Tuesday, September 4, 2007

दिल्‍ली हाट और मंच पर मोरनी

उस दिन दिल्‍ली हाट में टहलते हुए हमने बेहतरीन शाम बितायी। मन में आया घर पहुंच कर कुछ लिखेंगे। लेकिन घर आकर वे सारे चित्र एक बहुत बुरी और उलझी हुई पेंटिंग में बदल गये। अक्‍सर ये होता है। एक सफ़र और एक शाम में आप दर्जनों ऐसे वाक्‍य सोचते हैं, जो आपको खुद की प्रतिभा के मुकाबले बेमिसाल लगते हैं। आप उन्‍हें कभी लिख नहीं पाते, और इस बात का अफ़सोस आपकी ज़‍िंदगी को बोझिल करता चलता है।

उन लोगों से कितनी ईर्ष्‍या होती है, जिनका लिखना सोचने की रफ्तार से ज़्यादा तेज़ होता है। यहां तो हम कुछ सोचकर कंप्‍यूटर पर बैठते हैं, और शुरुआती वाक्‍य को ही बीसियों बार काटते हैं। यानी शुरुआत मेरे लिए हमेशा एक कठिन काम होता है। अब जैसे दिल्‍ली हाट का मैं कोई संस्‍मरण नहीं लिखना चाहता हूं। लिखना चाहता हूं कि देश की राजधानी में इस जगह के सुकून के पीछे का अर्थशास्‍त्र कितना कामयाब है। देसी धुन, देसी कला और देसी स्‍वाद यहां किस वर्ग के लोगों को अपना उपभोक्‍ता बनाये हुए है। लेकिन चूंकि अर्थशास्‍त्र अपना इलाक़ा नहीं है, इसलिए ऐसी कल्‍पना शब्‍दों की पगडंडी में नहीं ढल पाती।

अक्‍सर हमारे मित्र कृष्‍णदेव और उनकी मित्र आकांक्षा हमें दिल्‍ली हाट बुलाया करते थे। अक्‍सर हम टालते रहते थे कि बेगानों के ऐश्‍वर्य में अपनी कुंठा को रसद-पानी देने क्‍यों जाएं। वे हमें समझाते कि आपके मिज़ाज की हवा यहां बहती है। देश के कोने-कोने से चलकर आवाज़ें और वाद्य यहां पहुंचते हैं। हम अपने मन को समझाते कि गणतंत्र दिवस में नुमाइश लगने वाली देशज संस्‍कृति की परेड से अलग वहां क्‍या मिलेगा। बाक़ी तो आईटीओ पर बीस-पच्‍चीस रुपये में असली देसी माल वाला कैसेट मिल ही जाता है। बिजली रानी से लेकर देसिल बयना का संगीत एक महीना चल कर ख़राब भले हो जाता है- लेकिन इतना तो लगता है कि बौर के मौसम में कान में रेडियो लगा कर आमगाछी की दोपहरी काट रहे हैं।

तो उस दिन साथ-संगत छूटने के लंबे वक्‍त के बाद जब मैं अपने विवादों का पुलिंदा साथ लेकर चलने वाले हमारे दोस्‍त राकेश मंजुल के पास गया, तो तय हुआ, शाम में साथ खाएंगे। मंजुल जी ने कहा, जगह तुम तय करो। मेरे मुंह से निकल गया- दिल्‍ली हाट चलते हैं।

हाथ की कढ़ाई, मिट्टी-लकड़ी की कारीगरी और हमारे गांव की मधुबनी पेंटिंग का मोल जानते हुए हम विंडो शॉपिंग की मनहूसियत से मुख़ातिब थे। राजस्‍थान की प्‍याज कचौड़ी और गुलाब जामुन खाने के बाद यूं टहलते हुए अपनी सेहत के साथ इंसाफ़ होता हुआ लगता है- लेकिन राकेश मंजुल आनंद में डूबे हुए थ्‍ो। वे सरस्‍वती की प्रतिमा से लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों की लकड़ी से बनी एब्‍सर्ड कलाकृति के दाम टटोल रहे थे। सब दस हज़ार से ऊपर का था। हमारे तो हाथ-पांव फूल रहे थे। महीने के आख़‍िर में आने वाली तंगी याद आ रही थी। लेकिन राकेश मंजुल सब ख़रीद लेना चाहते थे।

अचानक लोक संगीत की एक लड़ी मेरे कानों में पड़ी। हमने पीछे पलट कर देखा- छोटा सा स्‍टेज। राजस्‍थानी वेशभूषा में कलाकारों की एक पांत साज़ लेकर बैठी है। एक अधेड़ राजस्‍थानी आदमी और एक ऑस्‍ट्रेलियाई युवक लंबी माइक के सामने खड़ा दो अलग-अलग ज़बान की सांगीतिक जुगलबंदी में उलझा हुआ है। एक छोटा बच्‍चा हथेली भर का ढोल लिये स्‍टेज के वृत्त पर नाच रहा है। हम उधर चले गये। कई दर्जन लोगों की तादाद वहां उनकी महफिल में डूबी हुई बैठी थी।
(अच्‍छा, तो कृष्‍णदेव और आकांक्षा की बतायी यही वो जगह है, जहां अक्‍सर वे अपनी शामें हसीन करते रहे हैं।)
राजस्‍थानी कलाकारों ने एक गीत छेड़ा- मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा। मोरनी के विरह या मोरनी के आगे-पीछे मंडराने की कथा कहता ये गीत राजस्‍थान में मशहूर है और हिंदी फिल्‍म लम्‍हे में भी इसको एक्‍सप्‍लोर किया गया है...
मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...
छनन छन चूड़‍ियां छनक गयी साहिबां...
ख़ास बात ये थी कि राजस्‍थानी कलाकार अपनी बलंद आवाज़ में जब इस गीत की कड़‍ियां जोड़ते तो लगता कि मन की वीरानी में दर्द ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा है। हमारे हृदय कट कर गिर रहे हैं। ठीक यही एहसास होता था, जब वो ऑस्‍ट्रेलियाई युवक अपनी ज़बान में मोरया का दर्द उतारता था...
मोरया, बागा मा डोले आधी रात मा...
दिल्‍ली देश भर के लोगों और कॉरपोरेट बैंकों के कर्ज़ पर ख़रीदी हुई कारों से भरा हुआ महानगर है। यहां ऊंची इमारतें और धुआं बढ़ रहे हैं। ऐसे में दिल्‍ली हाट रेगिस्‍तान के उस चश्‍मे सा नज़र आती है, जो नज़र भर का सुकून आपके ज़ेहन में चमका जाती है। क्‍योंकि ऐसी जगहों पर उम्र बिता देने की ख्‍वाहिशों के साथ आपको अपनी भीड़-भाड़ में लौटना पड़ता है। हम दिल्‍ली हाट से लौट आये हैं। अब कब जाएंगे, पता नहीं। क्‍योंकि हम सबने अपनी-अपनी ख्‍वाहिशों के साथ पांव-पैदल चलना बहुत पहले ही छोड़ दिया है।
आइए देखते हैं, लम्‍हे का वो मशहूर गीत, मोरनी बागा मा डोले आधी रात मा...

7 comments:

Anonymous said...

एक करेक्‍शन है: वो राजस्‍थानी लोकगीत नहीं है, विशुद्ध फिल्‍मी गीत है। राजस्‍थानी लोकगीत की तर्ज ज़रूर है। असल लोकगीत है: मोरया आछो बोल्‍यो रे ढलती रान ने। अल्‍लाहजिलाई बाई के मांद में गाये केसरिया बालम को भी फिल्‍म वालों ने अपनी तरह से बालमा और जाने क्‍या-क्‍या कर दिया था। कोई अल्‍लाहजिलाई बाई का गाना सुन ले तो सातवें आसमान पर पहुंचा महसूस करेंगे। आप कैसेट मुझसे कभी ले सकते हैं। पर विडंबना देखिए कि लोक कलाकारों से भी हाट वाले फिल्‍मी गीत गवा रहे हैं! शायद इसलिए कि लोगों में फिल्‍मी गीत असल से ज़्यादा लोकप्रिय है। तो क्‍या!!

Anonymous said...

ओम थानवी जी, आप सही कह रहे हैं। वहां वे वही गा रहे थे- मोरया आछो बोल्‍यो रे ढलती रान ने। मैं रास्‍ते में ये लाइन भूल गया। दरअसल मैं भी फिल्‍मी गीत के प्रभाव में ही था। मैं सचमुच शर्मिंदा हूं।

Anonymous said...

अल्‍लाहजिलाई बाई का मांड है मांद नहीं।

ढाईआखर said...

अविनाश, यह दिल्ली वालों के लिए हाट है। ... इसके बावजूद आप यहां अक्सर अच्छी और सस्ती चीज़ें पा सकते हैं। हां, आपकी मिथिला पेंटिंग ने बाज़ार को बखूबी पहचाना है और वह आम आदमी की पहुँच से दूर हो गयी है।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

chaliye aap aur Om thanwi ji ke karan main bhi es lokgeet ko jaan paya..
sukriya

Anonymous said...

काफी अच्छा लिख रहे है ..जैसा कि आपने भी लिखा है "बेगानों के ऐश्‍वर्य में अपनी कुंठा को रसद-पानी देने क्‍यों जाएं।

खैर ..आपने काफी अच्छ लिखा है ....
और हां आपका हमारे ब्लोग पे स्वागत है ,।

PD said...

मैं बस एक बात कहना चाहूंगा भैया.. जब कभी भी हमारी मुलाकात दिल्ली में हो, आप बस मुझे भी उस हाट की सैर करा रहें हैं..