार मेरे कागज पर थरथराती उंगलियों में कलम फंसाकर प्रसाद की तरह कुछ वर्ण खींच देते थे। सा‍हित्‍य की मेरी पाठशाला में वह पहली कक्षा थी, तो तारानंद वियोगी मेरे महाविद्यालय। मेरी अपनी आवारगी ने विश्‍वविद्यालय में दाखिल नहीं होने दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।

तारानंद वियोगी महिषी के रहने वाले हैं। ये गांव बिहार के सहरसा जिले में पड़ता है। इसी गांव में शंकराचार्य से शास्‍त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र हुए और राजकमल चौधरी भी, जिनके हिंदी उपन्‍यासों और जिनकी मैथिली कहानियों ने आने वाली पीढ़‍ियों को एक नयी लीक, नया साहस दिया। महिषी में ही सिद्ध शक्तिपीठ तारास्‍थान है, जिसकी वजह से शहरी रहवासियों की भीड़ आये दिन जुटती रहती है। तारानंद की अपनी शख्सियत में महिषी के इन तीनों तत्‍वों का निचोड़ मौजूद है। एक सिरे से आप उनकी कविताएं पढ़‍िए, मंडन मिश्र का तर्क कौशल, राजकमल चौधरी का आधुनिक-बोध और तारास्‍थान की आस्‍था का त्रिकोण आपको हर जगह मिलेगा।

मिलनसार तारानंद एकांतिक भी हैं, जो उनकी अध्‍ययनशीलता को बनाये रखता है। वे संस्‍कृत के विद्यार्थी रहे हैं और अंग्रेजी की शतकाधिक पुस्‍तकें उन्‍होंने पढ़ी हैं। वे बचपन में अल्‍पकालिक चरवाहा भी रहे - बकरी चराते थे। वे उन समकालीन कवियों की तरह नहीं हैं, जिनके पांवों में हमेशा चप्‍पलें रहीं और जो संवेदना के कारोबार को एक शानदार सेल्‍समैन की तरह आगे बढ़ाना जानते हैं। उनका प्रिय श्‍लोक है - ईशावास्‍य मिदं सर्वम्। ईश्‍वर सभी जगह है। वो ईश्‍वर जो आपकी चालाकियों को उंगलियों पर गिन रहा है। वो ईश्‍वर जो आपके शार्टकट का हिसाब सहेज कर रख रहा है। इसलिए चाहे वो जीवन जीने का मोर्चा हो या कविता रचने का, ईमानदारी और पवित्रता तारानंद के लिए पहली शर्त है।

इस संग्रह में उनकी जितनी भी कविताएं हैं, उन्‍हें जोड़ेंगे तो आपको उनका जीवनवृत्त मिलेगा। एक ऐसा जीवनवृत्त जिसमें जितनी मात्रा में संताप है, तो उम्‍मीद के आसार भी लगभग उतनी ही मात्रा में है। उनकी कविताएं सिर्फ दृश्‍य नहीं हैं - दर्शन हैं, जो जीने की नयी राह देते हैं। तारानंद वियोगी कविताएं मनुष्‍यता के विविध आयामों की चर्चा करती चलती है। खेमों-जातियों में बंटे समाज की नयी व्‍याख्‍या करती चलती है। सरकारी दफ़्तरों में फैले भ्रष्‍टाचार की तल्‍ख रिपोर्ट करती चलती है। ये तीन तथ्‍य मैं उनकी महज तीन कविताओं को सामने रख कर जाहिर कर रहा हूं - बुद्ध का दुख, ब्राह्मणों का गांव और गांधी जी। वरना जितनी कविताएं, उतने अर्थ। हर कविता इतिहास और समाजशास्‍त्र की पगडंडी पर अनोखी संवेदना के क़दमों से चलती हुई। इन कविताओं का अनुवाद मेरे लिए संभव नहीं था। ठीक उसी तरह जैसे किसी भी लोकभाषा के साहित्‍य का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं, अगर उस साहित्‍य की चेतना भाषाई मौलिकता में नहायी हुई हो। यानी ये कविताएं अपनी मूल भाषाई लय में जो कह रही हैं - सिर्फ उसके सारों का ये संकलन है।

मेरे लिए तो यह उस काम की तरह है, जो अभी खत्‍म नहीं हुआ है और जो कायदे से शुरू भी नहीं हुआ है।

ईशावास्यमिदंसर्वम्

समूचे ब्रह्मांड में फैले हैं देवता
तीनों लोकों में चौदह भुवनों में दसों दिशाओं में
जल में थल में अनिल अनल में
ओह! कोई जगह खाली नहीं बची
जहां आदमी सिर्फ अपने साथ हो सके

तरस गया हूं तड़प रहा हूं एकांत के लिए
लेकिन ये देवता! जीना हराम कर दिया है इन्होंने!

पानी पीता हूं
तो बैक्टीरिया वायरस की तरह
जाने कितने देवता मेरे आमाशय में पहुंच जाते हैं
कैसे खाऊं अन्न?
वृक्ष के फल भी शुद्ध नहीं हैं न मुरगी के अंडे
जाने किस धूर्त्त ने इस मिलावट की शुरुआत की
कि पांच हजार वर्षों से
मेरा स्वास्थ्य चौपट चल रहा है!

चीलर की तरह ये
अंडे बच्चे देते जा रहे हैं
बढ़ती जा रही है मिलावट
हराम होता जाता है आदमी का जीवन

पत्नी से प्रेमालाप तक नहीं कर सकता चुपचाप
जाने कितने देवता
टकटकी लगाकर
घूरते रहते हैं

अपना वीर्य तक नहीं बचा विशुद्ध
कि हम वो बच्चे पैदा कर सकें
जो सिर्फ हमारे हों

दुख समझो मेरा दुख
देवता मेरे सपने चुराते हैं
और महंथों को बेच आते हैं!

त्वया समं यास्यति

बड़े तेजस्वी थे वह राजा
मगर एक दिन चले गये।

बड़े खूंखार थे
थे बड़े मायावी
एक और राजा

बड़े मेधावी थे
जाने कैसे सूंघ लेते थे ख़तरा
और पैदा होने से पहले मार डालते थे
मगर एक दिन
खुद भी मार डाले गये।

एक और आये
वह भगवान थे
एक और आये
वह शैतान थे।

समंदर को चूस लेने वाले आये
सूरज को ढंक देने वाले आये
कुछ घोड़ों पर कुछ बैलों पर
कुछ गोलों पर कुछ थैलों पर
कुछ खाली आये कुछ भरे हुए
कुछ ज़िन्दा कुछ मरे हुए
मगर सब गये
सबके सब चले गये।

चमको बमको राजा
अकड़ो पकड़ो
जो चले गए वह तुम नहीं थे

और चलाओ गोलियां
और स्वादो मछलियां
चप्पा-चप्पा जमीन नपवा लो
टके-टके पर लिख लो अपना नाम

खाओ गाओ राजा
पीओ जीओ
मस्ती करो राजा मस्ती
दुश्मन के हिस्से जाए पस्ती

भरभराओ राजा
मगर चरमराओ मत

यह बेबस धरती
किसी के साथ गयी तो नहीं
पर तुम्हारे साथ जाएगी
पक्का जाएगी

तुम्हारे साथ नहीं
तो क्या ज़हन्नुम में जाएगी?

3 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

आशा है जल्द ही यह किताब हमे मिलेगी. इससे पहले अंतिका में आपको पढ़ा था, जिसमे आपने अपनी कविता के बारे में लिखा था, मैथिली की कविता के बारे में.

अनुवाद को लेकर आपकी ये बातें पसंद आयी-

'हर कविता इतिहास और समाजशास्‍त्र की पगडंडी पर अनोखी संवेदना के क़दमों से चलती हुई। इन कविताओं का अनुवाद मेरे लिए संभव नहीं था। ठीक उसी तरह जैसे किसी भी लोकभाषा के साहित्‍य का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं, अगर उस साहित्‍य की चेतना भाषाई मौलिकता में नहायी हुई हो।

यानी ये कविताएं अपनी मूल भाषाई लय में जो कह रही हैं - सिर्फ उसके सारों का ये संकलन है।'

Priyankar said...

तारानंद वियोगी को पहले भी पढा है . अनूठे कवि हैं वे . उनकी कविताओं से मेरी यह धारणा और भी पक्की होती जा रही है कि इधर की महत्वपूर्ण भारतीय कविता अपेक्षाकृत छोटी भाषाओं यथा मैथिली,मणिपुरी,नेपाली तथा भारत की विभिन्न जनजातीय भाषाओं/बोलियों में लिखी जा रही है .

रात का अंत said...

अविनाशजी अहांक मिथिला मिहिर में बड् दिन स लेख नहि भेट रहल छी शायद 2007 स ओहू पर ध्यान दियौ शुरू केने हयाब त कोनो संकल्प त अवश्ये मानस पटल पर होयत ओकरे उकेरबाक प्रयास कैलंहू आशा अछि जे जल्दिये किछ पढ़बाक सामग्री भेटत... धन्यवाद