Sunday, October 28, 2007

वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया

उसका नाम कुछ भी नहीं था। बस एक एहसास ही था उसके आसपास से गुज़रना, बोलने-बतियाने का ज़रा-ज़रा सा बहाना ढूंढ़ना। वो पहली दीवानगी थी, जो अपमान और शर्म की थोड़ी-थोड़ी रेत मुट्ठी में थमाती रही। कभी कहती- आओ, कभी कहती- मत आना कभी। हम थे कि वक्‍त से पहले पहुंच जाते और ख़ाली क्‍लास रूम के बीचोबीच बेंच पर बैठ कर बाट जोहते।

वो हमेशा आती। सहेलियों को समेटे। चप्‍पल और जूतों की टकराहटों में चुप आंखों के साथ। हमने कई बार सादे काग़ज़ पर रंगीन क़लम से मोहब्‍बत का इज़हारनामा लिख कर भेजा। उसने हर बार तोड़ मोड़ कर हमारे बस्‍ते में वापिस कर दिया। ये लंबा सिलसिला था, जो सब जान गये। छोटी कक्षा के बच्‍चे तक। आख़‍िरी इम्‍तहान तक वो चुप रही और मैं इकतरफा शोर मचाता रहा।

हम बाद में एकाध बार मिले। मिले नहीं, बस आमने सामने हुए। उसकी कालोनी के चक्‍कर काटते हुए कई दोपहरें ख़त्‍म हुईं, उसने कुछ नहीं कहा। औरतों के दिल होते होंगे, उसके नहीं थे। होता, तो पसीजता और अपनी कालोनी के उस टीले पर उसे ले आता, जो दोपहर में गर्म हो जाता था और वहीं बैठ कर हम उसके पीले मकान की तरफ देखते रहते थे। वो जानती थी, पर कभी नहीं झांकती थी।

अब वो दिल्‍ली के किसी हिस्‍से में रहती है। स्‍वामी-बच्‍चों का सुखी परिवार है। स्‍कूल में साथ पढ़ने वाली एक दोस्‍त ने बताया था। कोई पांच-छह साल पहले। अचानक हुई एक मुलाक़ात में। ये कहा कि बीच-बीच में फोन आता है। एक बार तुम्‍हारा भी ज़‍िक्र आया था। पर वो ज़‍िक्र ऐसा ही था- कितना पागल था रे।

सचमुच पागल था। दसवीं के एक साल में एक भी दिन नागा नहीं। हर दिन नहा कर जाना। बस्‍ते में किताबों के बीच कंघी रखना। बीच क्‍लास में सबकी नज़र बचाकर बाल संवार लेना। दोस्‍तों के तानों को दिल पे लेना और भिड़ जाना। सब पागलपन ही तो था!

अब भी रांची जाता हूं, तो उस मोड़ पर चेहरा घूम जाता है, जहां उसकी कालोनी थी। स्‍कूल की गली से यूं ही गुज़रता हूं, तो दीवारों पर नज़र जाती है। बाद के बच्‍चों ने खुरच डाला है- ए+एस। बदमाश कहीं के। जो जोड़ी बनी नहीं, उसे यहां दीवार पर उकेर दिया। स्‍कूल भी दलिद्दर। दीवार वैसी की वैसी है। शर्मा सर की भी नजर पड़ती होगी और दास मैडम, तोमर मैडम भी देखती होंगी। जाने क्‍या सोचते होंगे सब।

मैं तो अब सोच भी नहीं पाता। नाम पहले भी नहीं था। अब चेहरा भी धुंधला पड़ता जा रहा है। बरसों बाद एक गीत ने आंखों के सामने वे दिन लाकर खड़े कर दिये... गुंचा कोई मेरे नाम कर दिया, साक़ी ने फिर से मेरा जाम भर दिया... वो जो हमसे कह न सके दिल ने कह दिया... आइए सुनें...

10 comments:

Ashish Maharishi said...

are bhai....loun hain vo??

Ashok Pande said...

भाई अविनाश, नोस्टाल्जिया तो नोस्टाल्जिया है। आप का दर्दनामा (?) पढ़ के कुछ बहुत सारा एक साथ आगे आ गया। अच्छा है "... कैसे ज़माने ए गम-ए- जानां तेरे बहाने याद आए"।

पारुल "पुखराज" said...

अविनाश जी……एक गज़ल याद आ गयी……

दिल ही दिल मे सुलग के बुझे हम
और सहे गम दूर ही दूर,
तुमसे कौन सी आस बन्धी थी
तुमसे रहे हम दूर ही दूर

अनुनाद सिंह said...

बहुत बढ़िया शीर्षक है; पर समझ में नहीं आया। पहली बार ऐसा कथ्य देखने-सुनने को मिला है! बधाई!!

(ये तो सुना था कि जो कह न सके वह आँखों ने कह दिया हो, या हाव भाव ने कह दिया हो)

Udan Tashtari said...

अरे वाह, बड़ा जिन्दा दर्दनामा है. बिल्कुल अपनी सी कहानी लगी. यह दीगर बात है कि हम ११वीं क्लास में गये बिना नागा, रोज नहाकर. :)

-बेहतरीन भाई!! और सुनाओ आगे का किस्सा.

बोधिसत्व said...

आपका दर्द मेरे दर्द सा क्यों है.....
अच्छा है भाई

ghughutibasuti said...

बहुत ही सुन्दर व यथार्थ भाव दिखाता लेख है । किशोरावस्था की बातें, जब व्यक्ति कुछ अधिक ही भावुक व सूक्ष्मग्राही होता है । संयोग से मैं कल ही अपने स्कूल के एक मित्र से उसकी भी एक ऐसी ही सहेली की बात कर रही थी । वह भी कक्षा में आकर बैठ जाता था परन्तु हमारी वह सहेली भी लगभग तभी आ जाती थी ।
घुघूती बासूती

अफ़लातून said...

અતિ સુન્દર

Anonymous said...

प्रेम एक पुरानी कहानी है जो हर बार नई होकर हमारे सामने आती है . शाश्वत कथा का व्यक्तिगत-स्थानीयकृत संस्करण बहुत संजीदगी से महसूसा-लिखा गया है . और लिखें .

Gajraj Rao said...

bade zalim kism ke insaan ho yaar tum,maan ke chal raha tha ki sab bhul-bhula chuka hoon,lekin tumne alag-alag duration ke 3-4 zakhm hare kar diye....ufff... Gajraj...