भोपाल। 26 नवंबर की रात हम घर जल्दी आ गये थे। इंग्लैंड के साथ पांचवां वन डे मैच था। इंडिया की जीत के साथ ही हमने एनडीटीवी इंडिया लगा कर देखा कि इस पांचवें और तयशुदा जीत पर कैसी ख़बरें आ रही हैं। हम उन नये मुहावरों को जानने के लिए भी मैच ख़त्म होने के बाद टीवी चैनलों पर जाते हैं - जो किसी भी मीडिया एथिक्स से ऊपर गढ़े जाते हैं। जैसे कि धोनी का धमाल या फिर धोनी की टोली ने किया धराशायी। एनडीटीवी इंडिया पर क्रिकेट था - लेकिन शोर मचाने के लिए मशहूर स्टार न्यूज और आजतक पर मुंबई में ताबड़तोड़ गोलीबारी के फ्लैश आ रहे थे। मिनटों में बाक़ी के चैनलों ने भी मुंबई का रुख कर लिया। रात गहरा रही थी और मामला संगीन होता जा रहा था। हम वक्त पर सोये और सुबह के अखबार ने हमें बताया कि मुंबई में सौ जानें जा चुकी हैं और सुबह के साढ़े तीन बजे तक - जब अखबार का आखिरी पन्ना छपने जा रहा था - बेकाबू आतंकवादियों की दहशतगर्दी और एनएसजी कमांडोज़ का ऑपरेशन जारी था। हमने बिना किसी हड़बड़ी के टीवी ऑन किया। हां, अब भी आतंकवादियों पर काबू करने की कोशिशें जारी थीं। लोगों के मारे जाने का सिलसिला भी जारी था। हम सुबह नाश्ता नहीं करते (एक कटोरी कॉर्नफ्लेक्स खाने को आप भी नाश्ता नहीं ही कहेंगे) - इसलिए नाश्ता नहीं करने के रोज़मर्रे के साथ घर से निकले। साथ में लंचबॉक्स लेकर।
ऑफिस पहुंचने तक मुंबई में सब कुछ चल रहा था। अब हम एक्साइटेड हुए - क्योंकि इस एक्साइटमेंट की काम को ज़रूरत थी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में हम कुछ रोज़ से लड़के-लड़कियों के साथ इंट्रैक्ट करने के लिए जाते हैं - वही सब बीच-बीच में बताते रहे हैं कि ‘अ वेन्सडे’ एक फिल्म आयी थी - आप देखते - कमाल की फिल्म थी। आम आदमी का गुस्सा, आतंकवाद, मीडिया के इस्तेमाल पर वैसी फिल्म अब तक नहीं बनी - वगैरा-वगैरा। हमारे न्यूज एडिटर महेश लिलोरिया ने जब कहा कि हम मुंबई में चल रहे मौजूदा घपले को रील लाइफ के ड्रामा से जोड़ते हैं, तो हमारे एक्साइटमेंट को एक आधार मिला। हम इस संतोष के साथ घर लौटे कि आज का अखबार हमने कमाल का निकाला है। कल लोग देखेंगे, तो वाह तो कहेंगे ही।
हमने दोपहर में लंच किया। रात में डिनर। सोने से पहले जब टीवी ऑफ कर रहे थे - मुंबई में आतंकी कार्रवाई पर काबू की कोशिश जारी थी। यानी 24 घंटे बाद भी सीन साफ नहीं था। हम सो गये, क्योंकि रोज़ रात को सो जाने का नियम है।
सुबह हमने सबसे पहले अपना अखबार खोला और बार-बार उसे निहारा। अपने कमाल पर निहाल हुए - लेकिन एमएससी ईएम की एक छात्रा के फोन ने हतोत्साहित कर दिया। उसने ‘अ वेन्सडे’ के साथ मुंबई मामले की तुलना पर एतराज़ जाहिर किया था। हमने उससे कहा कि अपना एतराज़ लिख कर भेज दो - हम उसे भी छापेंगे। आज भी हम कॉर्नफ्लेक्स खाकर, लंच लेकर ऑफिस गये और न्यूज एडिटर से फीडबैक लिया। उन्होंने बताया कि आज का अखबार देख कर सब चकित हैं। मैंने उन्हें सुबह के फोन वाला फीडबैक दिया और उस छात्रा को दफ्तर भी बुला लिया। दोनों ने खूब बहस की और कोई एक दूसरे को कन्विंस नहीं कर सका। 28 नवंबर की शाम मा.च.प.सं.विवि की एक नौजवान टोली ने धावा बोला। उनके हाथों में कागज़ थे, जिन पर नीली स्याहियों में कुछ-कुछ दर्ज था। वो गुस्सा था - जो मुंबई हादसे के बाद उन्होंने जाहिर किया था। ज्यादातर लोग नेताओं को गोली मार देने के पक्ष में थे। हमने उन्हें भरोसा दिया कि अब आज तो नहीं, लेकिन कल जरूर उन सबके विचार अखबार में छापेंगे।
उस दिन सीधे घर लौटने का प्रोग्राम नहीं था। बीवी बेटी को लेकर न्यू मार्केट में थी। हम वहीं मिले। खरीदारी की। दुकानों में टीवी चैनल्स मुंबई का समाचार दे रहे थे। लोग गाहे-बगाहे, अपनी-अपनी दिलचस्पी के हिसाब से एक-आध बार उधर भी नज़रें दौड़ा लेते थे। इन्हीं लोगों में हम भी शामिल थे। हमने 28 नवंबर की शाम का डिनर बाहर ही किया। घर लौटे। सो गये।
तीसरे दिन सुबह नौ बजे के आसपास जवानों के ऑपरेशंस तो ख़त्म हो चुके थे, लेकिन ताज में सर्च अभियान चल रहा था, जो अगले कुछ घंटों तक चलने वाला था। हम रोज़मर्रा की तरह ही विचलित थे, सहज थे, शांत थे - वो सब थे, जो लगभग रोज़ ही होते हैं - अलग-अलग वक्त पर।
पूरे देश में बहस जारी थी। बीजेपी ने विज्ञापनों से देश के अखबार पाट दिये। आतंकवाद को कुचलना है, तो बीजेपी को वोट दो। बीजेपी की राजनीति देश की आवाज़ नहीं है, फिर भी देश 29 नवंबर को शिवराज पाटिल का इस्तीफा चाह रहा था। हमने 29 नवंबर को गुस्साये नौजवानों का जो स्पीकअप अखबार के पेज पर चस्पां किया - उसमें एक प्रमोद दुबे भी थे। उन्होंने लिखा, ‘मैं प्रमोद दुबे, भारत का एक साधारण नागरिक हूं, जो कहीं पदासीन, प्रतिष्ठित या मनोनीत नहीं है। साधारण हूं, इसलिए भारत की बढ़ती असाधारण समस्याओं के प्रति उदासीन हूं। तो भारत का यह साधारण नागरिक यह स्वीकार करता है कि वह व्यवस्था के साथ म्युचुअल कांस्पिरेसी में शरीक रहा है।’ मुझे लगा कि आज भी हम विचारोत्तेजना की स्टाइलशीट में अख़बार फिट करके घर लौटे हैं।
30 नवंबर। दोपहर से पहले शिवराज पाटिल इस्तीफा दे चुके थे। हमने सुबह टीवी पर खबर नहीं देखी थी - एक फिल्म देखते रह गये थे। इस्तीफे की ख़बर मुझे श्रीकांत सिंह, एचओडी, एमएससी ईएम, मा.च.प.सं.विवि से मिली। हम दोनों विश्वविद्यालय के एमएससी ईएम के फ्रेशर्स डे में मौजूद थे। मेरी बेटी गोद में थी। उन्होंने एक लिफाफे में भरा मौद्रिक आशीर्वाद उसके हाथ में थमाया और मुझसे पूछा - आज इसका जन्मदिन है न। छात्र-छात्राओं ने मेरी बेटी के जन्मदिन पर भव्य आयोजन किया था। केक से लेकर बैलून, चमकी, समोसा, मिठाई तक। हम मियां-बीवी अंदर से भर आये थे। ये भरना आयोजन की भव्यता से गदगद होकर हुआ था।
पिछले तीन दिनों तक मुंबई में जो हुआ - हम एक बार भी नहीं रोये थे। बल्कि कई बार किसी न किसी बात पर ठठा कर हंसे थे।
Sunday, November 30, 2008
नागरिकनामा : न सिहरन, न अपराधबोध!
Posted by Avinash Das at 10:35 AM
Labels: चिंता की लकीरें, विचार ही जगह है
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3 comments:
अविनाश भैया,
सच्चाई लिखने के लिए शुक्रिया। मोहल्ला में श्रुति ने ठीक और सटीक प्रतिक्रिया दी है-
अविनाश जी, मैं जानती हूँ ये सटायर नहीं असलियत है। आज हम सब जो आँसू बहा रहे हैं वह घड़ियाली हैं। जल्द ही सूख जाएँगे उनके निशान भी नजर नहीं आएँगें....।
यह सच है कि लोग खुद में और खुद से ऊपर उठने की जल्दी में इतनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं कि उन्हें दिल से सोचने की जरूरत ही समझ में नहीं आती है। बस ठठाकर हंसने आता है..........
अविनाश जी मैथिली का एक ब्लॉग बनाया है .... देखिएगा। मेरी मैथिली व्याकरणिक दृष्टि से उतनी सटीक तो नहीं लेकिबोलचाल की आम फहम भाषा के नजदीक है। देखिएगा। आपकी टिप्पणी का इंतजार कर रहा हूं।
यहां आकर पता चला कि आपका लेखन इतना ताजा और स्वादिष्ट है। घूम-फिरकर 'मुहल्ला' में ही रहते तो लोग अक्सर देख और समझ पाते।
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