Sunday, September 30, 2007

हमने कुमार गंधर्व को देखा है

हम दरभंगा के आवारा छोरे देवास और मालवा की आवोहवा समेटे कुमार गंधर्व की आवाज़ के दीवाने क्‍यों हुए? वो जो वक्‍त था, जब हम बड़े होना नहीं चाहते थे, उस वक्‍त का डिस्‍को सांग - आइ एम अ डिस्‍को डांसर - गाते थे और ख्‍वाहिश करते थे कि जैसे फिल्‍म में मिथुन चक्रवर्ती जादूगर की तरह पैर को थिरकाता है, हम भी थिरकाएं। हमारे मकान मालकिन की खूबसूरत हमउम्र बेटी को तबला मास्‍टर कुछ सिखाने आते थे। शायद संगीत के सुर। हमने उन्‍हें लकड़ी की चौकी पर हाथ से ठुमका बजा कर दिखाया। कहा- मैं भी बजा सकता हूं। मुझे तबला सिखाइए। हमेशा खामोश रहने वाले और गुनगुनाहट से आगे संगीत को त्‍यौरियां चढ़ा कर देखने वाले बाबूजी से तबला मास्‍टर ने कह दिया। कहा होगा यही कि आपके बेटे में हुनर है, लेकिन बाबूजी को लगा कि तबला मास्‍टर उनके बेटे को नचनिया-गवैया बनाने के फेर में है। मैंने सुना नहीं, बाबूजी उनसे क्‍या कह रहे हैं। लेकिन उसके बाद से तबला मास्‍टर जब भी मुझसे टकराते, निरीह नज़रों से देख कर गुज़र जाते थे।

मैं तबला नहीं सीख सका। मेरे छोटे चाचा, जिनका बेतिया में अपना कारोबार है, गाने के बेहद शौकीन। वे ग़ुलाम अली को गाते थे, रफी के क्‍लासिकल को हूबहू मिला देते थे, अभाव में भी अच्‍छी कमीज़ पहनते थे, घुंघराले बालों को मज़े की कारीगरी के साथ धूल-गर्दों से बचा कर रखते थे, मेरे आदर्श थे। ग़ुलाम अली का गाया, बरसन लागी सावन बुंदिया राजा, तोरे बिना लागे ना मोरा जिया हमारी बहनें उन्‍हें बैठा कर, घेर कर सुनती थीं। इंटर के दौरान मेरी छोटी-छोटी इश्‍कबाज़‍ियों से आजिज आकर बाबूजी ने एक बार मु‍झे बेतिया भेज दिया, तो वहां से मैं चाचा का हारमोनियम उठा लाया। दरभंगा रेडियो स्‍टेशन के नेत्रहीन कलाकार - जिनकी शाम शराबनोशी में बुरी तरह बीतती थी - उन्‍होंने मुझसे वादा किया था कि वे मुझे हारमोनियम पर उंगली घुमाना सिखाएंगे। लेकिन हर शाम की उनकी अदाएं देख कर मेरा उत्‍साह जवाब दे गया। एक ही स्‍वर लहरी मैंने सीखी और अकेले में अक्‍सर वही रियाज़ आज तक करने की कोशिश करता हूं - सा सा सा सा निधा निधा पमप ग ग पमप गारे गारे निधस।

इन सबके बीच कुमार साहब कहीं नहीं थे। वे कब हमारी ज़‍िंदगी में आकर हमें संगीत का गहरा अर्थ समझा गये, मालूम नहीं।

शायद एक वक्‍त कबीर की धुन सवार हुई थी। जिन जिन ने कबीर को गाया, हमने सुना। खोज-खोज कर। दरभंगा से पटना तक, जितना मिला। ब व कारंत साहब सन 2000 के आसपास पटना आये थे। खुदा बख्‍श लाइब्रेरी में उन्‍होंने खुद कुछ नाट्य गीतों की प्रस्‍तुति की थी। एक गीत था- सजना अमरपुरी ले चलो। अमरपुरी की सांकर गलियां अटपट है चलना। सजना अमरपुरी ले चलो। कुछ ऐसा वीतरागी भाव, जिसमें खनक भी थी, हमारी स्‍मृतियों का सबसे जीवंत हिस्‍सा बन गया। लेकिन कुमार साहब की कबीरवाणी तो रोएं खड़े कर देती हैं।

मध्‍यवर्गीय और उससे भी कम आय वाले संगीतपसंद लोगों के लिए कम उपलब्‍ध कुमार गंधर्व का हम जैसों की ज़‍िंदगी में होना ही ख़ास मायने रखता है। लेकिन इन मायनों के बीच अक्‍सर ये गुम हो जाता है कि अच्‍छी और शास्‍त्रीय आवाज़ों का जुगाड़ कैसे लगा, कब लगा। दो अदद कैसेटों और कलावार्ता के कुछ पुराने अंकों की खाकछानी में कुमार साहब को लेकर पैदा हुई दीवानगी को कितना उत्‍साह मिला होगा, जब यू ट्यूब पर उनके एक वर्षागीत का वीडियो मिल गया होगा, ज़रा सोचिए।

फिराक साहब की गज़ल का एक टुकड़ा आप भी जानते होंगे- अब अक्‍सर चुप चुप से रहे हैं, यूं ही कभू लब खोले हैं/ पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं। लेकिन तकनीक के इस तेज़रफ्तार वक्‍त में हम अतीत के बोलते हुए दृश्‍यों को भी आज समेट सकते हैं...

...जैसे हमने कुमार साहब की इस छवि को यहां समेटा है।

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर.

पढ़कर और फिर सुनकर बहुत आनन्द आया.

आभार.

Yunus Khan said...

अदभुत अविनाश जी ।
क्‍या भीनी भीनी यादें हैं । डिस्‍को डान्‍सर से होते हुए गुलाम अली की आवाज़ और फिर कुमार गंधर्व से होते हुए अमरपुरी ले चलो हो सजना । बरसन लागी बुंदिया मेरे निजी संग्रह में आज भी है । और हां अमरपुरी वाला ये भजन पंडित छन्‍नूलाल मिश्र ने गाया है । ये भी मेरे संग्रह का प्राउड पार्ट है । आप कहें तो मेल पर भेज दूं । हमने भी जिंदगी में कई बार चाहा कि संगीत सीख लें । पता नहीं क्‍यूं दिल बार बार आज भी उछलता है कि गिब्‍सन का गिटार खरीद लिया जाये और शाम को किसी मास्‍टर जी की शरण में जाकर सीख लिया जाए । लेकिन संगीत सीखना शायद हमारे हिस्‍से में नहीं । हां कानसेन ज़रूर बन गये हैं और पूरे जुनून के साथ बने हैं । आपकी यादों के इस कोने पर कुछ और टॉर्च दिखाईये ।

Anonymous said...

यूनुस भाई, हम तो आपके मुरीद है। आभारी रहूंगा, अगर संगीत के अपने खज़ाने में से कुछ कुछ मेरी झोली में भी डालते रहेंगे।

PD said...

वाह भैया.. आपके हर एक पोस्ट में घर के लोगों की याद के साथ एक अच्छी और रोचक कहानी, जो आपके जीवन से जुड़ा है, पढने को मिल जाता है..
आपने जैसे चाचाजी के बारे में बताया है, उससे मुझे उनकी वो तस्वीर याद आ गयी जिसमें वो बिलकुल हीरो टाईप दिखते थे... :D
बहुत बढिया.. वैसे आपने कभी बताया नहीं की आपको तबला सिखने का भी शौक था?? खैर अब पता चल गया.. :)

Dipti said...

आपका ये स्मरण पढ़कर कुछ याद आ गया। मेरा जन्म देवास में हुआ है। मैं कुमार गंधर्वजी के घर कई बार गयी हूं। सच कहूं तो जबरन में ले जायी गई हूं। पापा जब भी जाते मुझे ले जाते। छुट्टी के दिन सुबह उठना नहाना फिर जाना। बहुत बुरा लगता था। कई बार मैं छुप जाती थी,पापा फिर भी ले जाते थे। तब नहीं पता था हम कितने गुणी इंसान से मिलने जा रहे है। मैं और भईया उनके गार्डन में खेलते रहते थे। हमारे लिए वो सिर्फ पापा के सर थे,जो गाना गाते थे। आज लगा कि बहुत कुछ खो दिया हैं।

दीप्ति।