अभी दिल्ली में हैं। बोरिया-बिस्तर समेटने में लगे हैं। पिछले 12 सालों में पटना के अलावा दिल्ली दूसरा ठौर रहा, जहां लगातार तीन साल कट गये। सामान सहेजते हुए मुक्ता कई सारे काग़ज़ हाथ में थमाती रहती है। पुराने काग़ज़ों का पुलिंदा आपकी कई यात्राओं तक साथ रहता है - जब तक उन काग़ज़ों का मर्म आपका पीछा करता रहता है। हर बार सामान समेटते हुए आप ऐसे काग़ज़ों में से खुद चुनते हैं कि अगले मोड़ तक इनमें कौन अब साथ रहेगा, और कौन-से काग़ज़ अब टुकड़ों में बदल देना है। किन यादों की अब आपको ज़रूरत नहीं। इन्हीं में से मज़्कूर आलम की एक कविता मिली। मज़्कूर मेरे साथ देवघर में काम करते थे। प्रभात ख़बर का देवघर संस्करण पत्रकारिता का उनका शुरुआती सफ़र रहा। इसके बाद वे नवबिहार, हिंदुस्तान दैनिक, आईनेक्स्ट से जुड़ते रहे और अलग होते रहे। फिलहाल लंबे समय से द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण में हैं। उनकी ये कविता मैं भोपाल नहीं ले जा रहा। सादा काग़ज़ पर पूरी कविता टाइप्ड है - श्रीलिपि फॉन्ट में। हाथ से ऊपर लिखा है, बड़े भाई अविनाश को। काग़ज़ के पीछे भी हाथ की लिखाई है, माफ करेंगे, तुमसे अपनापन का बोध होता है न, लेकिन कह नहीं सकता; इसलिए लिख रहा हूं। कविता का शीर्षक है - कामरेड! तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़...
पुते हुए चेहरों मेंये कविता मज़्कूर ने जब बस्ते में रखी होगी, तब मुझे शायद पता नहीं होगा। वो भावुक लड़का है और मैं उसका लिखा नहीं पढ़ता। खास कर व्यक्तिगत रूप से लिखी उसकी पातियां। क्योंकि संवेदना के किसी पचड़े में पड़ कर मैं खुद को दुखी नहीं करना चाहता। अब सुखी रहना चाहता हूं। लेकिन सफ़र की तैयारी में मिलने वाले पुराने काग़ज़ पुराना दुख दोहरा देते हैं। मज़्कूर ये कविता मैंने आज पहली बार पढ़ी।
बिस्तर की सलवटों को
कैमरा से खींचते या दिखाते,
गर्मागर्म ख़बरों को परोसते
व्यूवर्स बटोरते
मेरा भारत महान, वंदे मातरम् का नारा लगाते
तुम भी तो डायना की जान के ग्राहक तो नहीं बन जाओगे?
तुम्हारी रातें गर्म और उमस भरी तो नहीं हो जाएंगी
जो करवटों में बीतेंगी?
गेट्स व अंबानी की मटकती चालों पर
फिदा तो नहीं हो जाओगे?
सभ्यता व संस्कृति की संचार क्रांति पर सवार तो नहीं हो जाओगे?
भूख, अकाल और विस्थापितों पर
क्या तब भी पैन होती रहेंगी तुम्हारी निगाहें?
बाढ़ के शब्दचित्रों को ढाल सकोगे रूपक में?
कहीं तुम भी बाज़ीगर तो नहीं बन जाओगे
आंखों के इशारे से सत्ता पलटने वाले मर्डोक की तरह?
कहीं ऐसा न हो
व्यवस्था परिवर्तन को लात मारकर भेज दो परिधि पर
और छोड़ दो उसे अंतरिक्ष में ज़मीन का चक्कर लगाने के लिए
कि वह ख़्वाब ज़िंदा भी रहे
और उस पर गुरुत्वाकर्षण बल भी न लगे
पर सुविधा परिवर्तन होता रहे,
बाज़ार के खनकते व खनखनाते कोलाहल में
जहां बिकने को बहुत कुछ है
और बहुत भारी है ख़रीदारों की जेब
वहां बिकने वाली ख़बरों के बीच
बचा सकोगे अपने आप को?
कामरेड
तुम सुन रहे हो न मेरी आवाज़?
तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?
15 comments:
मज़्कूर जी ने सच ही बयान किया है ..
जो पुर्जे के ना रहने पर भी साथ चलेगा ...
- लावण्या
बहुत ही अच्छी कविता। इसे प्रकाशित कर आपने पाठकों पर उपकार किया। भूमिका भी बहुत अच्छी लिखी है।
Bahut khub.
यह कविता हफ़्ते, महीने या साल में एक बार नियमित रूप से पढ़नी चाहिए। अपने हर जन्मदिन में कमरा अंदर से बंद कर पढ़ना कैसा रहेगा?
- आनंद
भूख, अकाल और विस्थापितों पर
क्या तब भी पैन होती रहेंगी तुम्हारी निगाहें?
बाढ़ के शब्दचित्रों को ढाल सकोगे रूपक में?
कहीं तुम भी बाज़ीगर तो नहीं बन जाओगे
आंखों के इशारे से सत्ता पलटने वाले मर्डोक की तरह?
kya baat hai...bahut mahatvpoorn kavita hai ek dastawej ki tarah.
jahan tak main jis avinash ko janta hoon sukhi he hai,kyounki us avinash ki lekhni main samwednaaur samvednseelta he hai.
doobara padha, tab samjha. jharkhand ke tasveer aankhon ke shamne naach gaye. vastav me mazkoor ne adbhut likha hai.
कविता पढ़ी , शुरुआती औत्सुक्य जन्य उत्साह अन्तिम पंक्तियों तक आते दम तोड़ गया. कवि का शुरुआती आक्रामक लहजा आगे जाकर मात्र छिछले पांडित्य प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नही रह गया. अनावश्यक स्थलों पर परिधि से गणित और गुरुत्वाकर्ष्ण से विज्ञानं तथा अंतरिक्ष से ये आपने खगोल ज्ञान दिखने का असफल प्रयास कर रहें हैं . एक शिशु कवि के लिए अपने पुष्पन पल्लवन के काल में पका दिखने का यह प्रयास दुखद है. डायना की जान का ग्राहक और मेरा भारत महान की तुकबंदी बहुत बेमेल है जिससे कुछ भी भाव स्पस्ट नहीं हो पा रहा है.
गेट्स और अम्बानी की चाल के लिए मटकती विशेषण का प्रयोग ज्ञान की कमी और छपने की हडबडाहट को दिखाता है . कहीं कहीं तो केवल प्रयोग के लिए प्रयोग कर दिया है इस प्रयासरत कवि ने . जैसे ये बाढ़ के शब्द चित्रों को रूपक में ढालना चाहते हैं या केवल इन दो शब्दों को अपनी कविता में डालने का मोह संवरण नही कर पाए हैं . कोलाहल के लिए खनकने का प्रयोग भी इसी श्रेणी में आता है. सुझाव यह है की किसी वाद विशेष से प्रेरित हुए बिना कुछ काल के व्यापक अध्ययन के बाद अगर आप लिखे तो आपके लिए अच्छा होगा. और यदि आपने संपर्को के मध्यम से कहीं भी छप जाना है तो और बात है . तब मैं उसमे कुछ नहीं कहूँगा .नो कमेंट्स
निमेष शुक्ला
उप संपादक द सन्डे इंडियन
दिल्ली
कविता पढ़ी , शुरुआती औत्सुक्य जन्य उत्साह अन्तिम पंक्तियों तक आते दम तोड़ गया. कवि का शुरुआती आक्रामक लहजा आगे जाकर मात्र छिछले पांडित्य प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नही रह गया. अनावश्यक स्थलों पर परिधि से गणित और गुरुत्वाकर्ष्ण से विज्ञानं तथा अंतरिक्ष से ये आपने खगोल ज्ञान दिखने का असफल प्रयास कर रहें हैं . एक शिशु कवि के लिए अपने पुष्पन पल्लवन के काल में पका दिखने का यह प्रयास दुखद है. डायना की जान का ग्राहक और मेरा भारत महान की तुकबंदी बहुत बेमेल है जिससे कुछ भी भाव स्पस्ट नहीं हो पा रहा है.
गेट्स और अम्बानी की चाल के लिए मटकती विशेषण का प्रयोग ज्ञान की कमी और छपने की हडबडाहट को दिखाता है . कहीं कहीं तो केवल प्रयोग के लिए प्रयोग कर दिया है इस प्रयासरत कवि ने . जैसे ये बाढ़ के शब्द चित्रों को रूपक में ढालना चाहते हैं या केवल इन दो शब्दों को अपनी कविता में डालने का मोह संवरण नही कर पाए हैं . कोलाहल के लिए खनकने का प्रयोग भी इसी श्रेणी में आता है. सुझाव यह है की किसी वाद विशेष से प्रेरित हुए बिना कुछ काल के व्यापक अध्ययन के बाद अगर आप लिखे तो आपके लिए अच्छा होगा. और यदि आपने संपर्को के मध्यम से कहीं भी छप जाना है तो और बात है . तब मैं उसमे कुछ नहीं कहूँगा .नो कमेंट्स
निमेष शुक्ला
उप संपादक द सन्डे इंडियन
दिल्ली
This is "ADBHUT".Main Mazkoor ko bahut achhi tarah jaanti hoon par uska ye roop aur tevar pehli baar dekha.iske liye thanks goes to avinash ji.
Manjari Srivastava.
mazkoor bhaiya, kya aap sun rahey hai apni aawaz. avinash ji ka to pata nahi, lekin main itna zarur chahta hoon ki aap apni awaz khud suntey rahey. kunki yehi to aadmi honey ki sart hai. haa, iskey liye aapko kafi ool-julool baten bhi suney ko mil sakti hai, lekin ussey ghabrana nahi chahiyey. agar aap sach-much keval chapney ke liye aisa nahi kar rahe hai to bilkul bhi nirash honey ki jarurat nahi hai. waisey main aapke saath kam karke itna to janta hi hoon ki aap aisee kavitayen keval chapney ke liye nahi likha kartye hai. pata nahi aap ke saath jo kaam kartey hai wo aapko ab tak kaisey nahi pahchan paaye hai. Aap badal gaya hai kya mazkoor Bhaiya? Aap to aisey na the.
bahut achi kavita hai.keep it up.hope u will come up with new ideas again.waiting for your next write up.all the best.
prakriti
बढि़या
आरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा... -महेश
sundar kavita hai.
कविता बढिया है मज्कूर भाई को निरंतर और भी लिखते रहना चाहिए
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