हम लाल बहादुर ओझा के साथ खाने की टेबिल पर थे। बात उन आंदोलनों की हो रही थी, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में ज़ोर-शोर से चलते रहे हैं। मेरी उनकी चिंता ये थी कि इन आंदोलनों की कोई राष्ट्रीय अभिव्यक्ति नहीं है। यानी इन आंदोलनों का कोई राष्ट्रीय प्रभाव नहीं है। जैसे मेधा का नर्मदा आंदोलन और गुजरात में सांप्रदायिकता विरोधी अभियान को देश के हर शहर ने आवाज़ दी। राष्ट्रीय प्रभाव का ये मतलब कतई नहीं होता कि आंदोलन सफल ही हो। गुजरात में मोदी विरोध के बावजूद मोदी मुख्यमंत्री बने और नर्मदा को राष्ट्रीय समर्थन मिलने के बावजूद सरदार सरोवर बन रहा है।
मुद्दे हर सूबे के अलग-अलग हैं, होते है। लेकिन वे दूसरे हिस्सों को भी आंदोलित करते हैं, अगर उसकी सही-सही समझ और ज़रूरत उन हिस्सों में पहुंचती है। राष्ट्रीय प्रभाव यही है। लेकिन बिहार में चल रहे भाकपा माले के किसान-मजदूर आंदोलन को देश सहानुभूति से नहीं देख पा रहा। या फिर आंध्र और छत्तीसगढ़ में चल रहे माओवादी आंदोलन देश को नहीं जोड़ पा रहे। वजह क्या है? गुजरात और नर्मदा की तरह ये बहुप्रशंसित क्यों नहीं हो पा रहे?
लाल बहादुर ओझा से हमारी बात इतने पर ही छूट गयी। लेकिन मुझे लगा कि इस पर सोचना चाहिए, शेयर करना चाहिए। हमारे समाज की छवि पर आज मीडिया और बाज़ार का कब्जा है। बाज़ार की आज जैसी परिकल्पना हमारे समाज में पहले नहीं थी। जाहिर है, इस बाज़ार का विकल्प हमारे आंदोलनों के पास नहीं है। जो विकल्प हैं, वे पुराने तरीकों के हैं और उससे शहरी मध्यवर्ग का सहमत हो पाना संभव नहीं। वैसे हमारे आंदोलन शहरी मध्यवर्ग के लिए हैं भी नहीं।
जेपी का संपूर्ण क्रांति अभियान शहरी मध्यवर्ग के बीच चला। सत्ता बदली लेकिन चूंकि सामाजिक साफ-सफाई नीचे से नहीं चली, इसलिए कूड़ा रह गया। ज्यादा गंध देने लगा तो इस नयी सत्ता को ही लोगों ने खारिज़ कर दिया। उसके बाद पूरे डेढ़ दशक तक कांग्रेस के हाथ में मुल्क रहा और बाद में जब समाजवादियों ने जोड़-तोड़ से सरकार बनायी भी, तो जेपी के अभियान की सुगंध यहां नहीं थी। आज तक मिल-बांट कर कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादियों की सरकारें देश को खा रही हैं।
मायावती का आना भी इसी बंदरबांट के बीच से हुआ। आज बहुत सारे बुद्धिजीवी इस बात से खुश हैं कि सोशल इंजीनियरिंग का नया शास्त्र मायावती ने पेश किया। उसका आना देश में दलित दशा के लिए अच्छा है। लेकिन मेरी चिंता ये है कि मायावती की परिघटना देश में चल रहे उन तमाम आंदोलनों के लिए धक्का है, जो अंतिम आदमी के मुद्दे पकड़ कर चल रहे हैं। सत्ता की बयार बीच-बीच में ऐसे ही देश को धुंध में ले जाती रही रहेगी और वाजिब आंदोलन उस धुंध में धुलते रहेंगे।
क्या करना होगा, यही सवाल है। अरुंधति के नर्मदा से जुड़ने पर सरदार सरोवर के विरोधियों का तर्क और दावा मज़बूत हुआ। राजदीप और बरखा ने गुजरात की क़ातिल मोदी सरकार का सच नंगा कर दिया। लेकिन देश के दूसरे आंदोलनों को अरुंधति, राजदीप और बरखा नहीं मिल पा रहे। इन आंदोलनों को कॉर्पोरेट के बीच सामाजिक प्रतिबद्धता का आग्रह रखने वाली छवियों को जोड़ने के प्रति सचेत होकर काम करना पड़ेगा।
अगर ऐसा करने में कठिनाई है, तो ज़िला स्तर पर अख़बार निकालने होंगे। कार्यकर्ताओं के काम में संपादक के नाम पत्र लिखने का दायित्व ज़रूरी तौर पर जोड़ना होगा। ज्यादा से ज्यादा संपादक नहीं छापेगा, लेकिन सहजता से उन सूचनाओं को निजी स्तर पर स्वीकार तो उन्हें करना ही पड़ेगा। यही स्वीकार एक दिन उन्हें बड़े होते आंदोलन को भी स्वीकारने के लिए बाध्य करेगा।
एक आदोलन की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति भी ऐसे ही संभव मुझे लगती है।
Monday, May 14, 2007
आंचलिक आंदोलनों की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति
Posted by Avinash Das at 10:15 PM
Labels: विचार ही जगह है
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1 comment:
अच्छा है.. ऐसे सहज स्वर से चिंता बड़ी अच्छी लगी.. शिल्प के लिहाज़ से भी.. ज़रा भी कुछ बनावटी नहीं.. विचार बहाव में कहीं अवरोध नहीं आया..
इसको लगातार लिखो..जो भी तुम इसे नाम देते हो..
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