2001 की जनवरी। महाकुंभ के मेले की दोपहर। क़दमतालों से उड़ते ग़र्दो-गुबार में झोला लटकाये हम घूमते थे। शाम हो जाती थी और रात में कल्पवासियों के छोटे-छोटे तंबू के आगे लकड़ियां जलने लगती थीं। उनके ताप को घेरे हुए लोगों के साथ थोड़ी देर बैठ कर हम गौरिया मठ में लौट आते थे, जहां एक दिन रात गुज़ारने के लिए मिली थोड़ी सी फ़र्श के एवज़ में डेढ़ सौ रुपये अदा करना होता था। ये सिलसिला हफ्ता भर चला। प्रयाग से थोड़ी ऊब होने लगी, तो हम इलाहाबाद में ठौर खोजने लगे। टेलीफोन डायरेक्टरी में यश मालवीय का नंबर खोजा, जिनसे एकाध इधर-उधर की मुलाक़ात थी। बेगूसराय में बरौनी रिफाइनरी के कवि सम्मेलन में हमने साथ-साथ गीत पढ़े थे।
यश मालवीय का घर एक मंदिर था। यश भाई हमें शाम को महादेवी जी के घर ले गये। जिस कमरे में वो रहती थीं, वहां अभी भी उनका बिस्तर, उनकी मेज़ मौजूद है। दूसरी सुबह यश भाई की पत्नी, जिनका रिश्ता महादेवी जी के परिवार से है- उन्होंने हमें सोहर सुनाया- छापक पेड़ छिहुलिया... रामकथा में धोखा और पीड़ा का राग इस सोहर में इस क़दर बसा है कि आपकी आंखों में पानी आ जाए।
इससे पहले पटना में रवींद्र भारती के नाटक फूकन का सुथन्ना में ये सोहर सुना। प्रभात ख़बर में हमारे सीनियर मिथिलेश जी अक्सर ये सोहर गाकर सुनाते थे, जब हम अख़बार की व्यवस्थापकीय दुरावस्था पर ग़मज़दा होकर थोड़ी-थोड़ी पी लेते थे। अभी ठुमरी में एक दिन देखा- बिमल भाई ने इस सोहर का ज़िक्र किया है।
छापक पेड़ छिहुलिया में दर्द की कहानी है। हिरनी का मनुहार है। मेरे हिरन का मृगछाला लौटा दो। लेकिन दशरथ राम के लिए उसकी डफली बनवा रहे हैं, और हिरनी तड़प कर कह रही है- नहीं, ऐसा न करो। उस पर पड़ने वाली थाप की आवाज़ मेरे कानों में पड़ेगी, तो सह न पाऊंगी, हृदय कट जाएगा। मैंने बिमल भाई से अनुरोध किया है कि वे इस गीत को कहीं से उपलब्ध करें और ठुमरी पर इसे सुनाएं। उन्होंने वादा भी किया है।
इधर अंतर्जाल के एक बेचैन से सफ़र में हमें छन्नूलाल मिश्रा का गाया एक सोहर मिल गया। ऐसा क्यों है कि सोहर के सुर में वेदना का राग है? बधैया के बीच में ही तो सोहर गाया जाता रहा है- या फिर मेरी समझ का फेर है! अयोध्या में बाजत बधैया हो रामा, रामजी जनम लेल में एक उल्लास है, लेकिन सोहर के किसी भी टेक्स्ट में वेदना ही वेदना है।
आपको सुनाता हूं, छन्नूलाल मिश्रा का गाया वो सोहर - मोरे पिछवरवा चंदन गाछे हो sss
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