Tuesday, August 19, 2008

अब मैं यहीं ठीक हूं

एक गांव था जो कभी वही एक जगह थी जहां हम पहुंचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे ज़‍िंदगी के आख़‍िरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्‍शा भी था जहां खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्‍मृतियां हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट खट खट एक लय में गुंथी हुई ध्‍वनि
अक्‍सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट खट अभी भी सीढ़‍ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है

वही एक जगह थी, जहां जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीखते हुए आम के बगीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बगीचा ख़त्‍म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आती
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये

थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गांव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्‍तेदारियों का जंगल खड़ा किया
साचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्‍त है ये दुश्‍मन ये ऐसा है जिससे कोई रिश्‍ता नहीं
सोचते हुए ही हमने भुला दिये गांव के सारे के सारे चेहरे

एक दिन गूगल टॉक पर ललित मनोहर दास का आमंत्रण देख कर चौंके
ऐसे नाम तो हमारे गांव में हुआ करते थे
जैसे हमारे पिता का नाम लक्ष्‍मीकांत दास और उनके चचेरे भाई का नाम उदयकांत दास है
स्‍वीकार के बाद का पहला संदेश एक आत्‍मीय संबोधन था

मुन्‍ना चा

हैरानी इस बात की है कि इस संबोधन का मुझ पर कोई असर नहीं था
इस बात की जानकारी और ज़‍िक्र के बावजूद कि संबोधन का स्रोत दरअसल गांव ही है
वो एक लड़का जो मेरी ही तरह गांव से निकल कर अब भी गांव लौटने की बात सोच रहा है

लेकिन अब मैं सोच रहा हूं एक दूसरे घर के बारे में
जो बुंदेलखंड या पहाड़ के किसी खाली कस्‍बे में मुझे मिल जाता
मंगल पर पानी की तस्‍वीरों के बाद
एक वेबसाइट पर मामूली रकम पर
अंतरिक्ष में ज़मीन खरीदने की इच्‍छा भी जाग रही है

अपनों के बगैर की गयी यात्रा में बहुत दूर तक साथ रहीं स्‍मृतियां
जिसमें चेहरे थे और थे कुछ संबोधन
सब छूट गया सब मिट गया अब सिर्फ़ मैं हूं
मेरी उंगलियां कंप्‍यूटर पर चलती हैं आंखें स्‍क्रीन पर जमती हैं
कोई दे जाता है चाय की एक प्‍याली बगल में

मै कृतज्ञ हूं अपने वर्तमान का
पुरानी तस्‍वीरों से भरा अलबम पिछली बार शहर बदलते हुए कहीं खो गया!

4 comments:

तरूश्री शर्मा said...

अविनाश, जिस तरह दुनिया से परेशान होने पर मां की गोद या हमारे कंधे पर पिता की हिम्मत बंधाती थपकी याद आती है, ठीक उसी तरह शहर की भागमभाग और ठेलती रेंगती जिंदगियों से ऊब होने पर अपने शहर या गांव की सुकून भरी छांव याद आती है... लेकिन ये अहसास अब क्षणिक होकर रह गए हैं, थोड़ी देर बाद जब मोबाइल की घंटी विचारों को तोड़ती है और सामने से आती आवाज फिर वर्तमान के माहौल में खींच लेती है तो सिर झटक कर खड़े हो जाते हैं हम, ये कहते हुए कि...धत् मैं क्या सोचने लगा था, चल बेटा फलां अपॉइंटमेंट का क्या हुआ?

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण-कितनों की कहानी कहती!!

L.Goswami said...

कितना भावपूर्ण है आपका लेखन.बधाई

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

हम कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं.......जाने कितने सवाल मन में धमाल मचा रहे हैं........हम दूर निकल गए हैं जैसे............

आज गाँव की याद आ रही है........
माँ- बाबूजी की....
बस यही है आपकी कविता की खासियत...........बस